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मंगलसूत्र सिन्हा उन आदमियों में हैं जिनका आदर इसलिए होता है कि लोग उनसे डरते हैं उन्हें देखकर सभी आदमी आइए, आइए करते हैं,लेकिन उनके पीठ गेरते ही कहते हैं-बड़ा ही मूजी आदमी है, इसके काटे का मंत्र नहीं उनका पेशा है मुकदमे बनाना जैसे कवि एक कल्पना पर पूरा काव्य लिख डालता है, उसी तरह सिन्हा साहब भी कल्पना पर मुकदमों की सृष्टि कर डालते हैं न जाने वह कवि क्यों नहीं हुए- मगर कवि होकर वह साहित्य की चाहे जितनी वृध्दि कर सकते, अपना कुछ उपकार न कर सकतेब कानून की उपासना करके उन्हें सभी सिध्दियां मिल गई थीं शानदार बंगले में रहते थे, बडे बडे रईसों और हुक्काम से दोस्ताना था, प्रतिष्ठा भी थी। रोब भी था। कलम में ऐसा जादू था। कि मुकदमे में जान डाल देते। ऐसे-ऐसे प्रसंग सोच निकालते, ऐसे-ऐसे चरित्रों की रचना करते कि कल्पना सजीव हो जाती थी। बडे-बडे घाघ जज भी उसकी तह तक न पहुंच सकते सब कुछ इतना स्वाभाविक, इतना संबध्द होता था। कि उस पर मिथ्या का भ्रम तक न हो सकता था। वह सन्तकुमार के साथ के पढै हुए थे दोनों में गहरी दोस्ती थी। सन्तकुमार के मन में एक भावना उठी और सिन्हा ने उसमे रंगरूप भर कर जीता-जागता पुतला खड़ा कर दिया और आज मुकदमा दायर करने का निश्चय किया जा रहा हैनौ बजे होंगे वकील और मुवक्किल कचहरी जाने की तैयारी कर रहे हैं सिन्हा अपने सजे कमरे में मेज पर टांग फैलाए लेटे हुए हैं गोरे-चिक्रे आदमी, उंचा कद, एकहरा बदन, बडे-बडे बाल पीछे को कंघी से ऐंचे हुए, मूंछें साग, आंखों पर ऐनक, ओठों पर सिगार, चेहरे पर प्रतिभा का प्रकाश, आंखों में अभिमान, ऐसा जान पडता है कोई बड़ा रईस है सन्तकुमार नीची अचकन पहने, गेल्ट कैप लगाए कुछ चिंतित से बैठे हैंसिन्हा ने आश्वासन दिया-तुम नाहक डरते हो मैं कहता हूं हमारी -तेह है ऐसी सैकड़ो नजीरें मौजूद हैं जिसमें बेटों-पोतों ने बैनामे मंसूख कराये हैं पक्की शहादत चाहिए और उसे जमा करना बाएं हाथ का खेल हैसन्तकुमार ने दुविधा में पडकर कहा-लेकिन गादर को भी तो राजी करना होगा उनकी इच्छा के बिना तो कुछ न हो सकेगा-उन्हें सीधा करना तुम्हारा काम है-लेकिन उनका सीधा होना मुश्किल है-तो उन्हें भी गोली मारोब हम साबित करेंगे कि उनके दिमाग मे खलल है-यह साबित करना आसान नहीं है जिसने बड़ी-बड़ी किताों लिख डालीं, जो सभ्य समाज का नेता समझा जाता है, जिसकी अक्लमंदी को सारा शहर मानता है, उसे दीवाना कैसे साबित करोगे-सिन्हा ने विश्वासपूर्ण भाव से कहा-यह सब मैं देख लूंगा किताा लिखना और बात है, होश-हवास का ठीक रहना और बातब मैं तो कहता हूं, जितने लेखक हैं, सभी सनकी हैं-पूरे पागल, जो महज वाह-वाह के लिए यह पेशा मोल लेते हैं अगर यह लोग अपने होश मे हों तो किताों न लिखकर दलाली करें, यह खोंचे लगायें यहां कुछ तो मेहनत का मुआवजा मिलेगा पुस्तकें लिखकर तो बदहजमी, तपेदिक ही हाथ लगता है रूपये का जुगाड तुम करते जाओ, बाकी सारा काम मुझ पर छोड दो और हां आज शाम को क्लब में जरूर आना अभी से कैम्पेन (मुहासरा) शुरू देना चाहिए तिब्बी पर डोरे डालना शुरू करो यह समझ लो, वह सब-जज साहब की अकेली लडकी है और उस पर अपना रंग जमा दो तो तुम्हारी गोटी लाल है सब-जज साहब तिब्बी की बात कभी नहीं टाल सकते मैं यह मरहला करने में तुमसे ज्यादा कुशल हूं मगर मैं एक खून के मुआमले में पैरवी कर रहा हूं और सिविल सर्जन मिस्टर कामत की वह पीले मुंह वाली छोकरी आजकल मेरी प्रेमिका है सिविल सर्जन मेरी इतनी आवभगत करते हैं कि कुछ न पूछो उस चुडैल से शादी करने पर आज तक कोई राजी न हुआ इतने मोटे ओंठ हैं और सीना तो जैसे झुका हुआ सायबान हो गिर भी आपको दावा है कि मुझसे ज्यादा रूपवती संसार में न होगी औरतों को अपने रूप का घमंड कैसे हो जाता है, यह मैं आज तक न समझ सका जो रूपवान् हैं वह घमंड करें तो वाजिब है, लेकिन जिसकी सूरत देखकर कै आए, वह कैसे अपने को अप्सरा समझ लेती है उसके पीछे-पीछे घूमते और आशिकी करते जी तो जलता है,मगर गहरी रकम हाथ लगने वाली है, कुछ तपस्या तो करनी ही पडेगी तिब्बी तो सचमुच अप्सरा है और चंचल भी जरा मुश्किल से काबू में आयेगी अपनी सारी कला खर्च करनी पडेगी-यह कला मैं खूब सीख चुका हूं-तो आज शाम को आना क्लब में-जरूर आउंगा-रूपये का प्रबंध भी करना-वह तो करना ही पडेगाइस तरह सन्तकुमार और सिन्हा दोनों ने मुहासिरा डालना शुरू किया सन्तकुमार न लंपट था, न रसिक, मगर अभिनय करना जानता था। रूपवान भी था, जबान का मीठा भी, दोहरा शरीर, हंसमुख और जहीन चेहरा, गोरा चिक्राब जब सूट पहनकर छड़ी घुमाता हुआ निकलता तो आंखों में खूब जाता था। टेनिस, ब्रिज आदि फैशनेबल खेलों में निपुण था। ही, तिब्बी से राह-रस्म पैदा करने में उसे देर न लगी तिब्बी यूनिवर्सिटी के पहले साल में थी।, बहुत ही तेज, बहुत ही मगरूर, बड़ी हाजिरजवाबब उसे स्वाध्याय का शौक न था, बहुत थोड़ा पढती थी।, मगर संसार की गति से वाकिफ थी।, और अपनी उपरी जानकारी को विद्वत्ता का रूप देना जानती थी। कोई विषय उठाइए, चाहे वह घोर विज्ञान ही क्यों न हो, उस पर भी वह कुछ-न-कुछ आलोचना कर सकती थी।, कोई मौलिक बात कहने का उसे शौक था। और प्रांजल भाषा मेब मिजाज में नगासत इतनी थी। कि सलीके या तमीज की जरा भी कमी उसे असफ्य थी। उसके यहां कोई नौकर या नौकरानी न ठहरने पाती थी। दूसरों पर कड़ी आलोचना करने में उसे आनंद आता था, और उसकी निगाह इतनी तेज थी। कि किसी स्त्रीया पुरूष में जरा भी कुरूचि या भोंडापन देखकर वह भौंओं से या ओंठों से अपना मनोभाव प्रकट कर देती थी। महिलाओं के समाज में उसकी निगाह उनके वस्त्राभूषण पर रहती थी। और पुरूष-समाज में उनकी मनोवृत्ति की ओर उसे अपने अद्वितीय रूप-लावण्य का ज्ञान था। और वह अच्छे-से पहनावे से उसे और भी चमकाती थी। जेवरों से उसे विशेष रूचि न थी।, यद्यपि अपने सिंगारदान में उन्हें चमकते देखकर उसे हर्ष होता था। दिन में कितनी ही बार वह नये-नये रूप धरती थी। कभी बैतालियों का भेष धारण कर लेती थी।, कभी गुजरियों का, कभी स्कर्ट और मोजे पहन लेती थी। मगर उसके मन में पुरूषों को आकर्षित करने का जरा भी भाव न था। वह स्वयं अपने रूप में मग्न थी।मगर इसके साथ ही वह सरल न थी। और युवकों के मुख से अनुराग-भरी बातें सुनकर वह वैसी ही ठंडी ही रहती थी। इस व्यापार में साधारण रूप-प्रशंसा के सिवा उसके लिए और कोई महभव न था। और युवक किसी तरह प्रोत्साहन न पाकर निराश हो जाते थे मगर सन्तकुमार की रसिकता में उसे अंतज्र्ञान से कुछ रहस्य, कुछ कुशलता का आभास मिला अन्य युवकों में उसने जो असंयम, जो उग्रता,जो विहृलता देखी थी। उसका यहां नाम भी न था। सन्तकुमार के प्रत्येक व्यवहार में संयम था, विधान था, सचेतना थी। इसलिए वह उनसे सतर्क रहती थी। और उनके मनोरहस्यों को पढने की चेष्टा करती थी। सन्तकुमार का संयम और विचारशीलता ही उसे अपनी जटिलता के कारण्ा अपनी ओर खींचती थी। सन्तकुमार ने उसके सामने अपने को अनमेल विवाह के एक शिकार के रूप में पेश किया था। और उसे उनसे कुछ हमदर्दी हो गई थी। पुष्पा के रंग-रूप की उन्होंने इतनी प्रशंसा की थी। जितनी उनको अपने मतलब के लिए जरूरी मालूम हुई, मगर जिसका तिब्बी से कोई मुकाबला न था। उसने केवल पुष्पा के गूहडपन, बेवकूफी, असहृदयता और निष्ठुरता की शिकायत की थी।, और तिब्बी पर इतना प्रभाव जमा लिया था। कि वह पुष्पा को देख पाती तो सन्तकुमार का पक्ष लेकर उससे लडती*एक दिन उसने सन्तकुमार से कहा-तुम उसे छोड क्यों नहीं देते-सन्तकुमार ने हसरत के साथ कहा-छोड कैसे दूं मिस त्रिवेणी, समाज में रहकर समाज के कानून तो मानने ही पडेगे फिर पुष्पा का इसमें क्या कसूर है उसने तो अपने आपको नहीं बनाया ईश्वर ने या संस्कारों ने या परिस्थितियों ने जैसा बनाया वैसी बन गई ।-मुझे ऐसे आदमियों से जरा भी सहानुभूति नहीं जो ढोल को इसलिए पीटें कि वह गले पड गई है मैं चाहती हूं वह ढोल को गले से निकालकर किसी खंदक में फेंक दें मेरा बस चले तो मैं खुद उसे निकाल कर फेंक दूंसन्तकुमार ने अपना जादू चलते हुए देखकर मन में प्रसन्न होकर कहा-लेकिन उसकी क्या हालत होगी, यह तो सोचो।तिब्बी अधीर होकर बोली-तुम्हें यह सोचने की जरूरत ही क्या है- अपने घर चली जायगी, या कोई काम करने लगेगी या अपने स्वभाव के किसी आदमी से विवाह कर लेगी।सन्तकुमार ने कहकहा मारा-तिब्बी यथा।र्थ और कल्पना में भेद भी नहीं समझती, कितनी भोली हैफीर उदारता के भाव से बोले-यह बड़ा टेढ़ा सवाल है कुमारी जी ृ समाज की नीति कहती है कि चाहे पुष्पा को देखकर रोज मेरा खून ही क्यों न जलता रहे और एक दिन मैं इसी शोक में अपना गला क्यों न काट लूं, लेकिन उसे कुछ नहीं हो सकता, छोडना तो असीव है केवल एक ही ऐसा आक्षेप है जिस पर मैं उसे छोड सकता हूं, यानी उसकी बेवफाई लेकिन पुष्पा में और चाहे जितने दोष हों यह दोष नहीं हैसंध्या हो गई थी। तिब्बी ने नौकर को बुलाकर बाग में गोल चबूतरे पर कुर्सियां रखने को कहा और बाहर निकल आई नौकर ने कुर्सियां निकालकर रख दीं, और मानो यह काम समाप्त करके जाने को हुआतिब्बी ने डांटकर कहा-कुर्सियां साग क्यों नहीं कीं- देखता नहीं उन पर कितनी गर्द पड़ी हुई है- मैं तुझसे कितनी बार कह चुकी,मगर तुझे याद ही नहीं रहती बिना जुर्माना किए तुझे याद न आयेगीनौकर ने कुर्सियां पोंछ-पोंछ कर साग कर दीं और फिर जाने को हुआतिब्बी ने गिर डांटा-तू बार-बार भागता क्यों है मेजें रख दीं- टी-टेबल क्यों नहीं लाया- चाय क्या तेरे सिर पर पिएंगे-उसने बूढे नौकर के दोनो कान गर्मा दिये और धक्का देकर बोली-बिल्कुल गादी है, निरा पोंगा, जैसे दिमाग में गोबर भरा हुआ हैबूढ़ा नौकर बहुत दिनों का था। स्वामिनी उसे बहुत मानती थीं उनके देहांत होने के बाद गोकि उसे कोई विशेष प्रलोभन न था, क्योंकि इससे एक-दो रूपया ज्यादा वेतन पर उसे नौकरी मिल सकती थी। पर स्वामिनी के प्रति उसे जो श्रध्दा थी। वह उसे इस घर से बांधे हुए थी। और यहां अनादर और अपमान सब कुछ सहकर भी वह चिपटा हुआ था। सब-जज साहब भी उसे डांटते रहते थे पर उनके डांटने का उसे दुख न होता था। वह उम्र में उसके जोड के थे लेकिन त्रिवेणी को तो उसने गोद खेलाया था। अब वही तिब्बी उसे डांटती थी।