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. संक्षिप्त श्रीस्कन्द-महापुराण पोस्ट - 234 काशी-खण्ड काशीखण्ड-पूर्वार्ध अध्याय - 21इस अध्याय में:- श्रीगंगासहस्त्रनामपिछली पोस्ट का शेष भाग:- By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब, ५०१ धर्मधारा- धर्म को धारण करने वाली, ५०२ धर्मसारा- सब धर्मो की सारभूता, ५०३ धनदा- धन देने वाली, ५०४ धनवर्द्धिनी- धन बढ़ाने वाली, ५०५ धर्माधर्मगुणच्छेत्री- धर्माधर्म के बन्धन को काटने वाली ब्रह्मविद्यास्वरूपा, ५०६ धत्तूरकुसुम-प्रिया- धतूर के फूल में रुचि रखने वाली, ५०७ धर्मेशी- धर्मकी स्वामिनी, ५०८ धर्म- शास्त्रज्ञा- धर्मशास्त्र को जानने वाली ५०९ धन धान्यसमृद्धिकृत्- धन और धान्य को बढ़ाने वाली, ५१० धर्मलभ्या- धर्म से प्राप्त होने योग्य, ५११ धर्मजला- धर्म स्वरूप जल वाली, ५१२ धर्म प्रसवधर्मिणी- धर्म की जननी तथा धर्मनिष्ठ, ५१३ ध्यानगम्यस्वरूपा- जिसका स्वरूप ध्यान के द्वारा चिन्तन करने योग्य है, वह, ५१४ धरणी- धारण करने वाली, पृथ्वीरूपा, ५१५ धातृपूजिता- ब्रह्माजी के द्वारा पूजित ५१६ धू:- पापों को कम्पित करने वाली, ५१७ धूर्जटिजटासंस्था- भगवान् शंकर की जटा में वास करने वाली ५१८ धन्या- कृतार्थ स्वरूपा, ५१९ धी:- बुद्धि स्वरूपा, ५२० धारणावती- धारणाशक्ति से सम्पन्न, मेधा स्वरूपा, ५२१ नन्दा- नन्दा नामवाली गंगा अथवा जगत् को आनन्द देने वाली, ५२२ निर्वाणजननी- परम शान्ति अथवा मोक्ष देने वाली २३ नन्दिनी- दूसरों को प्रसन्न करने वाली अथवा वसिष्ठ की धेनु, ५२४ नुन्नपातका- पातकों को दूर करने वाली, ५२५ निषिद्धविघ्ननिचया- विघ्न समुदाय का निवारण करने वाली। ५२६ निजानन्दप्रकाशिनी- अपने स्वरूपभूत आनन्द को प्रकाशित करने वाली, ५२७ नभोऽङ्गणचरी- आकाश के आँगन में विचरने- वाली, ५२८ नृतिः- स्तुतिस्वरूपा, ५२९ नम्या- वन्दनीया, ५३० नारायणी- नारायण शक्ति स्वरूपा अथवा नारायणी (गण्डकी) नदीस्वरूपा, ५३१ नुता- ब्रह्मा और इन्द्र आदि देवताओं के द्वारा अभिनन्दिता ५३२ निर्मला- संसार रूपी मल से रहित, ५३३ निर्मलाख्याना- जिसकी माहात्म्य कथा अत्यन्त निर्मल है, ऐसी, ५३४ नाशिनी ताप सम्पदाम्- सन्ताप की परम्परा का नाश करने वाली ५३५ नियता- निमय पूर्वक रहने वाली अथवा एकरूपा, ५३६ नित्यसुखदा- सदा सुख देने वाली, ५३७ नानाश्चर्यमहानिधिः- अनेक प्रकार के आश्चर्यों का भण्डार। ५३८ नदी- अव्यक्त शब्द करने वाली सरिता, ५३९ नदसरोमाता- नदों और सरोवरों की जननी, ५४० नायिका- जीवों को संसार समुद्र से पार ले जाने वाली अथवा सब नदियों की स्वामिनी, ५४१ नाकदीर्धिका- स्वर्गलोक की वावली, ५४२ नष्टोद्धरणधीरा- संसार-सागर में गिरकर नष्ट होने वाले जीवों का उद्धार करने में दक्ष, ५४३ नन्दना- समृद्धि देने वाली ५४४ नन्ददायिनी- आनन्द देने वाली, ५४५ निर्णिक्ताशेषभुवना- समस्त लोकों को पवित्र करने वाली, ५४६ निःसङ्गा- आसक्ति रहित, ५४७ निरुपद्रवा- विघ्न रहित, ५४८ निरालम्बा- आधार रहित, अपनी ही महिमा में प्रतिष्ठित, ५४९ निष्प्रपञ्चा- प्रपंच से परे स्थित, ५५० निर्णाशितमहामला- अज्ञानरूपी महामल का पूर्णतया नाश करने वाली। ५५१ निर्मलज्ञानजननी- विशुद्ध ज्ञान को प्रकट करने वाली, ५५२ निःशेषप्राणितापहत्- समस्त प्राणियों का सन्ताप हर लेने वाली, ५५३ नित्योत्सवा- नित्य उत्सवयुक्त, ५५४ नित्यतृप्ता- अपने स्वरूपभूत आनन्द से सदा सन्तुष्ट, ५५५ नमस्कार्या- नमस्कार करने योग्य, ५५६ निरञ्जना- अज्ञानरहित, ५५७ निष्ठावती- श्रद्धा एवं नियम-निष्ठा से युक्त, ५५८ निरातंका- भयरहित, ५५९ निर्लेपा- पाप आदि से अलिप्त, शुद्ध स्वरूपा, ५६० निश्चलात्मिका- स्थिर बुद्धिवाली, ५६१ निरवद्या- निर्दोष, ५६२ निरीहा- चेष्टा रहित, ५६३ नीललोहित मूर्द्धगा- भगवान् शिव के मस्तक पर विराजमान, ५६४ नन्दिभृङ्गिगणस्तुत्या- नन्दी, भृंगी आदि शिवगणों से स्तुति की जाने योग्य, ५६५ नागा- नाग स्वरूपा, ५६६ नन्दा- समृद्धिदायिनी, ५६७ नगात्मजा- गिरिराज हिमवान् की पुत्री, ५६८ निष्प्रत्यूहा- विघ्न बाधाओं से रहित ५६९ नाकनदी- स्वर्गलोक की नदी, ५७० निरयाण्व- दीर्घनौ:- नरक-समुद्र से पार होने के लिये विशाल नौकास्वरूप, ५७१ पुण्यप्रदा- पुण्य देने वाली, ५७२ पुण्य- गर्भा- अपने भीतर पुण्य धारण करने वाली ५७३ पुण्या- पुण्यस्वरूपा, ५७४ पुण्यतरङ्गिणी- पवित्र लहरों वाली, ५७५ पृथुः- विशाल एवं परिपूर्ण, ५७६ पृथुफला- महान् फल वाली, ५७७ पूर्णा- सर्वत्र व्यापक, अविच्छिन्न धारा से युक्त, ५७८ प्रणतार्तिप्रभञ्जनी- शरणागतों की पीड़ा का नाश करने वाली। ५७९ प्राणदा- प्राणदान करने वाली, ५८० प्राणिजननी- जीवों को जन्म देने वाली, ५८१ प्राणेशी- प्राणों की अधीश्वरी, ५८२ प्राणरूपिणी- प्राण स्वरूपा, ५८३ पद्मालया- कमलों में वास करने वाली लक्ष्मी स्वरूपा, ५८४ पराशक्ति:- सर्वोत्कृष्ट शक्ति, ५८५ पुरजित्परमप्रिया- त्रिपुरारि शिव की अतिशय वल्लभा, ५८६ परा- सर्वश्रेष्ठ, ५८७ परफलप्राप्ति:- सर्वोत्तम फल-मोक्ष की प्राप्ति कराने वाली, ५८८ पावनी- सबको पवित्र करने वाली ५८९ पयस्विनी-उत्तम जल वाली, ५९० परानन्दा- परमानन्द स्वरूपा, ५९१ प्रकृष्टार्था- श्रेष्ठ पुरुषार्थ-स्वरूपा, ५९२ प्रतिष्ठा- सबकी आधारभूता, ५९३ पालिनी- पालन करने वाली, ५९४ परा- परमात्म स्वरूपा, ५९५ पुराणपठिता- पुराणों में जिसकी महिमा का प्रतिपादन किया गया है, वह, ५९६ प्रीता- सबको प्रिय लगने वाली ५९७ प्रणवाक्षररूपिणी- ॐकारस्वरूपा, ५९८ पार्वती- पर्वतराज कन्या, ५९९ प्रेमसम्पन्ना- प्रेम से परिपूर्ण, ६०० पशुपाश विमोचनी-जीवों के अज्ञानमय बन्धन को दूर करने वाली। ६०१ परमात्मस्वरूपा- परब्रह्मरूपिणी, ६०२ परब्रह्मप्रकाशिनी- परब्रह्म को प्रकाशित करने वाली, ६०३ परमानन्दनिष्पन्दा- अपने स्वरूपभूत परमानन्द में निमग्न होने के कारण निश्चल, ६०४ प्रायश्चित्तस्वरूपिणी- समस्त पापों के लिये एकमात्र प्रायश्चित स्वरूपा, ६०५ पानीयरूपनिर्वाणा- जिसमें जल रूप से मोक्ष का ही निवास है, वह, ६०६ परित्राणपरायणा- शरणागतों की रक्षा में तत्पर, ६०७ पापेन्धन दवज्वाला- पापरूपी ईन्धन को जलाने के लिये दावाग्नि की लपट, ६०८ पापारिः- पापों की शत्रु, ६०९ पापनामनुत्- पापों का नाम तक मिटा देने वाली, ६१० परमैश्वर्यजननी- अणिमा आदि महान् ऐश्वर्यों को जन्म देने वाली, ६११ प्रज्ञा- उत्तम ज्ञानस्वरूपा, ६१२ प्राज्ञा- विदुषी, ६१३ परापरा- कारण कार्य स्वरूपा, ६१४ प्रत्यक्षलक्ष्मीः- साक्षात् लक्ष्मी स्वरूपा, ६१५ पद्माक्षी- कमल के समान अथवा कमल स्वरूप नेत्रों वाली, ६१६ परव्योमामृतस्त्रवा- परब्रह्म स्वरूप अमृतमय जल को बहाने वाली, ६१७ प्रसन्नरूपा- आनन्दमय स्वरूप वाली, ६१८ प्रणिधिः- सर्वाधार, ६१९ पूता- परम पवित्र, ६२० प्रत्यक्षदेवता- सबके नेत्रों के समक्ष प्रकट हुई सच्चिदानन्दमयी देवी, ६२१ पिनाकि परमप्रीता- पिनाकधारी भगवान् शिव की परम प्रियतमा, ६२२ परमेष्ठिकमण्डलुः- ब्रह्माजी के कमण्डलु में वास करने वाली, ६२३ पद्मनाभपदार्घ्येण प्रसूता- भगवान् विष्णु के चरण पखारने से प्रकट हुई, ६२४ पद्ममालिनी- कमल पुष्पों की माला धारण करने वाली, ६२५ पर्द्धिदा- उत्तम समृद्धि देने वाली। ६२६ पुष्टिकरी- पोषण करने वाली, ६२७ पथ्या- संसार रूपी रोग की निवृत्ति के लिये हितकर आहार स्वरूपा, ६२८ पूर्तिः- पूर्णता, ६२९ प्रभावती- प्रकाशवती, ६३० पुनाना- पवित्र करने वाली, ६३१ पीतगर्भघ्नी- पीतगर्भ अर्थात् राक्षसों का नाश करने वाली, ६३२ पापपर्वतनाशिनी- पापरूपी पर्वत का नाश करने वाली, ६३३ फलिनी- देने योग्य फल से युक्त, ६३४ फलहस्ता- भक्तों को देने के लिये सब प्रकार के फल हाथ में धारण करने वाली, ६३५ फुल्लाम्बुजविलोचना- विकसित कमल के समान नेत्रों वाली, ६३६ फालितैनोमहाक्षेत्रा- पापों के महाक्षेत्र को नष्ट करने वाली, ६३७ फणिलोकविभूषणम्- भोगवती गंगा के रूप में नागलोक को विभूषित करने वाली, ६३८ फेनच्छलप्रणुनैना:- फेन छाँटने के व्याज से पापराशि को नाश करने वाली, ६३९ फुल्लकैरवगन्धिनी- खिले हुए कुमुद पुष्पों की गन्ध से युक्त, ६४० फेनिलाच्छाम्बुधाराभा- फेनयुक्त स्वच्छ जल की धारा से उद्भासित होने वाली, ६४१ फुडुच्चाटितपातका- 'फुट्' इस शब्द के साथ पातकों को उखाड़ फेंकने वाली, ६४२ फाणितस्वादुसलिला- सीरा के समान स्वादिष्ट जल वाली, ६४३ फाण्टपथ्यजलाविला- मट्ठा के समान पथ्य (हितकर) जल से भरी हुई, ६४४ विश्वमाता- समस्त संसार की माता, ६४५ विश्वेशी- जगदीश्वरी, ६४६ विश्वा- सर्वस्वरूपा, ६४७ विश्वेश्वरप्रिया- विश्वनाथ वल्लभा, ६४८ ब्रह्मण्या- ब्राह्मण हितकारिणी, ६४९ ब्रह्मकृत्- ब्रह्मा आदि देवताओं को उत्पन्न करने वाली जगदीश्वरी, ६५० ब्राह्मी- ब्रह्मशक्ति, ६५१ ब्रह्मिष्ठा- ब्रह्मनिष्ठ, ६५२ विमलोदका- निर्मल जलवाली, ६५३ विभावरी- रात्रिस्वरूपा, ६५४ विरजा- रजोगुण रहिता, ६५५ विक्रान्तानेकविष्टपा- अनेक भुवनों में व्याप्त, ६५६ विश्वमित्रम्- सम्पूर्ण जगत् की सुहृद्, ६५७ विष्णुपदी- भगवान् विष्णु के चरणों से प्रकट हुई, ६५८ वैष्णवी- विष्णु शक्ति, ६५९ वैष्णवप्रिया- विष्णुभक्तों को प्रिय, ६६० विरूपाक्षप्रियकरी- भगवान् शंकर का प्रियकार्य करने वाली, ६६१ विभूतिः- अणिमा आदि अष्टविध ऐश्वर्यरूपा, ६६२ विश्वतोमुखी- सब ओर मुख वाली, ६६३ विपाशा- बन्धन रहित, अथवा विपाशा (व्यास) नामक नदी, ६६४ वैबुधी- देवाधिदेव विष्णु की शक्ति अथवा देवलोक में प्रकट, ६६५ वेद्या- जानने योग्य, ६६६ वेदाक्षररसस्त्रवा- वेद के अक्षरों से प्रतिपादित ब्रह्मानन्द रस का स्रोत बहाने वाली, ब्रह्मद्रवरूपा, ६६७ विद्या- व्रह्मविद्यास्वरूपा, ६६८ वेगवती- बड़े वेग से बहने वाली, ६६९ वन्या- वन्दनीया, ६७० बृंहणी- वृहत्स्वरूपा अथवा विस्तार करने वाली, ६७१ ब्रह्मवादिनी- ब्रह्म का उपदेश करने वाली, ६७२ वरदा- वर देने वाली, ६७३ विप्रकृष्टा- सर्वोत्तम, ६७४ वरिष्ठा- श्रेष्ठा, ६७५ विशोधनी- विशेष रूप से शुद्ध (पवित्र) करने वाली। ६७६ विद्याधरी- सम्पूर्ण विद्याओं को धारण करने वाली, ६७७ विशोका- शोक रहित, ६७८ वयोवृन्दनिषेविता- पक्षियों के समुदाय से निषेवित, ६७९ बहूदका- बहुत जलवाली, ६८० बलवती- बल से युक्त, ६८१ व्योमस्था- स्वर्गगंगा रूप से आकाश में स्थित, ६८२ विबुधप्रिया- देवताओं की प्रियनदी, ६८३ वाणी- सरस्वती स्वरूपा, ६८४ वेदवती- वैदिक ज्ञान से सम्पन्न अथवा वेदवती नाम वाली सती