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08-03-2021 प्रात:मुरली ओम् शान्ति "बापदादा" मधुबन ll🕉💚🌹💐🌿🌺🕉❤🕉🌺 🌿💐🌹💚🕉"मीठे बच्चे - श्रीमत पर कल्याणकारी बनना है, सबको सुख का रास्ता बताना है'' llप्रश्नः-किसी भी प्रकार की ग़फलत होने का मुख्य कारण क्या है?उत्तर:-देह-अभिमान। देह-अभिमान के कारण ही बच्चों से बहुत भूलें होती हैं। वह सर्विस भी नहीं कर सकते हैं। उनसे ऐसा कर्म होता है जो सब ऩफरत करते हैं। बाबा कहते - बच्चे आत्म-अभिमानी बनो। कोई भी अकर्तव्य नहीं करो। क्षीरखण्ड हो सर्विस के अच्छे-अच्छे प्लैन बनाओ। मुरली सुनकर धारण करो, इसमें बेपरवाह नहीं बनो।गीत:-छोड़ भी दे आकाश सिंहासन.......ओम् शान्ति। रूहानी बच्चों प्रति रूहानी बाप की श्रीमत। अभी हम सब सेन्टर्स के बच्चों से बात कर रहे हैं। अब जो त्रिमूर्ति, गोला, झाड़, सीढ़ी, लक्ष्मी-नारायण का चित्र और कृष्ण का चित्र - यह 6 चित्र हैं मुख्य। यह जैसे पूरी प्रदर्शनी है, इनमें सब सार आ जाता है। जैसे नाटक के पर्दे बनाये जाते हैं, एडवरटाइज़ के लिए। वह कभी बरसात आदि में खराब नहीं होते हैं। ऐसे यह मुख्य चित्र बनाने चाहिए। बच्चों को श्रीमत मिलती है रूहानी सर्विस बढ़ाने लिए, भारतवासी मनुष्यों का कल्याण करने के लिए। गाते भी हैं - कल्याणकारी बेहद का बाप है तो जरूर कोई अकल्याणकारी भी होगा। जिस कारण बाप को आकर फिर कल्याण करना पड़ता है। रूहानी बच्चे जिनका कल्याण हो रहा है, वह इन बातों को समझ सकते हैं। जैसे हमारा कल्याण हुआ है तो हम फिर औरों का भी कल्याण करें। जैसे बाप को भी चिन्तन चलता है कि कैसे कल्याण करें। युक्तियाँ बता रहे हैं। 6 बाई 9 साइज़ के शीट पर यह चित्र बनाने चाहिए। देहली जैसे शहरों में अक्सर करके बहुत मनुष्य आते हैं। जहाँ गवर्नमेन्ट की एसेम्बली आदि होती है। पोट्रियेट तरफ बहुत लोग आते हैं, वहाँ यह चित्र रखने चाहिए। बहुतों का कल्याण करने अर्थ बाप मत देते हैं। ऐसे टीन पर बहुत चित्र बन सकते हैं। देही-अभिमानी बन बाप की सर्विस में लगना है। बाप राय देते हैं - यह चित्र हिन्दी और अंग्रेजी में बनाने चाहिए। यह 6 चित्र मुख्य जगह पर लग जायें। अगर ऐसे मुख्य स्थानों पर लग जायें तो तुम्हारे पास सैकड़ों समझने के लिए आयेंगे। परन्तु बच्चों में देह-अभिमान होने के कारण बहुत भूलें होती हैं। ऐसे कोई मत समझे कि मैं पक्का देही-अभिमानी हूँ। गलतियाँ तो बहुत होती हैं, सच नहीं बतलाते हैं। समझाया जाता है, ऐसा कोई कर्तव्य नहीं करो जो कोई खराब नफरत लाये कि इनमें देह-अभिमान है। तुम सदैव युद्ध के मैदान में हो। और जगह तो 10-20 वर्ष तक युद्ध चलती है। तुम्हारी माया से अन्त तक युद्ध चलनी है। परन्तु है गुप्त, जिसको कोई जान नहीं सकते। गीता में जो महाभारत लड़ाई है, वह जिस्मानी दिखाई है। परन्तु है यह रूहानी। रूहानी युद्ध है पाण्डवों की। वह जिस्मानी युद्ध है जो परमपिता परमात्मा से विप्रीत बुद्धि हैं। तुम ब्राह्मण कुल भूषणों की है प्रीत बुद्धि। तुमने और संग तोड़ एक बाप के संग जोड़ी है। बहुत बार देह-अभिमान आने कारण भूल जाते हैं फिर अपना ही पद भ्रष्ट कर लेते हैं। फिर अन्त में बहुत पछताना पड़ेगा। कुछ कर नहीं सकेंगे। यह कल्प-कल्प की बाजी है। इस समय कोई अकर्तव्य कार्य करते हैं तो कल्प-कल्पान्तर के लिए पद भ्रष्ट हो जाता है। बड़ा घाटा पड़ जाता है।बाप कहते हैं - आगे तुम 100 प्रतिशत घाटे में थे। अब बाप 100 प्रतिशत फायदे में ले जाते हैं। तो श्रीमत पर चलना है। हर एक बच्चे को कल्याणकारी बनना है। सबको सुख का रास्ता बताना है। सुख है ही स्वर्ग में, नर्क में है दु:ख। क्यों? यह है विशश दुनिया, वह वाइसलेस थी, अब विशश दुनिया बनी है, फिर बाप वाइसलेस बनाते हैं। इन बातों को दुनिया में कोई नहीं जानते हैं। तो मुख्य यह चित्र परमानेन्ट स्थानों पर लगने चाहिए। पहला नम्बर देहली मुख्य, सेकण्ड बॉम्बे और कलकत्ता, कोई को ऑर्डर देने से शीट पर बना सकते हैं। आगरा में भी घूमने के लिए बहुत जाते हैं। बच्चे सर्विस तो बहुत अच्छी कर रहे हैं और भी कुछ कर्तव्य करके दिखायें। यह चित्र बनाने में कोई तकलीफ नहीं हैं। सिर्फ एक्सपीरियन्स (अनुभव) चाहिए। अच्छे बड़े चित्र हों जो कोई दूर से भी पढ़ सके। गोला भी बड़ा बन सकता है। सेफ्टी से रखना पड़े, जो कोई खराब न करे। यज्ञ में असुरों के विघ्न पड़ते हैं क्योंकि यह हैं नई बातें। यह दुकान निकाल बैठे हैं। आखरीन में सब समझ जायेंगे कि हम उतरते आये हैं, जरूर कुछ खामी है। बाप है ही कल्याणकारी। वही बता सकते हैं कि भारत का कल्याण कैसे और कब हुआ है। भारत को तमोप्रधान कौन बनाते हैं फिर सतोप्रधान कौन बनाते हैं, यह चक्र कैसे फिरता है, कोई नहीं जानते हैं। संगमयुग को भी नहीं जानते हैं। समझते हैं भगवान युगे-युगे आता है। कभी कहते हैं भगवान तो नाम रूप से न्यारा है। भारत प्राचीन स्वर्ग था। यह भी कहते हैं क्राइस्ट से 3 हजार वर्ष पहले देवताओं का राज्य था फिर कल्प की आयु लम्बी दे दी है, तो बच्चों को देही-अभिमानी बनने की बड़ी मेहनत करनी है। आधाकल्प सतयुग और त्रेता में तुम आत्म-अभिमानी थे परन्तु परमात्म-अभिमानी नहीं थे। यहाँ तो फिर तुम देह-अभिमानी बन पड़े हो। फिर देही-अभिमानी बनना पड़े। यात्रा अक्षर भी है, परन्तु अर्थ नहीं समझते हैं। मनमनाभव का अर्थ है रूहानी यात्रा पर रहो। हे आत्मायें मुझ बाप को याद करो। कृष्ण तो ऐसे कह न सके। वह गीता का भगवान कैसे हो सकता है। उन पर कोई कलंक लगा न सके। यह भी बाप ने समझाया है सीढ़ी जब उतरे हैं तो आधाकल्प काम चिता पर बैठ काले हो जाते हैं। अब है ही आइरन एज। उनकी सम्प्रदाय काली ही होगी। परन्तु सबका सांवरा रूप कैसे बनायें। चित्र आदि जो भी बनाये हैं सब बेसमझी के। उसको ही श्याम फिर सुन्दर कहना... यह कैसे हो सकता है। उनको कहा ही जाता है अन्धश्रद्धा से गुड़ियों की पूजा करने वाले। गुड़ियों का नाम रूप ऑक्यूपेशन आदि हो नहीं सकता। तुम भी पहले गुड़ियों की पूजा करते थे ना। अर्थ कुछ भी नहीं समझते थे। तो बाबा ने समझाया है - प्रदर्शनी के चित्र मुख्य बन जायें। कमेटी बने जो प्रदर्शनी पिछाड़ी प्रदर्शनी करती रहे। बन्धन मुक्त तो बहुत हैं। कन्यायें बन्धनमुक्त हैं। वानप्रस्थी भी बन्धनमुक्त हैं। तो बच्चों को डायरेक्शन अमल में लाना चाहिए। यह है गुप्त पाण्डव। कोई को भी पहचान में नहीं आ सकते। बाप भी गुप्त, ज्ञान भी गुप्त। वहाँ मनुष्य, मनुष्य को ज्ञान देते हैं। यहाँ परमात्मा बाप ज्ञान देते हैं आत्माओं को। परन्तु यह नहीं समझते कि आत्मा ज्ञान लेती है क्योंकि वह आत्मा को निर्लेप कह देते हैं। वास्तव में आत्मा ही सब कुछ करती है। पुनर्जन्म आत्मा लेती है, कर्मों के अनुसार। बाप यह सब प्वांइट्स अच्छी रीति बुद्धि में डालते हैं। सब सेन्टर्स में नम्बरवार देही-अभिमानी हैं। जो अच्छी रीति समझते और फिर समझाते हैं। देह-अभिमानी न कुछ समझते न समझा सकते हैं। मैं कुछ समझती नहीं हूँ, यह भी देह-अभिमान है। अरे तुम तो आत्मा हो। बाप आत्माओं को बैठ समझाते हैं। दिमाग ही खुल जाना चाहिए। तकदीर में नहीं है तो खुलता ही नहीं। तो बाप तदबीर कराते हैं परन्तु तकदीर में नहीं है तो पुरूषार्थ भी नहीं करते हैं। है बहुत सहज, अल्फ और बे समझना है। बेहद के बाप से वर्सा मिलता है। तुम भारतवासी सब गॉड गॉडेज थे। प्रजा भी ऐसी थी। इस समय पतित बन पड़े हैं। कितना समझाया जाता है। अपने को आत्मा समझ बाप को याद करो। बाप कहते हैं बच्चे हमने तुमको गॉड गॉडेज बनाया। तुम अब क्या बन गये हो। यह है कुम्भी पाक नर्क। विषय वैतरणी नदी में मनुष्य जानवर पंछी आदि सब एक समान दिखाते हैं। यहाँ तो मनुष्य और ही खराब हो पड़े हैं। मनुष्यों में क्रोध भी कितना