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🍁ज़रूरी नहीं प्यार पूरा हो, प्यार तो सिर्फ़ "मीरा "सा होजिसमें मिलन की नहीं सिर्फ़ दीदार की चाहत हो💐कृष्ण नाम की रज में डूब गई और उसी रज से अपने शरीर का श्रृंगार कर लियाऐसी महान देवी को बारंबार प्रणाम जगत में राधा-कृष्ण को अमर रहने दो,मैं मीरा हूं मुझे मीरा ही रहने दो।ना है कोई बंधन ना है कोई मोह-माया,मेरे हृदय में तो सिर्फ़ प्रेम ही प्रेम है छाया।ना प्रेमिका ना पत्नी बनने की चाहत है,मुझे कृष्ण की दासी बनने में ही राहत है।माना राधा-कृष्ण के प्रेम की कोई तुलना मोल नहीं,पर मेरा ये निश्चल, पवित्र प्रेम भी किसी से कम नहीं।राधा तो कृष्ण के दिल की रानी है, मैं तो सिर्फ़ जोगन हूं,राधा तो कृष्ण की तरह पूजनीय है, मैं तो उनकी पुजारण हूं।#बाल #वनिता #महिला #वृद्ध #आश्रम की #अध्यक्ष #श्रीमती #वनिता_कासनियां #पंजाब #द्वारा #संगरिया #राजस्थानमुझे यूं ही प्रीत में पागल हो जाने दो,मैं मीरा हूं मुझे मीरा ही रहने दो 🌺राधे राधे🌺

🍁ज़रूरी नहीं प्यार पूरा हो, प्यार तो सिर्फ़ "मीरा "सा हो जिसमें मिलन की नहीं सिर्फ़ दीदार की चाहत हो💐 कृष्ण नाम की रज में डूब गई और उसी रज से अपने शरीर का श्रृंगार कर लिया ऐसी महान देवी को बारंबार प्रणाम  जगत में राधा-कृष्ण को अमर रहने दो, मैं मीरा हूं मुझे मीरा ही रहने दो। ना है कोई बंधन ना है कोई मोह-माया, मेरे हृदय में तो सिर्फ़ प्रेम ही प्रेम है छाया। ना प्रेमिका ना पत्नी बनने की चाहत है, मुझे कृष्ण की दासी बनने में ही राहत है। माना राधा-कृष्ण के प्रेम की कोई तुलना मोल नहीं, पर मेरा ये निश्चल, पवित्र प्रेम भी किसी से कम नहीं। राधा तो कृष्ण के दिल की रानी है, मैं तो सिर्फ़ जोगन हूं, राधा तो कृष्ण की तरह पूजनीय है, मैं तो उनकी पुजारण हूं। #बाल #वनिता #महिला #वृद्ध #आश्रम की #अध्यक्ष #श्रीमती #वनिता_कासनियां #पंजाब #द्वारा #संगरिया #राजस्थान मुझे यूं ही प्रीत में पागल हो जाने दो, मैं मीरा हूं मुझे मीरा ही रहने दो     🌺राधे राधे🌺

भगवान के श्रीविग्रह में इतना प्रकाश क्यों होता है ?#बाल #वनिता #महिला #वृद्ध #आश्रम की #अध्यक्ष #श्रीमती #वनिता_कासनियां #पंजाब द्वारा #संगरिया #राजस्थान#भगवान का श्रीविग्रह (श्रीअंग) स्वयं प्रकाशमय है । उनके श्रीअंग में करोड़ों सूर्यों से भी अधिक प्रकाश होता है; इसीलिए भगवान के लिए कहा गया है-'कोटि सूर्य लजावन हारे' अर्थात् भगवान अपने प्रकाश से करोड़ों सूर्यों को भी लज्जान्वित कर देते हैं।गीता (११।१२) में कहा गया है-'आकाश में हजार सूर्यों के एक साथ उदय होने से जो प्रकाश उत्पन्न होता है, वह भी उस विश्वरूप परमात्मा के प्रकाश के समान कदाचित् ही हो ।'लेकिन सूर्य के प्रकाश की तरह भगवान के श्रीविग्रह के प्रकाश में तीक्ष्णता नहीं होती है । वह तो चन्द्रमा के प्रकाश से भी अत्यंत सौम्य, शांत, शीतल और नेत्रों के लिए आकर्षक और सुख देने वाला होता है ।मथुरा में कंस के कारागार में सर्वशक्तिमान परमात्मा श्रीकृष्ण का प्राकट्य हुआ । उस समय मध्य रात्रि थी । चारों ओर अन्धकार का साम्राज्य था । अकस्मात् श्रीवसुदेव जी को अनन्त सूर्य-चन्द्र के समान प्रचण्ड किंतु शीतल प्रकाश दिखलायी पड़ा और उसी प्रकाश में दिखलायी दिया एक अद्भुत बालक-श्यामसुन्दर, चतुर्भुज, शंख, चक्र, गदा और पद्म से सुशोभित।कमल के समान सुकोमल और सब प्रकार से सुशोभित, जिसके अंग-अंग से तेजपूर्ण सौन्दर्य की रसधारा बह रही थी । ऐसा ज्योतिपुंज के समान अपूर्व बालक कभी किसी ने न तो कहीं देखा, न सुना।श्रीमद्भागवत के दशम स्कन्ध में कथा है कि गोपियां माता यशोदा से शिकायत करने गईं कि कन्हैया हमारा माखन खा जाता है । माता यशोदा ने कहा कि तुम सब अपने माखन को अंधेरे में रखा करो तो कन्हैया को दिखाई नहीं पड़ेगा । तब गोपियों ने कहा-'मां ! हम तो माखन अंधेरे में ही रखती हैं; परंतु कन्हैया के आते ही अंधेरे में भी उजाला हो जाता है । उसका श्रीअंग दीपक जैसा तेजोमय है।