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नवंबर, 2020 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

"हरि-हर मिलन" (बैकुंठ चतुर्दशी) बैकुंठ चतुर्दशी कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी तिथि को मनाई जाती है। यह पर्व भगवान शिव और भगवान विष्णु के एकाकार स्वरूप को समर्पित है। देवप्रबोधिनी एकादशी पर भगवान विष्णु चार माह की नींद से जागते हैं और चतुर्दशी तिथि पर भगवान शिव की पूजा करते हैं। इस तिथि पर जो भी मनुष्य हरि अर्थात भगवान विष्णु और हर अर्थात भगवान शिव की पूजा करता है, उसे बैकुंठ लोक की प्राप्ति होती है। ऐसा वरदान स्वयं भगवान विष्णु ने नारद जी के माध्यम से मानवजन को दिया था। इसीलिए इस दिन को बैकुंठ चतुर्दशी कहा जाता है। आइए, जानते हैं इस व्रत के महत्व और इससे जुड़ी हुई पौराणिक घटनाओं के बारे में :- "प्रचलित कथा" सतयुग की एक घटना का विवरण धार्मिक पुस्तकों में मिलता है। इसके अनुसार, जब भगवान विष्णु को अपनी भक्ति से प्रसन्न कर राजा बलि उन्हें अपने साथ पाताल ले गए, उस दिन आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि थी। चार माह तक बैकुंठ लोक श्रीहरि के बिना सूना रहा और सृष्टि का संतुलन गड़बड़ाने लगा। तब माँ लक्ष्मी विष्णुजी को वापस बैकुंठ लाने लिए पाताल गईं। इस दौरान राजा बलि को भगवान विष्णु ने वरदान दिया कि वह हर साल चार माह के लिए उनके पास पाताल रहने आएँगे। इसलिए भगवान विष्णु हर साल चार माह के लिए पाताल अपने भक्त बलि के पास जाते हैं। जिस दिन माँ लक्ष्मी के साथ भगवान विष्णु बैकुंठ धाम वापस लौटे, उस दिन कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि थी। इस दिन भगवान विष्णु के बैकुंठ लौटने के उत्सव को उनके जागने के उत्सव के रूप में मनाया जाता है। कार्तिक शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि को श्रीहरि जागने के बाद चतुर्दशी तिथि को भगवान शिव की पूजा के लिए काशी आए। यहाँ उन्होंने भगवान शिव को एक हजार कमल पुष्प अर्पित करने का प्रण किया। पूजा-अनुष्ठान के समय भगवान शिव ने श्रीहरि विष्णुजी की परीक्षा लेने के लिए एक कमल पुष्प गायब कर दिया। जब श्रीहरि को एक कमल कम होने का अहसास हुआ तो उन्होंने कमल के स्थान पर अपनी एक आँख (कमल नयन) शिवजी को अर्पित करने का प्रण किया। जैसे ही श्रीहरि अपनी आँख अर्पित करनेवाले थे, वहाँ शिवजी प्रकट हो गए। शिवजी ने विष्णुजी के प्रति अपना प्रेम और आभार प्रकट किया। साथ ही उन्हें हजार सूर्यों के समान तेज से परिपूर्ण सुदर्शन चक्र भेंट किया। भगवान शिव के आशीर्वाद और उनके प्रति विष्णुजी के प्रेम के कारण ही इस दिन को हरिहर व्रत-पूजा का दिन कहा जाता है। भगवान विष्णु ने वरदान दिया कि जो भी मनुष्य कार्तिक शुक्ल चतुर्दशी के दिन विष्णु और शिव की पूजा एक साथ करेगा, उसे बैकुंठ लोक की प्राप्ति होगी। इसीलिए इस तिथि को बैकुंठ चतुर्दशी तिथि भी कहा जाता