है। लाखों को मार देते हैं। भारत जो वेश्यालय बना है फिर इनको शिवालय शिवबाबा ही बनाते हैं। बाप कितना अच्छी रीति समझाते हैं। डायरेक्शन देते हैं ऐसे-ऐसे करो। चित्र बनाओ। फिर जो बड़े-बड़े मनुष्य हैं उन्हों को समझाओ। यह प्राचीन योग, प्राचीन नॉलेज सबको सुननी चाहिए। हाल लेकर प्रदर्शनी लगानी है। उन्हों को तो पैसे आदि कुछ नहीं लेने चाहिए। फिर भी जो ठीक समझो तो किराया लो। चित्र तो आप देखो, चित्र देखेंगे तो फिर झट पैसे वापिस कर देंगे। सिर्फ युक्ति से समझाना चाहिए। अथॉरिटी तो हाथ में रहती है ना। चाहे तो सब कुछ कर सकते हैं। वह थोड़ेही समझते हैं, विनाश काले विपरीत बुद्धि तो विनाश को प्राप्त हो गये। पाण्डवों ने तो भविष्य में पद पाया। सो भी राज्य पीछे भविष्य में होगा। अभी थोड़ेही होगा। यह मकान आदि सब टूट जायेंगे। अब बाप ने समझाया है प्रदर्शनी भी करनी चाहिए। खूब अच्छी तरह से कार्ड पर निमन्त्रण देना है। तुम पहले बड़ों को समझाओ तो मदद भी करेंगे। बाकी सोये नहीं रहना है। कई बच्चे देह-अभिमान में सोये रहते हैं। कमेटी बनाए क्षीरखण्ड हो प्लैन बनाना चाहिए। बाकी मुरली नहीं पढ़ेंगे तो धारणा कैसे होगी। ऐसे बहुत लागर्ज (बेपरवाह) हैं। अच्छा!मीठे-मीठे सिकीलधे बच्चों प्रति मात-पिता बापदादा का यादप्यार और गुडमार्निंग। रूहानी बाप की रूहानी बच्चों को नमस्ते।धारणा के लिए मुख्य सार:-1) देही-अभिमानी बनकर सर्विस की भिन्न-भिन्न युक्तियाँ निकालनी हैं। आपस में क्षीरखण्ड होकर सर्विस करनी है। जैसे बाप कल्याणकारी है ऐसे कल्याणकारी बनना है।2) प्रीत बुद्धि बन और संग तोड़ एक संग जोड़ना है। कोई ऐसा अकर्तव्य नहीं करना है जो कल्प-कल्पान्तर के लिए नुकसान हो जाए।वरदान:-सदा उमंग, उत्साह में रह चढ़ती कला का अनुभव करने वाले महावीर भव llमहावीर बच्चे हर सेकेण्ड, हर संकल्प में चढ़ती कला का अनुभव करते हैं। उनकी चढ़ती कला सर्व के प्रति भला अर्थात् कल्याण करने के निमित्त बना देती है। उन्हें रूकने वा थकने की अनुभूति नहीं होती, वे सदा अथक, सदा उमंग-उत्साह में रहने वाले होते हैं। रूकने वाले को घोड़ेसवार, थकने वाले को प्यादा और जो सदा चलने वाले हैं उनको महावीर कहा जाता है। उनकी माया के किसी भी रूप में आंख नहीं डूबेगी।स्लोगन:-शक्तिशाली वह है जो अपनी साधना द्वारा जब चाहे शीतल स्वरूप और जब चाहे ज्वाला रूप धारण कर ले।मातेश्वरी जी के अनमोल महावाक्य -आत्मा कभी परमात्मा का अंश नहीं हो सकती है:- बहुत मनुष्य ऐसे समझते हैं, हम आत्मायें परमात्मा की अंश हैं, अब अंश तो कहते हैं टुकडे को। एक तरफ कहते हैं परमात्मा अनादि और अविनाशी है, तो ऐसे अविनाशी परमात्मा को टुकडे में कैसे लाते हैं! अब परमात्मा कट कैसे हो सकता है, आत्मा ही अज़र अमर है, तो अवश्य आत्मा को पैदा करने वाला अमर ठहरा। ऐसे अमर परमात्मा को टुकडे में ले आना गोया परमात्मा को भी विनाशी कह दिया लेकिन हम तो जानते हैं कि हम आत्मा परमात्मा की संतान हैं। तो हम उसके वंशज ठहरे अर्थात् बच्चे ठहरे वो फिर अंश कैसे हो सकते हैं? इसलिए परमात्मा के महावाक्य हैं कि बच्चे, मैं खुद तो इमार्टल हूँ, जागती ज्योत हूँ, मैं दीवा हूँ, मैं कभी बुझता नहीं हूँ और सभी मनुष्य आत्माओं का दीपक जगता भी है तो बुझता भी है। उन सबको जगाने वाला फिर मैं हूँ क्योंकि लाइट और माइट देने वाला मैं हूँ, बाकी इतना जरुर है मुझ परमात्मा की लाइट और आत्मा की लाइट दोनों में फर्क अवश्य है। जैसे बल्ब होता है कोई ज्यादा पॉवर वाला, कोई कम पॉवर वाला होता है, वैसे आत्मा भी कोई ज्यादा पॉवर वाली कोई कम पॉवर वाली है। बाकी परमात्मा की पॉवर कोई से कम ज्यादा नहीं होती है तभी तो परमात्मा के लिये कहते हैं। परमात्मा सर्वशक्तिवान अर्थात् सर्व आत्माओं से उसमें शक्ति ज्यादा है। वही सृष्टि के अन्त में आता है, अगर कोई समझे परमात्मा सृष्टि के बीच में आता है अर्थात् युगे युगे आता है तो मानो परमात्मा बीच में आ गया तो फिर परमात्मा सर्व से श्रेष्ठ कैसे हुआ। अगर कोई कहे परमात्मा युगे युगे आता है, तो क्या ऐसा समझें कि परमात्मा घड़ी घड़ी अपनी शक्ति चलाता है। ऐसे सर्वशक्तिवान की शक्ति इतने तक है, अगर बीच में ही अपनी शक्ति से सबको शक्ति अथवा सद्गति दे देवे तो फिर उनकी शक्ति कायम होनी चाहिए फिर दुर्गति को क्यों प्राप्त करते हो? तो इससे साबित (सिद्ध) है कि परमात्मा युगे युगे नहीं आता है अर्थात् बीच बीच में नहीं आता है। वो आता है कल्प के अन्त समय और एक ही बार अपनी शक्ति से सर्व की सद्गति करता है। जब परमात्मा ने इतनी बड़ी सर्विस की है तब उनका यादगार बड़ा शिवलिंग बनाया है और इतनी पूजा करते हैं, तो अवश्य परमात्मा सत् भी है, चैतन्य भी है और आनंद स्वरूप भी है। अच्छा - ओम् शान्ति।Om Shanti & Thanks 2u All🙏💐🕉🕉💐🙏

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❤️,श्रीकांत"❤️       अध्याय 20By वनिता कासनियां पंजाबअध्याय 20एक दिन सुबह स्वामी आनन्द आ पहुँचे। रतन को यह पता न था कि उन्हें आने का निमन्त्रण दिया गया है। उदास चेहरे से उसने आकर खबर दी, “बाबू, गंगामाटी का वह साधु आ पहुँचा है। बलिहारी है, खोज-खाजकर पता लगा ही लिया।”रतन सभी साधु-सज्जनों को सन्देह की दृष्टि से देखता है। राजलक्ष्मी के गुरुदेव को तो वह फूटी ऑंख नहीं देख सकता। बोला, “देखिए, यह इस बार किस मतलब से आया है। ये धार्मिक लोग रुपये लेने के अनेक कौशल जानते हैं।”हँसकर कहा, “आनन्द बड़े आदमी का लड़का है, डॉक्टरी पास है, उसे अपने लिए रुपयों की जरूरत नहीं।”“हूँ, बड़े आदमी का लड़का है! रुपया रहने पर क्या कोई इस रास्ते पर आता है!” इस तरह अपना सुदृढ़ अभिमत व्यक्त करके वह चला गया। रतन को असली आपत्ति यहीं पर है। माँ के रुपये कोई ले जाय, इसका वह जबरदस्त विरोधी है। हाँ, उसकी अपनी बात अलग है।”वज्रानन्द ने आकर मुझे नमस्कार किया, कहा, “और एक बार आ गया दादा, कुशल तो है? दीदी कहाँ हैं?”“शायद पूजा करने बैठी हैं, निश्चय ही उन्हें खबर नहीं मिली है।”“तो खुद ही जाकर संवाद दे दूँ। पूजा करना भाग थोड़े ही जायेगा, अब वे एक बार रसोईघर की तरफ भी दृष्टिपात करें। पूजा का कमरा किस तरफ है दादा? और वह नाई का बच्चा कहाँ गया- जरा चाय का पानी चढ़ा दे।”पूजा का कमरा दिखा दिया। रतन को पुकारते हुए आनन्द ने उस ओर प्रस्थान किया।दो मिनट बाद दोनों ही आकर उपस्थित हुए। आनन्द ने कहा, “दीदी, पाँचेक-रुपये दे दो, चाय पीकर जरा सियालदा बाजार घूम आऊँ।”राजलक्ष्मी ने कहा, “नजदीक ही एक अच्छा बाजार है आनन्द, उतनी दूर क्यों जाओगे? और तुम ही क्यों जाओगे? रतन को जाने दो न!”“कौन रतन? उस आदमी का विश्वास नहीं दीदी, मैं आया हूँ इसीलिए शायद वह छाँट-छाँटकर सड़ी हुई मछलियाँ खरीद लायेगा।” कहकर हठात् देखा कि रतन दरवाजे पर खड़ा है। तब जीभ दबाकर कहा, “रतन, बुरा न मानना भाई, मैंने समझा था कि तुम उधर चले गये हो, पुकारने पर उत्तर नहीं मिला था न!”राजलक्ष्मी हँसने लगी, मुझसे भी बिना हँसे न रहा गया। रतन की भौंहें नहीं चढ़ीं, उसने गम्भीर आवाज में कहा, “मैं बाजार जा रहा हूँ माँ, किसन ने चाय का पानी चढ़ा दिया है।” और वह चला गया। राजलक्ष्मी ने कहा, “शायद रतन की आनन्द से नहीं बनती?”आनन्द ने कहा, “हाँ, पर मैं उसे दोष नहीं दे सकता दीदी। वह आपका 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बँधने दिया।”मन ही मन कहा, तकदीर! और मुँह से कहा, “देखता हूँ कि मुझे भूले नहीं हो, बीच-बीच में याद करते थे?”आनन्द ने कहा, “नहीं दादा, आपको भूलना भी मुश्किल है और समझना भी कठिन है, मोह दूर करना तो और भी कठिन है। अगर विश्वास न हो तो कहिए, दीदी को बुलाकर गवाही दे दूँ। आपसे सिर्फ दो-तीन दिन का ही तो परिचय है, पर उस दिन दीदी के साथ सुर में सुर मिलाकर मैं भी जो रोने नहीं बैठ गया सो सिर्फ इसलिए कि यह सन्यासी धर्म के बिल्कुशल खिलाफ है।”