राजा बलि के यज्ञ में जब भगवान ने वामन रूप में प्रवेश किया तो वहां इतना प्रकाशपुंज प्रकट हो गया कि सभी उपस्थित लोगों को ऐसा जान पड़ा मानो यज्ञ देखने के लिए सूर्य, अग्नि अथवा सनत्कुमार तो नहीं चले आ रहे हैं ?भगवान के श्रीविग्रह का प्रकाश करोड़ों सूर्यों के प्रकाश से भी श्रेष्ठ क्यों है ?भगवान का श्रीविग्रह अलौकिक, दिव्य और भगवत्स्वरूप होता है । न वह कर्मफल भोग के लिए प्रकट होता है और न ही पंचमहाभूतों से बना होता है । वह नित्य 'सच्चिदानन्दमय भगवद्देह' होता है । भगवान अपने शरीर को धारण करने के लिए लीला-शक्ति से दिव्य से भी अति दिव्य सत्त्वगुणी तन्मात्राओं को उत्पन्न करते हैं । उन्हीं से भगवान अपने श्रीविग्रह को प्रकट करते हैं । उसमें इतना आकर्षण होता है मानो अनन्त ज्योतिपुंज व आनंद ही मूर्तिमान होकर प्रकट हो गया है ।भगवान के श्रीविग्रह का दिव्य प्रकाश सूर्य, चन्द्रमा आदि के प्रकाश से भी महान और विलक्षण इसलिए होता है; क्योंकि-▪️सूर्य-चंद्रमा का प्रकाश भौतिक होता है । उनका प्रकाश पार्थिव पदार्थों (धूलकणों) से घिरा रहता है; इसलिए उससे छाया भी पड़ती है । परन्तु भगवान के श्रीविग्रह का प्रकाश, चाहे पहाड़ भी बीच में आ जाए, पार्थिव पदार्थों से आवृत नहीं होता है और न ही उससे छाया ही पड़ती है । वह प्रकाश दिव्य, चिन्मय ही होता है ।▪️वास्तव में सूर्य चंद्रमा आदि भी भगवान के प्रकाश से ही प्रकाशित होते हैं; क्योंकि उनमें जो तेज है, वह भगवान का ही तेज है ।गीता (१५।१२) में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-'सूर्य में स्थित जो तेज सम्पूर्ण जगत को प्रकाशित करता है तथा जो तेज चन्द्रमा में है और जो अग्नि में है; उसको तू मेरा ही तेज जान ।'स्वयं-प्रकाश भगवान को इसीलिए किसी दीपक की आवश्यकता नहीं है । हम जो उनके मंदिर में दीपक जलाते हैं; उससे हमारे मन के स्वार्थ, कपट और वासना के अंधेरे ही दूर होते हैं ।भगवान के इतने प्रकाशमान श्रीविग्रह को लौकिक (साधारण) नेत्रों से नहीं देखा जा सकता । उन्हें तो केवल दिव्य चक्षु से ही देखा जा सकता है ।न तु मां शक्यसे द्रष्टुमनेनैव स्वचक्षुषा ।दिव्यं ददामि ते चक्षु: पश्य मे योगमैश्वरम् ।। (गीता ११।८)अर्थात्-भगवान #श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं-'मुझको तू अपने इन प्राकृत नेत्रों द्वारा देखने में समर्थ नहीं है; इसी से मैं तुझे दिव्य अलौकिक चक्षु देता हूँ; उससे तू मेरी ईश्वरीय योगशक्ति को देख ।'भगवान जब अवतार लेकर पृथ्वी पर साधारण मनुष्य (श्रीकृष्ण, श्रीराम) के रूप में प्रकट होते हैं, तब सभी को उनके दर्शन होते हैं; किन्तु वह उनका योगमाया से ढका हुआ मनुष्य स्वरूप होता है, दिव्य रूप नहीं । यह बात भगवान ने गीता (७।२५) में कही भी है-'अपनी योगमाया में छिपा हुआ मैं सबके प्रत्यक्ष नहीं होता; इसलिए यह अज्ञानी जनसमुदाय मुझ जन्मरहित अविनाशी परमेश्वर को नहीं जानता अर्थात् मुझको जन्मने-मरने वाला समझता है ।'#Vnita 🙏🙏❤️ ❤️ राधे राधे ❤️

भगवान के श्रीविग्रह में इतना प्रकाश क्यों होता है ?#बाल #वनिता #महिला #वृद्ध #आश्रम की #अध्यक्ष #श्रीमती #वनिता_कासनियां #पंजाब द्वारा #संगरिया #राजस्थान #भगवान का श्रीविग्रह (श्रीअंग) स्वयं प्रकाशमय है । उनके श्रीअंग में करोड़ों सूर्यों से भी अधिक प्रकाश होता है; इसीलिए भगवान के लिए कहा गया है-'कोटि सूर्य लजावन हारे' अर्थात् भगवान अपने प्रकाश से करोड़ों सूर्यों को भी लज्जान्वित कर देते हैं।गीता (११।१२) में कहा गया है-'आकाश में हजार सूर्यों के एक साथ उदय होने से जो प्रकाश उत्पन्न होता है, वह भी उस विश्वरूप परमात्मा के प्रकाश के समान कदाचित् ही हो ।'लेकिन सूर्य के प्रकाश की तरह भगवान के श्रीविग्रह के प्रकाश में तीक्ष्णता नहीं होती है । वह तो चन्द्रमा के प्रकाश से भी अत्यंत सौम्य, शांत, शीतल और नेत्रों के लिए आकर्षक और सुख देने वाला होता है ।मथुरा में कंस के कारागार में सर्वशक्तिमान परमात्मा श्रीकृष्ण का प्राकट्य हुआ । उस समय मध्य रात्रि थी । चारों ओर अन्धकार का साम्राज्य था । अकस्मात् श्रीवसुदेव जी को अनन्त सूर्य-चन्द्र के समान प्रचण्ड किंतु शीतल प्रकाश दिखला...