साध्वी स्वरूपा, ६८५ वित्ता- ज्ञानस्वरूपा, ६८६ ब्रह्मविद्यातरंगिणी- ब्रह्मविद्यारूपी तरंगों से युक्त, ६८७ ब्रह्माण्डकोटिव्याप्ताम्बुः- करोड़ों ब्रह्माण्डों में व्याप्त जल वाली, ६८८ ब्रह्महत्यापहारिणी- ब्रह्महत्या का अपहरण करने वाली। ६८९ ब्रह्मेशविष्णुरूपा- ब्रह्मा, शिव और विष्णु स्वरूपा, ६९० बुद्धिः- बुद्धिस्वरूपा, ६९१ विभववर्द्धिनी- धन बढ़ाने वाली, ६९२ विलासिसुखदा- विलासियों को सुख देने वाली, ६९३ वश्या- भगवदिच्छा के अधीन रहने वाली ६९४ व्यापिनी- सर्वत्र व्यापक, ६९५ वृषारणि:- धर्मोत्पत्ति की कारणरूपा, ६९६ वृषाङ्कमौलिनिलया- भगवान् शंकर के मस्तक पर निवास करने वाली ६९७ विपन्नार्ति प्रभञ्जनी- विपत्ति में पड़े हुए भक्तजनों की पीडा अथवा अपने जल में मृत्यु को प्राप्त हुए पुरुषों की दुर्गति एवं कष्ट का निवारण करने वाली, ६९८ विनीता- विनयशीला, ६९९ विनता- विशेषत: नम्र, ७०० ब्रध्नतनया- सूर्य पुत्री यमुना स्वरूपा, ७०१ विनयान्विता- विनययुक्त, ७०२ विपञ्ची- वीणास्वरूपा अथवा वीणा की सी मधुर ध्वनि करने वाली, ७०३ वाद्यकुशला- सभी प्रकार के वाद्यों को बजाने में चतुर, ७०४ वेणुश्रुतिविचक्षणा- वेणुगीत सुनने और समझने में कुशल, ७०५ वर्चस्करी- तेज उत्पन्न करने वाली, ७०६ बलकरी- सामर्थ्य प्रदान करने वाली, ७०७ बलोन्मृलितकल्मषा- बल पूर्वक पापों का उच्छेद करने वाली, ७०८ विपाप्मा- पापरहित, ७०९ विगतातङ्का- भयरहित, ७१० विकल्पपरिवर्जिता- भेद दृष्टि से रहित, ७११ वृष्टिकत्री- सूर्यरूप से वर्षा करने वाली, ७१२ वृष्टिजला- वर्षा के कारण भूत जल वाली, ७१३ विधि:- ब्रह्मारूप से सृष्टि करने वाली, ७१४ विच्छिन्नबन्धना- अपने आश्रितों के संसार-बन्धन का नाश करने वाली, ७१५ व्रतरूपा- कृच्छ्र-चान्द्रायणादि व्रत-स्वरूपा अथवा भक्तों के व्रत (संकल्प) के अनुसार स्वरूप धारण करने वाली, ७१६ वित्तरूपा- वैभवरूपिणी, ७१७ बहुविघ्नविनाशकृत्- बहुत से विध्नों का विनाश करने वाली ७१८ वसुधारा- वसु (धन) धारण करने वाली, आठ वसुओं को मातारूप से गर्भ में धारण करने वाली अथवा 'वसुधारा' स्वरूपा, ७१९ वसुमती- रत्नगर्भा वसुधारूपा, ७२० विचित्राङ्गी- अद्भुत शरीर वाली, ७२१ विभावसुः- अग्नि अथवा सूर्य की भाँति प्रकाशित होने वाली, ७२२ विजया- विजयशालिनी, ७२३विश्वबीजम्- जगत् की कारण स्वरूपा, ७२४ वामदेवी- वामदेव शिव की शक्ति, मनोहारिणी देवी, ७२५ वरप्रदा- वर देने वाली। ७२६ वृषाश्रिता- धर्म के आश्रित, ७२७ विषघ्नी-विषका प्रभाव नष्ट करने वाली, ७२८ विज्ञानोम्म्यंशुमालिनी- विज्ञानमयी तरंगों और किरणों से युक्त, ७२९ भव्या- कल्याणमयी, ७३० भोगवती- भोगवती नाम से प्रसिद्ध पातालगंगा, ७३१ भद्रा- मंगलमयी, ७३२ भवानी- शिवपत्नी, ७३३ भृतभाविनी- समस्त प्राणियों की उत्पत्ति और पालन करने वाली, ७३४ भूतधात्री- चार प्रकार के जीवों का धारण-पोषण करने वाली, ७३५ भयहरा- संसार भय का निवारण करने वाली ७३६ भक्तदारिद्र्यघातिनी- भक्तों की दरिद्रता का नाश करने वाली, ७३७ भुक्तिमुक्तिप्रद्रा- भोग और मोक्ष देने वाली, ७३८ भेशी- नक्षत्रोंकी अधीश्वरी, ७३९ भक्तस्वर्गापवर्गदा- भक्तों को स्वर्ग और मोक्ष देने वाली, ७४० भागीरथी- राजा भगीरथ के द्वारा लायी हुई, ७४१ भानुमती-प्रकाशवती, ७४२ भाग्यम्- नियति रूपा, ७४३ भोगवती- विविध प्रकार के भोगों से सम्पन्न, ७४४ भृति:- भरण- पोषण का साधन, ७४५ भवप्रिया- भगवान् शंकर की प्रिया, ७४६ भवद्वेष्ट्री- संसार बन्धन का नाश करने वाली ७४७ भूतिदा- ऐश्वर्य देने वाली ७४८ भृति भूषणा- विभूति से विभूषित, ७४९ भाललोचन भावज्ञा- भगवान् शिव के भाव को जानने वाली ७५० भूतभव्यभवत्प्रभुः- भूत, वर्तमान और भविष्य तीनों काल की स्वामिनी। ७५१ भ्रान्तिज्ञानप्रशमनी- भ्रमात्मक ज्ञान का निवारण करने वाली, ७५२ भिन्नब्रह्माण्डमण्डपा- ब्रह्माण्डरूपी मण्डप का भेदन करने वाली, ७५३ भूरिदा- बहुत देने वाली, ७५४ भक्तसुलभा- भक्तों को सुगमता पूर्वक प्राप्त होने वाली ७५५ भाग्य वद्दृष्टिगोचरी- भाग्यवानों को प्रत्यक्ष दर्शन देने वाली, ७५७ भञ्जितोपप्लवकुला- भक्तजनों के उपद्रवों का नाश करने वाली ७५७ भक्ष्यभोज्य सुखप्रदा- भक्ष्य-भोज्य का सुख देने वाली, ७५८ भिक्षणीया- अभ्युदय और नि:श्रेयस की इच्छा वाले पुरुषों द्वारा याचना करने योग्य, ७५९ भिक्षुमाता- भिक्षुओं- परमहंस जनों को माता के समान सुख देने वाली, ७६० भावी- सबको उत्पन्न करने वाली, ७६१ भावस्वरूपिणी- पदार्थरूपा, ७६२ मन्दाकिनी- स्वर्गगंगा, ७६३ महानन्दा- परमानन्द स्वरूपा, ७६४ माता- सम्पूर्ण विश्व के पापरूपी मल को पुत्रवत्सला माता की भाँति दूर करने वाली, ७६५ मुक्तितरङ्गिणी- मोक्षरूप तरंगों से सुशोभित, ७६६ महोदया- महान् अभ्युदयरूप, ७६७ मधुमती- अमृतमय जल से युक्त, ७६८ महापुण्या- महापुण्य स्वरूपा, ७६९ मुदाकरी- हर्षोल्लास की निधि, ७७० मुनिस्तुता- मुनियों के द्वारा प्रशंसित एवं पूजित, ७७१ मोहन्त्री- अज्ञान का नाश करने वाली, ७७२ महातीर्था- महान् तीर्थ स्वरूपा, ७७३ मधुस्त्रवा- मीठे जल का स्रोत बहाने वाली ७७४ माधवी- विष्णु प्रिया, ७७५ मानिनी- सबके द्वारा सम्मान प्राप्त करने वाली। ७७६ मान्या- माननीया, पूजनीया, ७७७ मनोरथपथातिगा- मन की पहुँच से परे विराजमान। ७७८ मोक्षदा- मोक्ष देने वाली, ७७९ मतिदा- उत्तम बुद्धि देने वाली, ७८० मुख्या- श्रेष्ठा, ७८१ महाभाग्यजनाश्रिता- बड़भागी मनुष्यो द्वारा सेवित, ७८२ महावेगवती- बड़े वेग से बहने वाली, ७८३ मेध्या- पवित्रा, ७८४ महा- उत्सव रूपा, ७८५ महिमभूषणा- अपनी महिमा मे विभूषित, ७८६ महाप्रभावा- महान् प्रभाव से युक्त, ७८७ महती- विशाल, ७८८ मीनचञ्चल- लोचना- मीन के समान अथवा मीन स्वरूप चंचल नेत्रों वाली, ७८९ महाकारुण्यसम्पूर्णा- अत्यन्त कूपा से भरी हुई, ७९० महर्द्धि - बड़ी भारी समृद्धि देने वाली अथवा महती समृद्धि रूपा, ७९१ महोत्पला- बड़े-बड़े कमलों को उत्पन्न करने वाली, ७९२ मूर्तिमत्- मूर्तिमान् तेज, ७९३ मुक्तिरमणी- मुक्ति रूपा, रमण करने योग्य, ७९४ मणि माणिक्यभूषणा- मणि-माणिक्यमय आभूषणों वाली ७९५ मुक्ताकलापनेपथ्या- मोतियों की माला से श्रृंगार करने वाली ७९६ मनोनयननन्दिनी- मन और नेत्रों को आनन्द देने वाली, ७९७ महापातकराशिघ्नी- महापातकों की राशि का नाश करने वाली, ७९८ महादेवार्धहारिणी- महादेवजी के आधे शरीर पर अधिकार करने वाली गौरीस्वरूपा, ७९९ महोर्मिमालिनी- ऊँची तरंग-मालाओं से युक्त, ८०० मुक्ता- मुक्तस्वरूपा। ८०१ महादेवी- महादेवी, ८०२ मनोन्मनी- मन को उन्मन (उत्तम ज्ञान से युक्त) करने वाली, ८०३ महापुण्योदयप्राप्या- महान् पुण्य का उदय होने पर प्राप्त होने वाली, ८०४ मायातिमिरचन्द्रिका- मायामय अन्धकार का नाश करने के लिये चन्द्रप्रभारूप, ८०५ महाविद्या- ब्रह्मविद्यास्वरूपा, ८०६ महामाया- महामाया, ८०७ महामेधा- महान् बुद्धिमती, ८०८ महौषधम्- उत्तम ओषधिरूपा, ८०९ मालाधरी- माला धारण करने वाली, ८१० महोपाया- मुक्ति की प्राप्ति का महासाधन, ८११ महोरगविभूषणा- महान् सर्प जिसके आभूषण हैं, वह, ८१२ महामोहप्रशमनी- महान् मोह को शान्त करने वाली, ८१३ महामङ्गलमङ्गलम्- महान् मंगलों के लिये भी मंगलरूप, ८१४ मार्तण्डमण्डलचरी-आकाशगंगा रूप से सूर्यलोक में विचरने वाली, ८१५ महालक्ष्मीः- महालक्ष्मी स्वरूपा, ८१६ मदोन्झिता- मद से रहित, ८१७ यशस्विनी- उत्तम यश से युक्त, ८१८ यशोदा- सुयश देने वाली, ८१९ योग्या- सब प्रकार से सुयोग्य, ८२० युक्तात्मसेविता- जितात्मा पुरुषों द्वारा सेवित, ८२१ योगसिद्धिप्रदा- योगसिद्धि देने वाली, ८२२ याच्या- प्रार्थनीया, ८२३ यज्ञेशपरिपूरिता- यज्ञेश्वर विष्णुसे व्याप्त, ८२४ यज्ञेशी- यज्ञ की अधिष्ठात्री देवी, ८२५ यज्ञफलदा- स्मरण करने पर यज्ञों का फल देने वाली। ८२६ यजनीया- पूजनीया, ८२७ यशस्करी- यश देने वाली ८२८ यमिसेव्या- संयमी पुरुषों द्वारा सेवन करनेयोग्य, ८२९ योगयोनिः- योग की उत्पत्ति का स्थान ८३० योगिनी- योग को जानने वाली ८३१ युक्तबुद्धिदा- योगयुक्त बुद्धि देने वाली, ८३२ योगज्ञानप्रदा- योग और ज्ञान देने वाली, ८३३ युक्ता- मन और इन्द्रियों को संयम में रखने वाली, ८३४ यमाद्यष्टाङ्गयोगयुक्- यम, नियम आदि आठ अंगों वाले योग से युक्त। ८३५ यन्त्रिताघौघसंचारा- पापराशियों के संचार को नियन्त्रित करने वाली, ८३६ यमलोक- निवारिणी- यमलोक का निवारण करने वाली, ८३७ यातायातप्रशमनी- आवागमन अथवा जन्म-मृत्यु का कष्ट दूर करने वाली, ८३८ यातनानाम- कृन्तनी- यातना का नाम-निशान मिटाने वाली, ८३९ यामिनीशहिमाच्छोदा- चन्द्रमा और बर्फ के समान स्वच्छ एवं शीतल जल वाली, ८४० युगधर्मविवर्जिता- कलियुग धर्म-हिंसा और असत्य आदि से सर्वथा रहित, ८४१ रेवती- रेवती नामक नक्षत्र स्वरूपा, ८४२ रतिकृत्- भगवान् के प्रति अनुराग रखने वाली, ८४३ रम्या- रमणीया, ८४४ रत्नगर्भा- अपने भीतर रत्न धारण करने वाली ८४५ रमा- लक्ष्मीरूपा, ८४६ रतिः- अनुरागरूपा, ८४७ रत्नाकरप्रेमपात्रम्- रत्नाकर, समुद्र की प्रीति पात्र, ८४८ रसज्ञा- रस को जानने वाली, ८४९ रसरूपिणी- रसस्वरूपा, ८५० रत्नप्रासाद गर्भा- जिसके भीतर रत्नमय देवालय शोभा पा रहे हैं, ऐसी। ८५१ रमणीयतरङ्गिणी- रमणीय लहरों से युक्त, ८५२ रत्नार्चि:- रत्नों के समान कान्तिमती, ८५३ रुद्ररमणी- भगवान् रुद्र की जटा में रमण करने वाली, ८५४ रागद्वेषविनाशिनी- राग और द्वेष का नाश करने वाली, ८५५ रमा- नेत्र और मन को रमाने वाली, ८५६ रामा- मनोहर स्त्री अथवा योगियों के मन को रमाने वाली, ८५७ रम्यरूपा- रमणीय रूप वाली ८५८ रोगिजीवानुरूपिणी- संसार रोग से ग्रस्त पुरुषों के लिये संजीवन ओषधिरूपा, ८५९ रुचिकृत्- प्रकाश करने वाली, ८६० रोचनी- अपने दर्शन की रुचि उत्पन्न करने वाली, ८६१ रम्या- रमा की हितकारिणी, ८६२ रुचिरा- मनोहर रूप वाली ८६३ रोगहारिणी- संसार रूपी रोग का नाश करने वाली, ८६४ राजहंसा- शोभायमान हंसों से युक्त, ८६५ रत्नवती- अनेक प्रकार के रत्नों से संयुक्त, ८६६ राजत्कल्लोलराजिका- शोभाशाली तरंग मालाओं से युक्त, ८६७ रामणीयकरेखा- जिसकी जलधारा रमणीयता की रेखा है, वह, ८६८ रुजारिः- रोगों की शत्रुभूता, ८६९ रोगरोषिणी- रोगों पर रोष प्रकट करने वाली, ८७० राका- पूर्णमासी स्वरूपा, ८७१ रङ्कार्तिशमनी- दीन-दुःखियों की दैन्य वेदना शान्त करने वाली, ८७२ रम्या- रमणीया, ८७३ रोलम्बराविणी- भ्रमरों के गुंजार के समान जल की कलकल ध्वनि करने