, और मारती भी थी। इससे उसके शरीर को जितनी चोट लगती थी। उससे कहीं ज्यादा उसके आत्माभिमान को लगती थी। उसने केवल दो घरों में नौकरी की थी। दोनो ही घरों में लडकियां भी थीं बहुए भी थीं सब उसका आदर करती थीं बहुएं तो उससे लजाती थीं अगर उससे कोई बात बिगड भी जाती तो मन में रख लेती थीं उसकी स्वामिनी तो आदर्श महिला थी। उसे कभी कुछ न कहाब बाबू जी कभी कुछ कहते तो उसका पक्ष लेकर उनसे लडती थी। और यह लडकी बडे-छोटे का जरा भी लिहाज नहीं करती लोग कहते हैं पढने से अक्ल आती है यही है वह अक्ल उसके मन में विद्रोह का भाव उठा-क्यों यह अपमान सहे- जो लडकी उसकी अपनी लडकी से भी छोटी हो, उसके हाथों क्यों अपनी मूंछें नुचवाये- अवस्था में भी अभिमान होता है जो संचित धन के अभिमान से कम नहीं होता वह सम्मान और प्रतिष्ठा को अपना अधिकार समझता है, और उसकी जगह अपमान पाकर मर्माहत हो जाता हैघूरे ने टी-टेबल लाकर रख दी, पर आंखों में विद्रोह भरे हुए था।तिब्बी ने कहा-जाकर बैरा से कह दो, दो प्याले चाय दे जायघूरे चला गया और बैरा को यह हुक्म सुनाकर अपनी एकांत कुटी में जाकर खूब रोयाब आज स्वामिनी होती तो उसका अनादर क्यों होताबैरा ने चाय मेज पर रख दी तिब्बी ने प्याली सन्तकुमार को दी और विनोद भाव से बोली-तो अब मालूम हुआ कि औरतें ही पतिव्रता नहीं होतीं, मर्द भी पत्नीव्रत वाले होते हैंसन्तकुमार ने एक घूंट पीकर कहा-कम-से-कम इसका स्वांग तो करते ही हैं-मैं इसे नैतिक दुर्बलता कहती हूं जिस प्यारा कहो, दिल से प्यारा कहो, नहीं प्रकट हो जाय मैं विवाह को प्रेमबंधन के रूप में देख सकती हूं, धर्मबंधन या रिवाज बंधन तो मेरे लिए असह्य हो जाय-उस पर भी तो पुरूषों पर आक्षेप किये जाते हैंतिब्बी चौंकी यह जातिगत प्रश्न हुआ जा रहा हैअब उसे अपनी जाति का पक्ष लेना पडेगा-तो क्या आप मुझसे यह मनवाना चाहते हैं कि सभी पुरूष देवता होते हैं- आप भी जो वगादारी कर रहे हैं वह दिल से नहीं, केवल लोकनिंदा के भय से मैं इसे वगादारी नहीं कहती बिच्छू के डक तोडकर आप उसे बिल्कुल निरीह बना सकते हैं, लेकिन इससे बिच्छुओं का जहरीलापन तो नहीं जातासन्तकुमार ने अपनी हार मानते हुए कहा-अगर मैं भी यही कहूं कि अधिकतर नारियों का पातिव्रत भी लोकनिंदा का भय है तो आप क्या कहेंगी-तिब्बी ने प्याला मेज पर रखते हुए कहा-मैं इसे कभी न स्वीकार करूंगी-क्यों--इसलिए कि मर्दो ने स्त्रियों के लिए और कोई आश्रय छोड़ा ही नहीं पतिव्रत उनके अंदर इतना कूट-कूट कर भरा गया है कि अब अपना व्यक्तित्व रहा ही नहीं वह केवल पुरूष के आधार पर जी सकती है उसका स्वतंत्र कोई अस्तित्व ही नहीं बिन ब्याहा पुरूष चैन से खाता है, विहार करता है और मूंछों पर ताव देता है बिन ब्याही स्त्रीरोती है, कलपती है और अपने को संसार का सबसे अभागा प्राणी समझती है यह सारा मदोऊ का अपराध है आप भी पुष्पा को नहीं छोड रहे हैं इसीलिए न कि आप पुरूष हैं जो कैदी को आजाद नहीं करना चाहतासन्तकुमार ने कातर स्वर में कहा-आप मेरे साथ बेइंसाफी करती हैं मैं पुष्पा को इसलिए नहीं छोड रहा हूं कि मैं उसका जीवन नष्ट नहीं करना चाहता अगर मैं आज उसे छोड दूं तो शायद औरों के साथ आप भी मेरा तिरस्कार करेंगीतिब्बी मुस्कराई-मेरी तरफ से आप निश्ंचित रहिए मगर एक ही क्षण के बाद उसने ग़ीाीर होकर कहा-लेकिन मैं आपकी कठिनाइयों का अनुमान कर सकती हूं-मुझे आपके मुंह से ये शब्द सुनकर कितना संतोष हुआ मैं वास्तव में आपकी दया का पात्र हूं और शायद कभी मुझे इसकी जरूरत पडेआपके उपर मुझे सचमुच दया आती है क्यों न एक दिन उनसे किसी तरह मेरी मुलाकात करा दीजिए शायद मैं उन्हे रास्ते पर ला सकूंसन्तकुमार ने ऐसा लंबा मुंह बनाया जैसे इस प्रस्ताव से उनके मर्म पर चोट लगी है-उनका रास्ते पर आना असीव है मिस त्रिवेणी वह उलटे आप ही के उपर आक्षेप करेगी और आपके विषय में न जाने कैसी दुष्कल्पनाएं कर बैठेगी और मेरा तो घर में रहना मुश्किल हो जायेगातिब्बी का साहसिक मन गर्म हो उठा-तब तो मैं उससे जरूर मिलूंगी-तो शायद आप यहां भी मेरे लिए दरवाजा बंद कर देंगी-ऐसा क्यों--बहुत मुमकिन है वह आपकी साहनुभूति पा जाय और आप उसकी हिमायत करने लगें-तो क्या आप चाहते हैं मैं आपको एकतर्फा डिग्री दे दूं--मैं केवल आपकी दया और हमदर्दी चाहता हूं आपसे अपनी मनोव्यथा। कहकर दिल का बोझ हल्का करना चाहता हूं उसे मालूम हो जाय कि मैं आपके यहां आता-जाता हूं तो एक नया किस्सा खड़ा कर दे।तिब्बी ने सीधे व्यंग्य किया-तो आप उससे इतना डरते क्यों हैं- डरना तो मुझे चाहिएसन्तकुमार ने और गहरे में जाकर कहा-मै आपके लिए ही डरता हूं, अपने लिए नहींतिब्बी निर्भयता से बोली-जी नहीं, आप मेरे लिए न डरिए-मेरे जीते जी, मेरे पीछे, आप पर कोई शुबहा हो यह मैं नहीं देख सकता-आपको मालूम है मुझे भावुकता पसंद नहीं--यह भावुकता नहीं, मन के सच्चे भाव हैं-मैंने सच्चे भाववाले युवक बहुत कम देखे-दुनिया में सभी तरह के लोग होते हैं-अधिकतर शिकारी किस्म केब स्त्रियों में तो वेश्याएं ही शिकारी होती हैं पुरूषों में तो सिरे से सभी शिकारी होते हैं-जी नहीं, उनमें अपवाद भी बहुत हैं-स्त्रीरूप नहीं देखती पुरूष जब गिरेगा रूप पर इसीलिए उस पर भरोसा नहीं किया जा सकता मेरे यहां कितने ही रूप के उपासक आते हैं शायद इस वक्त भी कोई साहब आ रहे हों मैं रूपवती हूं, इसमें नम्रता का कोई प्रश्न नहीं मगर मैं नहीं चाहती कोई मुझे केवल रूप के लिए चाहेसन्तकुमार ने धडकते हुए मन से कहा-आप उनमें मेरा तो शुमार नहीं करतीं-तिब्बी ने तत्परता के साथ कहा-आपको तो मैं अपने चाहने वालों में समझती ही नहींसन्तकुमार ने माथा। झुकाकर कहा-यह मेरा दुर्भाग्य है-आप दिल से नहीं कह रहे हैं, मुझे कुछ ऐसा लगता है कि आपका मन नहीं पाती आप उन आदमियों में हैं जो हमेशा रहस्य रहते हैं-यही तो मैं आपके विषय में सोचा करता हूं-मैं रहस्य नहीं हूं मैं तो साग कहती हूं मैं ऐसे मनुष्य की खोज में हूं, जो मेरे हृदय में सोये हुए पे्रेम को जगा दे हां, वह बहुत नीचे गहराई में है, और उसी को मिलेगा जो गहरे पानी में डूबना जानता हो आपमें मैंने कभी उसके लिए बैचेनी नहीं पाई मैंने अब तक जीवन का रोशन पहलू ही देखा है और उससे उब गई हूं अब जीवन का अंधेरा पहलू देखना चाहती हूं जहां त्याग है, रूदन है, उत्सर्ग है सीव है उस जीवन से मुझे बहुत जल्द घृणा हो जाय, लेकिन मेरी आत्मा यह नहीं स्वीकार करना चाहती कि वह किसी उफंचे ओहदे की गुलामी या कानूनी धोखेधड़ी या व्यापार के नाम से की जाने वाली लूट को अपने जीवन का आधार बनाए श्रम और त्याग का जीवन ही मुझे तथ्य जान पडता है आज जो समाज और देश की दूषित अवस्था है उससे असहयोग करना मेरे लिए जुनून से कम नहीं है मैं कभी-कभी अपने ही से घृणा करने लगती हूं बाबू जी को एक हजार रूपये अपने छोटे-से परिवार के लिए लेने का क्या हक है और मुझे बे-काम-धंधे इतने आराम से रहने का क्या अधिकार है- मगर यह सब समझकर भी मुझमें कर्म करने की शक्ति नहीं है इस भोग-विलास के जीवन ने मुझे भी कर्महीन बना डाला है और मेरे मिजाज में अमीरी कितनी है यह भी आपने देखा होगा मेरे मुंह से बात निकलते ही अगर पूरी न हो जाय तो मैं बावली हो जाती हूं बुध्दि का मन पर कोई नियंत्रण नहीं है जैसे शराबी बार-बार हराम करने पर शराब नहीं छोड सकता वही दशा मेरी है उसी की भांति मेरी इच्छाशक्ति बेजान हो गई है।तिब्बी के प्रतिभावान मुख-मंडल पर प्राय: चंचलता झलकती रहती थी। उससे दिल की बात कहते संकोच होता, क्योंकि शंका होती थी। कि वह सहानुभूति के साथ सुनने के बदले फबतिया कसने लगेगी पर इस वक्त ऐसा जान पड़ा उसकी आत्मा बोल रही है उसकी आंखें आर्द्र हो गई थीं मुख पर एक निश्ंचित नम्रता और कोमलता खिल उठी थी। सन्तकुमार ने देखा उनका संयम फिसलता जा रहा है जैसे किसी सायल ने बहुत देर के बाद दाता को मनगुर देख पाया हो और अपना मतलब कह सुनाने के लिए अधीर हो गया हो।बोला-कितनी ही बार बिल्कुल यही मेरे विचार हैं मैं आपसे उससे बहुत निकट हूं, जितना समझता था।।तिब्बी प्रसन्न होकर बोली-आपने मुझे कभी बताया नहीं-आप भी तो आज ही खुली हैं-मैं डरती हूं कि लोग यही कहेंगे आप इतनी शान से रहती हैं, और बातें ऐसी करती हैं अगर कोई ऐसी तरकीब होती जिससे मेरी यह अमीराना आदतें छूट जातीं तो मैं उसे जरूर काम में लाती इस विषय की आपके पास कुछ पुस्तकें हों तो मुझे दीजिए मुझे आप अपनी शिष्या बना लीजिएसन्तकुमार ने रसिक भाव से कहा-मैं तो आपका शिष्य होने जा रहा था। और उसकी ओर मर्मभरी आंखों से देखातिब्बी ने आंखें नीची नहीं कीं उनका हाथ पकडकर बोली-आप तो दिल्लगी करते हैं मुझे ऐसा बना दीजिए कि मैं संकटों का सामना कर सकूं मुझे बार-बार खटकता है अगर मैं स्त्री न होती तो मेरा मन इतना दुर्बल न होताऔर जैसे वह आज सन्तकुमार से कुछ भी छिपाना, कुछ भी बचाना नहीं चाहती मानो वह जो आश्रय बहुत दिनों से ढूंढ रही थी। वह यकायक मिल गया हैसन्तकुमार ने रूखाई भरे स्वर में कहा-स्त्रियां पुरूषों से ज्यादा दिलेर होती हैं मिस त्रिवेणी-अच्छा आपका मन नहीं चाहता कि बस हो तो संसार की सारी व्यवस्था बदल डालें-इस विशुध्द मन से निकले हुए प्रश्न का बनावटी जवाब देते हुए सन्तकुमार का हृदय कांप उठा।