है। "देवऋषि नारद से जुड़ी है यह कथा" सतयुग में नारदजी देवताओं और मनुष्यों दोनों के ही बीच माध्यम का कार्य करते थे। वह चराचर जगत अर्थात पृथ्वी पर आकर मनुष्यों और सभी प्राणियों का हाल लेते और कैलाश, बैकुंठ लोक और ब्रह्मलोक जाकर चराचर जगत के निवासियों की मुक्ति और प्रसन्नता से जुड़े सवालों का हल प्राप्त करते। फिर अलग-अलग माध्यमों से वह संदेश मनुष्यों तक भी पहुँचाते थे। इसी क्रम में एक बार नारदजी बैकुंठ लोक में भगवान विष्णु के पास पहुँचे और उनसे प्राणियों की मुक्ति का सरल उपाय पूछा। तब भगवान विष्णु नारदजी से कहते हैं, जो भी प्राणी मन-वचन और कर्म से पवित्र रहते हुए, बैकुंठ एकादशी पर पवित्र नदियों के जल में स्नान कर भगवान शिव के साथ मेरी पूजा करता है, वह मेरा प्रिय भक्त होता है और उसे मृत्यु के बाद बैकुंठ लोक की प्राप्ति होती है। "पूजन विधि" इस दिन नदी, सरोवर में स्नान के बाद नदी या तालाब के किनारे 14 दीपक जलाएँ। इसके बाद भगवान विष्णु और शिव की आराधना करें। यदि संभव को तो शिव और विष्णुजी को कमल पुष्प अर्पित करें। विष्णु सहस्त्रनाम का पाठ करें। घर में पूजा करते समय गंगाजल से मंदिर में छींटे देकर घी का दीपक जलाएँ। फिर रोली से भगवान विष्णु का तिलक करें और अक्षत अर्पित करें। साथ ही शिवजी पर चंदन का तिलक लगाएँ। मिष्ठान और भोग अर्पित करें। फिर श्रीहरि विष्णु और शिवजी की पूजा, विष्णु सहस्त्रनाम का पाठ और आरती करें। शाम के समय दोबारा स्नान कर स्वच्छ वस्त्र पहने और दीपक जलाकर बहते जल में प्रवाहित कर दें। इसे दीपदान कहते हैं। दीपदान करना यदि संभव न हो तो मंदिर में दीपक जलाएँ। बुजुर्गों को उपहार देनें और जरूरतमंदों की मदद करने से लाभ मिलता है। जय श्रीहरि❤️🙏 हर हर महादेव❤️🙏

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 . ਕਾਰਤਿਕ ਮਹਾਤਮਯ, 37 ਵਾਂ ਅਧਿਆਇ          ਵਨੀਤਾ punjab  ਸੰਤਾਂ ਨੇ ਪੁੱਛਿਆ - ਹੇ ਸੁਤਜੀ!  ਸ਼ਨੀਵਾਰ ਨੂੰ ਛੱਡ ਕੇ ਹਫ਼ਤੇ ਦੇ ਬਾਕੀ ਦਿਨਾਂ ਵਿਚ ਪੀਪਲ ਦੇ ਦਰੱਖਤ ਦੀ ਪੂਜਾ ਕਿਉਂ ਨਹੀਂ ਕੀਤੀ ਜਾਂਦੀ? ਸੁਤਜੀ ਨੇ ਕਿਹਾ - ਹੇ ਸੰਤੋ!  ਦੇਵਤਿਆਂ ਨੇ ਸਮੁੰਦਰੀ ਮੰਥਨ ਤੋਂ ਪ੍ਰਾਪਤ ਕੀਤੇ ਰਤਨਾਂ ਵਿਚੋਂ ਦੇਵਤਿਆਂ ਨੇ ਲਕਸ਼ਮੀ ਅਤੇ ਕੌਸਤਭਮਨੀ ਨੂੰ ਭਗਵਾਨ ਵਿਸ਼ਨੂੰ ਨੂੰ ਸਮਰਪਿਤ ਕੀਤਾ ਸੀ।  ਜਦੋਂ ਭਗਵਾਨ ਵਿਸ਼ਨੂੰ ਲਕਸ਼ਮੀ ਜੀ ਨਾਲ ਵਿਆਹ ਕਰਨ ਲਈ ਤਿਆਰ ਹੋ ਗਏ, ਲਕਸ਼ਮੀ ਜੀ ਨੇ ਕਿਹਾ - ਹੇ ਪ੍ਰਭੂ!  ਜਦੋਂ ਤੱਕ ਮੇਰੀ ਵੱਡੀ ਭੈਣ ਦਾ ਵਿਆਹ ਨਹੀਂ ਹੋ ਜਾਂਦਾ, ਮੈਂ ਛੋਟੀ ਭੈਣ ਨਾਲ ਕਿਵੇਂ ਵਿਆਹ ਕਰ ਸਕਦਾ ਹਾਂ, ਇਸ ਲਈ ਤੁਸੀਂ ਮੇਰੀ ਵੱਡੀ ਭੈਣ ਦਾ ਵਿਆਹ ਪਹਿਲਾਂ ਕਰਵਾਓ,  ਉਸ ਤੋਂ ਬਾਅਦ ਤੁਸੀਂ ਮੇਰੇ ਨਾਲ ਵਿਆਹ ਕਰੋ.  ਇਹ ਨਿਯਮ ਹੈ ਜੋ ਪ੍ਰਾਚੀਨ ਸਮੇਂ ਤੋਂ ਲਾਗੂ ਹੈ. ਸੁਤਜੀ ਨੇ ਕਿਹਾ- ਲਕਸ਼ਮੀ ਜੀ ਦੇ ਮੂੰਹੋਂ ਇਹੋ ਜਿਹੇ ਸ਼ਬਦ ਸੁਣ ਕੇ, ਭਗਵਾਨ ਵਿਸ਼ਨੂੰ ਨੇ Udਧ ਉਦਾਲਕ ਨਾਲ ਲਕਸ਼ਮੀ ਜੀ ਦੀ ਵੱਡੀ ਭੈਣ ਦਾ ਵਿਆਹ ਪੂਰਾ ਕਰ ਲਿਆ। ਲਕਸ਼ਮੀ ਜੀ ਦੀ ਵੱਡੀ ਭੈਣ ਅਲਕਸ਼ਮੀ ਜੀ ਬਹੁਤ ਬੁਰੀ ਸੀ, ਉਸਦਾ ਚਿਹਰਾ ਵੱਡਾ ਸੀ, ਉਸਦੇ ਦੰਦ ਚਮਕ ਰਹੇ ਸਨ, ਉਸਦਾ ਸਰੀਰ ਇਕ ਬੁੱ ladyੀ ofਰਤ ਵਰਗਾ ਸੀ, ਉਸਦੀਆਂ ਅੱਖਾਂ ਵੱਡੀਆਂ ਸਨ ਅਤੇ ਉਸਦੇ ਵਾਲ ਮੋਟੇ ਸਨ।  ਭਗਵਾਨ ਵਿਸ...