वाली, ८७४ रागिणी- भगवान् के प्रति अनुराग रखने वाली, ८७५ रञ्जितशिवा- अपनी सन्निधि से भगवान् शिव को प्रसन्न करने वाली। ८७६ रूपलावण्यशेवधिः- सौन्दर्य और कान्ति की निधि, ८७७ लोकप्रसूः- लोकमाता, ८७८ लोकवन्द्या- सम्पूर्ण विश्व के लिये वन्दनीया, ८७९ लोलत्कल्लोलमालिनी- चंचल लहरों की श्रेणियों से सुशोभित, ८८० लीलावती- सृष्टि की उत्पत्ति, पालन और संहार की लीला करने वाली, ८८१ लोकभूमि:- सम्पूर्ण भुवनों की आधार, ८८२ लोकलोचन चन्द्रिका- लोगों के नेत्रों में चाँदनी की भाँति आह्लाद उत्पन्न करने वाली, ८८३ लेखस्त्रवन्ती- देव नदी, ८८४ लटभा- भगवत्प्रेम के लिये लोलुप-सी प्रतीत होने वाली, ८८५ लघुवेगा- शीत काल में लघु वेग वाली, ८८६ लघुत्वहत्- भक्तों की लघुता दूर करने वाली। ८८७ लास्यतरङ्गहस्ता- नृत्य-सा करती हुईं चंचल लहरें जिसके लिये मानो हाथ हैं, वह ८८८ ललिता- मनोहर रूपवाली, ८८९ लय भङ्गिमा- लय-नृत्य, गति और वाद्य की समता की भंगी (अंदाज) से चलने वाली, ८९० लोकबन्धुः- सम्पूर्ण जगत् का बन्धु की भाँति हित चाहने वाली, ८९१ लोकधात्री- माता की भाँति विश्व का पालन-पोषण करने वाली, ८९२ लोकोत्तरगुणोर्जिता- अलौकिक गुणों से बढ़ी-चढ़ी, ८९३ लोकत्रयहिता- तीनों लोकों का हित करने वाली, ८९४ लोका- लोकस्वरूपा, ८९५ लक्ष्मी:- लक्ष्मी स्वरूपा, ८९६ लक्षणलक्षिता- शुभ लक्षणों से उपलक्षिता, ८९७ लीला- भगवत्क्रीडा स्वरूपा, ८९८ लक्षितनिर्वाणा- मोक्ष का साक्षात्कार कराने वाली, ८९९ लावण्यामृतवर्षिणी- लावण्यमय अमृत की वर्षा करने वाली, ९०० वैश्वानरी- वैश्वानर-अग्निस्वरूपा, ९०१ वासवेड्या- इन्द्र के द्वारा स्तवन करने योग्य, ९०२ वन्ध्यत्वपरिहारिणी- वन्ध्यापन का निवारण करने वाली, ९०३ वासुदेवाङ्घिरेणुष्नी- भगवान् विष्णु के चरणों की धूलि को धो लेने वाली, ९०४ वज्रिवज्रनिवारिणी- इन्द्र के वज्र का निवारण करने वाली, ९०५ शुभावती- मंगलमयी, ९०६ शुभफला- शुभ फल देने वाली ९०७ शान्तिः- शान्ति स्वरूपा, ९०८ शान्तनुवल्लभा- राजा शान्तनु की प्रिय पत्नी, ९०९ शूलिनी- त्रिशूल धारण करने वाली, ९१० शैशववया- वाल्या वस्था से युक्त, ९११ शीतलामृतवाहिनी- शीतल जल की धारा बहानेवाली, ९१२ शोभावती- शोभायमान, ९१३ शीलवती- सुशीला, ९१४ शोषिताशेषकिल्बिषा- सम्पूर्ण पापों का शोषण (नाश) करने वाली, ९१५ शरण्या- शरण लेने योग्य, ९१६ शिवदा- कल्याण-दायिनी, ९१७ शिष्टा- श्रेष्ठा, ९१८ शरजन्मप्रसू:- कार्तिकेय की जननी, ९१९ शिवा- कल्याणस्वरूपा, ९२० शक्तिः- आह्वादिनी शक्ति स्वरूपा, ९२१ शशाङ्कविमला- चन्द्रमा के समान उज्वल वर्ण वाली, ९२२ शमनस्वसृसम्मता- यमराज की बहिन यमुना की प्रिय सखी, ९२३ शमा- अज्ञान का नाश करने वाली अथवा शमस्वरूपा, ९२४ शमनमार्गध्नी- यमलोक के मार्ग का निवारण करने वाली, ९२५ शितिकण्ठमहाप्रिया- नील कण्ठ महादेवजी की अत्यन्त वर्लभा। ९२६ शुचिः- पवित्रा, ९२७ शुचिकरी- पवित्र करने वाली, ९२८ शेषा- प्रलय के समय भी शेष रहने वाली- सच्चिदानन्द ब्रह्मरूपा, ९२९ शेषशायिपदोद्भवा- शेषनाग की शय्या पर शयन करने वाले भगवान् विष्णु के चरणारविन्दों से प्रकट हुई, ९३० श्रीनिवासश्रुतिः- भगवान् विष्णु से जिनका प्रादुर्भाव सुना जाता है, ९३१ श्रद्धा- आस्तिक्य बुद्धिरूपा, ९३२ श्रीमती- शोभायुक्त, ९३३ श्री:- लक्ष्मी-स्वरूपा, ९३४ शुभव्रता- शुभव्रत वाली, ९३५ शुद्धविद्या- ब्रह्मविद्यास्वरूपा, ९३६ शुभावर्ता- उत्तम भँवर वाली, ९३७ श्रुतानन्दा- श्रवण मात्र से आनन्द देने वाली, ९३८ श्रुतिस्तुतिः- श्रुतियों (वैदिक मन्त्रों) द्वारा जिसकी स्तुति की जाती है, वह, ९३९ शिवेतरघ्नी- अमंगलकारी पापों का नाश करने वाली, ९४० शबरी- किरात-रूपधारी भगवान् महेश्वर की प्रिया, ९४१ शाम्बरी रूपधारणी- मायामय रूप धारण करने वाली। ९४२ श्मशानशोधनी- काशी की महाश्मशान भूमि को शुद्ध करने वाली, ९४३ शान्ता- शान्त स्वरूपा, ९४४ शश्वत्- सनातनी, ९४५ शतधृतिस्तुता- ब्रह्माजी के द्वारा अभिवन्दित, ९४६ शालिनी- शोभायमान, ९४७ शालिशोभाढ्या- धान के हरे-भरे पौधों की शोभा से सम्पन्न, ९४८ शिखिवाहन गर्भभृत्- कार्तिकेय को गर्भ में धारण करने वाली, ९४९ शंसनीयचरित्रा- स्तवन करने योग्य दिव्य चरित्रों वाली, ९५० शातिताशेषपातका- समस्त पातकों का नाश करने वाली। ९५१ षड्गुणैश्वर्य सम्पन्ना- ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान तथा वैराग्य- इन छः प्रकार के ऐश्वर्यो से सम्पन्न, ९५२ षडङ्गश्रुतिरूपिणी- शिक्षा, व्याकरण, छन्द, निरुक्त, ज्यौतिष तथा कल्प-ये वेद के छः अंग तथा वेद जिसके स्वरूप हैं, वह, ९५३ षण्ढताहारिसलिला- नपुंसकता एवं निर्वीर्यता आदि दोष दूर करने में समर्थ जल वाली, ९५४ स्त्यायन्नदनदीशता- जिसमें सैकड़ों नद और नदियाँ कल-कल नाद के साथ आकर मिलती हैं, वह, ९५५ सरिद्वरा- नदियों में श्रेष्ठ, ९५६ सुरसा- उत्तम रस से युक्त, ९५७ सुप्रभा- सुन्दर प्रभावाली, ९५८ सुरदीर्धिका- देवताओं की बावली, ९५९ स्व:सिन्धुः- स्वर्गलोक की नदी, ९६० सर्वदुःखर्नी- सबके दुःखों का नाश करने वाली, ९६१ सर्वव्याधिमहौषधम्- समस्त रोगों की एकमात्र महौषधि, ९६२ सेव्या- सेवन करने योग्य, ९६३ सिद्धिः- अणिमा आदि अष्टसिद्धि स्वरूपा, ९६४ सती- पतिव्रता, ९६५ सूक्तिः- शुभ उक्तिरूप अथवा वैदिक-सूक्तस्वरूपा, ९६६ स्कन्दसूः- कार्तिकेयजननी, ९६७ सरस्वती- वाणी की अधिष्ठात्री देवी। ९६८ सम्पत्तरङ्गिणी- सम्पत्तिरूप लहरों वाली, ९६९ स्तुत्या- स्तवन करने योग्य, ९७० स्थाणु- मौलिकृतालया- भगवान् शंकर के मस्तक को अपना निवास स्थान बनाने वाली, ९७१ स्थैर्यदा- स्थिरता प्रदान करने वाली, ९७२ सुभगा- उत्तम ऐश्वर्य से युक्त, ९७३ सौख्या- सुख देने वाली ९७४ स्त्रीषुसौभाग्यदायिनी- स्त्रियों को सौभाग्य प्रदान करने वाली, ९७५ स्वर्गनिःश्रेणिका- स्वर्ग लोक में जाने के लिये सीढ़ी। ९७६ सूक्ष्मा- इन्द्रियों की पहुँच से परे स्थित, सूक्ष्म स्वरूपा, ९७७ स्वधा- पितृतृप्ति स्वरूपा, ९७८ स्वाहा- हव्यस्वरूपा, ९७९ सुधाजला- अमृत के समान मधुर जल वाली, ९८० समुद्ररूपिणी- समुद्ररूपा, ९८१ स्वर्ग्या- स्वर्गलोक की प्राप्ति में सहायक, ९८२ सर्वपातक- वैरिणी-समस्त पापों की शत्रु, ९८३ स्मृताघहारिणी- स्मरण करने पर समस्त पापों का संहार करने वाली ९८४ सीता- सीता नाम वाली गंगा, जनकनन्दिनी स्वरूपा, ९८५ संसाराब्धि तरण्डिका- संसार सागर से पार उतारने के लिये नौका रूप, ९८६ सौभाग्यसुन्दरी- अतिशय सौभाग्य से परम सुन्दर प्रतीत होने वाली, ९८७ सन्ध्या- सन्ध्या काल में उपास्य गायत्री रूपा, ९८८ सर्वसार समन्विता- समस्त शक्तियों से संयुक्त, ९८९ हरप्रिया- भगवान् शिव की वल्लभा, ९९० हृषीकेशी- इन्द्रियों की स्वामिनी अथवा हृषीकेश भगवान् विष्णु की पत्नी, ९९१ हंसरूपा- शुद्ध स्वरूपा, हंसरूप धारिणी, ९९२ हिरण्मयी- स्वर्णमयी, ज्ञानस्वरूपा, ९९३ हृताघसंघा- पापराशियों का विनाश करने वाली, ९९४ हितकृत्- हित-साधन करने वाली, ९९५ हेला- एक प्रकार की श्रृंगार जनित चेष्टा, ९९६ हेलाघगर्वहत्- लीलापूर्वक पाप का घमण्ड चूर करने वाली, ९९७ क्षेमदा- कल्याण दायिनी, ९९८ क्षालिताघौघा- पापराशि को धो डालने वाली, ९९९ क्षुद्र- विद्राविणी- दुष्टों को मार भगाने वाली, १००० क्षमा- सहनशीला, पृथ्वी स्वरूपा। अगस्त्यजी ! इस प्रकार गंगाजी के सहस्त्र नामों का कीर्तन करके मनुष्य गंगा स्नान का उत्तम फल पा लेता है। यह गंगासहस्रनाम सब पापों का नाश और सम्पूर्ण विघ्नों का निवारण करने वाला है समस्त स्तोत्रों के जप से इसका जप श्रेष्ठ है। यह सबको पवित्र करने वाली वस्तुओं को भी पवित्र करने वाला है। श्रद्धा पूर्वक इसका पाठ करने पर यह मनोवांछित फल देने वाला है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चारों पुरुषार्थों की प्राप्ति कराने वाला है मुने ! इसका एक बार पाठ करने से भी एक यज्ञ का फल प्राप्त होता है। गंगासहस्रनाम आयु तथा आरोग्य देने वाला और सम्पूर्ण उपद्रवों का नाश करने वाला है। यह मनुष्यों को सब प्रकार की सिद्धि देने वाला है। जो इस स्तुति का पाठ करता है, उसे सदाचारी जानना चाहिये। वह सदा पवित्र है तथा उसने सम्पूर्ण देवताओं की पूजा सम्पन्न कर ली है। उसके तृप्त होने से साक्षात् गंगाजी तृप्त हो जाती हैं। अत: सर्वथा प्रयत्न करके गंगाजी के भक्त का पूजन करे। जो गंगाजी के इस स्तोत्रराज का श्रवण और पाठ करता है या दम्भ और लोभ से रहित होकर उनके भक्तों को सुनाता है, वह मानसिक, वाचिक और शारीरिक तीनों प्रकार के पापों से मुक्त हो जाता है तथा पितरों का प्रिय होता है। जिसके घर में गंगाजी का यह स्तोत्र लिखकर इसकी पूजा की जाती है, वहाँ पाप का कोई भय नहीं है। वह घर सदा पवित्र है। ~~~०~~~ 'ॐ नमः शिवाय'******************************************** "श्रीजी की चरण सेवा" की सभी धार्मिक, आध्यात्मिक एवं धारावाहिक पोस्टों के लिये हमारे पेज से जुड़े रहें तथा अपने सभी भगवत्प्रेमी मित्रों को भी आमंत्रित करें👇 By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब,