-कुछ न पूछो बस आदमी एक आह खींचकर रह जाता है-मैं तो अक्सर रातों को यह प्रश्न सोचते-सोचते सो जाती हूं और वही स्वप्न देखती हूं देखिए दुनिया वाले कितने खुदगर्ज हैं जिस व्यवस्था से सारे समाज का उध्दार हो सकता है वह थोडे से आदमियों के स्वार्थ के कारण दबी पड़ी हुई हैसन्तकुमार ने उतरे हुए मुख से कहा-उसका समय आ रहा है और उठ खडे हुए यहां की वायु में उनका जैसे दम घुटने लगा था। उनका कपटी मन इस निष्कपट, सरल वातावरण में अपनी अधमता के ज्ञान से दबा जा रहा था। जैसे किसी धर्मनिष्ठ मन में अधर्म विचार घुस तो गया हो पर वह कोई आश्रय न पा रहा होतिब्बी ने आग्रह किया-कुछ देर और बैठिए न--आज आज्ञा दीजिए, फिर कभी आउंगा-कब आइएगा--जल्द ही आउंगा-काश, मैं आपका जीवन सुखी बना सकतीसन्तकुमार बरामदे से कूदकर नीचे उतरे और तेजी से हाते के बाहर चले गए तिब्बी बरामदे में खड़ी उन्हें अनुरक्त नेत्रों से देखती रही वह कठोर थी।, चंचल थी।, दुर्लभ थी।, रूपगर्विता थी।, चतुर थी।, किसी को कुछ समझती न थी।, न कोई उसे प्रेम का स्वांग भरकर ठग सकता था, पर जैसे कितनी ही वेश्याओं में सारी आसक्तियों के बीच में भक्ति-भावना छिपी रहती है, उसी तरह उसके मन में भी सारे अविश्वास के बीच में कोमल, सहमा हुआ, विश्वास छिपा बैठा था। और उसे स्पर्श करने की कला जिसे आती हो वह उसे बेवकूफ बना सकता था। उस कोमल भाग का स्पर्श होते ही वह सीधी-सादी, सरल विश्वासमयी, कातर बालिका बन जाती थी। आज इत्तफाक से सन्तकुमार ने वह आसन पा लिया था। और अब वह जिस तरफ चाहे उसे ले जा सकता है, मानो वह मेस्मराइज हो गई थी। सन्तकुमार में उसे कोई दोष नहीं नजर आता अभागिनी पुष्पा इस सत्यपुरूष का जीवन कैसा नष्ट किए डालती है इन्हें तो ऐसी संगिनी चाहिए जो इन्हें प्रोत्साहित करे, हमेशा इनके पीछे-पीछे रहे पुष्पा नहीं जानती वह इनके जीवन का राहु बनकर समाज का कितना अनिष्ट कर रही है और इतने पर भी सन्तकुमार का उसे गले बांधे रखना देवत्व से कम नहीं उनकी वह कौन-सी सेवा करे, कैसे उनका जीवन सुखी करेसन्तकुमार यहां से चले तो उनका हृदय आकाश में था। इतनी जल्द देवी से उन्हें वरदान मिलेगा इसकी उन्होंने आशा न की थी। कुछ तकदीर ने ही जोर मारा, नहीं तो जो युवती अच्छे-अच्छों को डफलियों पर नचाती है, उन पर क्यों इतनी भक्ति करती अब उन्हें विलंब न करना चाहिए कौन जाने कब तिब्बी विरूध्द हो जाय और यह दो ही चार मुलाकातों में होने वाला है तिब्बी उन्हें कार्य-क्षेत्र में आगे बढने की प्रेरणा करेगी और वह पीछे हटेंगे वहीं मतभेद हो जाएगा यहां से वह सीधे मिृ सिन्हा के घर पहुंचे शाम हो गई थी। कुहरा पडना शुरू हो गया था। मि. सिन्हा सजे-सजाए कहीं जाने को तैयार खडे थे इन्हें देखते ही पूछाµ-किधर से--वहीं से आज तो रंग जम गया-सच-हां जी उस पर तो जैसे मैंने जादू की लकड़ी गेर दी हो-गिर क्या, बाजी मार ली है अपने गादर से आज ही जिद्र छेड़ो-आपको भी मेरे साथ चलना पडेगा-हां, हां( मैं तो चलूंगा ही मगर तुम तो बडे खुशनसीब निकले-यह मिस कामत तो मुझसे सचमुच आशिकी कराना चाहती है मैं तो स्वांग रचता हूं और वह समझती है, मैं उसका सच्चा प्रेमी हूं जरा आजकल उसे देखो, मारे गरूर के जमीन पर पांव ही नहीं रखती मगर एक बात है, औरत समझदार है उसे बराबर यह चिंता रहती है मैं उसके हाथ से निकल न जाउं, इसलिए मेरी बड़ी खातिरदारी करती है,और बनाव-सिंगार से कुदरत की कमी जितनी पूरी हो सकती है उतनी करती है और अगर कोई अच्छी रकम मिल जाय तो शादी कर लेने ही में क्या हरज हैसन्तकुमार को आश्चर्य हुआ-तुम तो उसकी सूरत से बेजार थे-हां, अब भी हूं, लेकिन रूपये की जो शर्त है डाक्टर साहब बीस-पच्चीस हजार मेरी नजर कर दें, शादी कर लूं शादी कर लेने से में उसके हाथ में बिका तो नहीं जातादूसरे दिन दोनों मित्रों ने देवकुमार के सामने सारे मंसूबे रख दिए देवकुमार को एक क्षण तक तो अपने कानों पर विश्वास न हुआ उन्होंने स्वच्छंद, निर्भीक, निष्कपट जिंदगी व्यतीत की थी। कलाकारों में एक तरह का जो आत्माभिमान होता है ,उसने सदैव उनको ढारस दिया था। उन्होंने तकलीफें उठाई थीं, फाके भी किए थे, अपमान सहे थे लेकिन कभी अपनी आत्मा को कलुषित न किया था। जिंदगी में कभी अदालत के द्वार तक ही नहीं गए बोले-मुझे खेद होता है कि तुम मुझसे यह प्रस्ताव कैसे कर सके और इससे ज्यादा दुख इस बात का है कि ऐसी कुटिल चाल तुम्हारे मन में आई क्योंकरसन्तकुमार ने निस्संकोच भाव से कहा-जरूरत सब कुछ सिखा देती है स्वरक्षा प्रकृति का पहला नियम है वह जायदाद जो आपने बीस हजार में दे दी, आज दो लाख से कम की नहीं है-वह दो लाख की नहीं, दस लाख की हो मेरे लिए वह आत्मा को बेचने का प्रश्न है मैं थोडे से रूपयों के लिए अपनी आत्मा नहीं बेच सकतादोनों मित्रों ने एक-दूसरे की ओर देखा और मुस्कराए कितनी पुरानी दलील है और कितनी लचर आत्मा जैसी चीज है कहां- और जब सारा संसार धोखेधड़ी पर चल रहा है तो आत्मा कहां रही- अगर सौ रूपये कर्ज देकर एक हजार वसूल करना अधर्म नहीं है, अगर एक लाख नीमजान, गाकेकश मजदूरों की कमाई पर एक सेठ का चैन करना अधर्म नहीं है तो एक पुरानी कागजी कार्रवाई को रद कराने का प्रयत्न क्यों अधर्म हो-सन्तकुमार ने तीखे स्वर में कहा-अगर आप इसे आत्मा का बेचना कहते हैं तो बेचना पडेगा इसके सिवा दूसरा उपाय नहीं है और आप इस दृष्टि से इस मामले को देखते ही क्यों है- धर्म वह है जिससे समाज का हित हो अधर्म वह है जिससे समाज का अहित हो इससे समाज का कौन-सा अहित हो जायगा, यह आप बता सकते हैं-देवकुमार ने सतर्क होकर कहा-समाज अपनी मर्यादाओं पर टिका हुआ है उन मर्यादाओं को तोड दो और समाज का अंत हो जाएगादोनों तरफ से शास्त्रार्थ होने लगे देवकुमार मर्यादाओं और सिध्दांतों और धर्म-बंधनों की आड ले रहे थे, पर इन दोनों नौजवानों की दलीलों के सामने उनकी एक न चलती थी। वह अपनी सुफेद दाढ़ी पर हाथ फेर-फेरकर और खल्वाट सिर खुजा-खुजा कर जो प्रमाण देते थे उसको यह दोनों युवक चुटकी बजाते तून डालते थे, धुनककर उड़ा देते थेसिन्हा ने निर्दयता के साथ कहा-बाबूजी, आप न जाने किस जमाने की बातें कर रहे हैं कानून से हम जितना फायदा उठा सकें, हमें उठाना चाहिए उन दफों का मंशा ही यह है कि उनसे फायदा उठाया जाय अभी आपने देखा जमींदारों की जान महाजनों से बचाने के लिए सरकार ने कानून बना दिया है और कितनी मिल्कियतें जमींदारों को वापस मिल गई क्या आप इसे अधर्म कहेंगे- व्यावहारिकता का अर्थ यही है कि हम जिन कानूनी साधनों से अपना काम निकाल सकें, निकालें मुझे कुछ लेना-देना नहीं, न मेरा कोई स्वार्थ है सन्तकुमार मेरे मित्र हैं और इसी वास्ते मैं आपसे यह निवेदन कर रहा हूं मानें या न मानें, आपको अख्तियार हैदेवकुमार ने लाचार होकर कहा-तो आखिर तुम लोग मुझे क्या करने को कहते हो--कुछ नहीं, केवल इतना ही कि हम जो कुछ करें आप उसके विरूध्द कोई कार्रवाई न करेंमैं सत्य की हत्या होते नहीं देख सकतासन्तकुमार ने आंखें निकाल कर उत्तेजित स्वर में कहा-तो फिर आपको मेरी हत्या देखनी पडेगीसिन्हा ने सन्तकुमार को डांटा-क्या फजूल की बातें करते हो सन्तकुमार बाबू जी को दो-चार दिन सोचने का मौका दो तुम अभी किसी बच्चे के बाप नहीं हो तुम क्या जानो बाप को बेटा कितना प्यारा होता है वह अभी कितना ही विरोध करें, लेकिन जब नालिश दायर हो जायगी तो देखना वह क्या करते हैं हमारा दावा यही होगा कि जिस वक्त आपने यह बैनामा लिखा, आपके होश-हवास ठीक न थे और अब भी आपको कभी-कभी जुनून का दौरा हो जाता है हिन्दुस्तान जैसे फार्म मुल्क में यह मरज बहुतों को होता है, और आपको भी हो गया तो कोई आश्चर्य नहीं हम सिविल सर्जन से इसकी तसदीक करा देंगेदेवकुमार ने हिकारत के साथ कहा-मेरे जीते-जी यह धांधली नहीं हो सकती हरगिज नहीं मैंने जो कुछ किया सोच-समझकर और परिस्थितियों के दबाव से किया मुझे उसका बिल्कुल अफसोस नहीं है अगर तुमने इस तरह का कोई दावा किया तो उसका सबसे बड़ा विरोध मेरी ओर से होगा, मैं कहे देता हूंऔर वह आवेश में आकर कमरे में टहलने लगेसन्तकुमार ने भी खडे होकर धमकाते हुए कहा-तो मेरा भी आपको चेलेंज है या तो आप अपने धर्म ही की रक्षा करेंगे या मेरी आप फिर मेरी सूरत न देखेंगे-मुझे अपना धर्म, पत्नी और पुत्र सबसे प्यारा हैसिन्हा ने सन्तकुमार को आदेश किया-तुम आज दर्खास्त दे दो कि आपके होश-हवास में फर्क आ गया और मालूम नहीं आप क्या कर बैठें आपको हिरासत में ले लिया जायदेवकुमार ने मुट्ठी तानकर द्रोध के आवेश में पूछा-मैं पागल हूं--जी हां, आप पागल हैं आपके होश बजा नहीं हैं ऐसी बातें पागल ही किया करते हैं पागल वही नहीं है जो किसी को काटने दौडे आम आदमी जो व्यवहार करते हों उसके विरूध्द व्यवहार करना भी पागलपन है-तुम दोनों खुद पागल हो-इसका फैसला तो डाक्टर करेगा-मैंने बीसों पुस्तकें लिख डालीं, हजारों व्याख्यान दे डाले, यह पागलों का काम है--जी हां, यह पक्के सिरफिरों का काम है कल ही आप इस घर में रस्सियों से बांध लिये जायंगे-तुम मेरे घर से निकल जाओ नहीं तो मैं गोली मार दूंगा-बिल्कुल पागलों की-सी धमकी सन्तकुमार उस दर्खास्त में यह भी लिख देना कि आपकी बंदूक छीन ली जाय, वरना जान का खतरा हैऔर दोनों मित्र उठ खडे हुए देवकुमार कभी कानून के जाल में न फंसे थे प्रकाशकों और बुकसेलरों ने उन्हें बारहा धोखे दिए, मगर उन्होंने कभी कानून की शरण न लीब उनके जीवन की नीति थी।