रामचरितमानस के उत्तरकांड में गरुड़जी कागभुशुण्डि जी से कहते हैं कि, आप मुझ पर कृपावान हैं, और मुझे अपना सेवक मानते हैं, तो कृपापूर्वक मेरे सात प्रश्नों के उत्तर दीजिए। गरुड़ जी प्रश्न करते हैं- प्रथमहिं कहहु नाथ मतिधीरा। सब तें दुर्लभ कवन सरीरा। बड़ दुख कवन कवन सुख भारी। सोइ संछेपहिं कहहु बिचारी। संत असंत मरम तुम जानहु। तिन्ह कर सहज सुभाव बखानहु। कवन पुन्य श्रुति बिदित बिसाला। कहहु कवन अघ परम कराला। मानस रोग कहहु समुझाई । तुम्ह सर्बग्य कृपा अधिकाई ।। गरुड़ प्रश्न करते हैं कि हे नाथ! सबसे दुर्लभ शरीर कौन-सा है। कौन सबसे बड़ा दुःख है। कौन सबसे बड़ा सुख है। साधु और असाधु जन का स्वभाव कैसा होता है। वेदों में बताया गया सबसे बड़ा पाप कौन-सा है। इसके बाद वे सातवें प्रश्न के संबंध में कहते हैं कि मानस रोग समझाकर बतलाएँ, क्योंकि आप सर्वज्ञ हैं। गरुड़ के प्रश्न के उत्तर में कागभुशुंडि कहते हैं कि मनुष्य का शरीर दुर्लभ और श्रेष्ठ है, क्योंकि इस शरीर के माध्यम से ही ज्ञान, वैराग्य, स्वर्ग, नरक, भक्ति आदि की प्राप्ति होती है। वे कहते हैं कि दरिद्र के समान संसार में कोई दुःख नहीं है और संतों (सज्जनों) के मिलन के समान कोई सुख नहीं है। मन, वाणी और कर्म से परोपकार करना ही संतों (साधुजनों) का स्वभाव होता है। किसी स्वार्थ के बिना, अकारण ही दूसरों का अपकार करने वाले दुष्ट जन होते हैं। वेदों में विदित अहिंसा ही परम धर्म और पुण्य है, और दूसरे की निंदा करने के समान कोई पाप नहीं होता है। गरुड़ के द्वारा पूछे गए सातवें प्रश्न का उत्तर अपेक्षाकृत विस्तार के साथ कागभुशुंडि द्वारा दिया जाता है। सातवें और अंतिम प्रश्न के उत्तर में प्रायः वे सभी कारण निहित हैं, जो अनेक प्रकार के दुःखों का कारण बनते हैं। इस कारण बाबा तुलसी मानस रोगों का विस्तार से वर्णन करते हैं। सुनहु तात अब मानस रोगा।जिन्ह तें दुख पावहिं सब लोगा। मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला। तिन्ह तें पुनि उपजहिं बहु सूला। काम बात कफ लोभ अपारा। क्रोध पित्त नित छाती जारा। प्रीति करहिं जौ तीनिउ भाई । उपजइ सन्यपात दुखदाई। विषय मनोरथ दुर्गम नाना । ते सब सूल नाम को जाना। कागभुशुंडि कहते हैं कि मानस रोगों के बारे में सुनिए, जिनके कारण सभी लोग दुःख पाते हैं। सारी मानसिक व्याधियों का मूल मोह है। इसके कारण ही अनेक प्रकार के मनोरोग उत्पन्न होते हैं। शरीर में विकार उत्पन्न करने वाले वात, कफ और पित्त की भाँति क्रमशः काम, अपार लोभ और क्रोध हैं। जिस प्रकार पित्त के बढ़ने से छाती में जलन होने लगती है, उसी प्रकार क्रोध भी जलाता है। यदि ये तीनों मनोविकार मिल जाएँ, तो कष्टकारी सन्निपात की भाँति रोग लग जाता है। अनेक प्रकार की विषय-वासना रूपी मनोकांक्षाएँ ही वे अनंत शूल हैं, जिनके नाम इतने ज्यादा हैं, कि उन सबको जानना भी बहुत कठिन है। बाबा तुलसी इस प्रसंग में अनेक प्रकार के मानस रोगों, जैसे- ममता, ईर्ष्या, हर्ष, विषाद, जलन, दुष्टता, मन की कुटिलता, अहंकार, दंभ, कपट, मद, मान, तृष्णा, मात्सर्य (डाह) और अविवेक आदि का वर्णन करते हैं और शारीरिक रोगों के साथ इनकी तुलना करते हुए इन मनोरोगों की विकरालता को स्पष्ट करते हैं। यहाँ मनोरोगों की तुलना शारीरिक व्याधियों से इस प्रकार और इतने सटीक ढंग से की गई है, कि किसी भी शारीरिक व्याधि की तीक्ष्णता और