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❤️,श्रीकांत"❤️       अध्याय 20By वनिता कासनियां पंजाबअध्याय 20एक दिन सुबह स्वामी आनन्द आ पहुँचे। रतन को यह पता न था कि उन्हें आने का निमन्त्रण दिया गया है। उदास चेहरे से उसने आकर खबर दी, “बाबू, गंगामाटी का वह साधु आ पहुँचा है। बलिहारी है, खोज-खाजकर पता लगा ही लिया।”रतन सभी साधु-सज्जनों को सन्देह की दृष्टि से देखता है। राजलक्ष्मी के गुरुदेव को तो वह फूटी ऑंख नहीं देख सकता। बोला, “देखिए, यह इस बार किस मतलब से आया है। ये धार्मिक लोग रुपये लेने के अनेक कौशल जानते हैं।”हँसकर कहा, “आनन्द बड़े आदमी का लड़का है, डॉक्टरी पास है, उसे अपने लिए रुपयों की जरूरत नहीं।”“हूँ, बड़े आदमी का लड़का है! रुपया रहने पर क्या कोई इस रास्ते पर आता है!” इस तरह अपना सुदृढ़ अभिमत व्यक्त करके वह चला गया। रतन को असली आपत्ति यहीं पर है। माँ के रुपये कोई ले जाय, इसका वह जबरदस्त विरोधी है। हाँ, उसकी अपनी बात अलग है।”वज्रानन्द ने आकर मुझे नमस्कार किया, कहा, “और एक बार आ गया दादा, कुशल तो है? दीदी कहाँ हैं?”“शायद पूजा करने बैठी हैं, निश्चय ही उन्हें खबर नहीं मिली है।”“तो खुद ही जाकर संवाद दे दूँ। पूजा करना भाग थोड़े ही जायेगा, अब वे एक बार रसोईघर की तरफ भी दृष्टिपात करें। पूजा का कमरा किस तरफ है दादा? और वह नाई का बच्चा कहाँ गया- जरा चाय का पानी चढ़ा दे।”पूजा का कमरा दिखा दिया। रतन को पुकारते हुए आनन्द ने उस ओर प्रस्थान किया।दो मिनट बाद दोनों ही आकर उपस्थित हुए। आनन्द ने कहा, “दीदी, पाँचेक-रुपये दे दो, चाय पीकर जरा सियालदा बाजार घूम आऊँ।”राजलक्ष्मी ने कहा, “नजदीक ही एक अच्छा बाजार है आनन्द, उतनी दूर क्यों जाओगे? और तुम ही क्यों जाओगे? रतन को जाने दो न!”“कौन रतन? उस आदमी का विश्वास नहीं दीदी, मैं आया हूँ इसीलिए शायद वह छाँट-छाँटकर सड़ी हुई मछलियाँ खरीद लायेगा।” कहकर हठात् देखा कि रतन दरवाजे पर खड़ा है। तब जीभ दबाकर कहा, “रतन, बुरा न मानना भाई, मैंने समझा था कि तुम उधर चले गये हो, पुकारने पर उत्तर नहीं मिला था न!”राजलक्ष्मी हँसने लगी, मुझसे भी बिना हँसे न रहा गया। रतन की भौंहें नहीं चढ़ीं, उसने गम्भीर आवाज में कहा, “मैं बाजार जा रहा हूँ माँ, किसन ने चाय का पानी चढ़ा दिया है।” और वह चला गया। राजलक्ष्मी ने कहा, “शायद रतन की आनन्द से नहीं बनती?”आनन्द ने कहा, “हाँ, पर मैं उसे दोष नहीं दे सकता दीदी। वह आपका हितैषी है- ऐरों-गैरों को नहीं घुसने देना चाहता। पर आज उससे मेल कर लेना होगा, नहीं तो खाना अच्छा नहीं मिलेगा। बहुत दिनों का भूखा हूँ।”राजलक्ष्मी ने जल्दी से बरामदे में जाकर कहा, “रतन और कुछ रुपये ले जा भाई, क्योंकि एक बड़ी-सी रुई मछली लानी होगी।” लौटकर कहा, “मुँह-हाथ धो लो भाई, मैं चाय तैयार कर लाती हूँ।” कहकर वह नीचे चली गयी।आनन्द ने कहा, “दादा, एकाएक तलबी क्यों हुई?”“इसकी कैफियत क्या मैं दूँगा आनन्द?”आनन्द ने हँसते हुए कहा, “देखता हूँ कि दादा का अब भी वही भाव है- नाराजगी दूर नहीं हुई है। फिर कहीं लापता हो जाने का इरादा तो नहीं है? उस दफा गंगामाटी में कैसी झंझट में डाल दिया था! इधर सारे देश के लोगों का निमन्त्रण और उधर मकान का मालिक लापता! बीच में मैं- नया आदमी -इधर दौड़ूं, उधर दौड़ूं, दीदी पैर फैलाकर रोने बैठ गयीं, रतन ने लोगों को भगाने का उद्योग किया- कैसी विपत्ति थी! वाह दादा, आप खूब हैं!”मैं भी हँस पड़ा, बोला, “अबकी बार नाराजगी दूर हो गयी है। डरो मत।”आनन्द ने कहा, “पर भरोसा तो नहीं होता। आप जैसे नि:संग, एकाकी लोगों से मैं डरता हूँ और अकसर सोचता हूँ कि आपने अपने को संसार में क्यों बँधने दिया।”मन ही मन कहा, तकदीर! और मुँह से कहा, “देखता हूँ कि मुझे भूले नहीं हो, बीच-बीच में याद करते थे?”आनन्द ने कहा, “नहीं दादा, आपको भूलना भी मुश्किल है और समझना भी कठिन है, मोह दूर करना तो और भी कठिन है। अगर विश्वास न हो तो कहिए, दीदी को बुलाकर गवाही दे दूँ। आपसे सिर्फ दो-तीन दिन का ही तो परिचय है, पर उस दिन दीदी के साथ सुर में सुर मिलाकर मैं भी जो रोने नहीं बैठ गया सो सिर्फ इसलिए कि यह सन्यासी धर्म के बिल्कुशल खिलाफ है।”बोला, “वह शायद दीदी की खातिर। उनके अनुरोध से ही तो इतनी दूर आये हों?”आनन्द ने कहा, “बिल्कुकल झूठ नहीं है दादा। उनका अनुरोध तो सिर्फ अनुरोध नहीं है, वह तो मानो माँ की पुकार है, पैर अपने आप चलना शुरू कर देते हैं। न जाने कितने घरों में आश्रय लेता हूँ, पर ठीक ऐसा तो कहीं नहीं देखता। सुना है कि आप भी तो बहुत घूमे हैं, आपने भी कहीं कोई इनके ऐसी और देखी है?”कहा, “बहुत।”राजलक्ष्मी ने प्रवेश किया। कमरे में घुसते ही उसने मेरी बात सुन ली थी, चाय की प्याली आनन्द के निकट रखकर मुझसे पूछा, “बहुत क्या जी?”आनन्द शायद कुछ विपद्ग्रस्त हो गया; मैंने कहा, “तुम्हारे गुणों की बातें। इन्होंने सन्देह जाहिर किया था, इसलिए मैंने जोर से उसका प्रतिवाद किया है।”आनन्द चाय की प्याली मुँह से लगा रहा था, हँसी की वजह से थोड़ी-सी चाय जमीन पर गिर पड़ी। राजलक्ष्मी भी हँस पड़ी।आनन्द ने कहा, “दादा, आपकी उपस्थित-बुद्धि अद्भुत है। यह ठीक उलटी बात क्षण-भर में आपके दिमाग में कैसे आ गयी?”राजलक्ष्मी ने कहा, “इसमें आश्चर्य क्या है आनन्द? अपने मन की बात दबाते-दबाते और कहानियाँ गढ़कर सुनाते-सुनाते इस विद्या में ये पूरी तरह महामहोपाधयाय हो गये हैं।”कहा, “तो तुम मेरा विश्वास नहीं करती?”“जरा भी नहीं।”आनन्द ने हँसकर कहा, “गढ़कर कहने की विद्या में आप भी कम नहीं हैं दीदी। तत्काल ही जवाब दे दिया, “जरा भी नहीं।”राजलक्ष्मी भी हँस पड़ी। बोली, “जल-भुनकर सीखना पड़ा है भाई। पर अब तुम देर मत करो, चाय पीकर नहा लो। यह अच्छी तरह जानती हूँ कि कल ट्रेन में तुम्हारा भोजन नहीं हुआ। इनके मुँह से मेरी सुख्याति सुनने के लिए तो तुम्हारा सारा दिन भी कम होगा।” यह कहकर वह चली गयी।आनन्द ने कहा, “आप दोनों जैसे दो व्यक्ति संसार में विरल हैं। भगवान ने अद्भुत जोड़ मिलाकर आप लोगों को दुनिया में भेजा है।”“उसका नमूना देख लिया न?”“नमूना तो उस पहिले ही दिन साँईथियाँ स्टेशन के पेड़-तले देख लिया था। इसके बाद और कोई कभी नजर नहीं आया।”“आहा! ये बातें यदि तुम उनके सामने ही कहते आनन्द!”आनन्द काम का आदमी है, काम करने का उद्यम और शक्ति उसमें विपुल है। उसको निकट पाकर राजलक्ष्मी के आनन्द की सीमा नहीं। रात-दिन खाने की तैयारियाँ तो प्राय: भय की सीमा तक पहुँच गयी। दोनों में लगातार कितने परामर्श होते रहे, उन सबको मैं नहीं जानता। कान में सिर्फ यह भनक पड़ी कि गंगामाटी में एक लड़कों के लिए और एक लड़कियों के लिए स्कूल खोला जायेगा। वहाँ काफी गरीब और नीच जाति के लोगों का वास है और शायद वे ही उपलक्ष्य हैं। सुना कि चिकित्सा का भी प्रबन्ध किया जायेगा। इन सब विषयों की मुझमें तनिक भी पटुता नहीं। परोपकार की इच्छा है पर शक्ति नहीं। यह सोचते ही कि कहीं कुछ खड़ा करना या बनाना पड़ेगा, मेरा श्रान्त मन 'आज नहीं, कल' कह-कहकर दिन टालना चाहता है। अपने नये उद्योग में बीच-बीच में आनन्द मुझे घसीटने आता, पर राजलक्ष्मी हँसते हुए बाधा देकर कहती, “इन्हें मत लपेटो आनन्द, तुम्हारे सब संकल्प पंगु हो जायेंगे।”सुनने पर प्रतिवाद करना ही पड़ता। कहता, “अभी-अभी उस दिन तो कहा कि मेरा बहुत काम है और अब मुझे बहुत कुछ करना होगा!”राजलक्ष्मी ने हाथ जोड़कर कहा, “मेरी गलती हुई गुसाईं, अब ऐसी बात कभी जबान पर नहीं लाऊँगी।”“तब क्या किसी दिन कुछ भी नहीं करूँगा?”“क्यों नहीं करोगे? यदि बीमार पड़कर डर के मारे मुझे अधमरा न कर डालो, तो इससे ही मैं तुम्हारे निकट चिरकृतज्ञ रहूँगी।”आनन्द ने कहा, “दीदी, इस तरह तो आप सचमुच ही इन्हें अकर्मण्य बना देंगी।”राजलक्ष्मी ने कहा, “मुझे नहीं बनाना पड़ेगा भाई, जिस विधाता ने इनकी सृष्टि की है उसी ने इसकी व्यवस्था कर दी है- कहीं भी त्रुटि नहीं रहने दी है।”आनन्द हँसने लगा। राजलक्ष्मी ने कहा, “और फिर वह जलमुँहा ज्योतिषी ऐसा डर दिखा गया है कि इनके मकान से बाहर पैर रखते ही मेरी छाती धक्-धक् करने लगती है- जब तक लौटते नहीं तब तक किसी भी काम में मन नहीं लगा सकती।”“इस बीच ज्योतिषी कहाँ मिल गया? क्या कहा उसने?”इसका उत्तर मैंने दिया। कहा, “मेरा हाथ देखकर वह बोला कि बहुत बड़ा विपद्-योग है- जीवन-मरण की समस्या!”“दीदी, इन सब बातों पर आप विश्वास करती हैं?”मैंने कहा, “हाँ करती हैं जरूर करती हैं। तुम्हारी दीदी कहती हैं कि क्या विपद्-योग नाम की कोई बात ही दुनिया में नहीं है? क्या कभी किसी पर आफत नहीं आती?”आनन्द ने हँसकर कहा, “आ सकती है, पर हाथ देखकर कोई कैसे बता सकता है दीदी?”राजलक्ष्मी ने कहा, “यह तो नहीं जानती भाई, पर मुझे यह भरोसा जरूर है कि जो मेरे जैसी भाग्यवती है, उसे भगवान इतने बड़े दु:ख में नहीं डुबायेंगे।”क्षण-भर तक स्तब्धता के साथ उसके मुँह की ओर देखकर आनन्द ने दूसरी बात छेड़ दी।इसी बीच मकान की लिखा-पढ़ी, बन्दोबस्त और व्यवस्था का काम चलने लगा, ढेर की ढेर ईंटें, काठ, चूना, सुरकी, दरवाजे, खिड़कियाँ वगैरह आ पड़ीं। पुराने घर को राजलक्ष्मी ने नया बनाने का आयोजन किया।उस दिन शाम को आनन्द ने कहा, “चलिए दादा, जरा घूम आयें।”आजकल मेरे बाहर जाने के प्रस्ताव पर राजलक्ष्मी अनिच्छा जाहिर किया करती है। बोली, “घूमकर लौटते-लौटते रात्रि हो जायेगी आनन्द, ठण्ड नहीं लगेगी?”आनन्द ने कहा, “गरमी से तो लोग मरे जा रहे हैं दीदी, ठण्ड कहाँ है?”आज मेरी तबीयत भी बहुत अच्छी न थी। कहा, “इसमें शक नहीं कि ठण्ड लगने का डर नहीं, पर आज उठने की भी वैसी इच्छा नहीं हो रही है आनन्द।”आनन्द ने कहा, “यह जड़ता है। शाम के वक्त कमरे में बैठे रहने से अनिच्छा और भी बढ़ जायेगी-चलिए, उठिए।”राजलक्ष्मी ने इसका समाधान करने के लिए कहा, “इससे अच्छा एक दूसरा काम करें न आनन्द। परसों क्षितीज मुझे एक अच्छा हारमोनियम खरीद कर दे गया है, अब तक उसे देखने का वक्त ही नहीं मिला। मैं भगवान का नाम लेती हूँ, तुम बैठकर सुनो- शाम कट जायेगी।” यह कह उसने रतन को पुकारकर बक्स लाने के लिए कह दिया।आनन्द ने विस्मय से पूछा, “भगवान का नाम माने क्या गीत दीदी?”राजलक्ष्मी ने सिर हिलाकर 'हाँ' की। “दीदी को यह विद्या भी आती है क्या?”“बहुत साधारण-सी।” फिर मुझे दिखाकर कहा, “बचपन में इन्होंने ही अभ्यास कराया था।”आनन्द ने खुश होकर कहा, “दादा तो छिपे हुए रुस्तम हैं, बाहर से पहिचानने का कोई उपाय ही नहीं।”उसका मन्तव्य सुन लक्ष्मी हँसने लगी, पर मैं सरल मन से साथ न दे सका। क्योंकि आनन्द कुछ भी नहीं समझेगा और मेरे इनकार को उस्ताद के विनय-वाक्य समझ और भी ज्यादा तंग करेगा, और अन्त में शायद नाराज भी हो जायेगा। पुत्र-शोकातुर धृतराष्ट्र-विलाप का दुर्योधन वाला गाना जानता हूँ, पर राजलक्ष्मी के बाद इस बैठक में वह कुछ जँचेगा नहीं।राजलक्ष्मी ने हारमोनियम आने पर पहले दो-एक भगवान के ऐसे गीत सुनाये जो हर जगह प्रचलित हैं और फिर वैष्णव-पदावली आरम्भ कर दी। सुनकर ऐसा लगा कि उस दिन मुरारीपुर के अखाड़े में भी शायद इतना अच्छा नहीं सुना था। आनन्द विस्मय से अभिभूत हो गया, मेरी ओर इशारा कर मुग्ध चित्त से बोला, “यह सब क्या इन्हीं से सीखा है दीदी?”“सब क्या एक ही आदमी के पास कोई सीखता है आनन्द?”“यह सही है।” इसके बाद उसने मेरी तरफ देखकर कहा, “दादा, अब आपको दया करनी होगी। दीदी कुछ थक गयी हैं।”“नहीं भाई, मेरी तबीयत अच्छी नहीं है।';'“तबीयत के लिए मैं जिम्मेदार हूँ, क्या अतिथि का अनुरोध नहीं मानेंगे?”“मानने का उपाय जो नहीं है, तबीयत बहुत खराब है।”