-आप भला तो जग भला, और उन्होंने हमेशा इस नीति का पालन किया था। मगर वह दब्बू या डरपोक न थे खासकर सिध्दांत के मुआमले में तो वह समझौता करना जानते ही न थे वह इस षडयंत्र में कभी शरीक न होंगे, चाहे इधर की दुनिया उधर हो जाय मगर क्या यह सब सचमुच उन्हें पागल साबित कर देंगे- जिस दृढता से सिन्हा ने धमकी दी थी। वह उपेक्षा के योग्य न थी। उसकी ध्वनि से तो ऐसा मालूम होता था। कि वह इस तरह के दांव-पेंच में अभ्यस्त है, और शायद डाक्टरों को मिलाकर सचमुच उन्हें सनकी साबित कर दे उनका आत्माभिमान गरज उठा-नहीं, वह असत्य की शरण न लेंगे चाहे इसके लिए उन्हें कुछ भी सहना पड़े डाक्टर भी क्या अंधा है- उनसे कुछ पूछेगा, कुछ बातचीत करेगा या योंही कलम उठाकर उन्हें पागल लिख देगा मगर कहीं ऐसा तो नहीं है कि उनके होश-हवास में फितूर पड गया हो हुश वह भी इन छोकरों की बातों में आए जाते हैं उन्हें अपने व्यवहार में कोई अंतर नहीं दिखाई देता उनकी बुध्दि सूर्य के प्रकाश की भाति निर्मल है कभी नहीं वह इन लौंडों के धौंस में न आयेंगेलेकिन यह विचार उनके हृदय को मथ रहा था। कि सन्तकुमार की यह मनोवृत्ति कैसे हो गई उन्हें अपने पिता की याद आती थी। वह कितने सौम्य, कितने सत्यनिष्ठ थे उनके ससुर वकील जरूर थे, पर कितने धर्मात्मा पुरूष थे अकेले कमाते थे और सारी गृहस्थी का पालन करते थे पांच भाइयों और उनके बाल-बच्चों का बोझा खूद सीले हुए थे क्या मजाल कि अपने बेटे-बेटियों के साथ उन्होंने किसी तरह का पक्षपात किया हो जब तक बडे भाई को भोजन न करा लें खुद न खाते थे ऐसे खानदान में सन्तकुमार जैसा दगाबाज कहां से धंस पड़ा- उन्हें कभी ऐसी कोई बात याद न आती थी। जब उन्होंने अपनी नीयत बिगाड़ी होलेकिन यह बदनामी कैसे सही जायगी वह अपने ही घर में जब जागृति न ला सके तो एक प्रकार से उनका सारा जीवन नष्ट हो गया जो लोग उनके निकटतम संसर्ग में थे, जब उन्हें वह आदमी न बना सके तो जीवन-पर्यन्त की साहित्य-सेवा से किसका कल्याण हुआ- और जब यह मुकदमा दायर होगा उस वक्त वह किसे मुंह दिखा सकेंगे- उन्होंने धन न कमाया, पर यश तो संचय किया ही क्या वह भी उनके हाथ से छिन जायगा- उनको अपने संतोष के लिए इतना भी न मिलेगा ऐसी आत्मवेदना उन्हें कभी न हुई थी।शैव्या से कहकर वह उसे भी क्यों दुखी करें- उसके कोमल हृदय को क्यों चोट पहुंचावें- वह सब कुछ खुद झेल लेंगे और दुखी होने की बात भी क्यों हो- जीवन तो अनुभूतियों का नाम है यह भी एक अनुभव होगा जरा इसकी भी सैर कर लेंयह भाव आते ही उनका मन हल्का हो गया घर में जाकर पंकजा से चाय बनाने को कहाशैव्या ने पूछा-सन्तकुमार क्या कहता था।-उन्होंने सहज मुस्कान के साथ कहा-कुछ नहीं, वही पुराना खत-तुमने तो हामी नहीं भरी न-देवकुमार स्त्रीसे एकात्मता का अनुभव करके बोले-कभी नहीं-न जाने इसके सिर यह भूत कैसे सवार हो गया-सामाजिक संस्कार हैं और क्या--इसके यह संस्कार क्यों ऐसे हो गए- साधु भी तो है, पंकज भी तो है, दुनिया में क्या धर्म ही नहीं--मगर कसरत ऐसे ही आदमियों की है, यह समझ लोउस दिन से देवकुमार ने सैर करने जाना छोड दिया दिन-रात घर में मुंह छिपाए बैठे रहते जैसे सारा कलंक उनके माथे पर लगा हो नगर और प्रांत के सभी प्रतिष्ठित, विचारवान आदमियों से उनका दोस्ताना था, सब उनकी सज्जनता का आदर करते थे मानो वह मुकदमा दायर होने पर भी शायद कुछ न कहेंगे लेकिन उनके अंतर में जैसे चोर-सा बैठा हुआ था। वह अपने अहंकार में अपने को आत्मीयों की भलाई-बुराई का जिम्मेदार समझते थे पिछले दिनों जब सूर्यग्रहण के अवसर पर साधुकुमार ने बढ़ी हुई नदी में कूदकर एक डूबते हुए आदमी की जान बचाई थी।, उस वक्त उन्हें उससे कहीं ज्यादा खुशी हुई थी। जितनी खुद सारा यश पाने से होतीब उनकी आंखों में आंसू भर आए थे, ऐसा लगा था। मानो उनका मस्तक कुछ उंचा हो गया है, मानो मुख पर तेज आ गया है वही लोग जब सन्तकुमार की चितकबरी आलोचना करेंगे तो वह कैसे सुनेंगे-इस तरह एक महीना गुजर गया और सन्तकुमार ने मुकदमा दायर न किया उधर सिविल सर्जन को गांठना था, इधर मिृ मलिक को शहादतें भी तैयार करनी थीं इन्हीं तैयारियों में सारा दिन गुजर जाता था। और रूपये का इंतजाम भी करना ही था। देवकुमार सहयोग करते तो यह सबसे बड़ी बाधा हट जाती पर उनके विरोध ने समस्या को और जटिल कर दिया था। सन्तकुमार कभी-कभी निराश हो जाता कुछ समझ में न आता क्या करे दोनों मित्र देवकुमार पर दांत पीस-पीसकर रह जातेसन्तकुमार कहता-जी चाहता है इन्हें गोली मार दूं मैं इन्हें अपना बाप नहीं, शत्रु समझता हूं।सिन्हा समझाता-मेरे दिल में तो भई, उनकी इज्जत होती है अपने स्वार्थ के लिए आदमी नीचे से नीचा काम कर बैठता है, पर त्यागियों और सत्यवादियों का आदर तो दिल में होता ही है न जाने तुम्हें उन पर कैसे गुस्सा आता है जो व्यक्ति सत्य के लिए बडे से बड़ा कष्ट सहने को तैयार हो वह पूजने के लायक है-ऐसी बातों से मेरा जी न जलाओ सिन्हा तुम चाहते तो वह हजरत अब तक पागलखाने में होते मैं न जानता था। तुम इतने भावुक हो-उन्हें पागलखाने भेजना इतना आसान नहीं जितना तुम समझते हो और इसकी कोई जरूरत भी तो नहीं हम यह साबित करना चाहते हैं कि जिस वक्त बैनामा हुआ वह अपने होश-हवास में न थे इसके लिए शहादतों की जरूरत है वह अब भी उसी दशा में हैं इसे साबित करने के लिए डाक्टर चाहिए और मि. कामत भी यह लिखने का साहस नहीं रखतेपृं देवकुमार को धमकियों से झुकाना तो असीव था। मगर तर्क के सामने उनकी गर्दन आप-ही-आप झुक जाती थी। इन दिनों वह यही सोचते रहते थे कि संसार की कुव्यवस्था क्यों हैं- कर्म और संस्कार का आश्रय लेकर वह कहीं न पहुंच पाते थे सर्वात्मवाद से भी उनकी गुत्थी न सुलझती थी। अगर सारा विश्व एकात्म है तो गिर यह भेद क्यों है- क्यों एक आदमी जिंदगी-भर बड़ी-से-बड़ी मेहनत करके भी भूखों मरता है, और दूसरा आदमी हाथ-पांव न हिलाने पर भी गूलों की सेज पर सोता है यह सर्वात्म है या घोर अनात्म- बुध्दि जवाब देती-यहां सभी स्वाधीन हैं, सभी को अपनी शक्ति और साधना के हिसाब से उन्नति करने का अवसर है मगर शंका पूछती-सबको समान अवसर कहां है- बाजार लगा हुआ है जो चाहे वहां से अपनी इच्छा की चीज खरीद सकता है मगर खरीदेगा तो वही जिसके पास पैसे हैं और जब सबके पास पैसे नहीं हैं तो सबका बराबर का अधिकार कैसे माना जाय- इस तरह का आत्ममंथन उनके जीवन में कभी न हुआ था। उनकी साहित्यिक बुध्दि ऐसी व्यवस्था से संतुष्ट तो हो ही न सकती थी।, पर उनके सामने ऐसी कोई गुत्थी न पड़ी थी। जो इस प्रश्न को वैयक्तिक अंत तक ले जाती इस वक्त उनकी दशा उस आदमी की-सी थी। जो रोज मार्ग में ईटें पडे देखता है और बचकर निकल जाता है रात को कितने लोगों को ठोकर लगती होगी, कितनों के हाथ-पैर टूटते होंगे, इसका ध्यान उसे नहीं आता मगर एक दिन जब वह खुद रात को ठोकर खाकर अपने घुटने फोड लेता है तो उसकी निवारण-शक्ति हठ करने लगती है और वह उस सारे ढेर को मार्ग से हटाने पर तैयार हो जाता है देवकुमार को वही ठोकर लगी थी। कहां है न्याय- कहां हैं- एक गरीब आदमी किसी खेत से बालें नोचकर खा लेता है, कानून उसे सजा देता है दूसरा अमीर आदमी दिन-दहाडे दूसरों को लूटता है और उसे पदवी मिलती है, सम्मान मिलता है कुछ आदमी तरह-तरह के हथियार बांधकर आते हैं और निरीह, दुर्बल मजदूरों पर आतंक जमाकर अपना गुलाम बना लेते हैं लगान और टैक्स और महसूल और कितने ही नामों से उसे लूटना शुरू करते हैं, और आप लंबा-लंबा वेतन उड़ाते हैं, शिकार खेलते हैं, नाचते हैं, रंग-रेलियां मनाते हैं यही है ईश्वर का रचा हुआ संसार- यही न्याय है-हां, देवता हमेशा रहेंगे और हमेशा रहे हैं उन्हें अब भी संसार धर्म और नीति पर चलता हुआ नजर आता है वे अपने जीवन की आहुति देकर संसार से विदा हो जाते हैं लेकिन उन्हें देवता क्यों कहो- कायर कहो, स्वार्थी कहो, आत्मसेवी कहो देवता वह है जो न्याय की रक्षा करे और उसके लिए प्राण दे देब अगर वह जानकर अनजान बनता है तो धर्म से गिरता है अगर उसकी आंखों में यह कुव्यवस्था खटकती ही नहीं तो वह अंधा भी है और मूर्ख भी, देवता किसी तरह नहीं और यहां देवता बनने की जरूरत भी नहीं देवताओं ने ही भाग्य और ईश्वर और भक्ति का मिथ्याएं गैलाकर इस अनीति को अमर बनाया है मनुष्य ने अब तक इसका अंत कर दिया होता या समाज का ही अंत कर दिया होता जो इस दशा में जिंदा रहने से कहीं अच्छा होता नहीं, मनुष्यों में मनुष्य बनना पडेगा दरिंदों के बीच में उनसे लडने के लिए हथियार बांधना पडेगा उनके पंजों का शिकार बनना देवतापन नहीं, जडता है आज जो इतने ताल्लुकेदार और राजे हैं वह अपने पूर्वजों की लूट का ही आनंद तो उठा रहे हैं और क्या उन्होंने वह जायदाद बेच कर पागलपन नहीं किया- पितरों को पिंडा देने के लिए गया जाकर पिंडा देना और यहां आकर हजारों रूपये खर्च करना क्या जरूरी था।- और रातों को मित्रों के साथ मुजरे सुनना, और नाटक-मंडली खोलकर हजारों रूपये उसमें डुबाना अनिवार्य था।- वह अवश्य पागलपन था। उन्हें क्यों अपने बाल-बच्चों की चिन्ता नहीं हुई- अगर उन्हें मुर्ति की संपत्ति मिली और उन्होंने उड़ाया तो उनके लडके क्यों न मुर्ति की संपत्ति भोगें- अगर वह जवानी की उमंगों को नहीं रोक सके तो उनके लडके क्यों तपस्या करें-और अंत में उनकी शंकाओं को इस धारणा से तस्कीन हुई कि इस अनीति भरे संसार में धर्म-अधर्म का विचार गलत है, आत्मघात है और जुआ खेलकर या दूसरों के लोभ और आसक्ति से फायदा उठाकर संपत्ति खड़ी करना उतना ही बुरा या अच्छा है जितना कानूनी दांव-पेंच से बेशक वह महाजन के बीस हजार के कर्जदार हैं नीति कहती है कि उस जायदाद को बेचकर उसके बीस हजार दे दिये जायं बाकी उन्हें मिल जाय अगर कानून कर्जदारों के साथ इतना न्याय भी नहीं करता तो कर्जदार भी कानून में जितनी खींचतान हो सके करके महाजन से अपनी जायदाद वापस लेने की चेष्टा करने में किसी अधर्म का दोषी नहीं ठहर सकता इस निष्कर्ष पर उन्होंने शास्त्र और नीति के हरेक पहलू से विचार किया और वह उनके मन में जम गया अब किसी तरह नहीं हिल सकता और यद्यपि इससे उनके चिर-संचित संस्कारों को आघात लगता था, पर वह ऐसे प्रसन्न और गूले हुए थे मानो उन्हें कोई नया जीवन मंत्र मिल गया हो ।एक दिन उन्होंने सेठ गिरधर दास के पास जाकर साग-साग कह दिया-अगर आप मेरी जायदाद वापस न करेंगे तो मेरे लडके आपके उपर दावा करेंगे।