जटिलता से मनोरोग की तीक्ष्णता और जटिलता का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। शरीर का रोग प्रत्यक्ष होता है और शरीर में परिलक्षित होने वाले उसके लक्षणों को देखकर जहाँ एक ओर उपचार की प्रक्रिया को शुरू किया जा सकता है, वहीं दूसरी ओर व्याधिग्रस्त व्यक्ति को देखकर अन्य लोग उस रोग से बचने की सीख भी ले सकते हैं। सामान्यतः मनोरोग प्रत्यक्ष परिलक्षित नहीं होता, और मनोरोगी भी स्वयं को व्याधिग्रस्त नहीं मानता है। इस कारण से बाबा तुलसी ने मनोरोगों की तुलना शारीरिक रोगों से करके एकदम अलग तरीके से सीख देने का कार्य किया है। कागभुशुंडि कहते हैं कि एक बीमारी-मात्र से व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है और यहाँ तो अनेक असाध्य रोग हैं। मनोरोगों के लिए नियम, धर्म, आचरण, तप, ज्ञान, यज्ञ, जप, दान आदि अनेक औषधियाँ हैं, किंतु ये रोग इन औषधियों से भी नहीं जाते हैं। इस प्रकार संसार के सभी जीव रोगी हैं। शोक, हर्ष, भय, प्रीति और वियोग से दुःख की अधिकता हो जाती है। इन तमाम मानस रोगों को विरले ही जान पाते हैं। जानने के बाद ये रोग कुछ कम तो होते हैं, मगर विषय-वासना रूपी कुपथ्य पाकर ये साधारण मनुष्य तो क्या, मुनियों के हृदय में भी अंकुरित हो जाते हैं। मनोरोगों की विकरालता का वर्णन करने के उपरांत इन रोगों के उपचार का वर्णन भी होता है। कागभुशुंडि के माध्यम से तुलसीदास कहते हैं कि सद्गुरु रूपी वैद्य के वचनों पर भरोसा करते हुए विषयों की आशा को त्यागकर संयम का पालन करने पर श्रीराम की कृपा से ये समस्त मनोरोग नष्ट हो जाते हैं। रघुपति भगति सजीवनि मूरी।अनूपान श्रद्धा मति पूरी।। इन मनोरोगों के उपचार के लिए श्रीराम की भक्ति संजीवनी जड़ की तरह है। श्रीराम की भक्ति को श्रद्धा से युक्त बुद्धि के अनुपात में निश्चित मात्रा के साथ ग्रहण करके मनोरोगों का शमन किया जा सकता है। यहाँ तुलसीदास ने भक्ति, श्रद्धा और मति के निश्चित अनुपात का ऐसा वैज्ञानिक-तर्कसम्मत उल्लेख किया है, जिसे जान-समझकर अनेक लोगों ने मानस को अपने जीवन का आधार बनाया और मनोरोगों से मुक्त होकर जीवन को सुखद और सुंदर बनाया। यहाँ पर श्रीराम की भक्ति से आशय कर्मकांडों को कठिन और कष्टप्रद तरीके से निभाने, पूजा-पद्धतियों का कड़ाई के साथ पालन करने और इतना सब करते हुए जीवन को जटिल बना लेने से नहीं है। इसी प्रकार श्रद्धा भी अंधश्रद्धा नहीं है। भक्ति और श्रद्धा को संयमित, नियंत्रित और सही दिशा में संचालित करने हेतु मति है। मति को नियंत्रित करने हेतु श्रद्धा और भक्ति है। इन तीनों के सही और संतुलित व्यवहार से श्रीराम का वह स्वरूप प्रकट होता है, जिसमें मर्यादा, नैतिकता और आदर्श है। जिसमें लिप्सा-लालसा नहीं, त्याग और समर्पण का भाव होता है। जिसमें विखंडन की नहीं, संगठन की; सबको साथ लेकर चलने की भावना निहित होती है। जिसमें सभी के लिए करुणा, दया, ममता, स्नेह, प्रेम, वात्सल्य जैसे उदात्त गुण परिलक्षित होते हैं। श्रद्धा, भक्ति और मति का संगठन जब श्रीराम के इस स्वरूप को जीवन में उतारने का माध्यम बन जाता है, तब असंख्य मनोरोग दूर हो जाते हैं। स्वयं का जीवन सुखद, सुंदर, सरल और सहज हो जाता है। जब अंतर्जगत में, मन में रामराज्य स्थापित हो जाता है, तब बाह्य जगत के संताप प्रभावित नहीं कर पाते हैं। इसी भाव को लेकर, आत्मसात् करके विसंगतियों, विकृतियों