राजलक्ष्मी गम्भीर होने की चेष्टा कर रही थी पर सफल न हो सकी, हँसी के मारे लोट-पोट हो गयी। आनन्द ने अब मामला समझा, बोला, “दीदी, तो सच बताओ कि आपने किससे इतना सीखा?”मैंने कहा, “जो रुपयों के परिवर्तन में विद्या-दान करते हैं उनसे, मुझसे नहीं भैया। दादा इस विद्या के पास से भी कभी नहीं फटका।”क्षण भर मौन रहकर आनन्द ने कहा, “मैं भी कुछ थोड़ा-सा जानता हूँ दीदी, पर ज्यादा सीखने का वक्त नहीं मिला। यदि इस बार सुयोग मिला तो आपका शिष्यत्व स्वीकार कर अपनी शिक्षा को सम्पूर्ण कर लूँगा। पर आज क्या यहीं रुक जाँयगी, और कुछ नहीं सुनायेंगी?”राजलक्ष्मी ने कहा, “अब वक्त नहीं है भाई, तुम लोगों का खाना जो तैयार करना है।”आनन्द ने नि:श्वास छोड़कर कहा, “जानता हूँ कि संसार में जिनके ऊपर भार है उनके पास वक्त कम है। पर उम्र में मैं छोटा हूँ, आपका छोटा भाई। मुझे सिखाना ही होगा। अपरिचित स्थान में जब अकेला वक्त कटना नहीं चाहेगा, तब आपकी इस दया का स्मरण करूँगा।”राजलक्ष्मी ने स्नेह से विगलित होकर कहा, “तुम डॉक्टर हो, विदेश में अपने इस स्वास्थ्यहीन दादा के प्रति दृष्टि रखना भाई, मैं जितना भी जानती हूँ उतना तुम्हें प्यार से सिखाऊँगी।”“पर इसके अलावा क्या आपको और कोई फिक्र नहीं है दीदी?”राजलक्ष्मी चुप रही। आनन्द ने मुझे उद्देश्य कर कहा, “दादा जैसा भाग्य सहसा नजर नहीं आता।”मैंने इसका उत्तर दिया, “और ऐसा अकर्मण्य व्यक्ति ही क्या जल्दी नजर आता है आनन्द? ऐसों की नकेल पकड़ने के लिए भगवान मजबूत आदमी भी दे देता है, नहीं तो वे बीच समुद्र में ही डूब जाँय- किसी तरह घाट तक पहुँच ही न पायें। इसी तरह संसार में सामंजस्य की रक्षा होती है भैया, मेरी बातें मिलाकर देखना, प्रमाण मिल जायेगा।”राजलक्ष्मी भी मुहूर्त-भर नि:शब्द देखती रही, फिर उठ गयी। उसे बहुत काम है।इन कुछ दिनों के अन्दर ही मकान का काम शुरू हो गया, चीज-बस्त को एक कमरे में बन्दकर राजलक्ष्मी यात्रा के लिए तैयारी करने लगी। मकान का भार बूढ़े तुलसीदास पर रहा।जाने के दिन राजलक्ष्मी ने मेरे हाथ में एक पोस्टकार्ड देकर कहा, “मेरी चार पन्ने की चिट्ठी का यह जवाब आया है- पढ़कर देख लो।” और वह चली गयी।दो-तीन लाइनों में कमललता ने लिखा है-“सुख से ही हूँ बहिन, जिनकी सेवा में अपने को निवेदन कर दिया है, मुझे अच्छा रखने का भार भी उन्हीं पर है। यही प्रार्थना करती हूँ कि तुम लोग कुशल रहो। बड़े ग़ुर्साईंजी अपनी आनन्दमयी के लिए श्रद्धा प्रगट करते हैं।-इति श्री श्रीराधाकृष्णचरणाश्रिता, कमललता।”उसने मेरे नाम का उल्लेख भी नहीं किया है। पर इन कई अक्षरों की आड़ में उसकी न जाने कितनी बातें छुपी रह गयीं। खोजने लगा कि चिट्ठी पर एक बूँद ऑंसू का दाग भी क्या नहीं पड़ा है? पर कोई भी चिह्न नजर नहीं आया।चिट्ठी को हाथ में लेकर चुप बैठा रहा। खिड़की के बाहर धूप से तपा हुआ नीलाभ आकाश है, पड़ोसी के घर के दो नारियल के वृक्षों के पत्तों की फाँक से उसका कुछ अंश दिखाई देता है। वहाँ अकस्मात् ही दो चेहरे पास ही पास मानो तैर आये, एक मेरी राजलक्ष्मी का-कल्याण की प्रतिमा, दूसरा कमललता का, अपरिस्फुट, अनजान जैसे कोई स्वप्न में देखी हुई छवि।रतन ने आकर ध्या न भंग कर दिया। बोला, “स्नान का वक्त हो गया है बाबू, माँ ने कहा है।”स्नान का समय भी नहीं बीत जाना चाहिए!फिर एक दिन सुबह हम गंगामाटी जा पहुँचे। उस बार आनन्द अनाहूत अतिथि था, पर इस बार आमन्त्रित बान्धव। मकान में भीड़ नहीं समाती, गाँव के आत्मीय और अनात्मीय न जाने कितने लोग हमें देखने आये हैं। सभी के चेहरों पर प्रसन्न हँसी और कुशल-प्रश्न है। राजलक्ष्मी ने कुशारीजी की पत्नी को प्रणाम किया। सुनन्दा रसोई के काम में लगी थी, बाहर निकल आई और हम दोनों को प्रणाम करके बोली, “दादा, आपका शरीर तो वैसा अच्छा दिखाई नहीं देता!”राजलक्ष्मी ने कहा, “अच्छा और कब दिखता था बहिन? मुझसे तो नहीं हुआ, अब शायद तुम लोग अच्छा कर सको- इसी आशा से यहाँ ले आई हूँ।”मेरे विगत दिनों की बीमारी की बात शायद बड़ी बहू को याद आ गयी, उन्होंने स्नेहार्द्र कण्ठ से दिलासा देते हुए कहा- “डर की कोई बात नहीं है बेटी, इस देश के हवा-पानी से दो दिन में ही ये ठीक हो जायेंगे।” मेरी समझ में नहीं आया कि मुझे क्या हुआ है और किसलिए इतनी दुश्चिन्ता है!इसके बाद नाना प्रकार के कामों का आयोजन पूरे उद्यम के साथ शुरू हो गया। पोड़ामाटी को खरीदने की बातचीत से शुरू करके शिशु-विद्यालय की प्रतिष्ठा के लिए स्थान की खोज तक किसी भी काम में किसी को जरा भी आलस्य नहीं।सिर्फ मैं अकेला ही मन में कोई उत्साह अनुभव नहीं करता। या तो यह मेरा स्वभाव ही है, या फिर और ही कुछ जो दृष्टि के अगोचर मेरी समस्त प्राण-शक्ति का धीरे-धीरे मूलोच्छेदन कर रहा है। एक सुभीता यह हो गया है कि मेरी उदासीनता से कोई विस्मित नहीं होता, मानों मुझसे और किसी बात की प्रत्याशा करना ही असंगत है। मैं दुर्बल हूँ, अस्वस्थ हूँ, मैं कभी हूँ और कभी नहीं हूँ। फिर भी कोई बीमारी नहीं है, खाता पीता और रहता हूँ। अपनी डॉक्टरी विद्या द्वारा ज्यों ही कभी आनन्द हिलाने-डुलाने की कोशिश करता है त्यों ही राजलक्ष्मी सस्नेह उलाहने के रूप में बाधा देते हुए कहती हैं, “उन्हें दिक् करने का काम नहीं भाई, न जाने क्या से क्या हो जाय। तब हमें ही भोगना पड़ेगा!”आनन्द कहता, “आपको सावधान किये देता हूँ कि जो व्यवस्था की है उससे भोगने की मात्रा बढ़ेगी ही, कम नहीं होगी दीदी।”राजलक्ष्मी सहज ही स्वीकार करके कहती, “यह तो मैं जानती हूँ आनन्द, कि भगवान ने मेरे जन्म-काल में ही यह दु:ख कपाल में लिख दिया है।”इसके बाद और तर्क नहीं किया जा सकता।कभी किताबें पढ़ते हुए दिन कट जाता है, कभी अपनी विगत कहानी को लिखने में और कभी सूने मैदानों में अकेले घूमते। एक बात से निश्चिन्त हूँ कि कर्म की प्रेरणा मुझमें नहीं है। लड़-झगड़कर उछल-कूद मचाकर संसार में दस आदमियों के सिर पर चढ़ बैठने की शक्ति भी नहीं और संकल्प भी नहीं। सहज ही जो मिल जाता है, उसे ही यथेष्ट मान लेता हूँ। मकान-घर, रुपया-पैसा, जमीन-जायदाद, मान-सम्मान, ये सब मेरे लिए छायामय हैं। दूसरों की देखा-देखी अपनी जड़ता को यदि कभी कर्त्तव्य-बुद्धि की ताड़ना से सचेत करना चाहता हूँ तो देखता हूँ कि थोड़ी ही देर में वह फिर ऑंखें बन्द किये ऊँघ रही है- सैकड़ों धक्के देने पर भी हिलना-डुलना नहीं चाहती। देखता हूँ कि सिर्फ एक विषय में तन्द्रातुर मन कलरव से तरंगित हो उठता है और वह है मुरारीपुर के दस दिनों की स्मृति का आलोड़न। मानो कानों में सुनाई पड़ रहा है, वैष्णवी कमललता का सस्नेह अनुरोध- 'नये गुसाईं, यह कर दो न भाई!- अरे जाओ, सब नष्ट कर दिया! मेरी गलती हुई जो तुमसे काम करने के लिए कहा, अब उठो। जलमुँही पद्मा कहाँ गयी, जरा पानी चढ़ा देती, तुम्हारा चाय पीने का समय हो गया है गुसाईं।”उन दिनों वह खुद चाय के पात्र धोकर रखती थी, इस डरसे कि कहीं टूट न जाँय। उनका प्रयोजन खत्म हो गया है, तथापि क्या मालूम कि फिर कभी काम में आने की आशा से उसने अब भी उन्हें यत्नपूर्वक रख छोड़ा है या नहीं, जानता हूँ कि वह भागूँ-भागूँ कर रही है। हेतु नहीं जानता, तो भी मन में सन्देह नहीं है कि मुरारीपुर के आश्रम में उसके दिन हर रोज संक्षिप्त होते जा रहे हैं। एक दिन अकस्मात् शायद, यही खबर मिलेगी। यह कल्पना करते ही ऑंखों में ऑंसू आ जाते हैं कि वह निराश्रय, नि:सबल पथ-पथ पर भिक्षा माँगती हुई घूम रही है, भूला-भटका मन सान्त्वना की आशा में राजलक्ष्मी की ओर देखता है, जो सबकी सकल शुभचिन्ताओं के अविश्राम कर्म में नियुक्त है-मानों उसके दोनों हाथों की दसों अंगुलियों से कल्याण अजस्र धारा से बह रहा है। सुप्रसन्न मुँह पर शान्ति और सन्तोष की स्निग्धा छाया पड़ रही है। करुणा और ममता से हृदय की यमुना किनारे तक पूर्ण हैं-निरविच्छिन्न प्रेम की सर्वव्यापी महिमा के साथ वह मेरे हृदय में जिस आसन पर प्रतिष्ठित है, नहीं जानता कि उसकी तुलना किससे की जाय।विदुषी सुनन्दा के दुर्निवार प्रभाव ने कुछ वक्त के लिए उसे जो विभ्रान्त कर दिया था, उसके दु:सह परिताप से उसने अपनी पुरानी सत्ता फिर से पा ली है। एक बात आज भी वह मेरे कानों-कानों में कहती है कि “तुम भी कम नहीं हो जी, कम नहीं हो! भला यह कौन जानता था कि तुम्हारे चले जाने के पथ पर ही मेरा सर्वस्व पलक मारते ही दौड़ पड़ेगा। ऊ:! वह कैसी भयंकर बात थी! सोचने पर भी डर लगता है कि मेरे वे दिन कटे कैसे थे। धड़कन बन्द होकर मर नहीं गयी, यही आश्चर्य है!” मैं उत्तर नहीं दे पाता हूँ, सिर्फ चुपचाप देखता रहता हूँ।अपने बारे में जब उसकी गलती पकड़ने की गुंजाइश नहीं है। सौ कामों के बीच भी सौ दफा चुपचाप आकर देख जाती है। कभी एकाएक आकर नजदीक बैठ जाती है और हाथ की किताब हटाते हुए कहती है, “ऑंखें बन्द करके जरा सो जाओ न, मैं सिर पर हाथ फेरे देती हूँ। इतना पढ़ने पर ऑंखों में दर्द जो होने लगेगा।”आनन्द आकर बाहर से ही कहता है, “एक बात पूछनी है, आ सकता हूँ?”राजलक्ष्मी कहती हैं, “आ सकते हो। तुम्हें आने की कहाँ मनाही है आनन्द?”आनन्द कमरे में घुसकर आश्चर्य से कहता है, “इस असमय में क्या आप इन्हें सुला रही हैं दीदी?”राजलक्ष्मी हँसकर जवाब देती है, “तुम्हारा क्या नुकसान हुआ? नहीं सोने पर भी तो ये तुम्हारी पाठशाला के बछड़ों को चराने नहीं जायेंगे!”“देखता हूँ कि दीदी इन्हें मिट्टी कर देंगी।”“नहीं तो खुद जो मिट्टी हुई जाती हूँ, बेफिक्री से कोई काम-काज ही नहीं कर पाती।”“आप दोनों ही क्रमश: पागल हो जायेंगे।” कहकर आनन्द बाहर चला जाता है।स्कूल बनवाने के काम में आनन्द को साँस लेने की भी फुर्सत नहीं है, और सम्पत्ति खरीदने के हंगामे में राजलक्ष्मी भी पूरी तरह डूबी हुई है। इसी समय कलकत्ते के मकान से घूमती हुई, बहुत से पोस्ट-ऑफिसों में की मुहरों को पीठ पर लिये हुए, बहुत देर में, नवीन की सांघातिक चिट्ठी आ पहुँची- गौहर मृत्युशय्या पर है। सिर्फ मेरी ही राह देखता हुआ अब भी जी रहा है। यह खबर मुझे शूल जैसी चुभी। यह नहीं जानता कि बहिन के मकान से वह कब लौटा। वह इतना ज्यादा पीड़ित है, यह भी नहीं सुना-सुनने की विशेष चेष्टा भी नहीं की और आज एकदम शेष संवाद आ गया। प्राय: छह दिन पहले की चिट्ठी है, इसलिए अब वह जिन्दा है या नहीं-यही कौन जानता है! तार द्वारा खबर पाने की व्यवस्था इस देश में नहीं है और उस देश में भी नहीं। इसलिए इसकी चिन्ता वृथा है। चिट्ठी पढ़कर राजलक्ष्मी ने सिर पर हाथ रखकर पूछा, “तुम्हें क्या जाना पड़ेगा?”