गिरधर दास नये जमाने के आदमी थे, अंग्रेजी में कुशल, कानून में चतुर, राजनीति में भाग लेने वाले, कंपनियों में हिस्से लेते थे,और बाजार अच्छा देखकर बेच देते थे, एक शक्कर का मिल खुद चलाते थे सारा कारोबर अंग्रेजी ढग से करते थे उनके पिता सेठ मक्कूलाल भी यही सब करते थे, पर पूजा-पाठ, दान-दक्षिणा से प्रायश्चित्त करते रहते थे, गिरधर दास पक्के जडवादी थे, हरेक काम व्यापार के कायदे से करते थे कर्मचारियों का वेतन पहली तारीख को देते थे, मगर बीच में किसी को जरूरत पडे तो सूद पर रूपए देते थे,मक्कूलाल जी साल साल भर वेतन न देते थे, पर कर्मचारियों को बराबर पेशगी देते रहते थे हिसाब होने पर उनको कुछ देने के बदले कुछ मिल जाता था। मक्कूलाल साल में दो-चार बार अफसरों को सलाम करने जाते थे, डालियां देते थे, जूते उतार कर कमरे में जाते थे और हाथ बांधे खडे रहते थे चलते वक्त आदमियों को दो-चार रूपए इनाम दे आते थे गिरधर दास म्युनिसिपल कमिश्नर थे, सूट-बूट पहन कर अफसरों के पास जाते थे और बराबरी का व्यवहार करते थे, और आदमियों के साथ केवल इतनी रिआयत करते थे कि त्योहारों में त्योहारी दे देते थे, वह भी खूब खुशामद करा के अपने हकों के लिए लडना और आंदोलन करना जानते थे, मगर उन्हें ठगना असंभव था।।देवकुमार का यह कथन सुनकर चकरा गये उनकी बड़ी इज्जत करते थे उनकी कई पुस्तकें पढ़ी थीं, और उनकी रचनाओं का पूरा सेट उनके पुस्तकालय में था। हिंदी भाषा के प्रेमी थे और नागरी-प्रचार सभा को कई बार अच्छी रकमें दान दे चुके थे पंडा-पुजारियों के नाम से चिढते थे, दूषित दान प्रथा। पर एक पैम्लेट भी छपवाया था। लिबरल विचारों के लिए नगर में उनकी ख्याति थी। मक्कूलाल मारे मोटापे के जगह से हिल न सकते थे, गिरधर दास गठीले आदमी थे और नगर-व्यायामशाला के प्रधान ही न थे, अच्छे शहसवार और निशानेबाज थे।एक क्षण तो वह देवकुमार के मुंह की ओर देखते रहै उनका आशय क्या है, यह समझ में ही न आयाब गिर ख्याल आया बेचारे आर्थिक संकट में होंगे, इससे बुध्दि भ्रष्ट हो गई है बेतुकी बातें कर रहे हैं देवकुमार के मुख पर विजय का गर्व देखकर उनका यह ख़याल और मजबूत हो गयासुनहरी ऐनक उतारकर मेज पर रखकर विनोद भाव से बोले-कहिए, घर में तो सब कुशल तो है-देवकुमार ने विद्रोह के भव से कहा-जी हां, सब आपकी कृपा है-बड़ा लडका तो वकालत कर रहा है न--जी हां-मगर चलती न होगी और आप की पुस्तकें भी आजकल कम बिकती होंगी यह देश का दुर्भाग्य है कि आप जैसे सरस्वती के पुत्रें का यह अनादर आप यूरोप में होते तो आज लाखों के स्वामी होते-आप जानते हैं, मैं लक्ष्मी के उपासकों में नहीं हूं-धन-संकट में तो होंगे ही मुझ से जो कुछ सेवा आप कहें, उसके लिए तैयार हूं मुझे तो गर्व है कि आप जैसे प्रतिभाशाली पुरूष से मेरा परिचय है आप की कुछ सेवा करना मेरे लिए गौरव की बात होगीदेवकुमार ऐसे अवसरों पर नम्रता के पुतले बन जाते थे भक्ति और प्रशंसा देकर कोई उनका सर्वस्व ले सकता था। एक लखपती आदमी और वह भी साहित्य का प्रेमी जब उनका इतना सम्मान करता है तो उससे जायदाद या लेन-देन की बात करना उन्हें लज्जाजनक मालूम हुआ बोले-आप की उदारता है जो मुझे इस योग्य समझते हैं्मैंने समझा नहीं आप किस जायदाद की बात कह रहे थेदेवकुमार सकुचाते हुए बोले-अजी वही, जो सेठ मक्कूलाल ने मुझसे लिखाई थी।-अच्छा तो उसके विषय में कोई नयी बात है--उसी मामले में लडके आपके उपर कोई दावा करने वाले हैं मैंने बहुत समझाया, मगर मानते नहीं आपके पास इसीलिए आया था। कि कुछ ले-देकर समझौता कर लीजिए, मामला अदालत में क्यों जाय- नाहक दोनों जेरबार होंगेगिरधर दास का जहीन, मुरौवतदार चेहरा कठोर हो गया जिन महाजनी नखों को उन्होंने भद्रता की नर्म गप्री में छिपा रखा था, वह यह खटका पाते ही पैने और उग्र होकर बाहर निकल आयेद्रोध को दबाते हुए बोले-आपको मुझे समझाने के लिए यहां आने की तकलीफ उठाने की कोई जरूरत न थी। उन लडकों ही को समझाना चाहिए था।-उन्हें तो मैं समझा चुका।-तो जाकर शांत बैठिए मैं अपने हकों के लिए लडना जानता हूं अगर उन लोगों के दिमाग में कानून की गर्मी का असर हो गया है तो उसकी दवा मेरे पास हैअब देवकुमार की साहित्यिक नम्रता भी अविचलित न रह सकीब जैसे लड़ाई का पैगाम स्वीकार करते हुए बोले-मगर आपको मालूम होना चाहिए वह मिल्कियत आज दो लाख से कम की नहीं है-दो लाख नहीं, दस लाख की हो, आपसे सरोकार नहीं-आपने मुझे बीस हजार ही तो दिये थे-आपको इतना कानून तो मालूम ही होगा, हालांकि कभी आप अदालत में नहीं गए, कि जो चीज बिक जाती है वह कानूनन किसी दाम पर भी वापस नहीं की जाती अगर इस नये कायदे को मान लिया जाय तो इस शहर में महाजन न नजर आयेंकुछ देर तक सवाल-जवाब होता रहा और लडने वाले कुत्तों की तरह दोनों भले आदमी गुर्राते, दांत निकालते, खौंखियाते रहै आखिर दोनों लड ही गएगिरधर दास ने प्रचंड होकर कहा-मुझे आपसे ऐसी आशा नहीं थी।देवकुमार ने भी छड़ी उठाकर कहा-मुझे भी न मालूम था। कि आपके स्वार्थ का पेट इतना गहरा है-आप अपना सर्वनाश करने जा रहे हैं-कुछ परवाह नहींदेवकुमार वहां से चले तो माघ की उस अंधेरी रात की निर्दय ठंड में भी उन्हें पसीना हो रहा था। विजय का ऐसा गर्व अपने जीवन में उन्हें कभी न हुआ था। उन्होंने तर्क में तो बहुतों पर विजय पाई थी। यह विजय थी। जीवन में एक नई प्रेरणा, एक नई शक्ति का उदयउसी रात को सिन्हा और सन्तकुमार ने एक बार गिर देवकुमार पर जोर डालने का निश्चय किया दोनों आकर खडे ही थे कि देवकुमार ने प्रोत्साहन भरे हुए भाव से कहा-तुम लोगों ने अभी तक मुआमला दायर नहीं किया नाहक क्यों देर कर रहे हो-सन्तकुमार के सूखे हुए निराश मन में उल्लास की आंधी-सी आ गई क्या सचमुच कहीं ईश्वर है जिस पर उसे कभी विश्वास नहीं हुआ- जरूर कोई दैवी शक्ति है भीख मांगने आए थे, वरदान मिल गयाबोला-आप ही की अनुमति का इंतजार था।-मैं बड़ी खुशी से अनुमति देता हूं मेरे आशीर्वाद तुम्हारे साथ हैंउन्होंने गिरधर दास से जो बातें हुई वह कह सुनाईसिन्हा ने नाक गुलाकर कहा-जब आपकी दुआ है तो हमारी -तह है उन्हें अपने धन का घमंड होगा, मगर यहां भी कच्ची गोलियां नहीं खेली हैंसन्तकुमार ऐसा खुश था। गोया आधी मंजिल तय हो गई बोला-आपने खूब उचित जवाब दियासिन्हा ने तनी हुई ढोल की-सी आवाज में चोट मारी-ऐसे-ऐसे सेठों को डफलियों पर नचाते हैं यहांसन्तकुमार स्वप्न देखने लगे-यहीं हम दोनो के बंगले बनेंगे दोस्त-यहां क्यों, सिविल लाइन्स में बनवायेंगे-अंदाज से कितने दिन में गैसला हो जायगा--छ: महीने के अंदर-बाबू जी के नाम से सरस्वती मंदिर बनवायेंगेमगर समस्या थी।, रूपये कहां से आवें देवकुमार निस्पृह आदमी थे धन की कभी उपासना नहीं की कभी इतना ज्यादा मिला ही नहीं कि संचय करतेब किसी महीने में पचास जमा होते तो दूसरे महीने में खर्च हो जाते अपनी सारी पुस्तकों का कॉपीराइट बेचकर उन्हें पांच हजार मिले थे वह उन्होंने पंकजा के विवाह के लिए रख दिए थे अब ऐसी कोई सूरत नहीं थी। जहां से कोई बड़ी रकम मिलती उन्होंने समझा था। सन्तकुमार घर का खर्च उठा लेगा और वह कुछ दिन आराम से बैठेंगे या घूमेंगे लेकिन इतना बड़ा मंसूबा बांधकर वह अब शांत कैसे बैठ सकते हैं- उनके भक्तों की कागी तादाद थी। दो-चार राजे भी उनके भक्तों में थे जिनकी यह पुरानी लालसा थी। कि देवकुमार जी उनके घर को अपने चरणों से पवित्र करें और वह अपनी श्रध्दा उनके चरणों में अर्पण करेंब मगर देवकुमार थे कि कभी किसी दरबार में कदम नहीं रक्खा, अब अपने प्रेमियों और भक्तों से आर्थिक संकट का रोना रो रहे थे और खुले शब्दों में सहायता की याचना कर रहे थे वह आत्मगौरव जैसे किसी कब्र में सो गया होऔर शीघ्र ही इसका परिणाम निकला एक भक्त ने प्रस्ताव किया कि देवकुमार जी की साठवीं सालगिरह धूमधाम से मनाई जाय और उन्हें साहित्य-प्रेमियों की ओर से एक थैली भेंट की जाय क्या यह लज्जा और दुख की बात नहीं है कि जिस महारथी। ने अपने जीवन के चालीस वर्ष साहित्य-सेवा पर अर्पण कर दिए, वह इस वृध्दावस्था में भी आर्थिक-चिंताओं से मुक्त न हो- साहित्य यों नहीं फल-फूल सकता जब तक हम अपने साहित्य-सेवियों का ठोस सत्कार करना न सीखेंगे, साहित्य कभी उन्नति न करेगा( और दूसरे समाचारपत्रों ने मुक्त कंठ से इसका समर्थन किया अचरज की बात यह थी। कि वह महानुभाव भी जिनका देवकुमार से पुराना साहित्यिक वैमनस्य था, वे भी इस अवसर पर उदारता का परिचय देने लगे बात चल पड़ी एक कमेटी बन गई एक राजा साहब उसके प्रधान बन गये मि.सिन्हा ने कभी देवकुमार की कोई पुस्तक न पढ़ी थी।, पर वह इस आंदोलन में प्रमुख भाग लेते थे मिस कामत और मिस मलिक की ओर से भी समर्थन हो गया महिलाओं को पुरूषों से पीछे न रहना चाहिए जेठ में तिथि निश्चित हुई नगर के इंटरमीडिएट कॉलेज में इस उत्सव की तैयारियां होने लगीं ।आखिर वह तिथि आ गयी आज शाम को वह उत्सव होगा दूर-दूर से साहित्य-प्रेमी आए हैं सोरांव के कुंअर साहब वह थैली भेंट करेंगे आशा से ज्यादा सज्जन जमा हो गए हैं व्याख्यान होंगे, गाना होगा, ड'ामा खेला जायगा, प्रीति-भोज होगा, कवि-सम्मेलन होगा शहर में दीवारों पर पोस्टर लगे हुए हैं सभ्य-समाज में अच्छी हलचल है राजा साहब सभापति हैंदेवकुमार को तमाशा बनने से नफरत थी। पब्लिक जलसों में भी कम आते-जाते थे लेकिन आज तो बरात का दूल्हा बनना ही पडा ज्यों-ज्यों सभा में जाने का समय समीप आता था। उनके मन पर एक तरह का अवसाद छाया जाता था। जिस वक्त थैली उनको की जायगी और वह हाथ बढ़ाकर लेंगे वह दृश्य कैसा लज्जाजनक होगा जिसने कभी धन के लिए हाथ नहीं गैलाया वह इस आखिरी वक्त में दूसरों का दान ले- यह दान ही है, और कुछ नहीं एक क्षण के लिए उनका आत्मसम्मान विद्रोही बन गया इस अवसर पर उनके लिए शोभा यही देता है कि वह थैली पाते ही उसी जगह किसी सार्वजनिक संस्था को दे दें उनके जीवन के आदर्श के लिए यही अनुकूल होगा,लोग उनसे यही आशा रखते हैं, इसी में उनका गौरव है वह पंडाल में पहुंचे तो उनके मुख पर उल्लास की झलक न थी। वह कुछ खिसियाय से लगते थे नेकनामी की लालसा एक ओर खींचती थी।, लोभ दूसरी ओर मन को कैसे समझाएं कि यह दान दान नहीं, उनका हक है लोग हंसेंगे, आखिर पैसे पर टूट पडा उना जीवन बौध्दिक था, और बुध्दि जो कुछ करती है नीति पर कसकर करती है नीति का सहारा मिल जाए तो गिर वह दुनिया की परवाह नहीं करती वह पहुंचे तो स्वागत हुआ, मंगल-गान हुआ, व्याख्यान होने लगे जिनमें उनकी कीर्ति गाई गई मगर उनकी दशा उस आदमी की-सी हो रही थी। जिसके सिर में दर्द हो रहा हो उन्हें इस वक्त इस दर्द की दवा चाहिए कुछ अच्छा नहीं लग रहा है सभी विद्वान् हैं, मगर उनकी आलोचना कितनी उथली, उपरी है जैसे कोई उनके संदेशों को समझा ही नहीं, जैसे यह सारी वाह-वाह और सारा यशगान अंध-भक्ति के सिवा और कुछ न था। कोई भी उन्हें नहीं समझा-किस प्रेरणा ने चालीस साल तक उन्हें संभाले रक्खा, वह कौन-सा प्रकाश था। जिसकी ज्योति कभी मंद नहीं हुई।सहसा उन्हें एक आश्रय मिल गया और उनके विचारशील, पीले मुख पर हल्की सी सुर्खी दौड गई यह दान नहीं प्राविडेंट गंड है जो आज तक उनकी आमदनी से कटता जा रहा है, क्या वह दान है- उन्होंने जनता की सेवा की है, तन-मन से की है, इस धुन से की है, जो बडे-से-बडे वेतन से भी न आ सकती थी। पेंशन लेने में क्या लाज आये?राजा साहब ने जब थैली भेंट की तो देवकुमार के मुंह पर गर्व था, हर्ष था, विजय थी।