और जीवन के संकटों से जूझने की सामर्थ्य अनगिनत लोगों को तुलसी के मानस से मिलती रही है। यह क्रम आज का नहीं, सैकड़ों वर्षों का है। यह क्रम देश की सीमाओं के भीतर का ही नहीं, वरन् देश से बाहर कभी मजदूर बनकर, तो कभी प्रवासी बनकर जाने वाले लोगों के लिए भी रहा है। सैकड़ों वर्षों से लगाकर वर्तमान तक अनेक देशों में रहने वाले लोगों के लिए तुलसी का मानस इसी कारण पथ-प्रदर्शक बनता है, सहारा बनता है। आज के जीवन की सबसे जटिल समस्या ऐसे मनोरोगों की है, मनोविकृतियों की है, जिनका उपचार अत्याधुनिक चिकित्सा पद्धतियों के पास भी उपलब्ध नहीं है। ऐसी स्थिति में तुलसीदास का मानस व्यक्ति से लगाकर समाज तक, सभी को सही दिशा दिखाने, जीवन को सन्मार्ग में चलाने की सीख देने की सामर्थ्य रखता है। #वनिता #पंजाब

 

कार्तिक महीने में एक बुढिया माई तुलसीजी को सींचती और कहती कि, हे तुलसी माता! सत् की दाता मैं तेरा बिडला सीचती हूँ, मुझे बहु दे, पीताम्बर की धोती दे, मीठा मीठा गास दे, बैकुंठा में वास दे, चटक की चाल दे, पटक की मौत दे, चंदन का काठ दे, रानी सा राज दे, दाल भात का भोजन दे, ग्यारस की मौत दे, कृष्ण जी का कन्धा दे।तुलसी माता यह सुनकर सूखने लगी तो भगवान ने पूछा कि, हे तुलसी! तुम क्यों सूख़ रही हो?तुलसी माता ने कहा कि एक बुढिया रोज आती है और यही बात कह जाती है। मैं सब बात तो पूरा कर दूँगी लेकिन कृष्ण का कन्धा कहां से लाऊंगी?भगवान बोले - जब वो मरेगी तो मैं अपने आप कंधा दे आऊंगा। तू बुढिया माई से कह देना। बाद में बुढिया माई मर गई। सब लोग आ गये। जब माई को ले जाने लगे तो वह किसी से न उठी। तब भगवान एक बारह बरस के बालक का रूप धारण करके आये। बालक ने कहा, मैं कान में एक बात कहूँगा तो बुढिया माई उठ जाएगी। बालक ने कान में कहा, बुढिया माई मन की निकाल ले, पीताम्बर की धोती ले, मीठा मीठा गास ले, बैंकुंठा का वास ले, चटक की चल ले, पटक की मौत ले, कृष्ण जी का कन्धा ले! यह सुनकर बुढिया माई हल्की हो गई। भगवान ने कन्धा दिया और बुढिया माई को मुक्ति मिल गयी।हे तुलसी माता! जैसे बुढिया माई को मुक्ति दी वैसे सबको देना🙌🏻🙌🏻🙏🌹पोस्ट कॉपी पेस्ट। 🌹(वनिता पंजाब ) मां तुलसी।🌹🙏

।।श्रीसीताराम।।🌷 *भीष्म पंचक व्रत* 🌷➡ *26नवम्बर 2020 से 30 नवम्बर 2020 तक भीष्म पंचक व्रत है ।*(वनिता कासनियां पंजाब)🙏🏻 *कार्तिक शुक्ल एकादशी से पूनम तक का व्रत 'भीष्म-पंचक व्रत' कहलाता है l जो इस व्रत का पालन करता है, उसके द्वारा सब प्रकार के शुभ कृत्यों का पालन हो जाता है l यह महापुण्य-मय व्रत महापातकों का नाश करने वाला है l*🙏🏻 *कार्तिक एकादशी के दिन बाणों की शय्या पर पड़े हुए भीष्मजी ने जल कि याचना कि थी l तब अर्जुन ने संकल्प कर भूमि पर बाण मारा तो गंगाजी कि धार निकली और भीष्मजी के मुंह में आयी l उनकी प्यास मिटी और तन-मन-प्राण संतुष्ट हुए l इसलिए इस दिन को भगवान् श्री कृष्ण ने पर्व के रूप में घोषित करते हुए कहा कि 'आज से लेकर पूर्णिमा तक जो अर्घ्यदान से भीष्मजी को तृप्त करेगा और इस भीष्मपंचक व्रत का पालन करेगा, उस पर मेरी सहज प्रसन्नता होगी l'*🌷 *कौन यह व्रत करें* 🌷👉🏻 *निःसंतान व्यक्ति पत्नीसहित इस प्रकार का व्रत करें तो उसे संतान कि प्राप्ति होती है l*👉🏻 *जो अपना प्रभाव बढ़ाना चाहते हैं, वैकुण्ठ चाहते हैं या इस लोक में सुख चाहते हैं उन्हें यह व्रत करने कि