बोला, “वह शायद दीदी की खातिर। उनके अनुरोध से ही तो इतनी दूर आये हों?”आनन्द ने कहा, “बिल्कुकल झूठ नहीं है दादा। उनका अनुरोध तो सिर्फ अनुरोध नहीं है, वह तो मानो माँ की पुकार है, पैर अपने आप चलना शुरू कर देते हैं। न जाने कितने घरों में आश्रय लेता हूँ, पर ठीक ऐसा तो कहीं नहीं देखता। सुना है कि आप भी तो बहुत घूमे हैं, आपने भी कहीं कोई इनके ऐसी और देखी है?”कहा, “बहुत।”राजलक्ष्मी ने प्रवेश किया। कमरे में घुसते ही उसने मेरी बात सुन ली थी, चाय की प्याली आनन्द के निकट रखकर मुझसे पूछा, “बहुत क्या जी?”आनन्द शायद कुछ विपद्ग्रस्त हो गया; मैंने कहा, “तुम्हारे गुणों की बातें। इन्होंने सन्देह जाहिर किया था, इसलिए मैंने जोर से उसका प्रतिवाद किया है।”आनन्द चाय की प्याली मुँह से लगा रहा था, हँसी की वजह से थोड़ी-सी चाय जमीन पर गिर पड़ी। राजलक्ष्मी भी हँस पड़ी।आनन्द ने कहा, “दादा, आपकी उपस्थित-बुद्धि अद्भुत है। यह ठीक उलटी बात क्षण-भर में आपके दिमाग में कैसे आ गयी?”राजलक्ष्मी ने कहा, “इसमें आश्चर्य क्या है आनन्द? अपने मन की बात दबाते-दबाते और कहानियाँ गढ़कर सुनाते-सुनाते इस विद्या में ये पूरी तरह महामहोपाधयाय हो गये हैं।”कहा, “तो तुम मेरा विश्वास नहीं करती?”“जरा भी नहीं।”आनन्द ने हँसकर कहा, “गढ़कर कहने की विद्या में आप भी कम नहीं हैं दीदी। तत्काल ही जवाब दे दिया, “जरा भी नहीं।”राजलक्ष्मी भी हँस पड़ी। बोली, “जल-भुनकर सीखना पड़ा है भाई। पर अब तुम देर मत करो, चाय पीकर नहा लो। यह अच्छी तरह जानती हूँ कि कल ट्रेन में तुम्हारा भोजन नहीं हुआ। इनके मुँह से मेरी सुख्याति सुनने के लिए तो तुम्हारा सारा दिन भी कम होगा।” यह कहकर वह चली गयी।आनन्द ने कहा, “आप दोनों जैसे दो व्यक्ति संसार में विरल हैं। भगवान ने अद्भुत जोड़ मिलाकर आप लोगों को दुनिया में भेजा है।”“उसका नमूना देख लिया न?”“नमूना तो उस पहिले ही दिन साँईथियाँ स्टेशन के पेड़-तले देख लिया था। इसके बाद और कोई कभी नजर नहीं आया।”“आहा! ये बातें यदि तुम उनके सामने ही कहते आनन्द!”आनन्द काम का आदमी है, काम करने का उद्यम और शक्ति उसमें विपुल है। उसको निकट पाकर राजलक्ष्मी के आनन्द की सीमा नहीं। रात-दिन खाने की तैयारियाँ तो प्राय: भय की सीमा तक पहुँच गयी। दोनों में लगातार कितने परामर्श होते रहे, उन सबको मैं नहीं जानता। कान में सिर्फ यह भनक पड़ी कि गंगामाटी में एक लड़कों के लिए और एक लड़कियों के लिए स्कूल खोला जायेगा। वहाँ काफी गरीब और नीच जाति के लोगों का वास है और शायद वे ही उपलक्ष्य हैं। सुना कि चिकित्सा का भी प्रबन्ध किया जायेगा। इन सब विषयों की मुझमें तनिक भी पटुता नहीं। परोपकार की इच्छा है पर शक्ति नहीं। यह सोचते ही कि कहीं कुछ खड़ा करना या बनाना पड़ेगा, मेरा श्रान्त मन 'आज नहीं, कल' कह-कहकर दिन टालना चाहता है। अपने नये उद्योग में बीच-बीच में आनन्द मुझे घसीटने आता, पर राजलक्ष्मी हँसते हुए बाधा देकर कहती, “इन्हें मत लपेटो आनन्द, तुम्हारे सब संकल्प पंगु हो जायेंगे।”सुनने पर प्रतिवाद करना ही पड़ता। कहता, “अभी-अभी उस दिन तो कहा कि मेरा बहुत काम है और अब मुझे बहुत कुछ करना होगा!”राजलक्ष्मी ने हाथ जोड़कर कहा, “मेरी गलती हुई गुसाईं, अब ऐसी बात कभी जबान पर नहीं लाऊँगी।”“तब क्या किसी दिन कुछ भी नहीं करूँगा?”“क्यों नहीं करोगे? यदि बीमार पड़कर डर के मारे मुझे अधमरा न कर डालो, तो इससे ही मैं तुम्हारे निकट चिरकृतज्ञ रहूँगी।”आनन्द ने कहा, “दीदी, इस तरह तो आप सचमुच ही इन्हें अकर्मण्य बना देंगी।”राजलक्ष्मी ने कहा, “मुझे नहीं बनाना पड़ेगा भाई, जिस विधाता ने इनकी सृष्टि की है उसी ने इसकी व्यवस्था कर दी है- कहीं भी त्रुटि नहीं रहने दी है।”आनन्द हँसने लगा। राजलक्ष्मी ने कहा, “और फिर वह जलमुँहा ज्योतिषी ऐसा डर दिखा गया है कि इनके मकान से बाहर पैर रखते ही मेरी छाती धक्-धक् करने लगती है- जब तक लौटते नहीं तब तक किसी भी काम में मन नहीं लगा सकती।”“इस बीच ज्योतिषी कहाँ मिल गया? क्या कहा उसने?”इसका उत्तर मैंने दिया। कहा, “मेरा हाथ देखकर वह बोला कि बहुत बड़ा विपद्-योग है- जीवन-मरण की समस्या!”“दीदी, इन सब बातों पर आप विश्वास करती हैं?”मैंने कहा, “हाँ करती हैं जरूर करती हैं। तुम्हारी दीदी कहती हैं कि क्या विपद्-योग नाम की कोई बात ही दुनिया में नहीं है? क्या कभी किसी पर आफत नहीं आती?”आनन्द ने हँसकर कहा, “आ सकती है, पर हाथ देखकर कोई कैसे बता सकता है दीदी?”राजलक्ष्मी ने कहा, “यह तो नहीं जानती भाई, पर मुझे यह भरोसा जरूर है कि जो मेरे जैसी भाग्यवती है, उसे भगवान इतने बड़े दु:ख में नहीं डुबायेंगे।”क्षण-भर तक स्तब्धता के साथ उसके मुँह की ओर देखकर आनन्द ने दूसरी बात छेड़ दी।इसी बीच मकान की लिखा-पढ़ी, बन्दोबस्त और व्यवस्था का काम चलने लगा, ढेर की ढेर ईंटें, काठ, चूना, सुरकी, दरवाजे, खिड़कियाँ वगैरह आ पड़ीं। पुराने घर को राजलक्ष्मी ने नया बनाने का आयोजन किया।उस दिन शाम को आनन्द ने कहा, “चलिए दादा, जरा घूम आयें।”आजकल मेरे बाहर जाने के प्रस्ताव पर राजलक्ष्मी अनिच्छा जाहिर किया करती है। बोली, “घूमकर लौटते-लौटते रात्रि हो जायेगी आनन्द, ठण्ड नहीं लगेगी?”आनन्द ने कहा, “गरमी से तो लोग मरे जा रहे हैं दीदी, ठण्ड कहाँ है?”आज मेरी तबीयत भी बहुत अच्छी न थी। कहा, “इसमें शक नहीं कि ठण्ड लगने का डर नहीं, पर आज उठने की भी वैसी इच्छा नहीं हो रही है आनन्द।”आनन्द ने कहा, “यह जड़ता है। शाम के वक्त कमरे में बैठे रहने से अनिच्छा और भी बढ़ जायेगी-चलिए, उठिए।”राजलक्ष्मी ने इसका समाधान करने के लिए कहा, “इससे अच्छा एक दूसरा काम करें न आनन्द। परसों क्षितीज मुझे एक अच्छा हारमोनियम खरीद कर दे गया है, अब तक उसे देखने का वक्त ही नहीं मिला। मैं भगवान का नाम लेती हूँ, तुम बैठकर सुनो- शाम कट जायेगी।” यह कह उसने रतन को पुकारकर बक्स लाने के लिए कह दिया।आनन्द ने विस्मय से पूछा, “भगवान का नाम माने क्या गीत दीदी?”राजलक्ष्मी ने सिर हिलाकर 'हाँ' की। “दीदी को यह विद्या भी आती है क्या?”“बहुत साधारण-सी।” फिर मुझे दिखाकर कहा, “बचपन में इन्होंने ही अभ्यास कराया था।”आनन्द ने खुश होकर कहा, “दादा तो छिपे हुए रुस्तम हैं, बाहर से पहिचानने का कोई उपाय ही नहीं।”उसका मन्तव्य सुन लक्ष्मी हँसने लगी, पर मैं सरल मन से साथ न दे सका। क्योंकि आनन्द कुछ भी नहीं समझेगा और मेरे इनकार को उस्ताद के विनय-वाक्य समझ और भी ज्यादा तंग करेगा, और अन्त में शायद नाराज भी हो जायेगा। पुत्र-शोकातुर धृतराष्ट्र-विलाप का दुर्योधन वाला गाना जानता हूँ, पर राजलक्ष्मी के बाद इस बैठक में वह कुछ जँचेगा नहीं।राजलक्ष्मी ने हारमोनियम आने पर पहले दो-एक भगवान के ऐसे गीत सुनाये जो हर जगह प्रचलित हैं और फिर वैष्णव-पदावली आरम्भ कर दी। सुनकर ऐसा लगा कि उस दिन मुरारीपुर के अखाड़े में भी शायद इतना अच्छा नहीं सुना था। आनन्द विस्मय से अभिभूत हो गया, मेरी ओर इशारा कर मुग्ध चित्त से बोला, “यह सब क्या इन्हीं से सीखा है दीदी?”“सब क्या एक ही आदमी के पास कोई सीखता है आनन्द?”“यह सही है।” इसके बाद उसने मेरी तरफ देखकर कहा, “दादा, अब आपको दया करनी होगी। दीदी कुछ थक गयी हैं।”“नहीं भाई, मेरी तबीयत अच्छी नहीं है।';'“तबीयत के लिए मैं जिम्मेदार हूँ, क्या अतिथि का अनुरोध नहीं मानेंगे?”“मानने का उपाय जो नहीं है, तबीयत बहुत खराब है।”राजलक्ष्मी गम्भीर होने की चेष्टा कर रही थी पर सफल न हो सकी, हँसी के मारे लोट-पोट हो गयी। आनन्द ने अब मामला समझा, बोला, “दीदी, तो सच बताओ कि आपने किससे इतना सीखा?”