क्या श्रीराम का पिनाक को भंग करना उचित था?माता सीता के स्वयंवर के विषय में हम सभी जानते हैं। इसी स्वयंवर में श्रीराम ने उस पिनाक को सहज ही उठा कर तोड़ डाला जिसे वहाँ उपस्थित समस्त योद्धा मिल कर हिला भी ना सके। हालाँकि कई लोग ये पूछते हैं कि श्रीराम ने धनुष उठा कर स्वयंवर की शर्त तो पूरी कर ही दी थी, फिर उस धनुष को भंग करने की क्या आवश्यकता थी?यदि आप मेरा दृष्टिकोण पूछें तो मैं यही कहूंगा कि उस धनुष की आयु उतनी ही थी। अपना औचित्य (देवी सीता हेतु श्रीराम का चुनाव) पूर्ण करने के उपरांत उस धनुष का उद्देश्य समाप्त हो गया। उसके उपरांत पिनाक का पृथ्वी पर कोई अन्य कार्य शेष नही था। कदाचित यही कारण था कि श्रीराम ने उस धनुष को भंग कर दिया।वैसे यदि आप वाल्मीकि रामायण एवं रामचरितमानस का संदर्भ लें तो दोनों में एक ही चीज लिखी है - सीता स्वयंवर के समय श्रीराम द्वारा उस महान धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाने के प्रयास में वो धनुष टूट गया। अर्थात मूल रामायण के अनुसार श्रीराम ने उस धनुष को जान-बूझ कर नही तोड़ा था अपितु प्रत्यंचा चढ़ाते समय वो अनायास ही टूट गया। भगवान परशुराम के क्रोधित होने पर श्रीराम उन्हें भी यही कहते हैं कि वो धनुष उनसे अनजाने में टूट गया।हालांकि यदि आप पिनाक के इतिहास के बारे में पढ़े, जिसका वर्णन विष्णु पुराण और शिव पुराण, दोनों में विस्तार से दिया गया है, तो इस धनुष के भंग होने का वास्तविक कारण आपके समझ मे आ जाएगा। इसके पीछे एक पौराणिक कथा छिपी है जिसके अनुसार समय आने पर पिनाक को भंग होना ही था और वो भी भगवान विष्णु के द्वारा ही। इस कथा के अनुसार भगवान शंकर का धनुष पिनाक और भगवान नारायण का धनुष श्राङ्ग, दोनों का निर्माण स्वयं परमपिता ब्रह्मा ने किया था। एक बार इस बात पर चर्चा हुई कि दोनों धनुषों में से श्रेष्ठ कौन है। तब ब्रह्मदेव की मध्यस्थता में भोलेनाथ और श्रीहरि में अपने-अपने धनुष से युद्ध हुआ। हर और हरि के युद्ध का परिणाम तो भला क्या निकलता किन्तु उस युद्ध में श्रीहरि की अद्भुत धनुर्विद्या देखने के लिए महादेव एक क्षण के लिए रुक गए।युद्ध के अंत में दोनों ने ब्रह्मा जी से निर्णय देने को कहा। शिवजी और विष्णुजी धनुर्विद्या में अंतर बता पाना असंभव था। किन्तु कोई निर्णय तो देना ही था इसी कारण ब्रह्माजी ने कहा कि चूंकि महादेव युद्ध मे एक क्षण रुक कर नारायण का कौशल देखने लगे थे, इसी कारण श्राङ्ग पिनाक से श्रेष्ठ है। ये सुनकर महादेव बड़े रुष्ट हुए और उन्होंने उसी समय पिनाक का त्याग कर दिया। उन्होंने भगवान विष्णु से कहा कि अब आप ही इस धनुष का नाश करें। महादेव की इच्छा का मान रखते हुए श्रीहरि ने कहा कि समय आने पर वे उस धनुष को भंग करेंगे।