“हाँ।”“तो चलो, मैं भी साथ चलूँ।”“यह कहीं हो सकता है? इस आफत के समय तुम कहाँ जाओगी?”यह उसने खुद ही समझ लिया कि प्रस्ताव असंगत है, मुरारीपुर के अखाड़े की बात भी फिर वह जबान पर न ला सकी। बोली, “रतन को कल से बुखार है, साथ में कौन जायेगा? आनन्द से कहूँ?”“नहीं, वह मेरे बिस्तर उठाने वाला आदमी नहीं है!”“तो फिर साथ में किसन जाय?”“भले जाय, पर जरूरत नहीं है।”“जाकर रोज चिट्ठी दोगे, बोलो?”“समय मिला तो दूँगा।”“नहीं, यह नहीं सुनूँगी। एक दिन चिट्ठी न मिलने पर मैं खुद आ जाऊँगी चाहे तुम कितने ही नाराज क्यों न हो।” 'अगत्या राजी होना पड़ा, और हर रोज संवाद देने की प्रतिज्ञा करके उसी दिन चल पड़ा। देखा कि दुश्चिन्ता से राजलक्ष्मी का मुँह पीला पड़ गया है, उसने ऑंखें पोंछकर अन्तिम बार सावधान करते हुए कहा, “वादा करो कि शरीर की अवहेलना नहीं करोगे?”“नहीं, नहीं, करूँगा।”“कहो कि लौटने में एक दिन की भी देरी नहीं करोगे?”“नहीं, सो भी नहीं करूँगा!”अन्त में बैलगाड़ी रेलवे स्टेशन की तरफ चल दी।आषाढ़ का महीना था। तीसरे प्रहर गौहर के मकान के सदर दरवाजे पर जा पहुँचा। मेरी आवाज सुनकर नवीन बाहर आया और पछाड़ खाकर पैरों के पास गिर पड़ा। जो डर था वही हुआ। उस दीर्घकाय बलिष्ठ पुरुष के प्रबलकण्ठ के उस छाती फाड़ने वाले क्रन्दन में शोक की एक नयी मूर्ति देखी। वह जितनी गम्भीर थी, उतनी ही बड़ी और उतनी ही सत्य। गौहर की माँ नहीं, बहिन नहीं, कन्या नहीं, पत्नी नहीं। उस दिन इस संगीहीन मनुष्य को अश्रुओं की माला पहनाकर विदा करनेवाला कोई न था; तो भी ऐसा मालूम होता है कि उसे सज्जाहीन, भूषणहीन, कंगाल वेश में नहीं जाना पड़ा, उसकी लोकान्तर-यात्रा के पथ के लिए शेष पाथेय अकेले नवीन ने ही दोनों हाथ भरकर उड़ेल दिया है।बहुत देर बाद जब वह उठकर बैठ गया तब पूछा, “गौहर कब मरा नवीन?”“परसों। कल सुबह ही हमने उन्हें दफनाया है।”“कहाँ दफनाया?”“नदी के किनारे, आम के बगीचे में। और यह उन्हीं ने कहा था। ममेरी बहिन के मकान से बुखार लेकर लौटे और वह बुखार फिर नहीं गया था।”“इलाज हुआ था?”“यहाँ जो कुछ हो सकता है सब हुआ, पर किसी से भी कुछ लाभ न हुआ। बाबू खुद ही सब जान गये थे।”“अखाड़े के बड़े गुसाईंजी आते थे?”नवीन ने कहा, “कभी-कभी। नवद्वीप से उनके गुरुदेव आये हैं, इसीलिए रोज आने का वक्त नहीं मिलता था।” और एक व्यक्ति के बारे में पूछते हुए शर्म आने लगी, तो भी संकोच दूर कर प्रश्न किया, “वहाँ से और कोई नहीं आया नवीन?”नवीन ने कहा, “हाँ, कमललता आई थी।”,“कब आई थी?”नवीन ने कहा, “हर-रोज। अन्तिम तीन दिनों में तो न उन्होंने खाया और न सोया, बाबू का बिछौना छोड़कर एक बार भी नहीं उठीं।”और कोई प्रश्न नहीं किया, चुप हो रहा। नवीन ने पूछा, “अब कहाँ जायेंगे, अखाड़े में?”“हाँ।”“जरा ठहरिए।” कहकर वह भीतर गया और एक टीन का बक्स बाहर निकाल लाया। उसे मुझे देते हुए बोला, “आपको देने के लिए कह गये हैं।”“क्या है इसमें नवीन?”“खोलकर देखिए”, कहकर उसने मेरे हाथ में चाबी दे दी। खोलकर देखा कि उसकी कविता की कॉपियाँ रस्सी से बँधी हुई हैं। ऊपर लिखा है, “श्रीकान्त, रामायण खत्म करने का वक्त नहीं रहा। बड़े गुसाईंजी को दे देना, वे इसे मठ में रख देंगे, जिससे नष्ट न होने पावे।” दूसरी छोटी-सी पोटली सूती लाल कपड़े की है। खोलकर देखा कि नाना मूल्य के एक बंडल नोट हैं, और उन पर लिखा है, “भाई श्रीकान्त, शायद मैं नहीं बचूँगा। पता नहीं कि तुमसे मुलाकात होगी या नहीं। अगर नहीं हुई तो नवीन के हाथों यह बक्स दे जाता हूँ, इसे ले लेना। ये रुपये तुम्हें दे जा रहा हूँ।” यदि कमललता के काम में आयें तो दे देना। अगर न ले तो जो इच्छा हो सो करना। अल्लाह तुम्हारा भला करे।-गौहर।”दान का गर्व नहीं, अनुनय-विनय भी नहीं। मृत्यु को आसन्न जानकर सिर्फ थोड़े से शब्दों में बाल्य-बन्धु की शुभ कामना कर अपना शेष निवेदन रख गया है। भय नहीं, क्षोभ नहीं, उच्छ्वसित हाय-हाय से उसने मृत्यु का प्रतिवाद नहीं किया। वह कवि था, मुसलमान फकीर-वंश का रक्त उसकी शिराओं में था- शान्त मन से यह शेष रचना अपने बाल्य-बन्धु के लिए लिख गया है। अब तक मेरी ऑंखों के ऑंसू बाहर नहीं निकले थे, पर अब उन्होंने निषेध नहीं माना, वे बड़ी-बड़ी बूँदों में ऑंखों से निकलकर ढुलक पडे।आषाढ़ का दीर्घ दिन उस वक्त समाप्ति की ओर था। सारे पश्चिम अकाश में काले मेघों का एक स्तर ऊपर उठ रहा था। उसके ही किसी एक संकीर्ण छिद्रपथ से अस्तोन्मुख सूर्य की रश्मियाँ लाल होकर आ पड़ीं, प्राचीर से संलग्न शुष्कप्राय जामुन के पेड़ के सिर पर। इसी की शाखा के सहारे गौहर की माधवी और मालती लताओं के कुंज बने थे। उस दिन सिर्फ कलियाँ थीं। मुझे उनमें से ही कुछ उपहार देने की उसने इच्छा की थी। लेकिन चींटियों के डर से नहीं दे सका था। आज उनमें से गुच्छे के गुच्छे फूले हैं, जिनमें से कुछ तो नीचे झड़ गये हैं और कुछ हवा से उड़कर इर्द-गिर्द बिखर गये हैं। उन्हीं में से कुछ उठा लिये- बाल्य-बन्धु के स्वहस्तों का शेषदान समझकर। नवीन ने कहा, “चलिए, आपको पहुँचा आऊँ।”कहा, “नवीन, जरा बाहर का कमरा तो खोलो, देखूँगा।”नवीन ने कमरा खोल दिया। आज भी चौकी पर एक ओर बिछौना लिपटा हुआ रक्खा है, एक छोटी पेन्सिल और कुछ फटे कागजों के टुकड़े भी हैं। इसी कमरे में गौहर ने अपनी स्वरचित कविता वन्दिनी सीता के दु:ख की कहानी गाकर सुनाई थी। इस कमरे में न जाने कितनी बार आया हूँ, कितने दिनों तक खाया-पीया और सोया हूँ और उपद्रव कर गया हूँ। उस दिन हँसते-हुए जिन्होंने सब कुछ सहन किया था, अब उनमें से कोई भी जीवित नहीं है। आज अपना सारा आना-जाना समाप्त करके बाहर निकल आया।रास्ते में नवीन के मुँह से सुना कि गौहर ऐसी ही एक नोटों की छोटी पोटली उसके लड़कों को भी दे गया है। बाकी जो सम्पत्ति बची है, वह उसके ममेरे भाई-बहिनों को मिलेगी, और उसके पिता द्वारा निर्मित मस्जिद के रक्षणावेक्षण के लिए रहेगी।आश्रम में पहुँचकर देखा कि बहुत भीड़ है। गुरुदेव के साथ बहुत से शिष्य और शिष्याएँ आई हैं। खासी मजलिस जमी है, और हाव-भाव से उनके शीघ्र विदा होने के लक्षण भी दिखाई नहीं दिये। अनुमान किया कि वैष्णव-सेवा आदि कार्य विधि के अनुसार ही चल रहे हैं।मुझे देखकर द्वारिकादास ने अभ्यर्थना की। मेरे आगमन का हेतु वे जानते थे। गौहर के लिए दु:ख जाहिर किया, पर उनके मुँह पर न जाने कैसा विव्रत, उद्भ्रान्त भाव था, जो पहले कभी नहीं देखा। अन्दाज किया कि शायद इतने दिनों से वैष्णवों की परिचर्या के कारण वे क्लान्त और विपर्यस्त हो गये हैं, निश्चिन्त होकर बातचीत करने का वक्त उनके पास नहीं है।खबर मिलते ही पद्मा आयी, उसके मुँह पर भी आज हँसी नहीं, ऐसी संकुचित-सी, मानो भाग जाए तो बचे।पूछा, “कमललता दीदी इस वक्त बहुत व्यस्त हैं, क्यों पद्मा?”“नहीं, दीदी को बुला दूँ?” कहकर वह चली गयी। यह सब आज इतना अप्रत्याशित और अप्रासंगिक लगा कि मन ही मन शंकित हो उठा। कुछ देर बाद ही कमललता ने आकर नमस्कार किया। कहा, “आओ गुसाईं, मेरे कमरे में चल कर बैठो।”अपने बिछौने इत्यादि स्टेशन पर ही छोड़कर सिर्फ बैग साथ में लाया था और गौहर का वह बक्स मेरे नौकर के सिर पर था। कमललता के कमरे में आकर, उसे उसके हाथ में देते हुए बोला, “जरा सावधानी से रख दो, बक्स में बहुत रुपये हैं।”कमललता ने कहा, “मालूम है।” इसके बाद उसे खाट के नीचे रखकर पूछा, “शायद तुमने अभी तक चाय नहीं पी है?”“नहीं।”“कब आये?”“शाम को।”“आती हूँ, तैयार कर लाऊँ।” कहकर वह नौकर को साथ लेकर चल दी और पद्मा भी हाथ-मुँह धोने के लिए पानी देकर चली गयी, खड़ी नहीं रही।फिर खयाल हुआ कि बात क्या है?थोड़ी देर बाद कमललता चाय ले आयी, साथ में कुछ फल-फूल, मिठाई और उस वक्त का देवता का प्रसाद। बहुत देर से भूखा था, फौरन ही बैठ गया।कुछ क्षण पश्चात् ही देवता की सांध्यर-आरती के शंख और घण्टे की आवाज सुनाई पड़ी। पूछा, “अरे, तुम नहीं गयीं?”“नहीं, मना है।”“मना है तुम्हें? इसके मानो?”कमललता ने म्लान हँसी हँसकर कहा, “मना के माने हैं मना गुसाईं। अर्थात् देवता के कमरे में मेरा जाना निषिद्ध है।”आहार करने में रुचि न रही, पूछा “किसने मना किया?”“बड़े गुसाईंजी के गुरुदेव ने। और उनके साथ जो आये हैं, उन्होंने।”“वे क्या कहते हैं?';'“कहते हैं कि मैं अपवित्र हूँ, मेरी सेवा से देवता कलुषित हो जायेंगे।”“तुम अपवित्र हो!” विद्युत वेग से पूछा, “गौहर की वजह से ही सन्देह हुआ है क्या?”“हाँ, इसीलिए।”कुछ भी नहीं जानता था, तो भी बिना किसी संशय के कह उठा, “यह झूठ है- यह असम्भव है।”“असम्भव क्यों है गुसाईं?”“यह तो नहीं बतला सकता कमललता, पर इससे बढ़कर और कोई बात मिथ्या नहीं। ऐसा लगता है कि मनुष्य-समाज में अपने मृत्यु-पथ यात्री बन्धु की एकान्त सेवा का ऐसा ही शेष पुरस्कार दिया जाता है!”उसकी ऑंखों में ऑंसू आ गये। बोली, “अब मुझे दु:ख नहीं है। देवता अन्तर्यामी हैं, उनके निकट तो डर नहीं था, डर था सिर्फ तुमसे। आज मैं निर्भय होकर जी गयी गुसाईं।”“संसार के इतने आदमियों के बीच तुम्हें सिर्फ मुझसे डर था? और किसी से नहीं?”“नहीं, और किसी से नहीं, सिर्फ तुमसे था।”इसके बाद दोनों ही स्तब्ध रहे। एक बार पूछा, “बड़े गुसाईंजी क्या कहते हैं?”कमललता ने कहा, “उनके लिए तो और कोई उपाय नहीं है। नहीं तो फिर कोई भी वैष्णव इस मठ में नहीं आयेगा।” कुछ देर बाद कहा, “अब यहाँ रहना नहीं हो सकता। यह तो जानती थी कि यहाँ से एक दिन मुझे जाना होगा, पर यही नहीं सोचा था कि इस तरह जाना होगा गुसाईं। केवल पद्मा के बारे में सोचने से दु:ख होता है। लड़की है, उसका कहीं भी कोई नहीं है। बड़े गुसाईंजी को यह नवद्वीप में पड़ी हुई मिली थी। अपनी दीदी के चले जाने पर वह बहुत रोएगी। यदि हो सके तो जरा उसका खयाल रखना। यहाँ न रहना चाहे तो मेरे नाम से राजू को दे देना- वह जो अच्छा समझेगी अवश्य करेगी।”फिर कुछ क्षण चुपचाप कटे। पूछा, “इन रुपयों का क्या होगा? न लोगी?”“नहीं। मैं भिखारिन हूँ, रुपयों का क्या करूँगी-बताओ?”“तो भी यदि कभी किसी काम में आयें।”कमललता ने इस बार हँसकर कहा, “मेरे पास भी तो एक दिन बहुत रुपया था, वह किस काम आया? फिर भी, अगर कभी जरूरत पड़ी तो तुम किसलिए हो? तब तुमसे माँग लूँगी। दूसरे के रुपये क्यों लेने लगी?”