मैंने कहा, “जो रुपयों के परिवर्तन में विद्या-दान करते हैं उनसे, मुझसे नहीं भैया। दादा इस विद्या के पास से भी कभी नहीं फटका।”क्षण भर मौन रहकर आनन्द ने कहा, “मैं भी कुछ थोड़ा-सा जानता हूँ दीदी, पर ज्यादा सीखने का वक्त नहीं मिला। यदि इस बार सुयोग मिला तो आपका शिष्यत्व स्वीकार कर अपनी शिक्षा को सम्पूर्ण कर लूँगा। पर आज क्या यहीं रुक जाँयगी, और कुछ नहीं सुनायेंगी?”राजलक्ष्मी ने कहा, “अब वक्त नहीं है भाई, तुम लोगों का खाना जो तैयार करना है।”आनन्द ने नि:श्वास छोड़कर कहा, “जानता हूँ कि संसार में जिनके ऊपर भार है उनके पास वक्त कम है। पर उम्र में मैं छोटा हूँ, आपका छोटा भाई। मुझे सिखाना ही होगा। अपरिचित स्थान में जब अकेला वक्त कटना नहीं चाहेगा, तब आपकी इस दया का स्मरण करूँगा।”राजलक्ष्मी ने स्नेह से विगलित होकर कहा, “तुम डॉक्टर हो, विदेश में अपने इस स्वास्थ्यहीन दादा के प्रति दृष्टि रखना भाई, मैं जितना भी जानती हूँ उतना तुम्हें प्यार से सिखाऊँगी।”“पर इसके अलावा क्या आपको और कोई फिक्र नहीं है दीदी?”राजलक्ष्मी चुप रही। आनन्द ने मुझे उद्देश्य कर कहा, “दादा जैसा भाग्य सहसा नजर नहीं आता।”मैंने इसका उत्तर दिया, “और ऐसा अकर्मण्य व्यक्ति ही क्या जल्दी नजर आता है आनन्द? ऐसों की नकेल पकड़ने के लिए भगवान मजबूत आदमी भी दे देता है, नहीं तो वे बीच समुद्र में ही डूब जाँय- किसी तरह घाट तक पहुँच ही न पायें। इसी तरह संसार में सामंजस्य की रक्षा होती है भैया, मेरी बातें मिलाकर देखना, प्रमाण मिल जायेगा।”राजलक्ष्मी भी मुहूर्त-भर नि:शब्द देखती रही, फिर उठ गयी। उसे बहुत काम है।इन कुछ दिनों के अन्दर ही मकान का काम शुरू हो गया, चीज-बस्त को एक कमरे में बन्दकर राजलक्ष्मी यात्रा के लिए तैयारी करने लगी। मकान का भार बूढ़े तुलसीदास पर रहा।जाने के दिन राजलक्ष्मी ने मेरे हाथ में एक पोस्टकार्ड देकर कहा, “मेरी चार पन्ने की चिट्ठी का यह जवाब आया है- पढ़कर देख लो।” और वह चली गयी।दो-तीन लाइनों में कमललता ने लिखा है-“सुख से ही हूँ बहिन, जिनकी सेवा में अपने को निवेदन कर दिया है, मुझे अच्छा रखने का भार भी उन्हीं पर है। यही प्रार्थना करती हूँ कि तुम लोग कुशल रहो। बड़े ग़ुर्साईंजी अपनी आनन्दमयी के लिए श्रद्धा प्रगट करते हैं।-इति श्री श्रीराधाकृष्णचरणाश्रिता, कमललता।”उसने मेरे नाम का उल्लेख भी नहीं किया है। पर इन कई अक्षरों की आड़ में उसकी न जाने कितनी बातें छुपी रह गयीं। खोजने लगा कि चिट्ठी पर एक बूँद ऑंसू का दाग भी क्या नहीं पड़ा है? पर कोई भी चिह्न नजर नहीं आया।चिट्ठी को हाथ में लेकर चुप बैठा रहा। खिड़की के बाहर धूप से तपा हुआ नीलाभ आकाश है, पड़ोसी के घर के दो नारियल के वृक्षों के पत्तों की फाँक से उसका कुछ अंश दिखाई देता है। वहाँ अकस्मात् ही दो चेहरे पास ही पास मानो तैर आये, एक मेरी राजलक्ष्मी का-कल्याण की प्रतिमा, दूसरा कमललता का, अपरिस्फुट, अनजान जैसे कोई स्वप्न में देखी हुई छवि।रतन ने आकर ध्या न भंग कर दिया। बोला, “स्नान का वक्त हो गया है बाबू, माँ ने कहा है।”स्नान का समय भी नहीं बीत जाना चाहिए!फिर एक दिन सुबह हम गंगामाटी जा पहुँचे। उस बार आनन्द अनाहूत अतिथि था, पर इस बार आमन्त्रित बान्धव। मकान में भीड़ नहीं समाती, गाँव के आत्मीय और अनात्मीय न जाने कितने लोग हमें देखने आये हैं। सभी के चेहरों पर प्रसन्न हँसी और कुशल-प्रश्न है। राजलक्ष्मी ने कुशारीजी की पत्नी को प्रणाम किया। सुनन्दा रसोई के काम में लगी थी, बाहर निकल आई और हम दोनों को प्रणाम करके बोली, “दादा, आपका शरीर तो वैसा अच्छा दिखाई नहीं देता!”राजलक्ष्मी ने कहा, “अच्छा और कब दिखता था बहिन? मुझसे तो नहीं हुआ, अब शायद तुम लोग अच्छा कर सको- इसी आशा से यहाँ ले आई हूँ।”मेरे विगत दिनों की बीमारी की बात शायद बड़ी बहू को याद आ गयी, उन्होंने स्नेहार्द्र कण्ठ से दिलासा देते हुए कहा- “डर की कोई बात नहीं है बेटी, इस देश के हवा-पानी से दो दिन में ही ये ठीक हो जायेंगे।” मेरी समझ में नहीं आया कि मुझे क्या हुआ है और किसलिए इतनी दुश्चिन्ता है!इसके बाद नाना प्रकार के कामों का आयोजन पूरे उद्यम के साथ शुरू हो गया। पोड़ामाटी को खरीदने की बातचीत से शुरू करके शिशु-विद्यालय की प्रतिष्ठा के लिए स्थान की खोज तक किसी भी काम में किसी को जरा भी आलस्य नहीं।सिर्फ मैं अकेला ही मन में कोई उत्साह अनुभव नहीं करता। या तो यह मेरा स्वभाव ही है, या फिर और ही कुछ जो दृष्टि के अगोचर मेरी समस्त प्राण-शक्ति का धीरे-धीरे मूलोच्छेदन कर रहा है। एक सुभीता यह हो गया है कि मेरी उदासीनता से कोई विस्मित नहीं होता, मानों मुझसे और किसी बात की प्रत्याशा करना ही असंगत है। मैं दुर्बल हूँ, अस्वस्थ हूँ, मैं कभी हूँ और कभी नहीं हूँ। फिर भी कोई बीमारी नहीं है, खाता पीता और रहता हूँ। अपनी डॉक्टरी विद्या द्वारा ज्यों ही कभी आनन्द हिलाने-डुलाने की कोशिश करता है त्यों ही राजलक्ष्मी सस्नेह उलाहने के रूप में बाधा देते हुए कहती हैं, “उन्हें दिक् करने का काम नहीं भाई, न जाने क्या से क्या हो जाय। तब हमें ही भोगना पड़ेगा!”आनन्द कहता, “आपको सावधान किये देता हूँ कि जो व्यवस्था की है उससे भोगने की मात्रा बढ़ेगी ही, कम नहीं होगी दीदी।”राजलक्ष्मी सहज ही स्वीकार करके कहती, “यह तो मैं जानती हूँ आनन्द, कि भगवान ने मेरे जन्म-काल में ही यह दु:ख कपाल में लिख दिया है।”इसके बाद और तर्क नहीं किया जा सकता।कभी किताबें पढ़ते हुए दिन कट जाता है, कभी अपनी विगत कहानी को लिखने में और कभी सूने मैदानों में अकेले घूमते। एक बात से निश्चिन्त हूँ कि कर्म की प्रेरणा मुझमें नहीं है। लड़-झगड़कर उछल-कूद मचाकर संसार में दस आदमियों के सिर पर चढ़ बैठने की शक्ति भी नहीं और संकल्प भी नहीं। सहज ही जो मिल जाता है, उसे ही यथेष्ट मान लेता हूँ। मकान-घर, रुपया-पैसा, जमीन-जायदाद, मान-सम्मान, ये सब मेरे लिए छायामय हैं। दूसरों की देखा-देखी अपनी जड़ता को यदि कभी कर्त्तव्य-बुद्धि की ताड़ना से सचेत करना चाहता हूँ तो देखता हूँ कि थोड़ी ही देर में वह फिर ऑंखें बन्द किये ऊँघ रही है- सैकड़ों धक्के देने पर भी हिलना-डुलना नहीं चाहती। देखता हूँ कि सिर्फ एक विषय में तन्द्रातुर मन कलरव से तरंगित हो उठता है और वह है मुरारीपुर के दस दिनों की स्मृति का आलोड़न। मानो कानों में सुनाई पड़ रहा है, वैष्णवी कमललता का सस्नेह अनुरोध- 'नये गुसाईं, यह कर दो न भाई!- अरे जाओ, सब नष्ट कर दिया! मेरी गलती हुई जो तुमसे काम करने के लिए कहा, अब उठो। जलमुँही पद्मा कहाँ गयी, जरा पानी चढ़ा देती, तुम्हारा चाय पीने का समय हो गया है गुसाईं।”उन दिनों वह खुद चाय के पात्र धोकर रखती थी, इस डरसे कि कहीं टूट न जाँय। उनका प्रयोजन खत्म हो गया है, तथापि क्या मालूम कि फिर कभी काम में आने की आशा से उसने अब भी उन्हें यत्नपूर्वक रख छोड़ा है या नहीं, जानता हूँ कि वह भागूँ-भागूँ कर रही है। हेतु नहीं जानता, तो भी मन में सन्देह नहीं है कि मुरारीपुर के आश्रम में उसके दिन हर रोज संक्षिप्त होते जा रहे हैं। एक दिन अकस्मात् शायद, यही खबर मिलेगी। यह कल्पना करते ही ऑंखों में ऑंसू आ जाते हैं कि वह निराश्रय, नि:सबल पथ-पथ पर भिक्षा माँगती हुई घूम रही है, भूला-भटका मन सान्त्वना की आशा में राजलक्ष्मी की ओर देखता है, जो सबकी सकल शुभचिन्ताओं के अविश्राम कर्म में नियुक्त है-मानों उसके दोनों हाथों की दसों अंगुलियों से कल्याण अजस्र धारा से बह रहा है। सुप्रसन्न मुँह पर शान्ति और सन्तोष की स्निग्धा छाया पड़ रही है। करुणा और ममता से हृदय की यमुना किनारे तक पूर्ण हैं-निरविच्छिन्न प्रेम की सर्वव्यापी महिमा के साथ वह मेरे हृदय में जिस आसन पर प्रतिष्ठित है, नहीं जानता कि उसकी तुलना किससे की जाय।