भगवान शंकर द्वारा त्याग दिए जाने के पश्चात वो धनुष कुछ समय तक ब्रह्मा जी के पास ही रहा। बाद में उन्होंने उसे वरुण को दे दिया। वरुण देव ने पिनाक को देवराज इंद्र को रखने को दिया। बाद में इंद्र ने उस धनुष का दायित्व मिथिला के तत्कालीन राजा देवरात को दिया। यही देवरात मिथिला नरेश जनक के पूर्वज थे। पीढ़ी दर पीढ़ी होता हुआ वो धनुष जनक को प्राप्त हुआ। पृथ्वी पर उसे "शिव धनुष" कहा गया। महर्षि वाल्मीकि ने मूल रामायण में इसे शिव धनुष ही कहा है जबकि गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस में इसे पिनाक कहा है।एक अन्य कथा के अनुसार जब नारायण और महादेव युद्ध के लिए तत्पर हुए तो उस समय एक आकाशवाणी हुई कि ये युद्ध संसार के कल्याण के लिए संकट है जिससे संसार का नाश हो जाएगा। इस पर श्रीहरि तो पहले की भांति धनुषबद्ध रहे किन्तु भगवान रूद्र ने आकाशवाणी सुन कर उसे पृथ्वी पर फेंक दिया। बाद में वही धनुष जनक के पूर्वज देवरात को प्राप्त हुआ।कहते हैं कि एक बार माता सीता ने केवल ७ वर्ष की आयु में उस धनुष को उठा लाया था जिसे कोई हिला भी नही पाता था। तब राजा जनक ने ये प्रण किया कि वो उसी से सीता का विवाह करेंगे जो इस महान धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ा देगा। उधर भगवान विष्णु श्रीराम के रूप में अवतरित हो चुके थे। सीता स्वयंवर में श्रीराम रूपी नारायण ने महादेव की इच्छा को फलीभूत करने के लिए ही अंततः उस धनुष को भंग कर दिया। अर्थात वो महान धनुष महादेव की इच्छा से ही भंग हुआ, सीता स्वयंवर तो केवल निमित्त मात्र था।वास्तव में ये घटना सृष्टि के उस नियम को भी प्रतिपादित करती है जिसके अनुसार सृष्टि में कुछ भी अनश्वर नही है, चाहे वो मनुष्य हो अथवा वस्तु। समय पूर्ण होने पर सबका नाश होना अवश्यम्भावी है, यही सृष्टि का अटल नियम है। जय श्री हरिहर।
अशोक सुंदरी
भगवान शिव और देवी पार्वती के पुत्रों श्री कार्तिकेय एवं श्रीगणेश के विषय में तो हम सभी जानते हैं किन्तु उनकी कन्या "अशोकसुन्दरी" के विषय में सबको अधिक जानकारी नहीं है। हालांकि महादेव की और भी पुत्रियां मानी गयी हैं, विशेषकर जिन्हें नागकन्या माना गया - जया, विषहरी, शामिलबारी, देव और दोतलि। किन्तु अशोक सुंदरी को ही महादेव की की पुत्री बताया गया है इसीलिए वही गणेशजी एवं कार्तिकेय की बहन मानी जाती है। कई जगह पर इन्हे गणेश की छोटी बहन भी बताया गया है लेकिन अधिकतर स्थानों पर ये मान्यता है कि ये गणेश की बड़ी बहन थी। पद्मपुराण अनुसार अशोक सुंदरी देवकन्या हैं।