सलाह दी गयी है l*👉🏻 *जो नीचे लिखे मंत्र से भीष्मजी के लिए अर्घ्यदान करता है, वह मोक्ष का भागी होता है l*🌷 *वैयाघ्रपदगोत्राय सांकृतप्रवराय च l**अपुत्राय ददाम्येतदुद्कं भीष्म्वर्मणे ll**वसूनामवताराय शन्तनोरात्मजाय च l**अर्घ्यं ददामि भीष्माय आजन्मब्रह्मचारिणे ll*🙏🏻 *'जिनका व्याघ्रपद गोत्र और सांकृत प्रवर है, उन पुत्ररहित भीश्म्वार्मा को मैं यह जल देता हूँ l वसुओं के अवतार, शांतनु के पुत्र आजन्म ब्रह्मचारी भीष्म को मैं अर्घ्य देता हूँ l ( स्कन्द पुराण, वैष्णव खंड, कार्तिक महात्मय )*🌷 *व्रत करने कि विधि* 🌷*इस व्रत का प्रथम दिन देवउठी एकादशी है l इस दिन भगवान् नारायण जागते हैं l इस कारण इस दिन निम्न मंत्र का उच्चारण करके भगवान् को जगाना चाहिए :*🌷 *उत्तिष्ठोत्तिष्ठ गोविन्द उत्तिष्ठ गरुडध्वज l**उत्तिष्ठ कमलाकान्त त्रैलोक्यमन्गलं कुरु ll*🙏🏻 *'हे गोविन्द ! उठिए, उठए, हे गरुडध्वज ! उठिए, हे कमलाकांत ! निद्रा का त्याग कर तीनों लोकों का मंगल कीजिये l'*➡ *इन पांच दिनों में अन्न का त्याग करें l कंदमूल, फल, दूध अथवा हविष्य (विहित सात्विक आहार जो यज्ञ के दिनों में किया जाता है ) लें l*➡ *इन दिनों में पंचगव्य (गाय का दूध, दही, घी, गोझरण व् गोबर-रस का मिश्रण )का सेवन लाभदायी है l पानी में थोडा-सा गोझरण डालकर स्नान करें तो वह रोग-दोषनाशक तथा पापनाशक माना जाता है l*➡ *इन दिनों में ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए l*➡ *भीष्मजी को अर्घ्य-तर्पण -**इन पांच दिनों निम्नः मंत्र से भीष्म जी के लिए तर्पण करना चाहिए :*🌷 *सत्यव्रताय शुचये गांगेयाय महात्मने l**भीष्मायैतद ददाम्यर्घ्यमाजन्मब्रह्मचारिणे ll*🙏🏻 *'आजन्म ब्रह्मचर्य का पालन करनेवाले परम पवित्र, सत्य-व्रतपरायण गंगानंदन महात्मा भीष्म को मैं यह अर्घ्य देती हूँ l'*🙏🏻 *🌺🌸🌹🍁🙏

🌷 *देवउठी-प्रबोधिनी एकादशी* 🌷➡ *25 नवम्बर 2020 बुधवार को रात्रि 02:43 से 26 नवम्बर, गुरुवार को प्रातः 05:10 तक एकादशी है ।*💥 *विशेष ~ 25 नवम्बर 2020 बुधवार को देवउठी-प्रबोधिनी एकादशी (स्मार्त) एवं 26 नवम्बर, गुरुवार को देवउठी-प्रबोधिनी एकादशी (भागवत)*🙏🏻 *भगवान श्रीकृष्ण ने कहा : हे अर्जुन ! मैं तुम्हें मुक्ति देनेवाली कार्तिक मास के शुक्लपक्ष की ‘प्रबोधिनी एकादशी’ के सम्बन्ध में नारद और ब्रह्माजी के बीच हुए वार्तालाप को सुनाता हूँ । एक बार नारादजी ने ब्रह्माजी से पूछा : ‘हे पिता ! ‘प्रबोधिनी एकादशी’ के व्रत का क्या फल होता है, आप कृपा करके मुझे यह सब विस्तारपूर्वक बतायें ।’*🙏🏻 *ब्रह्माजी बोले : हे पुत्र ! जिस वस्तु का त्रिलोक में मिलना दुष्कर है, वह वस्तु भी कार्तिक मास के शुक्लपक्ष की ‘प्रबोधिनी एकादशी’ के व्रत से मिल जाती है । इस व्रत के प्रभाव से पूर्व जन्म के किये हुए अनेक बुरे कर्म क्षणभर में नष्ट हो जाते है । हे पुत्र ! जो मनुष्य श्रद्धापूर्वक इस दिन थोड़ा भी पुण्य करते हैं, उनका वह पुण्य पर्वत के समान अटल हो जाता है । उनके पितृ विष्णुलोक में जाते हैं । ब्रह्महत्या आदि महान पाप भी ‘प्रबोधिनी एकादशी’ के दिन रात्रि को जागरण करने से नष्ट हो जाते हैं ।*🙏🏻 *हे नारद ! मनुष्य को भगवान की प्रसन्नता के लिए कार्तिक मास की इस एकादशी का व्रत अवश्य करना चाहिए । जो मनुष्य इस एकादशी व्रत को करता है, वह धनवान, योगी, तपस्वी तथा इन्द्रियों को जीतनेवाला होता है, क्योंकि एकादशी भगवान विष्णु को अत्यंत प्रिय है ।