कलियुग का खेल!!!!!!#बाल #वनिता #महिला #वृद्ध #आश्रम की #अध्यक्ष #श्रीमती #वनिता_कासनियां #पंजाब #संगरिया #राजस्थानजैसे द्वार की देहरी पर रखा #दीपक कमरे में और कमरे के बाहर भी प्रकाश फैला देता है, वैसे ही यदि तुम अपने बाहर और भीतर प्रकाश चाहते हो तो जीभ की देहरी पर राम-नाम का मणिद्वीप रख दो ।पूर्वकाल में एक राम-नामी संत हुए । वे अपने सत्संग में लोगों से कहते—राम जपु, राम जपु, राम जपु बावरे ।घोर भव-नीर-निधि नाम निजु नाव, रे ।। (विनयपत्रिका ६६)तुम राजा राम का नाम जपो; क्योंकि यही निर्बल का बल है, असहाय का मित्र है, अभागे का भाग्य है, अंधे की लाठी है, पंगु का हाथ-पांव है, निराधार का आधार और भूखे का मां-बाप है । इस कलिकाल में राम-नाम ही मनुष्य का सच्चा साथी और हाथ पकड़ने वाला गुरु है । यही ‘तारक ब्रह्म’ है—कलिजुग केवल हरि गुन गाहा ।गावत नर पावहिं भव थाहा ।।कलिजुग जोग न जग्य न ग्याना ।एक अधार राम गुन गाना ।। (राचमा ७।१०३।४-५)एक दिन उस संत के पास कलियुग ब्राह्मण-वेश में पधारे । कलिपुरुष ने संत को अपना परिचय देकर आदेश दिया कि—‘तुम सत्संग करते हो, उसमें लोगों से आत्मा-परमात्मा की चर्चा करते हो । तुम राम-नाम जप करने पर बल देते हो । इससे लोगों का मनोबल बढ़ता है । भगवन्नाम में प्रीति बढ़ने से लोगों पर मेरी दाल नहीं गलती और मेरा प्रभाव व्यर्थ चला जाता है ।’संत ने हाथ जोड़ कर विनय-पूर्वक कहा—‘लोगों की भीड़ इकट्ठा करना मेरा उद्देश्य नहीं है । मैं तो सत्संग इसलिए करता हूँ कि लोगों को भगवान पर विश्वास बढ़े, उनके नाम से प्रीति हो; ताकि वे अपना लोक-परलोक सुधार सकें ।’कलियुग ने कहा—‘इस समय मेरा शासन है । बुद्धिमानी इसी में है कि जिसका राज्य हो, उसी के पक्ष में रहना चाहिए ।’संत ने उत्तर दिया—‘भाई । मैं तेरे राज्य में नहीं, राम-राज्य में रहता हूँ । मेरे राजा श्रीराम हैं, तू नहीं । युग तो आते-जाते रहते हैं ।’कलिपुरुष संत को धमकी देकर बोला—‘आपको मेरी अवज्ञा बहुत मंहगी पड़ेगी ।’अगले दिन संत के पास एक व्यक्ति आया और कहने लगा—‘महाराज ! आपने #मदिरा (#शराब) मंगवाई थी, उसके पैसे अभी तक नहीं पहुंचे हैं ।’संत समझ गए कि यह कलिपुरुष का ही खेल है । संत द्वारा मदिरा मंगवाने की बात जंगल में आग की तरह चारों तरफ फैल गई । जो संत के शिष्य व सत्संगी थे, वे सब उनके निंदक हो गए । धीरे-धीरे संत का आश्रम खाली हो गया ।अब कलिपुरुष पुन: संत के सामने प्रकट होकर बोला—‘कैसा चल रहा है तुम्हारा राम-राज्य, कैसी है तुम्हारी भक्ति और कैसा है तुम्हारा आश्रम ? तुमको संत मानने वाले अब तुम्हें ही शैतान मानने लगे हैं । अब भी संभल जाओ, मेरे राज्य में लोगों को भगवन्नाम लेने की सीख देकर मेरे विरुद्ध न चलो । यदि तुम मेरी बात मान लेते हो तो कल से ही तुम्हारे आश्रम में भक्तों की भीड़ लग जाएगी ।’#संत ने पूछा—‘यह कैसे करोगे ?’कलिपुरुष ने उत्तर दिया—‘कल ही दिखा दूंगा ।’दूसरे दिन संत के आश्रम के बाहर मार्ग में एक वृद्ध कोढ़ी लेटे हुए चिल्ला रहा था—‘अरे, कोई मुझे संत के पास ले चलो । यदि वह कृपा करके अपने हाथ से मेरे ऊपर पानी छिड़केगा तो मेरा कोढ़ दूर हो जाएगा । भगवान ने रात को सपने में मुझे ऐसा बताया है ।’लोग कोढ़ी की बात सुनकर कहते—‘अरे, वह संत नहीं है, शराबी है।’ तो कोढ़ी तुरंत कहता—‘नहीं, वह तो उच्च कोटि के महात्मा हैं ।’कोढ़ी द्वारा लगातार जिद करने पर लोगों ने संत की परीक्षा करनी चाही । वे कोढ़ी को उठाकर संत के पास ले गए और उस पर जल छिड़कने को कहा । संत ने जैसे ही जल छिड़का, उसका कोढ़ ठीक हो गया और वह वृद्ध से एक सुन्दर नौजवान बन गया । यह देखकर सभी लोग संत से क्षमा मांगने लगे । संत के आश्रम में पुन: पहले जैसी भीड़ होने लगी।कलिपुरुष फिर संत के पास आकर बोला—‘देखा मेरा प्रताप; इसलिए अब तुम मुझसे मिल कर रहो ।’संत ने तुरंत कहा—‘नहीं, हम तो प्रभु श्रीराम से ही मिल कर रहेंगे । हमारा सत्संग जारी रहेगा ताकि लोग विषयों के, धन के दास न बनें; प्रभु श्रीराम के ही दास बनें ।’कलिपुरुष ने संत को धमकाते हुए कहा—‘तुमने मेरा प्रताप तो देख ही लिया है, अब मेरी बात न मानना तुमको बहुत भारी पड़ेगा ।’संत ने उपेक्षा भाव से कहा—‘हां, देख लिया तुम्हारा प्रताप । हमने अपनी निंदा-स्तुति दोनों करवा ली । तूने भी देख लिया राम-नाम का प्रभाव । मैं दोनों ही परिस्थितियों में सम रहा । अनुकूल और प्रतिकूल दोनों ही परिस्थितियों को मैंने अपने रामजी की इच्छा माना; इसलिए वे मुझे प्रभावित न कर सकीं । राम-नाम पर विश्वास से मुझे सब कुछ अच्छा ही लगा । राम भरोसो, राम बल, राम नाम बिस्वास ।सुमिरत सुभ मंगल कुसल माँगत तुलसीदास ।।राम-नाम रति, राम गति, राम-नाम बिस्वास ।सुमिरत सुभ मंगल कुसल, दुहुँ दिसि तुलसीदास ।।यही भगवान के नाम का प्रताप है । नाम के सहारे ही मुझे तुमसे कोई भय नहीं लगा; क्योंकि—राम राम धुन गूंज से भव भय जाते भाग ।राम नाम धुन ध्यान से सब शुभ जाते जाग ।।राम-नाम पर संत के अटूट विश्वास से कलिपुरुष समझ गए कि यहां अपनी दाल नहीं गलेगी । वे किसी और को अपना शिकार बनाने के लिए चले गए ।इस घोर कलिकाल में हमारे जीवन में बाहर और भीतर जो गहन अंधकार छाया हुआ है, उसे हटाने का एक ही रामबाण तरीका है—#Vnita 🙏🙏❤️❤️ राधे राधे ❤️राम नाम मनिदीप धरु जीह देहरीं द्वार ।तुलसी भीतर बाहेरहुँ जौं चाहसि उजियार ।। (पाचमा #बालकाण्ड)जैसे द्वार की देहरी पर रखा दीपक कमरे में और कमरे के बाहर भी प्रकाश फैला देता है, वैसे ही यदि तुम अपने बाहर और भीतर प्रकाश चाहते हो तो #जीभ की देहरी पर #राम-नाम का #मणिद्वीप रख दो।

कलियुग का खेल!!!!!! #बाल #वनिता #महिला #वृद्ध #आश्रम की #अध्यक्ष #श्रीमती #वनिता_कासनियां #पंजाब #संगरिया #राजस्थान जैसे द्वार की देहरी पर रखा #दीपक कमरे में और कमरे के बाहर भी प्रकाश फैला देता है, वैसे ही यदि तुम अपने बाहर और भीतर प्रकाश चाहते हो तो जीभ की देहरी पर राम-नाम का मणिद्वीप रख दो । पूर्वकाल में एक राम-नामी संत हुए । वे अपने सत्संग में लोगों से कहते— राम जपु, राम जपु, राम जपु बावरे । घोर भव-नीर-निधि नाम निजु नाव, रे ।। (विनयपत्रिका ६६) तुम राजा राम का नाम जपो; क्योंकि यही निर्बल का बल है, असहाय का मित्र है, अभागे का भाग्य है, अंधे की लाठी है, पंगु का हाथ-पांव है, निराधार का आधार और भूखे का मां-बाप है । इस कलिकाल में राम-नाम ही मनुष्य का सच्चा साथी और हाथ पकड़ने वाला गुरु है । यही ‘तारक ब्रह्म’ है— कलिजुग केवल हरि गुन गाहा । गावत नर पावहिं भव थाहा ।। कलिजुग जोग न जग्य न ग्याना । एक अधार राम गुन गाना ।। (राचमा ७।१०३।४-५) एक दिन उस संत के पास कलियुग ब्राह्मण-वेश में पधारे । कलिपुरुष ने संत को अपना परिचय देकर आदेश दिया कि—‘तुम सत्संग करते हो, उसमें लोगों से आत्मा-परम...