विदुषी सुनन्दा के दुर्निवार प्रभाव ने कुछ वक्त के लिए उसे जो विभ्रान्त कर दिया था, उसके दु:सह परिताप से उसने अपनी पुरानी सत्ता फिर से पा ली है। एक बात आज भी वह मेरे कानों-कानों में कहती है कि “तुम भी कम नहीं हो जी, कम नहीं हो! भला यह कौन जानता था कि तुम्हारे चले जाने के पथ पर ही मेरा सर्वस्व पलक मारते ही दौड़ पड़ेगा। ऊ:! वह कैसी भयंकर बात थी! सोचने पर भी डर लगता है कि मेरे वे दिन कटे कैसे थे। धड़कन बन्द होकर मर नहीं गयी, यही आश्चर्य है!” मैं उत्तर नहीं दे पाता हूँ, सिर्फ चुपचाप देखता रहता हूँ।अपने बारे में जब उसकी गलती पकड़ने की गुंजाइश नहीं है। सौ कामों के बीच भी सौ दफा चुपचाप आकर देख जाती है। कभी एकाएक आकर नजदीक बैठ जाती है और हाथ की किताब हटाते हुए कहती है, “ऑंखें बन्द करके जरा सो जाओ न, मैं सिर पर हाथ फेरे देती हूँ। इतना पढ़ने पर ऑंखों में दर्द जो होने लगेगा।”आनन्द आकर बाहर से ही कहता है, “एक बात पूछनी है, आ सकता हूँ?”राजलक्ष्मी कहती हैं, “आ सकते हो। तुम्हें आने की कहाँ मनाही है आनन्द?”आनन्द कमरे में घुसकर आश्चर्य से कहता है, “इस असमय में क्या आप इन्हें सुला रही हैं दीदी?”राजलक्ष्मी हँसकर जवाब देती है, “तुम्हारा क्या नुकसान हुआ? नहीं सोने पर भी तो ये तुम्हारी पाठशाला के बछड़ों को चराने नहीं जायेंगे!”“देखता हूँ कि दीदी इन्हें मिट्टी कर देंगी।”“नहीं तो खुद जो मिट्टी हुई जाती हूँ, बेफिक्री से कोई काम-काज ही नहीं कर पाती।”“आप दोनों ही क्रमश: पागल हो जायेंगे।” कहकर आनन्द बाहर चला जाता है।स्कूल बनवाने के काम में आनन्द को साँस लेने की भी फुर्सत नहीं है, और सम्पत्ति खरीदने के हंगामे में राजलक्ष्मी भी पूरी तरह डूबी हुई है। इसी समय कलकत्ते के मकान से घूमती हुई, बहुत से पोस्ट-ऑफिसों में की मुहरों को पीठ पर लिये हुए, बहुत देर में, नवीन की सांघातिक चिट्ठी आ पहुँची- गौहर मृत्युशय्या पर है। सिर्फ मेरी ही राह देखता हुआ अब भी जी रहा है। यह खबर मुझे शूल जैसी चुभी। यह नहीं जानता कि बहिन के मकान से वह कब लौटा। वह इतना ज्यादा पीड़ित है, यह भी नहीं सुना-सुनने की विशेष चेष्टा भी नहीं की और आज एकदम शेष संवाद आ गया। प्राय: छह दिन पहले की चिट्ठी है, इसलिए अब वह जिन्दा है या नहीं-यही कौन जानता है! तार द्वारा खबर पाने की व्यवस्था इस देश में नहीं है और उस देश में भी नहीं। इसलिए इसकी चिन्ता वृथा है। चिट्ठी पढ़कर राजलक्ष्मी ने सिर पर हाथ रखकर पूछा, “तुम्हें क्या जाना पड़ेगा?”“हाँ।”“तो चलो, मैं भी साथ चलूँ।”“यह कहीं हो सकता है? इस आफत के समय तुम कहाँ जाओगी?”यह उसने खुद ही समझ लिया कि प्रस्ताव असंगत है, मुरारीपुर के अखाड़े की बात भी फिर वह जबान पर न ला सकी। बोली, “रतन को कल से बुखार है, साथ में कौन जायेगा? आनन्द से कहूँ?”“नहीं, वह मेरे बिस्तर उठाने वाला आदमी नहीं है!”“तो फिर साथ में किसन जाय?”“भले जाय, पर जरूरत नहीं है।”“जाकर रोज चिट्ठी दोगे, बोलो?”“समय मिला तो दूँगा।”“नहीं, यह नहीं सुनूँगी। एक दिन चिट्ठी न मिलने पर मैं खुद आ जाऊँगी चाहे तुम कितने ही नाराज क्यों न हो।” 'अगत्या राजी होना पड़ा, और हर रोज संवाद देने की प्रतिज्ञा करके उसी दिन चल पड़ा। देखा कि दुश्चिन्ता से राजलक्ष्मी का मुँह पीला पड़ गया है, उसने ऑंखें पोंछकर अन्तिम बार सावधान करते हुए कहा, “वादा करो कि शरीर की अवहेलना नहीं करोगे?”“नहीं, नहीं, करूँगा।”“कहो कि लौटने में एक दिन की भी देरी नहीं करोगे?”“नहीं, सो भी नहीं करूँगा!”अन्त में बैलगाड़ी रेलवे स्टेशन की तरफ चल दी।आषाढ़ का महीना था। तीसरे प्रहर गौहर के मकान के सदर दरवाजे पर जा पहुँचा। मेरी आवाज सुनकर नवीन बाहर आया और पछाड़ खाकर पैरों के पास गिर पड़ा। जो डर था वही हुआ। उस दीर्घकाय बलिष्ठ पुरुष के प्रबलकण्ठ के उस छाती फाड़ने वाले क्रन्दन में शोक की एक नयी मूर्ति देखी। वह जितनी गम्भीर थी, उतनी ही बड़ी और उतनी ही सत्य। गौहर की माँ नहीं, बहिन नहीं, कन्या नहीं, पत्नी नहीं। उस दिन इस संगीहीन मनुष्य को अश्रुओं की माला पहनाकर विदा करनेवाला कोई न था; तो भी ऐसा मालूम होता है कि उसे सज्जाहीन, भूषणहीन, कंगाल वेश में नहीं जाना पड़ा, उसकी लोकान्तर-यात्रा के पथ के लिए शेष पाथेय अकेले नवीन ने ही दोनों हाथ भरकर उड़ेल दिया है।बहुत देर बाद जब वह उठकर बैठ गया तब पूछा, “गौहर कब मरा नवीन?”“परसों। कल सुबह ही हमने उन्हें दफनाया है।”“कहाँ दफनाया?”“नदी के किनारे, आम के बगीचे में। और यह उन्हीं ने कहा था। ममेरी बहिन के मकान से बुखार लेकर लौटे और वह बुखार फिर नहीं गया था।”“इलाज हुआ था?”“यहाँ जो कुछ हो सकता है सब हुआ, पर किसी से भी कुछ लाभ न हुआ। बाबू खुद ही सब जान गये थे।”“अखाड़े के बड़े गुसाईंजी आते थे?”नवीन ने कहा, “कभी-कभी। नवद्वीप से उनके गुरुदेव आये हैं, इसीलिए रोज आने का वक्त नहीं मिलता था।” और एक व्यक्ति के बारे में पूछते हुए शर्म आने लगी, तो भी संकोच दूर कर प्रश्न किया, “वहाँ से और कोई नहीं आया नवीन?”नवीन ने कहा, “हाँ, कमललता आई थी।”,“कब आई थी?”नवीन ने कहा, “हर-रोज। अन्तिम तीन दिनों में तो न उन्होंने खाया और न सोया, बाबू का बिछौना छोड़कर एक बार भी नहीं उठीं।”और कोई प्रश्न नहीं किया, चुप हो रहा। नवीन ने पूछा, “अब कहाँ जायेंगे, अखाड़े में?”“हाँ।”“जरा ठहरिए।” कहकर वह भीतर गया और एक टीन का बक्स बाहर निकाल लाया। उसे मुझे देते हुए बोला, “आपको देने के लिए कह गये हैं।”“क्या है इसमें नवीन?”“खोलकर देखिए”, कहकर उसने मेरे हाथ में चाबी दे दी। खोलकर देखा कि उसकी कविता की कॉपियाँ रस्सी से बँधी हुई हैं। ऊपर लिखा है, “श्रीकान्त, रामायण खत्म करने का वक्त नहीं रहा। बड़े गुसाईंजी को दे देना, वे इसे मठ में रख देंगे, जिससे नष्ट न होने पावे।” दूसरी छोटी-सी पोटली सूती लाल कपड़े की है। खोलकर देखा कि नाना मूल्य के एक बंडल नोट हैं, और उन पर लिखा है, “भाई श्रीकान्त, शायद मैं नहीं बचूँगा। पता नहीं कि तुमसे मुलाकात होगी या नहीं। अगर नहीं हुई तो नवीन के हाथों यह बक्स दे जाता हूँ, इसे ले लेना। ये रुपये तुम्हें दे जा रहा हूँ।” यदि कमललता के काम में आयें तो दे देना। अगर न ले तो जो इच्छा हो सो करना। अल्लाह तुम्हारा भला करे।-गौहर।”दान का गर्व नहीं, अनुनय-विनय भी नहीं। मृत्यु को आसन्न जानकर सिर्फ थोड़े से शब्दों में बाल्य-बन्धु की शुभ कामना कर अपना शेष निवेदन रख गया है। भय नहीं, क्षोभ नहीं, उच्छ्वसित हाय-हाय से उसने मृत्यु का प्रतिवाद नहीं किया। वह कवि था, मुसलमान फकीर-वंश का रक्त उसकी शिराओं में था- शान्त मन से यह शेष रचना अपने बाल्य-बन्धु के लिए लिख गया है। अब तक मेरी ऑंखों के ऑंसू बाहर नहीं निकले थे, पर अब उन्होंने निषेध नहीं माना, वे बड़ी-बड़ी बूँदों में ऑंखों से निकलकर ढुलक पडे।आषाढ़ का दीर्घ दिन उस वक्त समाप्ति की ओर था। सारे पश्चिम अकाश में काले मेघों का एक स्तर ऊपर उठ रहा था। उसके ही किसी एक संकीर्ण छिद्रपथ से अस्तोन्मुख सूर्य की रश्मियाँ लाल होकर आ पड़ीं, प्राचीर से संलग्न शुष्कप्राय जामुन के पेड़ के सिर पर। इसी की शाखा के सहारे गौहर की माधवी और मालती लताओं के कुंज बने थे। उस दिन सिर्फ कलियाँ थीं। मुझे उनमें से ही कुछ उपहार देने की उसने इच्छा की थी। लेकिन चींटियों के डर से नहीं दे सका था। आज उनमें से गुच्छे के गुच्छे फूले हैं, जिनमें से कुछ तो नीचे झड़ गये हैं और कुछ हवा से उड़कर इर्द-गिर्द बिखर गये हैं। उन्हीं में से कुछ उठा लिये- बाल्य-बन्धु के स्वहस्तों का शेषदान समझकर। नवीन ने कहा, “चलिए, आपको पहुँचा आऊँ।”