*🙏🏻 *इस एकादशी के दिन जो मनुष्य भगवान की प्राप्ति के लिए दान, तप, होम, यज्ञ (भगवान्नामजप भी परम यज्ञ है। ‘यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि’ । यज्ञों में जपयज्ञ मेरा ही स्वरुप है।’ - श्रीमद्भगवदगीता ) आदि करते हैं, उन्हें अक्षय पुण्य मिलता है ।*🙏🏻 *इसलिए हे नारद ! तुमको भी विधिपूर्वक विष्णु भगवान की पूजा करनी चाहिए । इस एकादशी के दिन मनुष्य को ब्रह्ममुहूर्त में उठकर व्रत का संकल्प लेना चाहिए और पूजा करनी चाहिए । रात्रि को भगवान के समीप गीत, नृत्य, कथा-कीर्तन करते हुए रात्रि व्यतीत करनी चाहिए ।*🙏🏻 *‘प्रबोधिनी एकादशी’ के दिन पुष्प, अगर, धूप आदि से भगवान की आराधना करनी चाहिए, भगवान को अर्ध्य देना चाहिए । इसका फल तीर्थ और दान आदि से करोड़ गुना अधिक होता है ।*🙏🏻 *जो गुलाब के पुष्प से, बकुल और अशोक के फूलों से, सफेद और लाल कनेर के फूलों से, दूर्वादल से, शमीपत्र से, चम्पकपुष्प से भगवान विष्णु की पूजा करते हैं, वे आवागमन के चक्र से छूट जाते हैं । इस प्रकार रात्रि में भगवान की पूजा करके प्रात:काल स्नान के पश्चात् भगवान की प्रार्थना करते हुए गुरु की पूजा करनी चाहिए और सदाचारी व पवित्र ब्राह्मणों को दक्षिणा देकर अपने व्रत को छोड़ना चाहिए ।*🙏🏻 *जो मनुष्य चातुर्मास्य व्रत में किसी वस्तु को त्याग देते हैं, उन्हें इस दिन से पुनः ग्रहण करनी चाहिए । जो मनुष्य ‘प्रबोधिनी एकादशी’ के दिन विधिपूर्वक व्रत करते हैं, उन्हें अनन्त सुख मिलता है और अंत में स्वर्ग को जाते हैं ।* 🌞 *~ (वनिता कासनियां पंजाब) ~* 🌞🙏🏻🌷🍀🌺🌼🌸🌹🌻💐🙏🏻

🌹ऊँ🌹ऊँ🌹ऊँ🌹ऊँ🌹ऊँ🌹🌹ऊँ नमःशिवायःशिवोऽहम्🌹 🌹🌹जय श्री महाँकाल🌹🌹🌹ऊँ🌹ऊँ🌹ऊँ🌹ऊँ🌹ऊँ🌹💖प्रेम को प्रार्थना बनाओ 💖✍️🪔और प्रेम का दिया जलाओ🪔🌹💞🌹💞🌹💞🌹💞🌹🙏हे मेरे महाँकाल 🙏"#एहसास😌" बनकर यूं #दिल❤में बसे हो...🌹☘️🌹 #एक☝ आप ही तो हो,जो👀 #निगाहों🥰को जचे हो...♥️आरजू हसरतें तमन्ना और खुशी कुछ भी नहींअगर जिंदगी में तुम नहीं तो जिंदगी कुछ भी नहीं🌙🌻🌙🌻🌙🌻🌙चांद पर पहुंचो या मंगल पर पहुंचोया पहुच जाओ सात समंदर पारजिंदगी तब तक फीकी हैजब तक नहीं आओगे महाकाल के द्वार (वनिता कासनियां पंजाब)🌙🌻🌙🌻🌙🌻🌙🌹💞🌹💞🌹💞🌹*ૐ हर हर महादेव हर*🌹💞🌹💞🌹💞🌹

. कार्तिक माहात्म्य अध्याय - 30 भगवान श्रीकृष्ण सत्यभामा से बोले – हे प्रिये! नारदजी के यह वचन सुनकर महाराजा पृथु बहुत आश्चर्यचकित हुए। अन्त में उन्होंने नारदजी का पूजन करके उनको विदा किया। इसीलिए माघ, कार्तिक और एकादशी – यह तीन व्रत मुझे अत्यधिक प्रिय हैं। वनस्पतियों में तुलसी, महीनों में कार्तिक, तिथियों में एकादशी और क्षेत्रों में प्रयाग मुझे बहुत प्रिय हैं। जो मनुष्य इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर इनका सेवन करता है वह मुझे यज्ञ करने वाले मनुष्य से भी अधिक प्रिय है। जो मनुष्य विधिपूर्वक इनकी सेवा करते हैं, मेरी कृपा से उन्हें समस्त पापों से छुटकारा मिल जाता है। भगवान श्रीकृष्ण के वचन सुनकर सत्यभामा ने कहा – हे प्रभो! आपने बहुत ही अद्भुत बात कही है कि दूसरे के लिए पुण्य के फल से कलहा की मुक्ति हो गयी। यह प्रभावशाली कार्तिक मास आपको अधिक प्रिय है जिससे पतिद्रोह का पाप केवल स्नान के पुण्य से ही नष्ट हो गया। दूसरे मनुष्य द्वारा किया हुआ पुण्य उसके देने से किस प्रकार मिल जाता है, यह आप मुझे बताने की कृपा