🚩भगवान श्रीराम का विजय-मन्त्र!🚩 🙏#बाल #वनिता #महिला #वृद्ध #आश्रम की #अध्यक्ष #श्रीमती #वनिता_कासनियां #पंजाब #संगरिया #राजस्थानभगवान #श्रीराम का विजय-मन्त्र : ‘श्रीराम जय राम जय जय राम’भगवान के ‘नाम’ का महत्व भगवान से भी अधिक होता है । भगवान को भी अपने ‘नाम’ के आगे झुकना पड़ता है । यही कारण है कि भक्त ‘नाम’ जप के द्वारा भगवान को वश में कर लेते हैं ।जब हनुमानजी संकट में थे, तब सबसे पहले ‘श्रीराम जय राम जय जय राम’ मन्त्र नारदजी ने हनुमानजी को दिया था । इसलिए संकट-नाश के लिए इस मन्त्र का जप मनुष्य को अवश्य करना चाहिए । यह मन्त्र ‘मन्त्रराज’ भी कहलाता है क्योंकि—यह उच्चारण करने में बहुत सरल है।इसमें देश, काल व पात्र का कोई बंधन नहीं है अर्थात् हर कहीं, हर समय व हर किसी के द्वारा यह मन्त्र जपा जा सकता है ।🌺इस मन्त्र का नाम विजय-मन्त्र क्यों ?🌺सत् गुण के रूप में (निष्काम भाव से) इस मन्त्र के जप से साधक अपनी इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करता है ।रजोगुण के रूप में (कामनापूर्ति के लिए) इस महामन्त्र के जप से मनुष्य दरिद्रता, दु:खों और सभी आपत्तियों पर विजयप्राप्त कर लेता है ।तमोगुण के रूप में (शत्रु बाधा, मुकदमें में जीत आदि के लिए) इस मन्त्र का जप साधक को संसार में विजयी बनाता है और अपने विजय-मन्त्र नाम को सार्थक करता है।सच्चे साधक (गुणातीत जिसे गीता में स्थितप्रज्ञ कहा गया है) को यह विजय-मन्त्र परब्रह्म परमात्मा का दर्शन कराता है। इसी विजय-मन्त्र के कारण बजरंगबली हनुमान को श्रीराम का सांनिध्य और कृपा मिली । समर्थ गुरु रामदासजी ने इस मन्त्र का तेरह करोड़ जप किया और भगवान श्रीराम ने उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन दिए थे ।इस मन्त्र में तेरह (13) अक्षर हैं और तेरह लाख जप का एक पुरश्चरण माना गया है । इस मन्त्र का जप कर सकते हैं और कीर्तन के रूप में जोर से गा भी सकते हैं।इस मन्त्र को सच्ची श्रद्धा से जीवन में उतारने पर यह साधक के जीवन का सहारा, रक्षक और सच्चा पथ-प्रदर्शक बन जाता है।लंका-विजय के बाद एक बार अयोध्या में भगवान श्रीराम देवर्षि नारद, विश्वामित्र, वशिष्ठ आदि ऋषि-मुनियों के साथ बैठे थे । उस समय नारदजी ने ऋषियों से कहा कि यह बताएं—‘नाम’ (भगवान का नाम) और ‘नामी’ (स्वयं भगवान) में श्रेष्ठ कौन है ?’इस पर सभी ऋषियों में वाद-विवाद होने लगा किन्तु कोई भी इस प्रश्न का सही निर्णय नहीं कर पाया । तब नारदजी ने कहा—‘निश्चय ही ‘भगवान का ‘नाम’ श्रेष्ठ है और इसको सिद्ध भी किया जा सकता है ।’इस बात को सिद्ध करने के लिए नारदजी ने एक युक्ति निकाली । उन्होंने हनुमानजी से कहा कि तुम दरबार में जाकर सभी ऋषि-मुनियों को प्रणाम करना किन्तु विश्वामित्रजी को प्रणाम मत करना क्योंकि वे राजर्षि (राजा से ऋषि बने) हैं, अत: वे अन्य ऋषियों के समान सम्मान के योग्य नहीं हैं ।’हनुमानजी ने दरबार में जाकर नारदजी के बताए अनुसार ही किया । विश्वामित्रजी हनुमानजी के इस व्यवहार से रुष्ट हो गए । तब नारदजी विश्वामित्रजी के पास जाकर बोले—‘हनुमान कितना उद्दण्ड और घमण्डी हो गया है, आपको छोड़कर उसने सभी को प्रणाम किया ?’ यह सुन विश्वामित्रजी आगबबूला हो गए और श्रीराम के पास जाकर बोले—‘तुम्हारे सेवक हनुमान ने सभी ऋषियों के सामने मेरा घोर अपमान किया है, अत: कल सूर्यास्त से पहले उसे तुम्हारे हाथों मृत्युदण्ड मिलना चाहिए ।’विश्वामित्रजी श्रीराम के गुरु थे अत: श्रीराम को उनकी आज्ञा का पालन करना ही था ।‘ श्रीराम हनुमान को कल मृत्युदण्ड देंगे’—यह बात सारे नगर में आग की तरह फैल गई । हनुमानजी नारदजी के पास जाकर बोले—‘देवर्षि ! मेरी रक्षा कीजिए, प्रभु कल मेरा वध कर देंगे । मैंने आपके कहने से ही यह सब किया है ।’नारदजी ने हनुमानजी से कहा—‘तुम निराश मत होओ, मैं जैसा बताऊं, वैसा ही करो । ब्राह्ममुहुर्त में उठकर सरयू नदी में स्नान करो और फिर नदी-तट पर ही खड़े होकर ‘श्रीराम जय राम जय जय राम’—इस मन्त्र का जप करते रहना । तुम्हें कुछ नहीं होगा।