मंगलसूत्र

सिन्हा उन आदमियों में हैं जिनका आदर इसलिए होता है कि लोग उनसे डरते हैं उन्हें देखकर सभी आदमी आइए, आइए करते हैं,लेकिन उनके पीठ गेरते ही कहते हैं-बड़ा ही मूजी आदमी है, इसके काटे का मंत्र नहीं उनका पेशा है मुकदमे बनाना जैसे कवि एक कल्पना पर पूरा काव्य लिख डालता है, उसी तरह सिन्हा साहब भी कल्पना पर मुकदमों की सृष्टि कर डालते हैं न जाने वह कवि क्यों नहीं हुए- मगर कवि होकर वह साहित्य की चाहे जितनी वृध्दि कर सकते, अपना कुछ उपकार न कर सकतेब कानून की उपासना करके उन्हें सभी सिध्दियां मिल गई थीं शानदार बंगले में रहते थे, बडे बडे रईसों और हुक्काम से दोस्ताना था, प्रतिष्ठा भी थी। रोब भी था। कलम में ऐसा जादू था। कि मुकदमे में जान डाल देते। ऐसे-ऐसे प्रसंग सोच निकालते, ऐसे-ऐसे चरित्रों की रचना करते कि कल्पना सजीव हो जाती थी। बडे-बडे घाघ जज भी उसकी तह तक न पहुंच सकते सब कुछ इतना स्वाभाविक, इतना संबध्द होता था। कि उस पर मिथ्या का भ्रम तक न हो सकता था। वह सन्तकुमार के साथ के पढै हुए थे दोनों में गहरी दोस्ती थी। सन्तकुमार के मन में एक भावना उठी और सिन्हा ने उसमे रंगरूप भर कर जीता-जागता पुतला खड़ा कर दिया और आज मुकदमा दायर करने का निश्चय किया जा रहा है
नौ बजे होंगे वकील और मुवक्किल कचहरी जाने की तैयारी कर रहे हैं सिन्हा अपने सजे कमरे में मेज पर टांग फैलाए लेटे हुए हैं गोरे-चिक्रे आदमी, उंचा कद, एकहरा बदन, बडे-बडे बाल पीछे को कंघी से ऐंचे हुए, मूंछें साग, आंखों पर ऐनक, ओठों पर सिगार, चेहरे पर प्रतिभा का प्रकाश, आंखों में अभिमान, ऐसा जान पडता है कोई बड़ा रईस है सन्तकुमार नीची अचकन पहने, गेल्ट कैप लगाए कुछ चिंतित से बैठे हैं
सिन्हा ने आश्वासन दिया-तुम नाहक डरते हो मैं कहता हूं हमारी -तेह है ऐसी सैकड़ो नजीरें मौजूद हैं जिसमें बेटों-पोतों ने बैनामे मंसूख कराये हैं पक्की शहादत चाहिए और उसे जमा करना बाएं हाथ का खेल है
सन्तकुमार ने दुविधा में पडकर कहा-लेकिन गादर को भी तो राजी करना होगा उनकी इच्छा के बिना तो कुछ न हो सकेगा
-उन्हें सीधा करना तुम्हारा काम है
-लेकिन उनका सीधा होना मुश्किल है
-तो उन्हें भी गोली मारोब हम साबित करेंगे कि उनके दिमाग मे खलल है
-यह साबित करना आसान नहीं है जिसने बड़ी-बड़ी किताों लिख डालीं, जो सभ्य समाज का नेता समझा जाता है, जिसकी अक्लमंदी को सारा शहर मानता है, उसे दीवाना कैसे साबित करोगे-
सिन्हा ने विश्वासपूर्ण भाव से कहा-यह सब मैं देख लूंगा किताा लिखना और बात है, होश-हवास का ठीक रहना और बातब मैं तो कहता हूं, जितने लेखक हैं, सभी सनकी हैं-पूरे पागल, जो महज वाह-वाह के लिए यह पेशा मोल लेते हैं अगर यह लोग अपने होश मे हों तो किताों न लिखकर दलाली करें, यह खोंचे लगायें यहां कुछ तो मेहनत का मुआवजा मिलेगा पुस्तकें लिखकर तो बदहजमी, तपेदिक ही हाथ लगता है रूपये का जुगाड तुम करते जाओ, बाकी सारा काम मुझ पर छोड दो और हां आज शाम को क्लब में जरूर आना अभी से कैम्पेन (मुहासरा) शुरू देना चाहिए तिब्बी पर डोरे डालना शुरू करो यह समझ लो, वह सब-जज साहब की अकेली लडकी है और उस पर अपना रंग जमा दो तो तुम्हारी गोटी लाल है सब-जज साहब तिब्बी की बात कभी नहीं टाल सकते मैं यह मरहला करने में तुमसे ज्यादा कुशल हूं मगर मैं एक खून के मुआमले में पैरवी कर रहा हूं और सिविल सर्जन मिस्टर कामत की वह पीले मुंह वाली छोकरी आजकल मेरी प्रेमिका है सिविल सर्जन मेरी इतनी आवभगत करते हैं कि कुछ न पूछो उस चुडैल से शादी करने पर आज तक कोई राजी न हुआ इतने मोटे ओंठ हैं और सीना तो जैसे झुका हुआ सायबान हो गिर भी आपको दावा है कि मुझसे ज्यादा रूपवती संसार में न होगी औरतों को अपने रूप का घमंड कैसे हो जाता है, यह मैं आज तक न समझ सका जो रूपवान् हैं वह घमंड करें तो वाजिब है, लेकिन जिसकी सूरत देखकर कै आए, वह कैसे अपने को अप्सरा समझ लेती है उसके पीछे-पीछे घूमते और आशिकी करते जी तो जलता है,मगर गहरी रकम हाथ लगने वाली है, कुछ तपस्या तो करनी ही पडेगी तिब्बी तो सचमुच अप्सरा है और चंचल भी जरा मुश्किल से काबू में आयेगी अपनी सारी कला खर्च करनी पडेगी
-यह कला मैं खूब सीख चुका हूं
-तो आज शाम को आना क्लब में
-जरूर आउंगा
-रूपये का प्रबंध भी करना
-वह तो करना ही पडेगा
इस तरह सन्तकुमार और सिन्हा दोनों ने मुहासिरा डालना शुरू किया सन्तकुमार न लंपट था, न रसिक, मगर अभिनय करना जानता था। रूपवान भी था, जबान का मीठा भी, दोहरा शरीर, हंसमुख और जहीन चेहरा, गोरा चिक्राब जब सूट पहनकर छड़ी घुमाता हुआ निकलता तो आंखों में खूब जाता था। टेनिस, ब्रिज आदि फैशनेबल खेलों में निपुण था। ही, तिब्बी से राह-रस्म पैदा करने में उसे देर न लगी तिब्बी यूनिवर्सिटी के पहले साल में थी।, बहुत ही तेज, बहुत ही मगरूर, बड़ी हाजिरजवाबब उसे स्वाध्याय का शौक न था, बहुत थोड़ा पढती थी।, मगर संसार की गति से वाकिफ थी।, और अपनी उपरी जानकारी को विद्वत्ता का रूप देना जानती थी। कोई विषय उठाइए, चाहे वह घोर विज्ञान ही क्यों न हो, उस पर भी वह कुछ-न-कुछ आलोचना कर सकती थी।, कोई मौलिक बात कहने का उसे शौक था। और प्रांजल भाषा मेब मिजाज में नगासत इतनी थी। कि सलीके या तमीज की जरा भी कमी उसे असफ्य थी। उसके यहां कोई नौकर या नौकरानी न ठहरने पाती थी। दूसरों पर कड़ी आलोचना करने में उसे आनंद आता था, और उसकी निगाह इतनी तेज थी। कि किसी स्त्रीया पुरूष में जरा भी कुरूचि या भोंडापन देखकर वह भौंओं से या ओंठों से अपना मनोभाव प्रकट कर देती थी। महिलाओं के समाज में उसकी निगाह उनके वस्त्राभूषण पर रहती थी। और पुरूष-समाज में उनकी मनोवृत्ति की ओर उसे अपने अद्वितीय रूप-लावण्य का ज्ञान था। और वह अच्छे-से पहनावे से उसे और भी चमकाती थी। जेवरों से उसे विशेष रूचि न थी।, यद्यपि अपने सिंगारदान में उन्हें चमकते देखकर उसे हर्ष होता था। दिन में कितनी ही बार वह नये-नये रूप धरती थी। कभी बैतालियों का भेष धारण कर लेती थी।, कभी गुजरियों का, कभी स्कर्ट और मोजे पहन लेती थी। मगर उसके मन में पुरूषों को आकर्षित करने का जरा भी भाव न था। वह स्वयं अपने रूप में मग्न थी।
मगर इसके साथ ही वह सरल न थी। और युवकों के मुख से अनुराग-भरी बातें सुनकर वह वैसी ही ठंडी ही रहती थी। इस व्यापार में साधारण रूप-प्रशंसा के सिवा उसके लिए और कोई महभव न था। और युवक किसी तरह प्रोत्साहन न पाकर निराश हो जाते थे मगर सन्तकुमार की रसिकता में उसे अंतज्र्ञान से कुछ रहस्य, कुछ कुशलता का आभास मिला अन्य युवकों में उसने जो असंयम, जो उग्रता,जो विहृलता देखी थी। उसका यहां नाम भी न था। सन्तकुमार के प्रत्येक व्यवहार में संयम था, विधान था, सचेतना थी। इसलिए वह उनसे सतर्क रहती थी। और उनके मनोरहस्यों को पढने की चेष्टा करती थी। सन्तकुमार का संयम और विचारशीलता ही उसे अपनी जटिलता के कारण्ा अपनी ओर खींचती थी। सन्तकुमार ने उसके सामने अपने को अनमेल विवाह के एक शिकार के रूप में पेश किया था। और उसे उनसे कुछ हमदर्दी हो गई थी। पुष्पा के रंग-रूप की उन्होंने इतनी प्रशंसा की थी। जितनी उनको अपने मतलब के लिए जरूरी मालूम हुई, मगर जिसका तिब्बी से कोई मुकाबला न था। उसने केवल पुष्पा के गूहडपन, बेवकूफी, असहृदयता और निष्ठुरता की शिकायत की थी।, और तिब्बी पर इतना प्रभाव जमा लिया था। कि वह पुष्पा को देख पाती तो सन्तकुमार का पक्ष लेकर उससे लडती

*एक दिन उसने सन्तकुमार से कहा-तुम उसे छोड क्यों नहीं देते-

सन्तकुमार ने हसरत के साथ कहा-छोड कैसे दूं मिस त्रिवेणी, समाज में रहकर समाज के कानून तो मानने ही पडेगे फिर पुष्पा का इसमें क्या कसूर है उसने तो अपने आपको नहीं बनाया ईश्वर ने या संस्कारों ने या परिस्थितियों ने जैसा बनाया वैसी बन गई ।
-मुझे ऐसे आदमियों से जरा भी सहानुभूति नहीं जो ढोल को इसलिए पीटें कि वह गले पड गई है मैं चाहती हूं वह ढोल को गले से निकालकर किसी खंदक में फेंक दें मेरा बस चले तो मैं खुद उसे निकाल कर फेंक दूं
सन्तकुमार ने अपना जादू चलते हुए देखकर मन में प्रसन्न होकर कहा-लेकिन उसकी क्या हालत होगी, यह तो सोचो।
तिब्बी अधीर होकर बोली-तुम्हें यह सोचने की जरूरत ही क्या है- अपने घर चली जायगी, या कोई काम करने लगेगी या अपने स्वभाव के किसी आदमी से विवाह कर लेगी।
सन्तकुमार ने कहकहा मारा-तिब्बी यथा।र्थ और कल्पना में भेद भी नहीं समझती, कितनी भोली है