कहा, “नवीन, जरा बाहर का कमरा तो खोलो, देखूँगा।”नवीन ने कमरा खोल दिया। आज भी चौकी पर एक ओर बिछौना लिपटा हुआ रक्खा है, एक छोटी पेन्सिल और कुछ फटे कागजों के टुकड़े भी हैं। इसी कमरे में गौहर ने अपनी स्वरचित कविता वन्दिनी सीता के दु:ख की कहानी गाकर सुनाई थी। इस कमरे में न जाने कितनी बार आया हूँ, कितने दिनों तक खाया-पीया और सोया हूँ और उपद्रव कर गया हूँ। उस दिन हँसते-हुए जिन्होंने सब कुछ सहन किया था, अब उनमें से कोई भी जीवित नहीं है। आज अपना सारा आना-जाना समाप्त करके बाहर निकल आया।रास्ते में नवीन के मुँह से सुना कि गौहर ऐसी ही एक नोटों की छोटी पोटली उसके लड़कों को भी दे गया है। बाकी जो सम्पत्ति बची है, वह उसके ममेरे भाई-बहिनों को मिलेगी, और उसके पिता द्वारा निर्मित मस्जिद के रक्षणावेक्षण के लिए रहेगी।आश्रम में पहुँचकर देखा कि बहुत भीड़ है। गुरुदेव के साथ बहुत से शिष्य और शिष्याएँ आई हैं। खासी मजलिस जमी है, और हाव-भाव से उनके शीघ्र विदा होने के लक्षण भी दिखाई नहीं दिये। अनुमान किया कि वैष्णव-सेवा आदि कार्य विधि के अनुसार ही चल रहे हैं।मुझे देखकर द्वारिकादास ने अभ्यर्थना की। मेरे आगमन का हेतु वे जानते थे। गौहर के लिए दु:ख जाहिर किया, पर उनके मुँह पर न जाने कैसा विव्रत, उद्भ्रान्त भाव था, जो पहले कभी नहीं देखा। अन्दाज किया कि शायद इतने दिनों से वैष्णवों की परिचर्या के कारण वे क्लान्त और विपर्यस्त हो गये हैं, निश्चिन्त होकर बातचीत करने का वक्त उनके पास नहीं है।खबर मिलते ही पद्मा आयी, उसके मुँह पर भी आज हँसी नहीं, ऐसी संकुचित-सी, मानो भाग जाए तो बचे।पूछा, “कमललता दीदी इस वक्त बहुत व्यस्त हैं, क्यों पद्मा?”“नहीं, दीदी को बुला दूँ?” कहकर वह चली गयी। यह सब आज इतना अप्रत्याशित और अप्रासंगिक लगा कि मन ही मन शंकित हो उठा। कुछ देर बाद ही कमललता ने आकर नमस्कार किया। कहा, “आओ गुसाईं, मेरे कमरे में चल कर बैठो।”अपने बिछौने इत्यादि स्टेशन पर ही छोड़कर सिर्फ बैग साथ में लाया था और गौहर का वह बक्स मेरे नौकर के सिर पर था। कमललता के कमरे में आकर, उसे उसके हाथ में देते हुए बोला, “जरा सावधानी से रख दो, बक्स में बहुत रुपये हैं।”कमललता ने कहा, “मालूम है।” इसके बाद उसे खाट के नीचे रखकर पूछा, “शायद तुमने अभी तक चाय नहीं पी है?”“नहीं।”“कब आये?”“शाम को।”“आती हूँ, तैयार कर लाऊँ।” कहकर वह नौकर को साथ लेकर चल दी और पद्मा भी हाथ-मुँह धोने के लिए पानी देकर चली गयी, खड़ी नहीं रही।फिर खयाल हुआ कि बात क्या है?थोड़ी देर बाद कमललता चाय ले आयी, साथ में कुछ फल-फूल, मिठाई और उस वक्त का देवता का प्रसाद। बहुत देर से भूखा था, फौरन ही बैठ गया।कुछ क्षण पश्चात् ही देवता की सांध्यर-आरती के शंख और घण्टे की आवाज सुनाई पड़ी। पूछा, “अरे, तुम नहीं गयीं?”“नहीं, मना है।”“मना है तुम्हें? इसके मानो?”कमललता ने म्लान हँसी हँसकर कहा, “मना के माने हैं मना गुसाईं। अर्थात् देवता के कमरे में मेरा जाना निषिद्ध है।”आहार करने में रुचि न रही, पूछा “किसने मना किया?”“बड़े गुसाईंजी के गुरुदेव ने। और उनके साथ जो आये हैं, उन्होंने।”“वे क्या कहते हैं?';'“कहते हैं कि मैं अपवित्र हूँ, मेरी सेवा से देवता कलुषित हो जायेंगे।”“तुम अपवित्र हो!” विद्युत वेग से पूछा, “गौहर की वजह से ही सन्देह हुआ है क्या?”“हाँ, इसीलिए।”कुछ भी नहीं जानता था, तो भी बिना किसी संशय के कह उठा, “यह झूठ है- यह असम्भव है।”“असम्भव क्यों है गुसाईं?”“यह तो नहीं बतला सकता कमललता, पर इससे बढ़कर और कोई बात मिथ्या नहीं। ऐसा लगता है कि मनुष्य-समाज में अपने मृत्यु-पथ यात्री बन्धु की एकान्त सेवा का ऐसा ही शेष पुरस्कार दिया जाता है!”उसकी ऑंखों में ऑंसू आ गये। बोली, “अब मुझे दु:ख नहीं है। देवता अन्तर्यामी हैं, उनके निकट तो डर नहीं था, डर था सिर्फ तुमसे। आज मैं निर्भय होकर जी गयी गुसाईं।”“संसार के इतने आदमियों के बीच तुम्हें सिर्फ मुझसे डर था? और किसी से नहीं?”“नहीं, और किसी से नहीं, सिर्फ तुमसे था।”इसके बाद दोनों ही स्तब्ध रहे। एक बार पूछा, “बड़े गुसाईंजी क्या कहते हैं?”कमललता ने कहा, “उनके लिए तो और कोई उपाय नहीं है। नहीं तो फिर कोई भी वैष्णव इस मठ में नहीं आयेगा।” कुछ देर बाद कहा, “अब यहाँ रहना नहीं हो सकता। यह तो जानती थी कि यहाँ से एक दिन मुझे जाना होगा, पर यही नहीं सोचा था कि इस तरह जाना होगा गुसाईं। केवल पद्मा के बारे में सोचने से दु:ख होता है। लड़की है, उसका कहीं भी कोई नहीं है। बड़े गुसाईंजी को यह नवद्वीप में पड़ी हुई मिली थी। अपनी दीदी के चले जाने पर वह बहुत रोएगी। यदि हो सके तो जरा उसका खयाल रखना। यहाँ न रहना चाहे तो मेरे नाम से राजू को दे देना- वह जो अच्छा समझेगी अवश्य करेगी।”फिर कुछ क्षण चुपचाप कटे। पूछा, “इन रुपयों का क्या होगा? न लोगी?”“नहीं। मैं भिखारिन हूँ, रुपयों का क्या करूँगी-बताओ?”“तो भी यदि कभी किसी काम में आयें।”कमललता ने इस बार हँसकर कहा, “मेरे पास भी तो एक दिन बहुत रुपया था, वह किस काम आया? फिर भी, अगर कभी जरूरत पड़ी तो तुम किसलिए हो? तब तुमसे माँग लूँगी। दूसरे के रुपये क्यों लेने लगी?”सोच न सका कि इस बात का क्या जवाब दूँ, सिर्फ उसके मुँह की ओर देखता रहा।उसने फिर कहा, “नहीं गुसाईं, मुझे रुपये नहीं चाहिए। जिनके श्रीचरणों में स्वयं को समर्पण कर दिया है, वे मुझे नहीं छोड़ेंगे। कहीं भी जाऊँ, वे सारे अभावपूर्ण कर देंगे। मेरे लिए चिन्ता, फिक्र न करो।”पद्मा ने कमरे में आकर कहा, “नये गुसाईं के लिए क्या इसी कमरे में प्रसाद ले आऊँ दीदी?”“हाँ, यहीं ले आओ। नौकर को दिया?”“हाँ, दे दिया।”तो भी पद्मा नहीं गयी, क्षण भर तक इधर-उधर करके बोली, “तुम नहीं खाओगी दीदी?”“खाऊँगी री जलमुँही, खाऊँगी। जब तू है, तब बिना खाये दीदी की रिहाई है?”पद्मा चली गयी।सुबह उठने पर कमललता दिखाई नहीं पड़ी, पद्मा की जुबानी मालूम हुआ कि वह शाम को आती है। दिनभर कहाँ रहती है, कोई नहीं जानता। तो भी मैं निश्चिन्त नहीं हो सका, रात की बातें याद करके डर होने लगा कि कहीं वह चली न गयी हो और अब मुलाकात ही न हो।बड़े गुसाईंजी के कमरे में गया। सामने उन कॉपियों को रखकर बोला, “गौहर की रामायण है। उसकी इच्छा थी कि यह मठ में रहे।”द्वारिकादास ने हाथ फैलाकर रामायण ले ली, बोले, “यही होगा नये गुसाईं। जहाँ मठ के और सब ग्रन्थ रहते हैं, वहीं उन्हीं के साथ इसे भी रख दूँगा।”कोई दो मिनट तक चुप रहकर कहा, “उसके सम्बन्ध में कमललता पर लगाए गये अपवाद पर तुम विश्वास करते हो गुसाईं?”द्वारिकादास ने मुँह ऊपर उठाकर कहा, “मैं? जरा भी नहीं।”“तब भी उसे चला जाना पड़ रहा है?”“मुझे भी जाना होगा गुसाईं। निर्दोषी को दूर करके यदि खुद बना रहूँ, तो फिर मिथ्या ही इस पथ पर आया और मिथ्या ही उनका नाम इतने दिनों तक लिया।”“तब फिर उसे ही क्यों जाना पड़ेगा? मठ के कर्त्ता तो तुम हो, तुम तो उसे रख सकते हो?”द्वारिकादास 'गुरु! गुरु! गुरु!' कहकर मुँह नीचा किये बैठे रहे। समझा कि इसके अलावा गुरु का और आदेश नहीं है।“आज मैं जा रहा हूँ गुसाईं।” कहकर कमरे से बाहर निकलते समय उन्होंने मुँह ऊपर उठाकर मेरी ओर ताका। देखा कि उनकी ऑंखों से ऑंसू गिर रहे हैं। उन्होंने मुझे हाथ उठाकर नमस्कार किया और मैं प्रतिनमस्कार करके चला आया।अपराह्न बेला क्रमश: संध्याक में परिणत हो गयी, संध्याठ उत्तीर्ण होकर रात आयी, किन्तु कमललता नजर नहीं आयी। नवीन का आदमी मुझे स्टेशन पर पहुँचाने के लिए आ पहुँचा। सिर पर बैग रक्खे किसन जल्दी मचा कर कह रहा है- अब वक्त नहीं है- पर कमललता नहीं लौटी। पद्मा का विश्वास था कि थोड़ी देर बाद ही वह आएगी, पर मेरा सन्देह क्रमश: विश्वास बन गया कि वह नहीं आयेगी और शेष विदाई की कठोर परीक्षा से विमुख होकर वह पूर्वाह्न में ही भाग गयी है, दूसरा वस्त्र भी साथ नहीं लिया है। कल उसने भिक्षुणी वैरागिणी बताकर जो आत्म-परिचय दिया था, वह परिचय ही आज अक्षुण्ण रखा।