दूसरे दिन प्रात:काल हनुमानजी की कठिन परीक्षा देखने के लिए अयोध्यावासियों की भीड़ जमा हो गई । हनुमानजी सूर्योदय से पहले ही सरयू में स्नान कर बालुका तट पर हाथ जोड़कर जोर-जोर से ‘श्रीराम जय राम जय जय राम’ का जप करने लगे।भगवान श्रीराम हनुमानजी से थोड़ी दूर पर खड़े होकर अपने प्रिय सेवक पर अनिच्छापूर्वक बाणों की बौछार करने लगे। पूरे दिन श्रीराम बाणों की वर्षा करते रहे, पर हनुमानजी का बाल-बांका भी नहीं हुआ। अंत में श्रीराम ने ब्रह्मास्त्र उठाया । हनुमानजी पूर्ण आत्मसमर्पण किए हुए जोर-जोर से मुस्कराते हुए ‘श्रीराम जय राम जय जय राम’ का जप करते रहे । सभी लोग आश्चर्य में डूब गए ।तब नारदजी विश्वामित्रजी के पास जाकर बोले—‘मुने ! आप अपने क्रोध को समाप्त कीजिए। श्रीराम थक चुके हैं, उन्हें हनुमान के वध की गुरु-आज्ञा से मुक्त कीजिए । आपने श्रीराम के ‘नाम’ की महत्ता को तो प्रत्यक्ष देख ही लिया है । विभिन्न प्रकार के बाण हनुमान का कुछ भी नहीं बिगाड़ सके । अब आप श्रीराम को हनुमान को ब्रह्मास्त्र से न मारने की आज्ञा दें ।’विश्वामित्रजी ने वैसा ही किया । हनुमानजी आकर श्रीराम के चरणों पर गिर पड़े। विश्वामित्रजी ने हनुमानजी को आशीर्वाद देकर उनकी श्रीराम के प्रति अनन्य भक्ति की प्रशंसा की।🌺राम से बड़ा राम का नाम!🌺 गोस्वामी तुलसीदासजी का कहना है—‘राम-नाम’ राम से भी बड़ा है । राम ने तो केवल अहिल्या को तारा, किन्तु राम-नाम के जप ने करोड़ों दुर्जनों की बुद्धि सुधार दी । समुद्र पर सेतु बनाने के लिए राम को भालू-वानर इकट्ठे करने पड़े, बहुत परिश्रम करना पड़ा परन्तु राम-नाम से अपार भवसिन्धु ही सूख जाता है ।कहेउँ नाम बड़ ब्रह्म राम तें ।राम एक तापस तिय तारी ।नाम कोटि खल कुमति सुधारी ।।राम भालु कपि कटकु बटोरा।सेतु हेतु श्रमु कीन्ह न थोरा ।।नाम लेत भव सिंधु सुखाहीं ।करहु विचार सुजन मन माहीं ।।मन्त्र की व्याख्या,इस मन्त्र में—‘श्रीराम’—यह भगवान राम के प्रति पुकार है ।‘जय राम’—यह उनकी स्तुति है‘जय जय राम’—यह उनके प्रति पूर्ण समर्पण है ।संसार का मूल कारण सत्व, रज और तम—ये त्रिगुण हैं । ये तीनों ही भव-बंधन के कारण हैं । इन तीनों पर विजय पाने और संसार में सब कुछ ‘राम’ मानने की शिक्षा देने के लिए इस मन्त्र में तीन बार ‘राम’ और तीन ही बार ‘जय’ शब्द का प्रयोग हुआ है।मन्त्र का जप करते समय मन में यह भाव रहे—‘भगवान #श्रीराम और सीताजी दोनों मिलकर पूर्ण #ब्रह्म हैं । हे राम ! मैं आपकी स्तुति करता हूँ और आपके शरण हूँ ।’#Vnita 🙏🙏❤️❤️ राधे राधे ❤️🌺!! जय श्री राम !!🌺 वंदन #हनुमत का करें, बाँधे वंदनवार।राम राम #हनुमान संग, बोलें बारंबार।।🌺!! #जय #श्री #राम !!🌺

🚩भगवान श्रीराम का विजय-मन्त्र!🚩 🙏#बाल #वनिता #महिला #वृद्ध #आश्रम की #अध्यक्ष #श्रीमती #वनिता_कासनियां #पंजाब #संगरिया  #राजस्थानभगवान #श्रीराम का विजय-मन्त्र : ‘श्रीराम जय राम जय जय राम’भगवान के ‘नाम’ का महत्व भगवान से भी अधिक होता है । भगवान को भी अपने ‘नाम’ के आगे झुकना पड़ता है । यही कारण है कि भक्त ‘नाम’ जप के द्वारा भगवान को वश में कर लेते हैं ।जब हनुमानजी संकट में थे, तब सबसे पहले ‘श्रीराम जय राम जय जय राम’ मन्त्र नारदजी ने हनुमानजी को दिया था । इसलिए संकट-नाश के लिए इस मन्त्र का जप मनुष्य को अवश्य करना चाहिए । यह मन्त्र ‘मन्त्रराज’ भी कहलाता है क्योंकि—यह उच्चारण करने में बहुत सरल है।इसमें देश, काल व पात्र का कोई बंधन नहीं है अर्थात् हर कहीं, हर समय व हर किसी के द्वारा यह मन्त्र जपा जा सकता है ।🌺इस मन्त्र का नाम विजय-मन्त्र क्यों ?🌺सत् गुण के रूप में (निष्काम भाव से) इस मन्त्र के जप से साधक अपनी इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करता है ।रजोगुण के रूप में (कामनापूर्ति के लिए) इस महामन्त्र के जप से मनुष्य दरिद्रता, दु:खों और सभी आपत्तियों पर विजयप्राप्त कर लेता है ...