इनकी उत्पत्ति के विषय में एक कथा है कि देवी पार्वती ने उन्हें कल्पवृक्ष से प्राप्त किया था। एक बार देवी पार्वती को उदास देख कर महादेव ने उनका मन बहलाने के लिए उन्हें स्वर्गलोक के नंदनवन ले गए। वहाँ कल्पवृक्ष को देख कर माता को अत्यधिक हर्ष हुआ और वे उनके नीचे ही बैठ गयी। उस समय देवराज इंद्र ने माता की बड़ी सेवा की जिससे वे अत्यंत प्रसन्न हुई। उसी वृक्ष के नीचे बैठे-बैठे वे अकस्मात् अपने एकाकीपन को दूर करने के लिए एक पुत्री की कामना की। कल्पवृक्ष कामना पूर्ण करने वाला है। माता की आकांक्षा जान कर कल्पवृक्ष से एक अत्यंत सुन्दर और तेजस्वी कन्या का जन्म हुआ। उस अद्भुत कन्या को देख कर महादेव और महादेवी बड़े प्रसन्न हुए और उसे अपनी पुत्री के रूप में स्वीकार किया। माँ पार्वती ने उसे ये आशीर्वाद दिया कि उसका विवाह देवराज इंद्र जैसे शक्तिशाली युवक से होगा।
समय बीता और अशोक सुंदरी युवा हो गयी। उन्होंने पृथ्वी पर सम्राट पुरुवा और देवी उर्वशी के पौत्र और महाराज आयु और राहुकन्या प्रभा के पुत्र महापराक्रमी नहुष के बारे में सुना। उस समय नहुष केवल एक बालक ही थे पर फिर भी उन्होंने मन ही मन उन्हें अपना पति मान लिया। एक बार वो अपनी सखियों के साथ उद्यान में बैठी थी कि उसी समय "हुण्ड" नमक राक्षस वहाँ आया। अशोकसुन्दरी का सौंदर्य देखकर वो मुग्ध हो गया और उनसे विवाह का प्रस्ताव रखा। इसपर अशोक सुंदरी ने हुण्ड को बताया कि उन्होंने नहुष को अपना पति मान लिया है इसी कारण वे उससे विवाह नहीं कर सकती। यह सुनकर राक्षस ने क्रोधित हो गया और उनका अपहरण करने पर उद्धत हो गया किन्तु भगवान शिव के भय से उसका ये साहस नहीं हुआ। उसने अशोक सुंदरी से कहा कि वह नहुष को ही मार डालेगा और उसके बाद उनसे विवाह करेगा। ऐसा सुनकर अशोक सुंदरी ने राक्षस को श्राप दिया कि "जा दुष्ट तेरी मृत्यु नहुष के हाथों ही होगी।"
यह सुनकर वह राक्षस घबरा गया और उसने छल से राजकुमार नहुष का अपहरण कर लिया। हुण्ड की एक दासी नहुष के बालरूप पर मोहित हो गई और उसे अपना पुत्र मान कर उसने हुण्ड से बचा कर महर्षि वशिष्ठ के आश्रम में छोड़ दिया। महर्षि के आश्रम में ही वे बड़े हुए और सभी शस्त्र-शास्त्रों में पारंगत हो गए। वे वापस अपने पिता आयु के पास पहुँचे और सारे राज्य को संभाला। नहुष के बाद महाराज आयु के चार और पुत्र हुए - क्षत्रवृद्ध, रम्भ, रजि एवं अनेनस। ये सभी और समस्त राज्य नहुष के संरक्षण में सुरक्षित रहने लगे। जब हुण्ड को इसका पता चला तो उसने अशोक सुंदरी के अपहरण का प्रयास किया किन्तु मार्ग में ही उसका सामना नहुष से हुआ और उस युद्ध में नहुष ने हुण्ड का वध कर दिया। अशोक सुंदरी ने नहुष को अपने बारे में बताया और कहा कि समय आने पर उन दोनों का विवाह अवश्य होगा।