सोच न सका कि इस बात का क्या जवाब दूँ, सिर्फ उसके मुँह की ओर देखता रहा।उसने फिर कहा, “नहीं गुसाईं, मुझे रुपये नहीं चाहिए। जिनके श्रीचरणों में स्वयं को समर्पण कर दिया है, वे मुझे नहीं छोड़ेंगे। कहीं भी जाऊँ, वे सारे अभावपूर्ण कर देंगे। मेरे लिए चिन्ता, फिक्र न करो।”पद्मा ने कमरे में आकर कहा, “नये गुसाईं के लिए क्या इसी कमरे में प्रसाद ले आऊँ दीदी?”“हाँ, यहीं ले आओ। नौकर को दिया?”“हाँ, दे दिया।”तो भी पद्मा नहीं गयी, क्षण भर तक इधर-उधर करके बोली, “तुम नहीं खाओगी दीदी?”“खाऊँगी री जलमुँही, खाऊँगी। जब तू है, तब बिना खाये दीदी की रिहाई है?”पद्मा चली गयी।सुबह उठने पर कमललता दिखाई नहीं पड़ी, पद्मा की जुबानी मालूम हुआ कि वह शाम को आती है। दिनभर कहाँ रहती है, कोई नहीं जानता। तो भी मैं निश्चिन्त नहीं हो सका, रात की बातें याद करके डर होने लगा कि कहीं वह चली न गयी हो और अब मुलाकात ही न हो।बड़े गुसाईंजी के कमरे में गया। सामने उन कॉपियों को रखकर बोला, “गौहर की रामायण है। उसकी इच्छा थी कि यह मठ में रहे।”द्वारिकादास ने हाथ फैलाकर रामायण ले ली, बोले, “यही होगा नये गुसाईं। जहाँ मठ के और सब ग्रन्थ रहते हैं, वहीं उन्हीं के साथ इसे भी रख दूँगा।”कोई दो मिनट तक चुप रहकर कहा, “उसके सम्बन्ध में कमललता पर लगाए गये अपवाद पर तुम विश्वास करते हो गुसाईं?”द्वारिकादास ने मुँह ऊपर उठाकर कहा, “मैं? जरा भी नहीं।”“तब भी उसे चला जाना पड़ रहा है?”“मुझे भी जाना होगा गुसाईं। निर्दोषी को दूर करके यदि खुद बना रहूँ, तो फिर मिथ्या ही इस पथ पर आया और मिथ्या ही उनका नाम इतने दिनों तक लिया।”“तब फिर उसे ही क्यों जाना पड़ेगा? मठ के कर्त्ता तो तुम हो, तुम तो उसे रख सकते हो?”द्वारिकादास 'गुरु! गुरु! गुरु!' कहकर मुँह नीचा किये बैठे रहे। समझा कि इसके अलावा गुरु का और आदेश नहीं है।“आज मैं जा रहा हूँ गुसाईं।” कहकर कमरे से बाहर निकलते समय उन्होंने मुँह ऊपर उठाकर मेरी ओर ताका। देखा कि उनकी ऑंखों से ऑंसू गिर रहे हैं। उन्होंने मुझे हाथ उठाकर नमस्कार किया और मैं प्रतिनमस्कार करके चला आया।अपराह्न बेला क्रमश: संध्याक में परिणत हो गयी, संध्याठ उत्तीर्ण होकर रात आयी, किन्तु कमललता नजर नहीं आयी। नवीन का आदमी मुझे स्टेशन पर पहुँचाने के लिए आ पहुँचा। सिर पर बैग रक्खे किसन जल्दी मचा कर कह रहा है- अब वक्त नहीं है- पर कमललता नहीं लौटी। पद्मा का विश्वास था कि थोड़ी देर बाद ही वह आएगी, पर मेरा सन्देह क्रमश: विश्वास बन गया कि वह नहीं आयेगी और शेष विदाई की कठोर परीक्षा से विमुख होकर वह पूर्वाह्न में ही भाग गयी है, दूसरा वस्त्र भी साथ नहीं लिया है। कल उसने भिक्षुणी वैरागिणी बताकर जो आत्म-परिचय दिया था, वह परिचय ही आज अक्षुण्ण रखा।जाने के वक्त पद्मा रोने लगी। उसे अपना पता देते हुए कहा, “दीदी ने तुमसे मुझे चिट्ठी लिखते रहने के लिए कहा है- तुम्हारी जो इच्छा हो वह मुझे लिखकर भेजना पद्मा।”“पर मैं तो अच्छी तरह लिखना नहीं जानती, गुसाईं।”“तुम जो लिखोगी मैं वही पढ़ लूँगा।”“दीदी से मिलकर नहीं जाओगे?”“फिर मुलाकात होगी पद्मा, अब तो मैं जाता हूँ।” कहकर बाहर निकल पड़ा।♦♦ • ♦♦ऑंखें जिसे सारे रास्ते अन्धकार में भी खोज रही थीं, उससे मुलाकात हुई रेलवे स्टेशन पर। वह लोगों की भीड़ से दूर खड़ी थी, मुझे देख नजदीक आकर बोली, “एक टिकिट खरीद देना होगा गुसाईं।”“तब क्या सचमुच ही सबको छोड़कर चल दीं?”“इसके अलावा और तो कोई उपाय नहीं है।”“कष्ट नहीं होता कमललता?”“यह बात क्यों पूछते हो गुसाईं, सब तो जानते हो।”“कहाँ जाओगी?”“वृन्दावन जाऊँगी। पर इतनी दूर का टिकिट नहीं चाहिए। तुम पास की ही किसी जगह का खरीद दो।”“मतलब यह कि मेरा ऋण जितना भी कम हो उतना अच्छा। इसके बाद दूसरों से भिक्षा माँगना शुरू कर दोगी, जब तक कि पथ शेष नहीं हो। यही तो?”“भिक्षा क्या यह पहली बार ही शुरू होगी गुसाईं? क्या कभी और नहीं माँगी?”चुप रहा। उसने मेरी ओर ऑंखें फिराकर कहा, “तो वृन्दावन का टिकिट ही खरीद दो।”“तो चलो एक साथ ही चलें?”“तुम्हारा भी क्या यही रास्ता है?”कहा, “नहीं, यही तो नहीं है- तो भी जितनी दूर तक है, उतनी ही दूर तक सही।”गाड़ी आने पर दोनों उसमें बैठ गये। पास की बेंच पर मैंने अपने हाथों से ही उसका बिछौना बिछा दिया।कमललता व्यस्त हो उठी, “यह क्या कर रहे हो गुसाईं?”“वह कर रहा हूँ जो कभी किसी के लिए नहीं किया- हमेशा याद रखने के लिए।”“सचमुच ही क्या याद रखना चाहते हो?”“सचमुच ही याद रखना चाहता हूँ कमललता। तुम्हारे अलावा यह बात और कोई नहीं जानेगा।”“पर मुझे तो दोष लगेगा गुसाईं।”“नहीं, कोई दोष नहीं लगेगा- तुम मजे से बैठो।”कमललता बैठी, पर बड़े संकोच के साथ। कितने गाँव, कितने नगर और कितने प्रान्तों को पार करती हुई ट्रेन चल रही थी। नजदीक बैठकर वह धीरे-धीरे अपने जीवन की अनेक कहानियाँ सुनाने लगी। जगह-जगह घूमने की कहानियाँ, मथुरा, वृन्दावन, गोवरधन, राधाकुण्ड-निवास की बातें, अनेक तीर्थ-भ्रमणों की कथाएँ, और अन्त में द्वारिकादास के आश्रय में मुरारीपुर आश्रम में आने की बात। मुझे उस वक्त उस व्यक्ति की विदा के वक्त की बातें याद आ गयीं। कहा, “जानती हो, कमललता, बड़े गुसाईं तुम्हारे कलंक पर विश्वास न ही करते?”'“नहीं करते?”“कतई नहीं। मेरे आने के वक्त उनकी ऑंखों से ऑंसू गिरने लगे, बोले- “निर्दोषी को दूर करके यदि मैं यहाँ खुद बना रहा नये गुसाईं, तो उनका नाम लेना मिथ्या है और मिथ्या है मेरा इस पथ पर आना।' मठ में वे भी न रहेंगे कमललता और तब ऐसा निष्पाप मधुर आश्रम टूटकर बिल्कुथल नष्ट हो जायेगा।”“नहीं, नहीं नष्ट होगा, भगवान एक न एक रास्ता अवश्य दिखा देंगे।”“अगर कभी तुम्हारी पुकार हो, तो फिर वहाँ लौटकर जाओगी?”“नहीं।”“यदि वे पश्चात्ताप करके तुमको लौटाया चाहें?”“तो भी नहीं।”“पर अब तुमसे कहाँ मुलाकात होगी?”इस प्रश्न का उसने उत्तर नहीं दिया, चुप रही। काफी वक्त खामोशी में कट गया, पुकारा, “कमललता?' उत्तर नहीं मिला, देखा कि गाड़ी के एक कोने में सिर रखकर उसने ऑंखें बन्द कर ली हैं। यह सोचकर कि सारे दिन की थकान से सो गयी हैं, जगाने की इच्छा नहीं हुई। उसके बाद फिर, मैं खुद कब सो गया, यह पता नहीं, हठात् कानों में आवाज आयी, “नये गुसाईं?” देखा कि वह मेरे शरीर को हिलाकर पुकार रही हैं। बोली, “उठो, तुम्हारी साँईथिया की ट्रेन खड़ी है।”जल्दी से उठ बैठा, पास के डिब्बे में किसन सिंह था, पुकारने के साथ ही उसने आकर बैग उतार दिया। बिछौना बाँधते वक्त देखा कि जिन दो चादरों से उसकी शय्या बनाई थी, उसने उनको पहिले से ही तहकर मेरी बेंच पर एक ओर रख दिया है। कहा, “यह जरा-सा भी तुमने लौटा दिया- नहीं लिया?”“न जाने कितनी बार चढ़ना-उतरना पड़े, यह बोझा कौन उठाएगा?”“दूसरा वस्त्र भी साथ नहीं लायी, वह भी क्या बोझा होता? एक-दो वस्त्र निकालकर दूँ?”“तुम भी खूब हो! तुम्हारे कपड़े भिखारिणी के शरीर पर कैसे फबेंगे?”“खैर, कपड़े अच्छे नहीं लगेंगे, पर भिखारी को भी खाना तो पड़ता है? पहुँचने में और भी दो-तीन दिन लगेंगे, ट्रेन में क्या खाओगी? जो खाने की चीजें मेरे पास हैं, उन्हें भी क्या फेंक जाऊँ- तुम नहीं छुओगी?”कमललता ने इस बार हँसकर कहा, “अरे वाह, गुस्सा हो गये! अजी उन्हें छुऊँगी। रहने दो उन्हें, तुम्हारे चले जाने के बाद मैं पेटभर के खा लूँगी।”वक्त खत्म हो रहा था, मेरे उतरने के वक्त बोली, “जरा ठहरो तो गुसाईं, कोई है नहीं- आज छिपकर तुम्हें एक बार प्रणाम कर लूँ।” यह कहकर, उसने झुककर मेरे पैरों की धूल ले ली।उतरकर प्लेटफार्म पर खड़ा हो गया। उस वक्त रात समाप्त नहीं हुई थी, नीचे और ऊपर अन्धकार के स्तरों में बँटवारा शुरू हो गया था। आकाश के एक प्रान्त में कृष्ण त्रयोदशी का क्षीण शीर्ण शशि और दूसरे प्रान्त में उषा की आगमनी। उस दिन की बात याद आ गयी, जिस दिन ऐसे ही वक्त देवता के लिए फूल तोड़ने जाने के लिए उसका साथी हुआ था। और आज?सीटी बजाकर और हरे रंग की लालटेन हिलाकर गार्ड साहब ने यात्रा का संकेत किया। कमललता ने खिड़की से हाथ बढ़ाकर प्रथम बार मेरा हाथ पकड़ लिया। उसके कम्पन में विनती का जो सुर था वह कैसे समझाऊँ? बोली, “तुमसे कभी कुछ नहीं माँगा है, आज एक बात रखोगे?”“हाँ रक्खूँगा।” कहकर उसकी ओर देखने लगा।कहने में उसे एक क्षण की देर हुई, बोली, “जानती हूँ कि मैं तुम्हारे कितने आदर की हूँ। आज विश्वासपूर्वक उनके पाद-पद्मों में मुझे सौंपकर तुम निश्चिन्त होओ, निर्भय होओ। मेरे लिए सोच-सोचकर अब तुम अपना मन खराब मत करना गुसाईं, तुम्हारे निकट मेरी यही प्रार्थना है।”ट्रेन चल दी। उसका वही हाथ अपने हाथ में लिये कुछ दूर अग्रसर होते-होते कहा, “कमललता, तुम्हें मैंने उन्हीं को सौंपा, वे ही तुम्हारा भार लें। तुम्हारा पथ, तुम्हारी साधना निरापद हो- अपनी कहकर अब मैं तुम्हारा असम्मान नहीं करूँगा।”हाथ छोड़ दिया, गाड़ी दूर से दूर होने लगी। गवाक्षपथ से देखा, उसके झुके हुए मुँह पर स्टेशन की प्रकाश-माला कई बार आकर पड़ी और फिर अन्धकार में मिल गयी। सिर्फ यही मालूम हुआ कि हाथ उठाकर मानो वह मुझे शेष नमस्कार कर रही है।समाप्त

❤️,श्रीकांत"❤️        अध्याय 20 By वनिता कासनियां पंजाब अध्याय 20 एक दिन सुबह स्वामी आनन्द आ पहुँचे। रतन को यह पता न था कि उन्हें आने का निमन्त्रण दिया गया है। उदास चेहरे से उसने आकर खबर दी, “बाबू, गंगामाटी का वह साधु आ पहुँचा है। बलिहारी है, खोज-खाजकर पता लगा ही लिया।” रतन सभी साधु-सज्जनों को सन्देह की दृष्टि से देखता है। राजलक्ष्मी के गुरुदेव को तो वह फूटी ऑंख नहीं देख सकता। बोला, “देखिए, यह इस बार किस मतलब से आया है। ये धार्मिक लोग रुपये लेने के अनेक कौशल जानते हैं।” हँसकर कहा, “आनन्द बड़े आदमी का लड़का है, डॉक्टरी पास है, उसे अपने लिए रुपयों की जरूरत नहीं।” “हूँ, बड़े आदमी का लड़का है! रुपया रहने पर क्या कोई इस रास्ते पर आता है!” इस तरह अपना सुदृढ़ अभिमत व्यक्त करके वह चला गया। रतन को असली आपत्ति यहीं पर है। माँ के रुपये कोई ले जाय, इसका वह जबरदस्त विरोधी है। हाँ, उसकी अपनी बात अलग है।” वज्रानन्द ने आकर मुझे नमस्कार किया, कहा, “और एक बार आ गया दादा, कुशल तो है? दीदी कहाँ हैं?” “शायद पूजा करने बैठी हैं, निश्चय ही उन्हें खबर नहीं मिली है।” “तो खुद ही जाकर संवाद दे ...