प्रेम की आंख और द्वेष की आंख!!!!!!#बाल #वनिता #महिला #वृद्ध #आश्रम की #अध्यक्ष #श्रीमती #वनिता_कासनियां #पंजाब #संगरिया #राजस्थानमनुष्य के जीवन के दो प्रमुख पहलू हैं—प्रेम और द्वेष । प्रेम से उसका जीवन कैसे स्वर्ग या आनन्दमय हो जाता है और द्वेष से उसका जीवन कितना नरकमय हो जाता है—इसी बात को स्पष्ट करती महाभारत की कथा ।जितना ही मनुष्य दूसरों से प्रेम करेगा, उनसे जुड़ता जाएगा; उतना ही वह सुखी रहेगा । जितना ही दूसरों को द्वेष-दृष्टि से देखोगे, उनसे कटते जाओगे उतने ही दु:खी होओगे । जुड़ना ही आनन्द है और कटना ही दु:ख है मित्रता या प्रेम की आंख से पृथ्वी स्वर्ग बनती है और द्वेष की आंख से नरक का जन्म होता है ।संसार में व्यवहार करने के दो तरीके हैं—१. प्रेम या मित्र की दृष्टि से, और २. द्वेष की दृष्टि से ।वेद में कहा गया है—‘मनुष्य को संसार को मित्र की दृष्टि से देखना चाहिए । इस संसार में कोई पराया नहीं है, जो हैं सब अपने हैं।’जितना ही मनुष्य दूसरों से प्रेम करेगा, उनसे जुड़ता जाएगा; उतना ही वह सुखी रहेगा । जितना ही दूसरों को द्वेष-दृष्टि से देखोगे, उनसे कटते जाओगे, उतने ही दु:खी होओगे । जुड़ना ही आनन्द है और कटना ही दु:ख है।मित्रता या प्रेम की आंख से पृथ्वी स्वर्ग बनती है और द्वेष की आंख से नरक का जन्म होता है । इस बात को महाभारत के आदिपर्व में दी गयी एक कथा और ‘श्रीकृष्ण व सुदामा’ के प्रसंग से बखूबी समझा जा सकता है ।द्वेष की आंख से कैसे होता है नरक का जन्म!!!!!!पंचाल देश के राजा यज्ञसेन का पुत्र द्रुपद पढ़ने के लिए भरद्वाज मुनि के आश्रम में गया । वहां उसकी मुनिपुत्र द्रोण से घनिष्ठ मित्रता हो गई । शिक्षा पूरी होने पर आश्रम से विदा लेते समय द्रुपद ने द्रोण से कहा—‘यदि तुम कभी हमारे देश में आओगे तो हम तुम्हारा हर तरह से सम्मान करेगे और तुम्हें अपना कुल-गुरु बनायेगे ।’कुछ समय बाद पिता की मृत्यु होने पर द्रुपद राजा बने । उनके मित्र द्रोण का विवाह गौतम ऋषि की पुत्री कृपी के साथ हो गया जिससे उन्हें पुत्र अश्वत्थामा हुआ।द्रोण की आर्थिक स्थिति बड़ी शोचनीय थी । वे अपने पुत्र को दूध भी नहीं दे सकते थे । जब भी बालक अश्वत्थामा अपने मित्रों को दूध पीता हुआ देखता तो दूध पीने के लिए हठ करता । बालक को बहलाने के लिए मां कृपी आटे में पानी घोल कर उसे दूध बता कर पिला देती थी। जब अश्वत्थामा अपनी दूध पीने की बात मित्रों को बताता तो उसके मित्र उसका उपहास करते हुए कहते—‘तुम्हें दूध कहां मिलेगा, पानी में घुले आटे को तुम दूध कहते हो?’ इस अपमान से आहत होकर एक दिन अश्वत्थामा पिता के पास पहुंचे और रोते हुए उन्हें सारी बात बताई । पुत्र की बात सुनकर माता-पिता की आँखें भीग गईं और वे इस निर्धनता से निकलने का कोई उपाय सोचने लगे ।तभी द्रोण को अपने बाल सखा द्रुपद और उनकी बचपन में कही गई बात की याद आई । वे पंचाल देश पहुंचे । द्रोण ने राजा द्रुपद को बचपन की मित्रता की याद दिलाई किन्तु राजा द्रुपद ने अनजान बनते हुए कहा—‘राजा और याचक की मित्रता कैसी ?’इस अपमान से आहत होकर द्रोण उल्टे पैर लौट आए । अपने अपमान का बदला लेने के लिए उन्होंने कौरव-पांडव राजकुमारों को धनुर्वेद की शिक्षा दी । महाभारत के युद्ध में अर्जुन ने द्रुपद को द्रोण के सामने युद्ध के लिए खड़ा किया । द्वेष की आंख की जो लहर उठी, वह शान्त नहीं हुई; द्रुपद के इस अपमान का बदला उनके बेटे धृष्टद्युम्न ने द्रोण का सिर काट कर लिया । फिर द्रोणपुत्र अश्वत्थामा ने धृष्टद्युम्न को मार कर पिता का ऋण चुकाया । सम्पूर्ण महाभारत इस द्वेष की आंख का ही परिणाम था ।अब एक उदाहरण प्रेम की आंख का लेते है । श्रीकृष्ण और सुदामा भी द्रुपद और द्रोण की तरह गुरुकुल के मित्र थे । उनकी आर्थिक स्थिति भी राजा और रंक वाली थी; किन्तु जब सुदामा निर्धनता की मार से विकल होकर श्रीकृष्ण के पास पहुंचे तो श्रीकृष्ण, जोकि राजराजेश्वर द्वारिकानाथ थे, उन्होंने निर्धन, दीन सुदामा के चरण धोए, उसका चरणामृत लिया, उसे महलों में छिड़का, दीन को गले से लगाया । यह है महत्ता उनके प्रेम और स्नेह की ।ऐसी प्रीति दीनबंधु ! दीनन सौं माने को ?ऐसे बेहाल बिवाइन सों पग, कंटक-जाल लगे पुनि जोये।हाय ! महादुख पायो सखा तुम, आये इतै न किते दिन खोये।देखि सुदामा की दीन दसा, करुना करिके करुनानिधि रोये।पानी परात को हाथ छुयो नहिं, नैनन के जल सौं पग धोये ।। (नरोत्तमदासजी)श्रीकृष्ण ने सुदामा के द्वारा लाए हुए चिउड़ों का बड़ी रुचि के साथ भोग लगाया और सुदामा से कहा–’आपके द्वारा लाया हुआ चिउड़ों का यह उपहार मुझको अत्यन्त प्रसन्नता देने वाला है । ये चिउड़े मुझको और मेरे साथ ही समस्त विश्व को तृप्त कर देंगे ।’ सुदामा ने श्रीकृष्ण से प्रेम किया तो श्रीकृष्ण ने उन्हें द्वारिकानाथ बना दिया । उन्हें अपने सिंहासन पर बिठाया और स्वयं नीचे ही नहीं वरन् सुदामा के चरणों में बैठे । श्रीकृष्ण ने एक मुट्ठी चावल खाकर सुदामा को द्वारिका के तुल्य सम्पत्ति प्रदान की ।