जाने के वक्त पद्मा रोने लगी। उसे अपना पता देते हुए कहा, “दीदी ने तुमसे मुझे चिट्ठी लिखते रहने के लिए कहा है- तुम्हारी जो इच्छा हो वह मुझे लिखकर भेजना पद्मा।”“पर मैं तो अच्छी तरह लिखना नहीं जानती, गुसाईं।”“तुम जो लिखोगी मैं वही पढ़ लूँगा।”“दीदी से मिलकर नहीं जाओगे?”“फिर मुलाकात होगी पद्मा, अब तो मैं जाता हूँ।” कहकर बाहर निकल पड़ा।♦♦ • ♦♦ऑंखें जिसे सारे रास्ते अन्धकार में भी खोज रही थीं, उससे मुलाकात हुई रेलवे स्टेशन पर। वह लोगों की भीड़ से दूर खड़ी थी, मुझे देख नजदीक आकर बोली, “एक टिकिट खरीद देना होगा गुसाईं।”“तब क्या सचमुच ही सबको छोड़कर चल दीं?”“इसके अलावा और तो कोई उपाय नहीं है।”“कष्ट नहीं होता कमललता?”“यह बात क्यों पूछते हो गुसाईं, सब तो जानते हो।”“कहाँ जाओगी?”“वृन्दावन जाऊँगी। पर इतनी दूर का टिकिट नहीं चाहिए। तुम पास की ही किसी जगह का खरीद दो।”“मतलब यह कि मेरा ऋण जितना भी कम हो उतना अच्छा। इसके बाद दूसरों से भिक्षा माँगना शुरू कर दोगी, जब तक कि पथ शेष नहीं हो। यही तो?”“भिक्षा क्या यह पहली बार ही शुरू होगी गुसाईं? क्या कभी और नहीं माँगी?”चुप रहा। उसने मेरी ओर ऑंखें फिराकर कहा, “तो वृन्दावन का टिकिट ही खरीद दो।”“तो चलो एक साथ ही चलें?”“तुम्हारा भी क्या यही रास्ता है?”कहा, “नहीं, यही तो नहीं है- तो भी जितनी दूर तक है, उतनी ही दूर तक सही।”गाड़ी आने पर दोनों उसमें बैठ गये। पास की बेंच पर मैंने अपने हाथों से ही उसका बिछौना बिछा दिया।कमललता व्यस्त हो उठी, “यह क्या कर रहे हो गुसाईं?”“वह कर रहा हूँ जो कभी किसी के लिए नहीं किया- हमेशा याद रखने के लिए।”“सचमुच ही क्या याद रखना चाहते हो?”“सचमुच ही याद रखना चाहता हूँ कमललता। तुम्हारे अलावा यह बात और कोई नहीं जानेगा।”“पर मुझे तो दोष लगेगा गुसाईं।”“नहीं, कोई दोष नहीं लगेगा- तुम मजे से बैठो।”कमललता बैठी, पर बड़े संकोच के साथ। कितने गाँव, कितने नगर और कितने प्रान्तों को पार करती हुई ट्रेन चल रही थी। नजदीक बैठकर वह धीरे-धीरे अपने जीवन की अनेक कहानियाँ सुनाने लगी। जगह-जगह घूमने की कहानियाँ, मथुरा, वृन्दावन, गोवरधन, राधाकुण्ड-निवास की बातें, अनेक तीर्थ-भ्रमणों की कथाएँ, और अन्त में द्वारिकादास के आश्रय में मुरारीपुर आश्रम में आने की बात। मुझे उस वक्त उस व्यक्ति की विदा के वक्त की बातें याद आ गयीं। कहा, “जानती हो, कमललता, बड़े गुसाईं तुम्हारे कलंक पर विश्वास न ही करते?”'“नहीं करते?”“कतई नहीं। मेरे आने के वक्त उनकी ऑंखों से ऑंसू गिरने लगे, बोले- “निर्दोषी को दूर करके यदि मैं यहाँ खुद बना रहा नये गुसाईं, तो उनका नाम लेना मिथ्या है और मिथ्या है मेरा इस पथ पर आना।' मठ में वे भी न रहेंगे कमललता और तब ऐसा निष्पाप मधुर आश्रम टूटकर बिल्कुथल नष्ट हो जायेगा।”“नहीं, नहीं नष्ट होगा, भगवान एक न एक रास्ता अवश्य दिखा देंगे।”“अगर कभी तुम्हारी पुकार हो, तो फिर वहाँ लौटकर जाओगी?”“नहीं।”“यदि वे पश्चात्ताप करके तुमको लौटाया चाहें?”“तो भी नहीं।”“पर अब तुमसे कहाँ मुलाकात होगी?”इस प्रश्न का उसने उत्तर नहीं दिया, चुप रही। काफी वक्त खामोशी में कट गया, पुकारा, “कमललता?' उत्तर नहीं मिला, देखा कि गाड़ी के एक कोने में सिर रखकर उसने ऑंखें बन्द कर ली हैं। यह सोचकर कि सारे दिन की थकान से सो गयी हैं, जगाने की इच्छा नहीं हुई। उसके बाद फिर, मैं खुद कब सो गया, यह पता नहीं, हठात् कानों में आवाज आयी, “नये गुसाईं?” देखा कि वह मेरे शरीर को हिलाकर पुकार रही हैं। बोली, “उठो, तुम्हारी साँईथिया की ट्रेन खड़ी है।”जल्दी से उठ बैठा, पास के डिब्बे में किसन सिंह था, पुकारने के साथ ही उसने आकर बैग उतार दिया। बिछौना बाँधते वक्त देखा कि जिन दो चादरों से उसकी शय्या बनाई थी, उसने उनको पहिले से ही तहकर मेरी बेंच पर एक ओर रख दिया है। कहा, “यह जरा-सा भी तुमने लौटा दिया- नहीं लिया?”“न जाने कितनी बार चढ़ना-उतरना पड़े, यह बोझा कौन उठाएगा?”“दूसरा वस्त्र भी साथ नहीं लायी, वह भी क्या बोझा होता? एक-दो वस्त्र निकालकर दूँ?”“तुम भी खूब हो! तुम्हारे कपड़े भिखारिणी के शरीर पर कैसे फबेंगे?”“खैर, कपड़े अच्छे नहीं लगेंगे, पर भिखारी को भी खाना तो पड़ता है? पहुँचने में और भी दो-तीन दिन लगेंगे, ट्रेन में क्या खाओगी? जो खाने की चीजें मेरे पास हैं, उन्हें भी क्या फेंक जाऊँ- तुम नहीं छुओगी?”कमललता ने इस बार हँसकर कहा, “अरे वाह, गुस्सा हो गये! अजी उन्हें छुऊँगी। रहने दो उन्हें, तुम्हारे चले जाने के बाद मैं पेटभर के खा लूँगी।”वक्त खत्म हो रहा था, मेरे उतरने के वक्त बोली, “जरा ठहरो तो गुसाईं, कोई है नहीं- आज छिपकर तुम्हें एक बार प्रणाम कर लूँ।” यह कहकर, उसने झुककर मेरे पैरों की धूल ले ली।उतरकर प्लेटफार्म पर खड़ा हो गया। उस वक्त रात समाप्त नहीं हुई थी, नीचे और ऊपर अन्धकार के स्तरों में बँटवारा शुरू हो गया था। आकाश के एक प्रान्त में कृष्ण त्रयोदशी का क्षीण शीर्ण शशि और दूसरे प्रान्त में उषा की आगमनी। उस दिन की बात याद आ गयी, जिस दिन ऐसे ही वक्त देवता के लिए फूल तोड़ने जाने के लिए उसका साथी हुआ था। और आज?सीटी बजाकर और हरे रंग की लालटेन हिलाकर गार्ड साहब ने यात्रा का संकेत किया। कमललता ने खिड़की से हाथ बढ़ाकर प्रथम बार मेरा हाथ पकड़ लिया। उसके कम्पन में विनती का जो सुर था वह कैसे समझाऊँ? बोली, “तुमसे कभी कुछ नहीं माँगा है, आज एक बात रखोगे?”“हाँ रक्खूँगा।” कहकर उसकी ओर देखने लगा।कहने में उसे एक क्षण की देर हुई, बोली, “जानती हूँ कि मैं तुम्हारे कितने आदर की हूँ। आज विश्वासपूर्वक उनके पाद-पद्मों में मुझे सौंपकर तुम निश्चिन्त होओ, निर्भय होओ। मेरे लिए सोच-सोचकर अब तुम अपना मन खराब मत करना गुसाईं, तुम्हारे निकट मेरी यही प्रार्थना है।”ट्रेन चल दी। उसका वही हाथ अपने हाथ में लिये कुछ दूर अग्रसर होते-होते कहा, “कमललता, तुम्हें मैंने उन्हीं को सौंपा, वे ही तुम्हारा भार लें। तुम्हारा पथ, तुम्हारी साधना निरापद हो- अपनी कहकर अब मैं तुम्हारा असम्मान नहीं करूँगा।”हाथ छोड़ दिया, गाड़ी दूर से दूर होने लगी। गवाक्षपथ से देखा, उसके झुके हुए मुँह पर स्टेशन की प्रकाश-माला कई बार आकर पड़ी और फिर अन्धकार में मिल गयी। सिर्फ यही मालूम हुआ कि हाथ उठाकर मानो वह मुझे शेष नमस्कार कर रही है।समाप्त

❤️,श्रीकांत"❤️        अध्याय 20 By वनिता कासनियां पंजाब अध्याय 20 एक दिन सुबह स्वामी आनन्द आ पहुँचे। रतन को यह पता न था कि उन्हें आने का निमन्त्रण दिया गया है। उदास चेहरे से उसने आकर खबर दी, “बाबू, गंगामाटी का वह साधु आ पहुँचा है। बलिहारी है, खोज-खाजकर पता लगा ही लिया।” रतन सभी साधु-सज्जनों को सन्देह की दृष्टि से देखता है। राजलक्ष्मी के गुरुदेव को तो वह फूटी ऑंख नहीं देख सकता। बोला, “देखिए, यह इस बार किस मतलब से आया है। ये धार्मिक लोग रुपये लेने के अनेक कौशल जानते हैं।” हँसकर कहा, “आनन्द बड़े आदमी का लड़का है, डॉक्टरी पास है, उसे अपने लिए रुपयों की जरूरत नहीं।” “हूँ, बड़े आदमी का लड़का है! रुपया रहने पर क्या कोई इस रास्ते पर आता है!” इस तरह अपना सुदृढ़ अभिमत व्यक्त करके वह चला गया। रतन को असली आपत्ति यहीं पर है। माँ के रुपये कोई ले जाय, इसका वह जबरदस्त विरोधी है। हाँ, उसकी अपनी बात अलग है।” वज्रानन्द ने आकर मुझे नमस्कार किया, कहा, “और एक बार आ गया दादा, कुशल तो है? दीदी कहाँ हैं?” “शायद पूजा करने बैठी हैं, निश्चय ही उन्हें खबर नहीं मिली है।” “तो खुद ही जाकर संवाद दे ...