फीर उदारता के भाव से बोले-यह बड़ा टेढ़ा सवाल है कुमारी जी ृ समाज की नीति कहती है कि चाहे पुष्पा को देखकर रोज मेरा खून ही क्यों न जलता रहे और एक दिन मैं इसी शोक में अपना गला क्यों न काट लूं, लेकिन उसे कुछ नहीं हो सकता, छोडना तो असीव है केवल एक ही ऐसा आक्षेप है जिस पर मैं उसे छोड सकता हूं, यानी उसकी बेवफाई लेकिन पुष्पा में और चाहे जितने दोष हों यह दोष नहीं है
संध्या हो गई थी। तिब्बी ने नौकर को बुलाकर बाग में गोल चबूतरे पर कुर्सियां रखने को कहा और बाहर निकल आई नौकर ने कुर्सियां निकालकर रख दीं, और मानो यह काम समाप्त करके जाने को हुआ
तिब्बी ने डांटकर कहा-कुर्सियां साग क्यों नहीं कीं- देखता नहीं उन पर कितनी गर्द पड़ी हुई है- मैं तुझसे कितनी बार कह चुकी,मगर तुझे याद ही नहीं रहती बिना जुर्माना किए तुझे याद न आयेगी
नौकर ने कुर्सियां पोंछ-पोंछ कर साग कर दीं और फिर जाने को हुआ
तिब्बी ने गिर डांटा-तू बार-बार भागता क्यों है मेजें रख दीं- टी-टेबल क्यों नहीं लाया- चाय क्या तेरे सिर पर पिएंगे-
उसने बूढे नौकर के दोनो कान गर्मा दिये और धक्का देकर बोली-बिल्कुल गादी है, निरा पोंगा, जैसे दिमाग में गोबर भरा हुआ है
बूढ़ा नौकर बहुत दिनों का था। स्वामिनी उसे बहुत मानती थीं उनके देहांत होने के बाद गोकि उसे कोई विशेष प्रलोभन न था, क्योंकि इससे एक-दो रूपया ज्यादा वेतन पर उसे नौकरी मिल सकती थी। पर स्वामिनी के प्रति उसे जो श्रध्दा थी। वह उसे इस घर से बांधे हुए थी। और यहां अनादर और अपमान सब कुछ सहकर भी वह चिपटा हुआ था। सब-जज साहब भी उसे डांटते रहते थे पर उनके डांटने का उसे दुख न होता था। वह उम्र में उसके जोड के थे लेकिन त्रिवेणी को तो उसने गोद खेलाया था। अब वही तिब्बी उसे डांटती थी।, और मारती भी थी। इससे उसके शरीर को जितनी चोट लगती थी। उससे कहीं ज्यादा उसके आत्माभिमान को लगती थी। उसने केवल दो घरों में नौकरी की थी। दोनो ही घरों में लडकियां भी थीं बहुए भी थीं सब उसका आदर करती थीं बहुएं तो उससे लजाती थीं अगर उससे कोई बात बिगड भी जाती तो मन में रख लेती थीं उसकी स्वामिनी तो आदर्श महिला थी। उसे कभी कुछ न कहाब बाबू जी कभी कुछ कहते तो उसका पक्ष लेकर उनसे लडती थी। और यह लडकी बडे-छोटे का जरा भी लिहाज नहीं करती लोग कहते हैं पढने से अक्ल आती है यही है वह अक्ल उसके मन में विद्रोह का भाव उठा-क्यों यह अपमान सहे- जो लडकी उसकी अपनी लडकी से भी छोटी हो, उसके हाथों क्यों अपनी मूंछें नुचवाये- अवस्था में भी अभिमान होता है जो संचित धन के अभिमान से कम नहीं होता वह सम्मान और प्रतिष्ठा को अपना अधिकार समझता है, और उसकी जगह अपमान पाकर मर्माहत हो जाता है
घूरे ने टी-टेबल लाकर रख दी, पर आंखों में विद्रोह भरे हुए था।
तिब्बी ने कहा-जाकर बैरा से कह दो, दो प्याले चाय दे जाय
घूरे चला गया और बैरा को यह हुक्म सुनाकर अपनी एकांत कुटी में जाकर खूब रोयाब आज स्वामिनी होती तो उसका अनादर क्यों होता
बैरा ने चाय मेज पर रख दी तिब्बी ने प्याली सन्तकुमार को दी और विनोद भाव से बोली-तो अब मालूम हुआ कि औरतें ही पतिव्रता नहीं होतीं, मर्द भी पत्नीव्रत वाले होते हैं
सन्तकुमार ने एक घूंट पीकर कहा-कम-से-कम इसका स्वांग तो करते ही हैं
-मैं इसे नैतिक दुर्बलता कहती हूं जिस प्यारा कहो, दिल से प्यारा कहो, नहीं प्रकट हो जाय मैं विवाह को प्रेमबंधन के रूप में देख सकती हूं, धर्मबंधन या रिवाज बंधन तो मेरे लिए असह्य हो जाय
-उस पर भी तो पुरूषों पर आक्षेप किये जाते हैं
तिब्बी चौंकी यह जातिगत प्रश्न हुआ जा रहा है
अब उसे अपनी जाति का पक्ष लेना पडेगा-तो क्या आप मुझसे यह मनवाना चाहते हैं कि सभी पुरूष देवता होते हैं- आप भी जो वगादारी कर रहे हैं वह दिल से नहीं, केवल लोकनिंदा के भय से मैं इसे वगादारी नहीं कहती बिच्छू के डक तोडकर आप उसे बिल्कुल निरीह बना सकते हैं, लेकिन इससे बिच्छुओं का जहरीलापन तो नहीं जाता
सन्तकुमार ने अपनी हार मानते हुए कहा-अगर मैं भी यही कहूं कि अधिकतर नारियों का पातिव्रत भी लोकनिंदा का भय है तो आप क्या कहेंगी-
तिब्बी ने प्याला मेज पर रखते हुए कहा-मैं इसे कभी न स्वीकार करूंगी
-क्यों-
-इसलिए कि मर्दो ने स्त्रियों के लिए और कोई आश्रय छोड़ा ही नहीं पतिव्रत उनके अंदर इतना कूट-कूट कर भरा गया है कि अब अपना व्यक्तित्व रहा ही नहीं वह केवल पुरूष के आधार पर जी सकती है उसका स्वतंत्र कोई अस्तित्व ही नहीं बिन ब्याहा पुरूष चैन से खाता है, विहार करता है और मूंछों पर ताव देता है बिन ब्याही स्त्रीरोती है, कलपती है और अपने को संसार का सबसे अभागा प्राणी समझती है यह सारा मदोऊ का अपराध है आप भी पुष्पा को नहीं छोड रहे हैं इसीलिए न कि आप पुरूष हैं जो कैदी को आजाद नहीं करना चाहता
सन्तकुमार ने कातर स्वर में कहा-आप मेरे साथ बेइंसाफी करती हैं मैं पुष्पा को इसलिए नहीं छोड रहा हूं कि मैं उसका जीवन नष्ट नहीं करना चाहता अगर मैं आज उसे छोड दूं तो शायद औरों के साथ आप भी मेरा तिरस्कार करेंगी
तिब्बी मुस्कराई-मेरी तरफ से आप निश्ंचित रहिए मगर एक ही क्षण के बाद उसने ग़ीाीर होकर कहा-लेकिन मैं आपकी कठिनाइयों का अनुमान कर सकती हूं
-मुझे आपके मुंह से ये शब्द सुनकर कितना संतोष हुआ मैं वास्तव में आपकी दया का पात्र हूं और शायद कभी मुझे इसकी जरूरत पडे
आपके उपर मुझे सचमुच दया आती है क्यों न एक दिन उनसे किसी तरह मेरी मुलाकात करा दीजिए शायद मैं उन्हे रास्ते पर ला सकूं
सन्तकुमार ने ऐसा लंबा मुंह बनाया जैसे इस प्रस्ताव से उनके मर्म पर चोट लगी है
-उनका रास्ते पर आना असीव है मिस त्रिवेणी वह उलटे आप ही के उपर आक्षेप करेगी और आपके विषय में न जाने कैसी दुष्कल्पनाएं कर बैठेगी और मेरा तो घर में रहना मुश्किल हो जायेगा
तिब्बी का साहसिक मन गर्म हो उठा-तब तो मैं उससे जरूर मिलूंगी
-तो शायद आप यहां भी मेरे लिए दरवाजा बंद कर देंगी
-ऐसा क्यों-
-बहुत मुमकिन है वह आपकी साहनुभूति पा जाय और आप उसकी हिमायत करने लगें
-तो क्या आप चाहते हैं मैं आपको एकतर्फा डिग्री दे दूं-
-मैं केवल आपकी दया और हमदर्दी चाहता हूं आपसे अपनी मनोव्यथा। कहकर दिल का बोझ हल्का करना चाहता हूं उसे मालूम हो जाय कि मैं आपके यहां आता-जाता हूं तो एक नया किस्सा खड़ा कर दे।
तिब्बी ने सीधे व्यंग्य किया-तो आप उससे इतना डरते क्यों हैं- डरना तो मुझे चाहिए
सन्तकुमार ने और गहरे में जाकर कहा-मै आपके लिए ही डरता हूं, अपने लिए नहीं
तिब्बी निर्भयता से बोली-जी नहीं, आप मेरे लिए न डरिए
-मेरे जीते जी, मेरे पीछे, आप पर कोई शुबहा हो यह मैं नहीं देख सकता
-आपको मालूम है मुझे भावुकता पसंद नहीं-
-यह भावुकता नहीं, मन के सच्चे भाव हैं
-मैंने सच्चे भाववाले युवक बहुत कम देखे
-दुनिया में सभी तरह के लोग होते हैं
-अधिकतर शिकारी किस्म केब स्त्रियों में तो वेश्याएं ही शिकारी होती हैं पुरूषों में तो सिरे से सभी शिकारी होते हैं
-जी नहीं, उनमें अपवाद भी बहुत हैं
-स्त्रीरूप नहीं देखती पुरूष जब गिरेगा रूप पर इसीलिए उस पर भरोसा नहीं किया जा सकता मेरे यहां कितने ही रूप के उपासक आते हैं शायद इस वक्त भी कोई साहब आ रहे हों मैं रूपवती हूं, इसमें नम्रता का कोई प्रश्न नहीं मगर मैं नहीं चाहती कोई मुझे केवल रूप के लिए चाहे
सन्तकुमार ने धडकते हुए मन से कहा-आप उनमें मेरा तो शुमार नहीं करतीं-
तिब्बी ने तत्परता के साथ कहा-आपको तो मैं अपने चाहने वालों में समझती ही नहीं
सन्तकुमार ने माथा। झुकाकर कहा-यह मेरा दुर्भाग्य है
-आप दिल से नहीं कह रहे हैं, मुझे कुछ ऐसा लगता है कि आपका मन नहीं पाती आप उन आदमियों में हैं जो हमेशा रहस्य रहते हैं
-यही तो मैं आपके विषय में सोचा करता हूं
-मैं रहस्य नहीं हूं मैं तो साग कहती हूं मैं ऐसे मनुष्य की खोज में हूं, जो मेरे हृदय में सोये हुए पे्रेम को जगा दे हां, वह बहुत नीचे गहराई में है, और उसी को मिलेगा जो गहरे पानी में डूबना जानता हो आपमें मैंने कभी उसके लिए बैचेनी नहीं पाई मैंने अब तक जीवन का रोशन पहलू ही देखा है और उससे उब गई हूं अब जीवन का अंधेरा पहलू देखना चाहती हूं जहां त्याग है, रूदन है, उत्सर्ग है सीव है उस जीवन से मुझे बहुत जल्द घृणा हो जाय, लेकिन मेरी आत्मा यह नहीं स्वीकार करना चाहती कि वह किसी उफंचे ओहदे की गुलामी या कानूनी धोखेधड़ी या व्यापार के नाम से की जाने वाली लूट को अपने जीवन का आधार बनाए श्रम और त्याग का जीवन ही मुझे तथ्य जान पडता है आज जो समाज और देश की दूषित अवस्था है उससे असहयोग करना मेरे लिए जुनून से कम नहीं है मैं कभी-कभी अपने ही से घृणा करने लगती हूं बाबू जी को एक हजार रूपये अपने छोटे-से परिवार के लिए लेने का क्या हक है और मुझे बे-काम-धंधे इतने आराम से रहने का क्या अधिकार है- मगर यह सब समझकर भी मुझमें कर्म करने की शक्ति नहीं है इस भोग-विलास के जीवन ने मुझे भी कर्महीन बना डाला है और मेरे मिजाज में अमीरी कितनी है यह भी आपने देखा होगा मेरे मुंह से बात निकलते ही अगर पूरी न हो जाय तो मैं बावली हो जाती हूं बुध्दि का मन पर कोई नियंत्रण नहीं है जैसे शराबी बार-बार हराम करने पर शराब नहीं छोड सकता वही दशा मेरी है उसी की भांति मेरी इच्छाशक्ति बेजान हो गई है।
तिब्बी के प्रतिभावान मुख-मंडल पर प्राय: चंचलता झलकती रहती थी। उससे दिल की बात कहते संकोच होता, क्योंकि शंका होती थी। कि वह सहानुभूति के साथ सुनने के बदले फबतिया कसने लगेगी पर इस वक्त ऐसा जान पड़ा उसकी आत्मा बोल रही है उसकी आंखें आर्द्र हो गई थीं मुख पर एक निश्ंचित नम्रता और कोमलता खिल उठी थी। सन्तकुमार ने देखा उनका संयम फिसलता जा रहा है जैसे किसी सायल ने बहुत देर के बाद दाता को मनगुर देख पाया हो और अपना मतलब कह सुनाने के लिए अधीर हो गया हो।
बोला-कितनी ही बार बिल्कुल यही मेरे विचार हैं मैं आपसे उससे बहुत निकट हूं, जितना समझता था।।