यह सुनकर वह राक्षस घबरा गया और उसने छल से राजकुमार नहुष का अपहरण कर लिया। हुण्ड की एक दासी नहुष के बालरूप पर मोहित हो गई और उसे अपना पुत्र मान कर उसने हुण्ड से बचा कर महर्षि वशिष्ठ के आश्रम में छोड़ दिया। महर्षि के आश्रम में ही वे बड़े हुए और सभी शस्त्र-शास्त्रों में पारंगत हो गए। वे वापस अपने पिता आयु के पास पहुँचे और सारे राज्य को संभाला। नहुष के बाद महाराज आयु के चार और पुत्र हुए - क्षत्रवृद्ध, रम्भ, रजि एवं अनेनस। ये सभी और समस्त राज्य नहुष के संरक्षण में सुरक्षित रहने लगे। जब हुण्ड को इसका पता चला तो उसने अशोक सुंदरी के अपहरण का प्रयास किया किन्तु मार्ग में ही उसका सामना नहुष से हुआ और उस युद्ध में नहुष ने हुण्ड का वध कर दिया। अशोक सुंदरी ने नहुष को अपने बारे में बताया और कहा कि समय आने पर उन दोनों का विवाह अवश्य होगा।
इसी बीच इंद्र के हाथों वृत्रासुर का वध होने से उन्हें ब्रह्महत्या का पाप लगा और वे १००० वर्षों तक प्रायश्चित करते रहे। उसी काल में देवताओं ने नहुष को इन्द्रपद प्रदान किया। देवराज बनने के बाद नहुष ने महादेव और देवी पार्वती की सहमति से अशोक सुंदरी से विवाह किया। हालाँकि बाद में इन्द्राणी शची पर कुदृष्टि डालने के कारण नहुष श्रापग्रस्त हुआ और अजगर के रूप में पृथ्वी पर गिरा। कालांतर में युधिष्ठिर के हाथों उसे श्राप से मुक्ति मिली। नहुष के विषय में विस्तार से किसी अन्य लेख में बताया जायेगा। मत्स्य एवं अग्नि पुराण के अनुसार नहुष और अशोक सुंदरी को सात पराक्रमी पुत्रों की प्राप्ति हुई। हालाँकि महाभारत के अनुसार इनके छः और कूर्म एवं पद्म पुराण के अनुसार इनके पाँच पुत्र ही बताए गए हैं।
- यति: ये इनका ज्येष्ठ पुत्र एवं सिंहासन के उत्तराधिकारी थे किन्तु इन्होने कम आयु में ही संन्यास ग्रहण कर लिया जिसके कारण इनके भाई ययाति को राज्य प्राप्त हुआ।
- ययाति: यति के संन्यास लेने के बाद ये राजा बने। इन्हे विश्व का पहला चक्रवर्ती सम्राट माना जाता है। इन्होने शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी और राक्षसराज वृषवार्षा की पुत्री शर्मिष्ठा से विवाह किया जिनसे इन्हे पाँच पुत्र - देवयानी से - यदु, तर्वसु एवं शर्मिष्ठा से - द्रुहु, अनु एवं पुरु की प्राप्ति हुई। हालाँकि राज्य इनके सबसे छोटे बेटे पुरु को प्राप्त हुआ जिनसे पुरुवंश चला जिसमे आगे चलकर भीष्म, कौरवों एवं पांडवों का जन्म हुआ। यदु का कुल यदुवंश कहलाया जिसमें आगे चल कर श्रीकृष्ण का जन्म हुआ।
- संयाति: ये भी कम आयु में परिव्राजक बन गए, इन्हे शर्याति के नाम से भी जाना जाता है।
- अयाति: इन्हे उद्भव के नाम से जाना जाता है।
- अश्वक: इन्हे पार्श्वक या अंधक के नाम से जाना जाता है।
- वियाति: इन्हे विजाति, सूयाति, कृति और ध्रुव नाम से जाना जाता है।
- मेवजाति: इन्हे मेघपालक के नाम से जाना जाता है।
इस प्रकार नहुष और अशोक सुंदरी से आगे समस्त राजवंश चले जिन्होंने पूरी पृथ्वी पर राज्य किया। दक्षिण भारत में अशोक सुंदरी को "बाला त्रिपुरसुन्दरी" के नाम से भी जाना जाता है।
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