मनुष्य का बहुत-सा दु:ख दूसरों के प्रति ईर्ष्या-द्वेष, घृणा, व अविश्वास से पैदा होता है । प्रेम की एक चितवन मनुष्यों के बीच द्वेष व दुर्भावनाओं की समस्त काई को साफ कर देगी और कटुता की सभी गांठों को खोल कर रख देगी । संसार में जितने भी महापुरुष हुए है, उन सब ने मानव जाति को प्रेम के मार्ग पर ही चलने का संदेश दिया है । सुकरात से उनके एक विरोधी ने कहा—‘यदि मैं तुमसे बदला न ले सकूँ तो मर जाऊँ ।’सुकरात ने उत्तर दिया—‘यदि मैं तुम्हें अपना मित्र न बना सकूँ तो मर जाऊँ ।’स्पष्ट है कि मनुष्य संसार को किस आंख से देखता है, इसी पर निर्भर करता है कि वह जीवन में क्या प्राप्त करेगा—आनन्द या तनाव । इसीलिए कहा गया है—‘दु:ख दीनै दु:ख होत है, सुख दीनै सुख होय ।’#Vnita 🙏🙏❤️❤️ राधे राधे ❤️

प्रेम की आंख और द्वेष की आंख!!!!!! #बाल #वनिता #महिला #वृद्ध #आश्रम की #अध्यक्ष #श्रीमती #वनिता_कासनियां #पंजाब #संगरिया #राजस्थान मनुष्य के जीवन के दो प्रमुख पहलू हैं—प्रेम और द्वेष । प्रेम से उसका जीवन कैसे स्वर्ग या आनन्दमय हो जाता है और द्वेष से उसका जीवन कितना नरकमय हो जाता है—इसी बात को स्पष्ट करती महाभारत की कथा । जितना ही मनुष्य दूसरों से प्रेम करेगा, उनसे जुड़ता जाएगा; उतना ही वह सुखी रहेगा । जितना ही दूसरों को द्वेष-दृष्टि से देखोगे, उनसे कटते जाओगे उतने ही दु:खी होओगे । जुड़ना ही आनन्द है और कटना ही दु:ख है मित्रता या प्रेम की आंख से पृथ्वी स्वर्ग बनती है और द्वेष की आंख से नरक का जन्म होता है । संसार में व्यवहार करने के दो तरीके हैं—१. प्रेम या मित्र की दृष्टि से, और २. द्वेष की दृष्टि से । वेद में कहा गया है—‘मनुष्य को संसार को मित्र की दृष्टि से देखना चाहिए । इस संसार में कोई पराया नहीं है, जो हैं सब अपने हैं।’ जितना ही मनुष्य दूसरों से प्रेम करेगा, उनसे जुड़ता जाएगा; उतना ही वह सुखी रहेगा । जितना ही दूसरों को द्वेष-दृष्टि से देखोगे, उनसे कटते जाओगे, उतने ही द...

▬▬▬ஜ۩۞۩ஜ▬▬▬▬*‼️ॐ श्री श्याम देवाय नमः‼️* *꧁‼️जय श्री श्याम‼️꧂*▬▬▬ஜ۩۞۩ஜ▬▬▬▬By वनिता कासनियां पंजाब*लीले घोड़े चढ़कर बाबा,**घूमेगा जब गाँव में!**बिन पायल घुंघरू बजेंगे,**हर प्रेमी के पाँव में!**माँझी की दरकार ना होगी,**फिर किसी भी नाव में!**जब साँवरा नाव तिराये,**मोर छड़ी की छाँव में!* *🙌मेरा श्याम मेरी जिदंगी🙌* *༺꧁जय श्री श्याम꧂༻* *༺꧁जय श्री राम꧂༻*

▬▬▬ஜ۩۞۩ஜ▬▬▬▬*‼️ॐ श्री श्याम देवाय नमः‼️* *꧁‼️जय श्री श्याम‼️꧂*▬▬▬ஜ۩۞۩ஜ▬▬▬▬ By वनिता कासनियां पंजाब *लीले घोड़े चढ़कर बाबा,**घूमेगा जब गाँव में!**बिन पायल घुंघरू बजेंगे,**हर प्रेमी के पाँव में!**माँझी की दरकार ना होगी,**फिर किसी भी नाव में!**जब साँवरा नाव तिराये,**मोर छड़ी की छाँव में!* *🙌मेरा श्याम मेरी जिदंगी🙌* *༺꧁जय श्री श्याम꧂༻* *༺꧁जय श्री राम꧂༻*

कर्मण्येवाधिकारस्ते : कर्मों द्वारा भगवान का पूजन!!!!!!!#बाल #वनिता #महिला #वृद्ध #आश्रम की #अध्यक्ष श्रीमती #वनिता_कासनियां #पंजाब #संगरिया #राजस्थान🙏🙏❤️गीता के अनुसार किस भाव से किए गए साधारण कर्म भी बन जाते हैं भगवान की पूजा । ‘कर्म करते हुए परमात्मा को प्राप्त करना’—क्या है गीता के इस सिद्धान्त का अर्थ।गीता के कर्मयोग का सबसे महत्त्वपूर्ण श्लोक है—कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि ॥ (गीता २।४७)अर्थात्—भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं—‘तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फलों में नहीं । मनुष्य के कौन-से कर्म का क्या फल होगा और वह फल उसको किस जन्म में और किस प्रकार मिलेगा, इसका न तो उसको कुछ पता है और न वह अपने इच्छानुसार समय पर उसे प्राप्त कर सकता है और न ही वह उस कर्म के फल से बच सकता है। इसीलिए मनुष्य चाहता कुछ और है और होता कुछ और है । कर्मों के फल का विधान करना पूरी तरह विधाता के हाथ में है । इसलिए हे अर्जुन ! तू कर्मों के फल का हेतु मत हो और तेरी कर्म न करने में भी आसक्ति न हो ।’मानव जीवन के लिए कर्म करना अनिवार्य!!!!!!!!गीता में भगवान ने कर्म की अनिवार्यता बताते हुए कहा है कि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है क्योंकि कर्म न करने से सिद्धि मिलना तो दूर रहा शरीर का निर्वाह भी नहीं होगा और जीवन भी न चलेगा । भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं–न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किंचन ।नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्माणि ।। (गीता ३।२२)अर्थात्–’अर्जुन ! मुझे ही देखो न, तीनों लोकों में मुझे कुछ भी करना नहीं है, और न कोई ऐसी वस्तु ही बाकी है, जो अब तक मुझे प्राप्त न हुई हो, तो भी मैं कर्म में प्रवृत्त होता हूँ ।’वेद में भी कहा गया है—‘मनुष्य को कर्म करते हुए सौ वर्षों तक जीवित रहने की इच्छा करनी चाहिए ।’समस्त संसार कर्म का ही परिणामसंसार की कोई भी वस्तु चाहे वह चर हो या अचर निष्क्रिय नहीं रह सकती क्योंकि प्रकृति सबको कर्म में बांधे रखती है । कर्म के कारण ही कोई लता-बेल तो कोई पशु-पक्षी, कोई राजा तो कोई रंक और कोई अपराधी या न्यायाधीश बनता है । यद्यपि नदी-नाले, पेड़-पौधे, पहाड़ आदि जड़ पदार्थ निष्क्रिय-से लगते हैं किन्तु सभी कर्मशील हैं।