करें। श्रीकृष्ण भगवान बोले – प्रिये! जिस कर्म द्वारा बिना दिया हुआ पुण्य और पाप मिलता है उसे ध्यानपूर्वक सुनो। सतयुग में देश, ग्राम तथा कुलों को दिया पुण्य या पाप मिलता था किन्तु कलियुग में केवल कर्त्ता को ही पाप तथा पुण्य का फल भोगना पड़ता है। संसर्ग न करने पर भी वह व्यवस्था की गई है और संसर्ग से पाप व पुण्य दूसरे को मिलते हैं, उसकी व्यवस्था भी सुनो। पढ़ाना, यज्ञ कराना और एक साथ भोजन करने से पाप-पुण्य का आधा फल मिलता है। एक आसन पर बैठने तथा सवारी पर चढ़ने से, श्वास के आने-जाने से पुण्य व पाप का चौथा भाग जीवमात्र को मिलता है। छूने से, भोजन करने से और दूसरे की स्तुति करने से पुण्य और पाप का छठवाँ भाग मिलता है। दूसरे की निन्दा, चुगली और धिक्कार करने से उसका सातवाँ भाग मिलता है। पुण्य करने वाले मनुष्यों की जो कोई सेवा करता है वह सेवा का भाग लेता है और अपना पुण्य उसे देता है। नौकर और शिष्य के अतिरिक्त जो मनुष्य दूसरे से सेवा करवाकर उसे पैसे नहीं देता, वह सेवक उसके पुण्य का भागी होता है। जो व्यक्ति पंक्ति में बैठे हुए भोजन करने वालों की पत्तल लांघता है, वह उसे(जिसकी पत्तल उसने लांघी है) अपने पुण्य का छठवाँ भाग देता है। स्नान तथा ध्यान आदि करते हुए मनुष्य से जो व्यक्ति बातचीत करता है या उसे छूता है, वह अपने पुण्य का छठवाँ भाग दे डालता है। जो मनुष्य धर्म के कार्य के लिए दूसरों से धन मांगता है, वह पुण्य का भागी होता है। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार कि दान करने वाला पुण्य का भागी होता है। जो मनुष्य धर्म का उपदेश करता है और उसके बाद सुनने वाले से याचना करता है, वह अपने पुण्य का छठवाँ भाग उसे दे देता है। जो मनुष्य दूसरों का धन चुराकर उससे धर्म करता है, वह चोरी का फल भोगता है और शीघ्र ही निर्धन हो जाता है और जिसका धन चुराता है, वह पुण्य का भागी होता है। बिना ऋण उतारे जो मनुष्य मृत्यु को प्राप्त होता है, उनको ऋण देने वाले सज्जन पुरुष पुण्य के भागी होते हैं। शिक्षा देने वाला, सलाह देने वाला, सामग्री को जुटाने वाला तथा प्रेरणा देने वाला, यह पाप और पुण्य के छठे भाग को प्राप्त करते हैं। राजा प्रजा के पाप-पुण्य के षष्ठांश का भोगी होता है, गुरु शिष्यों का, पति पत्नी का, पिता पुत्र का, स्त्री पति के लिए पुण्य का छठा भाग पाती है। पति को प्रसन्न करने वाली आज्ञाकारी स्त्री पति के लिए पुण्य का आधा भाग ले लेती है। जो पुण्यात्मा पराये लोगों को दान करते हैं, वह उनके पुण्य का छठा भाग प्राप्त करते हैं। जीविका देने वाला मनुष्य जीविका ग्रहण करने वाले मनुष्य के पुण्य के छठे भाग को प्राप्त करता है। इस प्रकार दूसरों के लिए पुण्य अथवा पाप बिना दिये भी दूसरे को मिल सकते हैं किन्तु यह नियम जो कि मैंने बतलाये हैं, ये कलियुग में लागू नहीं होते। कलियुग में तो एकमात्र कर्त्ता को ही अपने पाप व पुण्य भोगने पड़ते हैं। इस संबंध में एक बड़ा पुराना इतिहास है जो कि पवित्र भी है और बुद्धि प्रदान करने वाला कहा जाता है, उसे ध्यानपूर्वक सुनो – (यह इतिहास 31वें अध्याय में बताया जाएगा।) 🌹 वनिता कासनियां पंजाब 🌹 ----------:::×:::---------- "जय जय श्री हरि" ******************************************** "श्रीजी की चरण सेवा" की सभी धार्मिक, आध्यात्मिक एवं धारावाहिक पोस्टों के लिये हमारे पेज से जुड़े रहें👇