रामचरितमानस के उत्तरकांड में गरुड़जी कागभुशुण्डि जी से कहते हैं कि, आप मुझ पर कृपावान हैं, और मुझे अपना सेवक मानते हैं, तो कृपापूर्वक मेरे सात प्रश्नों के उत्तर दीजिए। गरुड़ जी प्रश्न करते हैं- प्रथमहिं कहहु नाथ मतिधीरा। सब तें दुर्लभ कवन सरीरा। बड़ दुख कवन कवन सुख भारी। सोइ संछेपहिं कहहु बिचारी। संत असंत मरम तुम जानहु। तिन्ह कर सहज सुभाव बखानहु। कवन पुन्य श्रुति बिदित बिसाला। कहहु कवन अघ परम कराला। मानस रोग कहहु समुझाई । तुम्ह सर्बग्य कृपा अधिकाई ।। गरुड़ प्रश्न करते हैं कि हे नाथ! सबसे दुर्लभ शरीर कौन-सा है। कौन सबसे बड़ा दुःख है। कौन सबसे बड़ा सुख है। साधु और असाधु जन का स्वभाव कैसा होता है। वेदों में बताया गया सबसे बड़ा पाप कौन-सा है। इसके बाद वे सातवें प्रश्न के संबंध में कहते हैं कि मानस रोग समझाकर बतलाएँ, क्योंकि आप सर्वज्ञ हैं। गरुड़ के प्रश्न के उत्तर में कागभुशुंडि कहते हैं कि मनुष्य का शरीर दुर्लभ और श्रेष्ठ है, क्योंकि इस शरीर के माध्यम से ही ज्ञान, वैराग्य, स्वर्ग, नरक, भक्ति आदि की प्राप्ति होती है। वे कहते हैं कि दरिद्र के समान संसार में कोई दुःख नहीं है और संतों (सज्जनों) के मिलन के समान कोई सुख नहीं है। मन, वाणी और कर्म से परोपकार करना ही संतों (साधुजनों) का स्वभाव होता है। किसी स्वार्थ के बिना, अकारण ही दूसरों का अपकार करने वाले दुष्ट जन होते हैं। वेदों में विदित अहिंसा ही परम धर्म और पुण्य है, और दूसरे की निंदा करने के समान कोई पाप नहीं होता है। गरुड़ के द्वारा पूछे गए सातवें प्रश्न का उत्तर अपेक्षाकृत विस्तार के साथ कागभुशुंडि द्वारा दिया जाता है। सातवें और अंतिम प्रश्न के उत्तर में प्रायः वे सभी कारण निहित हैं, जो अनेक प्रकार के दुःखों का कारण बनते हैं। इस कारण बाबा तुलसी मानस रोगों का विस्तार से वर्णन करते हैं। सुनहु तात अब मानस रोगा।जिन्ह तें दुख पावहिं सब लोगा। मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला। तिन्ह तें पुनि उपजहिं बहु सूला। काम बात कफ लोभ अपारा। क्रोध पित्त नित छाती जारा। प्रीति करहिं जौ तीनिउ भाई । उपजइ सन्यपात दुखदाई। विषय मनोरथ दुर्गम नाना । ते सब सूल नाम को जाना। कागभुशुंडि कहते हैं कि मानस रोगों के बारे में सुनिए, जिनके कारण सभी लोग दुःख पाते हैं। सारी मानसिक व्याधियों का मूल मोह है। इसके कारण ही अनेक प्रकार के मनोरोग उत्पन्न होते हैं। शरीर में विकार उत्पन्न करने वाले वात, कफ और पित्त की भाँति क्रमशः काम, अपार लोभ और क्रोध हैं। जिस प्रकार पित्त के बढ़ने से छाती में जलन होने लगती है, उसी प्रकार क्रोध भी जलाता है। यदि ये तीनों मनोविकार मिल जाएँ, तो कष्टकारी सन्निपात की भाँति रोग लग जाता है। अनेक प्रकार की विषय-वासना रूपी मनोकांक्षाएँ ही वे अनंत शूल हैं, जिनके नाम इतने ज्यादा हैं, कि उन सबको जानना भी बहुत कठिन है। बाबा तुलसी इस प्रसंग में अनेक प्रकार के मानस रोगों, जैसे- ममता, ईर्ष्या, हर्ष, विषाद, जलन, दुष्टता, मन की कुटिलता, अहंकार, दंभ, कपट, मद, मान, तृष्णा, मात्सर्य (डाह) और अविवेक आदि का वर्णन करते हैं और शारीरिक रोगों के साथ इनकी तुलना करते हुए इन मनोरोगों की विकरालता को स्पष्ट करते हैं। यहाँ मनोरोगों की तुलना शारीरिक व्याधियों से इस प्रकार और इतने सटीक ढंग से की गई है, कि किसी भी शारीरिक व्याधि की तीक्ष्णता और जटिलता से मनोरोग की तीक्ष्णता और जटिलता का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। शरीर का रोग प्रत्यक्ष होता है और शरीर में परिलक्षित होने वाले उसके लक्षणों को देखकर जहाँ एक ओर उपचार की प्रक्रिया को शुरू किया जा सकता है, वहीं दूसरी ओर व्याधिग्रस्त व्यक्ति को देखकर अन्य लोग उस रोग से बचने की सीख भी ले सकते हैं। सामान्यतः मनोरोग प्रत्यक्ष परिलक्षित नहीं होता, और मनोरोगी भी स्वयं को व्याधिग्रस्त नहीं मानता है। इस कारण से बाबा तुलसी ने मनोरोगों की तुलना शारीरिक रोगों से करके एकदम अलग तरीके से सीख देने का कार्य किया है। कागभुशुंडि कहते हैं कि एक बीमारी-मात्र से व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है और यहाँ तो अनेक असाध्य रोग हैं। मनोरोगों के लिए नियम, धर्म, आचरण, तप, ज्ञान, यज्ञ, जप, दान आदि अनेक औषधियाँ हैं, किंतु ये रोग इन औषधियों से भी नहीं जाते हैं। इस प्रकार संसार के सभी जीव रोगी हैं। शोक, हर्ष, भय, प्रीति और वियोग से दुःख की अधिकता हो जाती है। इन तमाम मानस रोगों को विरले ही जान पाते हैं। जानने के बाद ये रोग कुछ कम तो होते हैं, मगर विषय-वासना रूपी कुपथ्य पाकर ये साधारण मनुष्य तो क्या, मुनियों के हृदय में भी अंकुरित हो जाते हैं। मनोरोगों की विकरालता का वर्णन करने के उपरांत इन रोगों के उपचार का वर्णन भी होता है। कागभुशुंडि के माध्यम से तुलसीदास कहते हैं कि सद्गुरु रूपी वैद्य के वचनों पर भरोसा करते हुए विषयों की आशा को त्यागकर संयम का पालन करने पर श्रीराम की कृपा से ये समस्त मनोरोग नष्ट हो जाते हैं। रघुपति भगति सजीवनि मूरी।अनूपान श्रद्धा मति पूरी।। इन मनोरोगों के उपचार के लिए श्रीराम की भक्ति संजीवनी जड़ की तरह है। श्रीराम की भक्ति को श्रद्धा से युक्त बुद्धि के अनुपात में निश्चित मात्रा के साथ ग्रहण करके मनोरोगों का शमन किया जा सकता है। यहाँ तुलसीदास ने भक्ति, श्रद्धा और मति के निश्चित अनुपात का ऐसा वैज्ञानिक-तर्कसम्मत उल्लेख किया है, जिसे जान-समझकर अनेक लोगों ने मानस को अपने जीवन का आधार बनाया और मनोरोगों से मुक्त होकर जीवन को सुखद और सुंदर बनाया। यहाँ पर श्रीराम की भक्ति से आशय कर्मकांडों को कठिन और कष्टप्रद तरीके से निभाने, पूजा-पद्धतियों का कड़ाई के साथ पालन करने और इतना सब करते हुए जीवन को जटिल बना लेने से नहीं है। इसी प्रकार श्रद्धा भी अंधश्रद्धा नहीं है। भक्ति और श्रद्धा को संयमित, नियंत्रित और सही दिशा में संचालित करने हेतु मति है। मति को नियंत्रित करने हेतु श्रद्धा और भक्ति है। इन तीनों के सही और संतुलित व्यवहार से श्रीराम का वह स्वरूप प्रकट होता है, जिसमें मर्यादा, नैतिकता और आदर्श है। जिसमें लिप्सा-लालसा नहीं, त्याग और समर्पण का भाव होता है। जिसमें विखंडन की नहीं, संगठन की; सबको साथ लेकर चलने की भावना निहित होती है। जिसमें सभी के लिए करुणा, दया, ममता, स्नेह, प्रेम, वात्सल्य जैसे उदात्त गुण परिलक्षित होते हैं। श्रद्धा, भक्ति और मति का संगठन जब श्रीराम के इस स्वरूप को जीवन में उतारने का माध्यम बन जाता है, तब असंख्य मनोरोग दूर हो जाते हैं। स्वयं का जीवन सुखद, सुंदर, सरल और सहज हो जाता है। जब अंतर्जगत में, मन में रामराज्य स्थापित हो जाता है, तब बाह्य जगत के संताप प्रभावित नहीं कर पाते हैं। इसी भाव को लेकर, आत्मसात् करके विसंगतियों, विकृतियों और जीवन के संकटों से जूझने की सामर्थ्य अनगिनत लोगों को तुलसी के मानस से मिलती रही है। यह क्रम आज का नहीं, सैकड़ों वर्षों का है। यह क्रम देश की सीमाओं के भीतर का ही नहीं, वरन् देश से बाहर कभी मजदूर बनकर, तो कभी प्रवासी बनकर जाने वाले लोगों के लिए भी रहा है। सैकड़ों वर्षों से लगाकर वर्तमान तक अनेक देशों में रहने वाले लोगों के लिए तुलसी का मानस इसी कारण पथ-प्रदर्शक बनता है, सहारा बनता है। आज के जीवन की सबसे जटिल समस्या ऐसे मनोरोगों की है, मनोविकृतियों की है, जिनका उपचार अत्याधुनिक चिकित्सा पद्धतियों के पास भी उपलब्ध नहीं है। ऐसी स्थिति में तुलसीदास का मानस व्यक्ति से लगाकर समाज तक, सभी को सही दिशा दिखाने, जीवन को सन्मार्ग में चलाने की सीख देने की सामर्थ्य रखता है। #वनिता #पंजाब

 

# રામા દુનિયામાંથી તૂટી પડવું અંદરનું હૃદય જોવામાં આવ્યું. ત્યારથી માણસને ભગવાન માનવામાં આવે છે ભગવાન ત્યારથી મારો મિત્ર છે. જેને વિશ્વ કહેવાતું તેને તેના ભ્રાંતિ વિશે ખબર પડી માયાની છાયામાંથી બહાર નીકળો આખી દુનિયા અંદર થઈ. જો આપણે હકની વાત કરીએ લીફ લીફ .ભો થયો. જલદીથી બધુ બરાબર છે. જે ડ્રોપ નયનમાં બંધ થઈ ગયો તેમાં તે સમુદ્ર મળ્યો. ડ્રોપમાં જાતે બાઉન્ડ હવે સમુદ્ર પાર નથી થયો. મારા શેલ પર મૂક્કો જુઓ વાંચવાથી મુક્તિ મળશે નહીં તેમાં મારો ભાગ શોધો ત્યાં દરેક લેખ રામ હતા. * સામાજિક કાર્યકર વનિતા કસાણી પંજાબ દ્વારા * 🌹🙏🙏🌹