रामचरितमानस के उत्तरकांड में गरुड़जी कागभुशुण्डि जी से कहते हैं कि, आप मुझ पर कृपावान हैं, और मुझे अपना सेवक मानते हैं, तो कृपापूर्वक मेरे सात प्रश्नों के उत्तर दीजिए। गरुड़ जी प्रश्न करते हैं- प्रथमहिं कहहु नाथ मतिधीरा। सब तें दुर्लभ कवन सरीरा। बड़ दुख कवन कवन सुख भारी। सोइ संछेपहिं कहहु बिचारी। संत असंत मरम तुम जानहु। तिन्ह कर सहज सुभाव बखानहु। कवन पुन्य श्रुति बिदित बिसाला। कहहु कवन अघ परम कराला। मानस रोग कहहु समुझाई । तुम्ह सर्बग्य कृपा अधिकाई ।। गरुड़ प्रश्न करते हैं कि हे नाथ! सबसे दुर्लभ शरीर कौन-सा है। कौन सबसे बड़ा दुःख है। कौन सबसे बड़ा सुख है। साधु और असाधु जन का स्वभाव कैसा होता है। वेदों में बताया गया सबसे बड़ा पाप कौन-सा है। इसके बाद वे सातवें प्रश्न के संबंध में कहते हैं कि मानस रोग समझाकर बतलाएँ, क्योंकि आप सर्वज्ञ हैं। गरुड़ के प्रश्न के उत्तर में कागभुशुंडि कहते हैं कि मनुष्य का शरीर दुर्लभ और श्रेष्ठ है, क्योंकि इस शरीर के माध्यम से ही ज्ञान, वैराग्य, स्वर्ग, नरक, भक्ति आदि की प्राप्ति होती है। वे कहते हैं कि दरिद्र के समान संसार में कोई दुःख नहीं है और संतों (सज्जनों) के मिलन के समान कोई सुख नहीं है। मन, वाणी और कर्म से परोपकार करना ही संतों (साधुजनों) का स्वभाव होता है। किसी स्वार्थ के बिना, अकारण ही दूसरों का अपकार करने वाले दुष्ट जन होते हैं। वेदों में विदित अहिंसा ही परम धर्म और पुण्य है, और दूसरे की निंदा करने के समान कोई पाप नहीं होता है। गरुड़ के द्वारा पूछे गए सातवें प्रश्न का उत्तर अपेक्षाकृत विस्तार के साथ कागभुशुंडि द्वारा दिया जाता है। सातवें और अंतिम प्रश्न के उत्तर में प्रायः वे सभी कारण निहित हैं, जो अनेक प्रकार के दुःखों का कारण बनते हैं। इस कारण बाबा तुलसी मानस रोगों का विस्तार से वर्णन करते हैं। सुनहु तात अब मानस रोगा।जिन्ह तें दुख पावहिं सब लोगा। मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला। तिन्ह तें पुनि उपजहिं बहु सूला। काम बात कफ लोभ अपारा। क्रोध पित्त नित छाती जारा। प्रीति करहिं जौ तीनिउ भाई । उपजइ सन्यपात दुखदाई। विषय मनोरथ दुर्गम नाना । ते सब सूल नाम को जाना। कागभुशुंडि कहते हैं कि मानस रोगों के बारे में सुनिए, जिनके कारण सभी लोग दुःख पाते हैं। सारी मानसिक व्याधियों का मूल मोह है। इसके कारण ही अनेक प्रकार के मनोरोग उत्पन्न होते हैं। शरीर में विकार उत्पन्न करने वाले वात, कफ और पित्त की भाँति क्रमशः काम, अपार लोभ और क्रोध हैं। जिस प्रकार पित्त के बढ़ने से छाती में जलन होने लगती है, उसी प्रकार क्रोध भी जलाता है। यदि ये तीनों मनोविकार मिल जाएँ, तो कष्टकारी सन्निपात की भाँति रोग लग जाता है। अनेक प्रकार की विषय-वासना रूपी मनोकांक्षाएँ ही वे अनंत शूल हैं, जिनके नाम इतने ज्यादा हैं, कि उन सबको जानना भी बहुत कठिन है। बाबा तुलसी इस प्रसंग में अनेक प्रकार के मानस रोगों, जैसे- ममता, ईर्ष्या, हर्ष, विषाद, जलन, दुष्टता, मन की कुटिलता, अहंकार, दंभ, कपट, मद, मान, तृष्णा, मात्सर्य (डाह) और अविवेक आदि का वर्णन करते हैं और शारीरिक रोगों के साथ इनकी तुलना करते हुए इन मनोरोगों की विकरालता को स्पष्ट करते हैं। यहाँ मनोरोगों की तुलना शारीरिक व्याधियों से इस प्रकार और इतने सटीक ढंग से की गई है, कि किसी भी शारीरिक व्याधि की तीक्ष्णता और जटिलता से मनोरोग की तीक्ष्णता और जटिलता का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। शरीर का रोग प्रत्यक्ष होता है और शरीर में परिलक्षित होने वाले उसके लक्षणों को देखकर जहाँ एक ओर उपचार की प्रक्रिया को शुरू किया जा सकता है, वहीं दूसरी ओर व्याधिग्रस्त व्यक्ति को देखकर अन्य लोग उस रोग से बचने की सीख भी ले सकते हैं। सामान्यतः मनोरोग प्रत्यक्ष परिलक्षित नहीं होता, और मनोरोगी भी स्वयं को व्याधिग्रस्त नहीं मानता है। इस कारण से बाबा तुलसी ने मनोरोगों की तुलना शारीरिक रोगों से करके एकदम अलग तरीके से सीख देने का कार्य किया है। कागभुशुंडि कहते हैं कि एक बीमारी-मात्र से व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है और यहाँ तो अनेक असाध्य रोग हैं। मनोरोगों के लिए नियम, धर्म, आचरण, तप, ज्ञान, यज्ञ, जप, दान आदि अनेक औषधियाँ हैं, किंतु ये रोग इन औषधियों से भी नहीं जाते हैं। इस प्रकार संसार के सभी जीव रोगी हैं। शोक, हर्ष, भय, प्रीति और वियोग से दुःख की अधिकता हो जाती है। इन तमाम मानस रोगों को विरले ही जान पाते हैं। जानने के बाद ये रोग कुछ कम तो होते हैं, मगर विषय-वासना रूपी कुपथ्य पाकर ये साधारण मनुष्य तो क्या, मुनियों के हृदय में भी अंकुरित हो जाते हैं। मनोरोगों की विकरालता का वर्णन करने के उपरांत इन रोगों के उपचार का वर्णन भी होता है। कागभुशुंडि के माध्यम से तुलसीदास कहते हैं कि सद्गुरु रूपी वैद्य के वचनों पर भरोसा करते हुए विषयों की आशा को त्यागकर संयम का पालन करने पर श्रीराम की कृपा से ये समस्त मनोरोग नष्ट हो जाते हैं। रघुपति भगति सजीवनि मूरी।अनूपान श्रद्धा मति पूरी।। इन मनोरोगों के उपचार के लिए श्रीराम की भक्ति संजीवनी जड़ की तरह है। श्रीराम की भक्ति को श्रद्धा से युक्त बुद्धि के अनुपात में निश्चित मात्रा के साथ ग्रहण करके मनोरोगों का शमन किया जा सकता है। यहाँ तुलसीदास ने भक्ति, श्रद्धा और मति के निश्चित अनुपात का ऐसा वैज्ञानिक-तर्कसम्मत उल्लेख किया है, जिसे जान-समझकर अनेक लोगों ने मानस को अपने जीवन का आधार बनाया और मनोरोगों से मुक्त होकर जीवन को सुखद और सुंदर बनाया। यहाँ पर श्रीराम की भक्ति से आशय कर्मकांडों को कठिन और कष्टप्रद तरीके से निभाने, पूजा-पद्धतियों का कड़ाई के साथ पालन करने और इतना सब करते हुए जीवन को जटिल बना लेने से नहीं है। इसी प्रकार श्रद्धा भी अंधश्रद्धा नहीं है। भक्ति और श्रद्धा को संयमित, नियंत्रित और सही दिशा में संचालित करने हेतु मति है। मति को नियंत्रित करने हेतु श्रद्धा और भक्ति है। इन तीनों के सही और संतुलित व्यवहार से श्रीराम का वह स्वरूप प्रकट होता है, जिसमें मर्यादा, नैतिकता और आदर्श है। जिसमें लिप्सा-लालसा नहीं, त्याग और समर्पण का भाव होता है। जिसमें विखंडन की नहीं, संगठन की; सबको साथ लेकर चलने की भावना निहित होती है। जिसमें सभी के लिए करुणा, दया, ममता, स्नेह, प्रेम, वात्सल्य जैसे उदात्त गुण परिलक्षित होते हैं। श्रद्धा, भक्ति और मति का संगठन जब श्रीराम के इस स्वरूप को जीवन में उतारने का माध्यम बन जाता है, तब असंख्य मनोरोग दूर हो जाते हैं। स्वयं का जीवन सुखद, सुंदर, सरल और सहज हो जाता है। जब अंतर्जगत में, मन में रामराज्य स्थापित हो जाता है, तब बाह्य जगत के संताप प्रभावित नहीं कर पाते हैं। इसी भाव को लेकर, आत्मसात् करके विसंगतियों, विकृतियों और जीवन के संकटों से जूझने की सामर्थ्य अनगिनत लोगों को तुलसी के मानस से मिलती रही है। यह क्रम आज का नहीं, सैकड़ों वर्षों का है। यह क्रम देश की सीमाओं के भीतर का ही नहीं, वरन् देश से बाहर कभी मजदूर बनकर, तो कभी प्रवासी बनकर जाने वाले लोगों के लिए भी रहा है। सैकड़ों वर्षों से लगाकर वर्तमान तक अनेक देशों में रहने वाले लोगों के लिए तुलसी का मानस इसी कारण पथ-प्रदर्शक बनता है, सहारा बनता है। आज के जीवन की सबसे जटिल समस्या ऐसे मनोरोगों की है, मनोविकृतियों की है, जिनका उपचार अत्याधुनिक चिकित्सा पद्धतियों के पास भी उपलब्ध नहीं है। ऐसी स्थिति में तुलसीदास का मानस व्यक्ति से लगाकर समाज तक, सभी को सही दिशा दिखाने, जीवन को सन्मार्ग में चलाने की सीख देने की सामर्थ्य रखता है। #वनिता #पंजाब

 

# રામા દુનિયામાંથી તૂટી પડવું અંદરનું હૃદય જોવામાં આવ્યું. ત્યારથી માણસને ભગવાન માનવામાં આવે છે ભગવાન ત્યારથી મારો મિત્ર છે. જેને વિશ્વ કહેવાતું તેને તેના ભ્રાંતિ વિશે ખબર પડી માયાની છાયામાંથી બહાર નીકળો આખી દુનિયા અંદર થઈ. જો આપણે હકની વાત કરીએ લીફ લીફ .ભો થયો. જલદીથી બધુ બરાબર છે. જે ડ્રોપ નયનમાં બંધ થઈ ગયો તેમાં તે સમુદ્ર મળ્યો. ડ્રોપમાં જાતે બાઉન્ડ હવે સમુદ્ર પાર નથી થયો. મારા શેલ પર મૂક્કો જુઓ વાંચવાથી મુક્તિ મળશે નહીં તેમાં મારો ભાગ શોધો ત્યાં દરેક લેખ રામ હતા. * સામાજિક કાર્યકર વનિતા કસાણી પંજાબ દ્વારા * 🌹🙏🙏🌹