नदी-नाले अपना जल बहाकर संसार को जीवन प्रदान करते हैं, बीजों से निकला अंकुर वृक्ष बनकर संसार को छाया, फल आदि प्रदान करता है, पर्वत अपने कर्म—बादलों से टकरा कर पृथ्वी को वर्षा का जल प्रदान करते हैं । जब जड़ पदार्थ भी इतने क्रियाशील हैं तो हाथ-पैरधारी मनुष्य की तो बात ही क्या है ? मनुष्य जो कुछ करता है अर्थात् खाना-पीना, उठना-बैठना, सोना-जागना, जीना-मरना सब क्रियाएं ही हैं ।कर्म ही पुनर्जन्म का आधार!!!!!!एक ओर कर्म करना अनिवार्य है तो दूसरी तरफ कर्मबंधन से बचने की आवश्यकता है क्योंकि कर्मफल भोगने के लिए ही जीव को पुनर्जन्म लेना पड़ता है । जिस प्रकार मक्खी लोभवश शहद पर टूट पड़ती है और उसका रस लेने के साथ-साथ वह उसमें ज्यादा लिपटती जाती हैं और अंत में मृत्यु को प्राप्त हो जाती है; उसी प्रकार मनुष्य भी इस कर्म-जंजाल में फंसकर मृत्यु को प्राप्त होता है और फिर कर्मफल के भोग के लिए पुनर्जन्म धारण करता है ।कर्म बन्धन से छूटने का सरल उपाय!!!!!!जैसे सरोवर में कमलपत्र जलराशि से सदैव ऊपर उठे हुए उससे निर्लिप्त व अछूते रहते हैं; वैसे ही मनुष्य को सभी कर्मों को परमात्मा को अर्पित करके उनके कर्मफल व पाप-पुण्य से निर्लिप्त रहना चाहिए ।गीता के अनुसार ‘जो कर्म परमात्मा की प्रसन्नता के लिए, लोकसंग्रह के लिए, सब लोगों के उद्धार के लिए, आसक्ति, स्वार्थ और कामना को त्याग कर किया जाता है, वह बांधता नहीं और यह ‘यज्ञ’ है ।भगवान ने कहा है तुम आसक्ति छोड़कर निरन्तर कर्म करते रहो, कर्मों में कर्तापन का त्याग और फल की इच्छा का त्याग करने से मनुष्य मुझे अर्थात् मोक्षरूपी फल प्राप्त कर लेता है । यही ‘कर्म संन्यास’ है ।कर्म कौन-सा करें ?स्वे स्वे कर्मण्यभिरत: संसिद्धिं लभते नर: । (गीता १८।४५)जो सिद्धि यज्ञों से बतायी गयी है वही अपने वर्ण के अनुसार कर्म करने से मनुष्य को सुलभ हो जाती है । मनुष्य को अपने आश्रम, योग्यता व विभिन्न परिस्थितियों में जो भी छोटा या बड़ा कार्य करने को मिले, उसे भगवत्कार्य समझकर पूर्ण प्रसन्नता के साथ निष्काम भाव से भगवान के चरण में समर्पित करते हुए करना चाहिए । इसी से परम सिद्धि की प्राप्ति होती है ।गीता (१८।४६) में भी यही कहा गया है कि अपने स्वाभाविक कर्मों द्वारा पूजा करके मनुष्य परम सिद्धि को प्राप्त हो जाता है ।अपना कर्तव्यकर्म करना ही भगवान का पूजन!!!!!!क्षत्रिय होने के नाते अर्जुन के लिए युद्ध करना ही कर्तव्यकर्म है, इसलिए भगवान ने अर्जुन को युद्ध करने की आज्ञा दी ।महाभारत के युद्ध में पितामह भीष्म ने अर्जुन के सारथि बने हुए भगवान की अपने युद्धरूप कर्म के द्वारा बाणों से पूजा की । इससे भगवान का कवच टूट गया और शरीर व ऊंगलियों में घाव हो गए जिसके कारण लगाम पकड़ना भी मुश्किल हो गया । ऐसी पूजा करके अंत समय में शरशय्या पर पड़े हुए पितामह भीष्म कहते हैं—‘इस प्रकार बाणों से अलंकृत भगवान कृष्ण में मेरे मन-बुद्धि लग जाएं ।’कर्म ही देवताओं के प्रति सच्ची पूजा‘मेरे पास जो कुछ है,वह सब उस परमात्मा का ही है, मुझे को केवल निमित्त बनकर उनकी दी हुई शक्ति से उनका पूजन करना है’—इस भाव से जो कुछ किया जाए, वह सब-का-सब परमात्मा का पूजन हो जाता है । इसके विपरीत जिन कार्य या वस्तुओं को मनुष्य अपना मान लेता है वे अपवित्र होकर परमात्मा के पूजन से वंचित रह जाती हैं ।जहां हैं, जिस वर्ण में हैं, जिस आश्रम में हैं, जैसी परिस्थिति में हैं, केवल उसी का सदुपयोग करना है, उसी से मुक्ति हो जाएगी । कुछ बदलना नहीं है, बदलना है केवल मन का भाव ।#Vnita❤️🙏🙏इसी को कहते हैं—‘कर्म करते हुए परमात्मा को प्राप्त करना ।’❤️ राधे राधे ❤️

कर्मण्येवाधिकारस्ते : कर्मों द्वारा भगवान का पूजन!!!!!!! #बाल #वनिता #महिला #वृद्ध #आश्रम की #अध्यक्ष श्रीमती #वनिता_कासनियां #पंजाब #संगरिया #राजस्थान🙏🙏❤️ गीता के अनुसार किस भाव से किए गए साधारण कर्म भी बन जाते हैं भगवान की पूजा । ‘कर्म करते हुए परमात्मा को प्राप्त करना’—क्या है गीता के इस सिद्धान्त का अर्थ। गीता के कर्मयोग का सबसे महत्त्वपूर्ण श्लोक है— कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि ॥ (गीता २।४७) अर्थात्—भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं—‘तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फलों में नहीं । मनुष्य के कौन-से कर्म का क्या फल होगा और वह फल उसको किस जन्म में और किस प्रकार मिलेगा, इसका न तो उसको कुछ पता है और न वह अपने इच्छानुसार समय पर उसे प्राप्त कर सकता है और न ही वह उस कर्म के फल से बच सकता है।  इसीलिए मनुष्य चाहता कुछ और है और होता कुछ और है । कर्मों के फल का विधान करना पूरी तरह विधाता के हाथ में है । इसलिए हे अर्जुन ! तू कर्मों के फल का हेतु मत हो और तेरी कर्म न करने में भी आसक्ति न हो ।’ मानव जीवन के लिए कर्म करना ...