तिब्बी प्रसन्न होकर बोली-आपने मुझे कभी बताया नहीं
-आप भी तो आज ही खुली हैं
-मैं डरती हूं कि लोग यही कहेंगे आप इतनी शान से रहती हैं, और बातें ऐसी करती हैं अगर कोई ऐसी तरकीब होती जिससे मेरी यह अमीराना आदतें छूट जातीं तो मैं उसे जरूर काम में लाती इस विषय की आपके पास कुछ पुस्तकें हों तो मुझे दीजिए मुझे आप अपनी शिष्या बना लीजिए
सन्तकुमार ने रसिक भाव से कहा-मैं तो आपका शिष्य होने जा रहा था। और उसकी ओर मर्मभरी आंखों से देखा
तिब्बी ने आंखें नीची नहीं कीं उनका हाथ पकडकर बोली-आप तो दिल्लगी करते हैं मुझे ऐसा बना दीजिए कि मैं संकटों का सामना कर सकूं मुझे बार-बार खटकता है अगर मैं स्त्री न होती तो मेरा मन इतना दुर्बल न होता
और जैसे वह आज सन्तकुमार से कुछ भी छिपाना, कुछ भी बचाना नहीं चाहती मानो वह जो आश्रय बहुत दिनों से ढूंढ रही थी। वह यकायक मिल गया है
सन्तकुमार ने रूखाई भरे स्वर में कहा-स्त्रियां पुरूषों से ज्यादा दिलेर होती हैं मिस त्रिवेणी
-अच्छा आपका मन नहीं चाहता कि बस हो तो संसार की सारी व्यवस्था बदल डालें-
इस विशुध्द मन से निकले हुए प्रश्न का बनावटी जवाब देते हुए सन्तकुमार का हृदय कांप उठा।
-कुछ न पूछो बस आदमी एक आह खींचकर रह जाता है
-मैं तो अक्सर रातों को यह प्रश्न सोचते-सोचते सो जाती हूं और वही स्वप्न देखती हूं देखिए दुनिया वाले कितने खुदगर्ज हैं जिस व्यवस्था से सारे समाज का उध्दार हो सकता है वह थोडे से आदमियों के स्वार्थ के कारण दबी पड़ी हुई है
सन्तकुमार ने उतरे हुए मुख से कहा-उसका समय आ रहा है और उठ खडे हुए यहां की वायु में उनका जैसे दम घुटने लगा था। उनका कपटी मन इस निष्कपट, सरल वातावरण में अपनी अधमता के ज्ञान से दबा जा रहा था। जैसे किसी धर्मनिष्ठ मन में अधर्म विचार घुस तो गया हो पर वह कोई आश्रय न पा रहा हो
तिब्बी ने आग्रह किया-कुछ देर और बैठिए न-
-आज आज्ञा दीजिए, फिर कभी आउंगा
-कब आइएगा-
-जल्द ही आउंगा
-काश, मैं आपका जीवन सुखी बना सकती
सन्तकुमार बरामदे से कूदकर नीचे उतरे और तेजी से हाते के बाहर चले गए तिब्बी बरामदे में खड़ी उन्हें अनुरक्त नेत्रों से देखती रही वह कठोर थी।, चंचल थी।, दुर्लभ थी।, रूपगर्विता थी।, चतुर थी।, किसी को कुछ समझती न थी।, न कोई उसे प्रेम का स्वांग भरकर ठग सकता था, पर जैसे कितनी ही वेश्याओं में सारी आसक्तियों के बीच में भक्ति-भावना छिपी रहती है, उसी तरह उसके मन में भी सारे अविश्वास के बीच में कोमल, सहमा हुआ, विश्वास छिपा बैठा था। और उसे स्पर्श करने की कला जिसे आती हो वह उसे बेवकूफ बना सकता था। उस कोमल भाग का स्पर्श होते ही वह सीधी-सादी, सरल विश्वासमयी, कातर बालिका बन जाती थी। आज इत्तफाक से सन्तकुमार ने वह आसन पा लिया था। और अब वह जिस तरफ चाहे उसे ले जा सकता है, मानो वह मेस्मराइज हो गई थी। सन्तकुमार में उसे कोई दोष नहीं नजर आता अभागिनी पुष्पा इस सत्यपुरूष का जीवन कैसा नष्ट किए डालती है इन्हें तो ऐसी संगिनी चाहिए जो इन्हें प्रोत्साहित करे, हमेशा इनके पीछे-पीछे रहे पुष्पा नहीं जानती वह इनके जीवन का राहु बनकर समाज का कितना अनिष्ट कर रही है और इतने पर भी सन्तकुमार का उसे गले बांधे रखना देवत्व से कम नहीं उनकी वह कौन-सी सेवा करे, कैसे उनका जीवन सुखी करे
सन्तकुमार यहां से चले तो उनका हृदय आकाश में था। इतनी जल्द देवी से उन्हें वरदान मिलेगा इसकी उन्होंने आशा न की थी। कुछ तकदीर ने ही जोर मारा, नहीं तो जो युवती अच्छे-अच्छों को डफलियों पर नचाती है, उन पर क्यों इतनी भक्ति करती अब उन्हें विलंब न करना चाहिए कौन जाने कब तिब्बी विरूध्द हो जाय और यह दो ही चार मुलाकातों में होने वाला है तिब्बी उन्हें कार्य-क्षेत्र में आगे बढने की प्रेरणा करेगी और वह पीछे हटेंगे वहीं मतभेद हो जाएगा यहां से वह सीधे मिृ सिन्हा के घर पहुंचे शाम हो गई थी। कुहरा पडना शुरू हो गया था। मि. सिन्हा सजे-सजाए कहीं जाने को तैयार खडे थे इन्हें देखते ही पूछाµ
-किधर से-
-वहीं से आज तो रंग जम गया
-सच
-हां जी उस पर तो जैसे मैंने जादू की लकड़ी गेर दी हो
-गिर क्या, बाजी मार ली है अपने गादर से आज ही जिद्र छेड़ो
-आपको भी मेरे साथ चलना पडेगा
-हां, हां( मैं तो चलूंगा ही मगर तुम तो बडे खुशनसीब निकले-यह मिस कामत तो मुझसे सचमुच आशिकी कराना चाहती है मैं तो स्वांग रचता हूं और वह समझती है, मैं उसका सच्चा प्रेमी हूं जरा आजकल उसे देखो, मारे गरूर के जमीन पर पांव ही नहीं रखती मगर एक बात है, औरत समझदार है उसे बराबर यह चिंता रहती है मैं उसके हाथ से निकल न जाउं, इसलिए मेरी बड़ी खातिरदारी करती है,और बनाव-सिंगार से कुदरत की कमी जितनी पूरी हो सकती है उतनी करती है और अगर कोई अच्छी रकम मिल जाय तो शादी कर लेने ही में क्या हरज है
सन्तकुमार को आश्चर्य हुआ-तुम तो उसकी सूरत से बेजार थे
-हां, अब भी हूं, लेकिन रूपये की जो शर्त है डाक्टर साहब बीस-पच्चीस हजार मेरी नजर कर दें, शादी कर लूं शादी कर लेने से में उसके हाथ में बिका तो नहीं जाता
दूसरे दिन दोनों मित्रों ने देवकुमार के सामने सारे मंसूबे रख दिए देवकुमार को एक क्षण तक तो अपने कानों पर विश्वास न हुआ उन्होंने स्वच्छंद, निर्भीक, निष्कपट जिंदगी व्यतीत की थी। कलाकारों में एक तरह का जो आत्माभिमान होता है ,उसने सदैव उनको ढारस दिया था। उन्होंने तकलीफें उठाई थीं, फाके भी किए थे, अपमान सहे थे लेकिन कभी अपनी आत्मा को कलुषित न किया था। जिंदगी में कभी अदालत के द्वार तक ही नहीं गए बोले-मुझे खेद होता है कि तुम मुझसे यह प्रस्ताव कैसे कर सके और इससे ज्यादा दुख इस बात का है कि ऐसी कुटिल चाल तुम्हारे मन में आई क्योंकर
सन्तकुमार ने निस्संकोच भाव से कहा-जरूरत सब कुछ सिखा देती है स्वरक्षा प्रकृति का पहला नियम है वह जायदाद जो आपने बीस हजार में दे दी, आज दो लाख से कम की नहीं है
-वह दो लाख की नहीं, दस लाख की हो मेरे लिए वह आत्मा को बेचने का प्रश्न है मैं थोडे से रूपयों के लिए अपनी आत्मा नहीं बेच सकता
दोनों मित्रों ने एक-दूसरे की ओर देखा और मुस्कराए कितनी पुरानी दलील है और कितनी लचर आत्मा जैसी चीज है कहां- और जब सारा संसार धोखेधड़ी पर चल रहा है तो आत्मा कहां रही- अगर सौ रूपये कर्ज देकर एक हजार वसूल करना अधर्म नहीं है, अगर एक लाख नीमजान, गाकेकश मजदूरों की कमाई पर एक सेठ का चैन करना अधर्म नहीं है तो एक पुरानी कागजी कार्रवाई को रद कराने का प्रयत्न क्यों अधर्म हो-
सन्तकुमार ने तीखे स्वर में कहा-अगर आप इसे आत्मा का बेचना कहते हैं तो बेचना पडेगा इसके सिवा दूसरा उपाय नहीं है और आप इस दृष्टि से इस मामले को देखते ही क्यों है- धर्म वह है जिससे समाज का हित हो अधर्म वह है जिससे समाज का अहित हो इससे समाज का कौन-सा अहित हो जायगा, यह आप बता सकते हैं-
देवकुमार ने सतर्क होकर कहा-समाज अपनी मर्यादाओं पर टिका हुआ है उन मर्यादाओं को तोड दो और समाज का अंत हो जाएगा
दोनों तरफ से शास्त्रार्थ होने लगे देवकुमार मर्यादाओं और सिध्दांतों और धर्म-बंधनों की आड ले रहे थे, पर इन दोनों नौजवानों की दलीलों के सामने उनकी एक न चलती थी। वह अपनी सुफेद दाढ़ी पर हाथ फेर-फेरकर और खल्वाट सिर खुजा-खुजा कर जो प्रमाण देते थे उसको यह दोनों युवक चुटकी बजाते तून डालते थे, धुनककर उड़ा देते थे
सिन्हा ने निर्दयता के साथ कहा-बाबूजी, आप न जाने किस जमाने की बातें कर रहे हैं कानून से हम जितना फायदा उठा सकें, हमें उठाना चाहिए उन दफों का मंशा ही यह है कि उनसे फायदा उठाया जाय अभी आपने देखा जमींदारों की जान महाजनों से बचाने के लिए सरकार ने कानून बना दिया है और कितनी मिल्कियतें जमींदारों को वापस मिल गई क्या आप इसे अधर्म कहेंगे- व्यावहारिकता का अर्थ यही है कि हम जिन कानूनी साधनों से अपना काम निकाल सकें, निकालें मुझे कुछ लेना-देना नहीं, न मेरा कोई स्वार्थ है सन्तकुमार मेरे मित्र हैं और इसी वास्ते मैं आपसे यह निवेदन कर रहा हूं मानें या न मानें, आपको अख्तियार है
देवकुमार ने लाचार होकर कहा-तो आखिर तुम लोग मुझे क्या करने को कहते हो-
-कुछ नहीं, केवल इतना ही कि हम जो कुछ करें आप उसके विरूध्द कोई कार्रवाई न करें
मैं सत्य की हत्या होते नहीं देख सकता
सन्तकुमार ने आंखें निकाल कर उत्तेजित स्वर में कहा-तो फिर आपको मेरी हत्या देखनी पडेगी
सिन्हा ने सन्तकुमार को डांटा-क्या फजूल की बातें करते हो सन्तकुमार बाबू जी को दो-चार दिन सोचने का मौका दो तुम अभी किसी बच्चे के बाप नहीं हो तुम क्या जानो बाप को बेटा कितना प्यारा होता है वह अभी कितना ही विरोध करें, लेकिन जब नालिश दायर हो जायगी तो देखना वह क्या करते हैं हमारा दावा यही होगा कि जिस वक्त आपने यह बैनामा लिखा, आपके होश-हवास ठीक न थे और अब भी आपको कभी-कभी जुनून का दौरा हो जाता है हिन्दुस्तान जैसे फार्म मुल्क में यह मरज बहुतों को होता है, और आपको भी हो गया तो कोई आश्चर्य नहीं हम सिविल सर्जन से इसकी तसदीक करा देंगे
देवकुमार ने हिकारत के साथ कहा-मेरे जीते-जी यह धांधली नहीं हो सकती हरगिज नहीं मैंने जो कुछ किया सोच-समझकर और परिस्थितियों के दबाव से किया मुझे उसका बिल्कुल अफसोस नहीं है अगर तुमने इस तरह का कोई दावा किया तो उसका सबसे बड़ा विरोध मेरी ओर से होगा, मैं कहे देता हूं
और वह आवेश में आकर कमरे में टहलने लगे
सन्तकुमार ने भी खडे होकर धमकाते हुए कहा-तो मेरा भी आपको चेलेंज है या तो आप अपने धर्म ही की रक्षा करेंगे या मेरी आप फिर मेरी सूरत न देखेंगे
-मुझे अपना धर्म, पत्नी और पुत्र सबसे प्यारा है
सिन्हा ने सन्तकुमार को आदेश किया-तुम आज दर्खास्त दे दो कि आपके होश-हवास में फर्क आ गया और मालूम नहीं आप क्या कर बैठें आपको हिरासत में ले लिया जाय
देवकुमार ने मुट्ठी तानकर द्रोध के आवेश में पूछा-मैं पागल हूं-
-जी हां, आप पागल हैं आपके होश बजा नहीं हैं ऐसी बातें पागल ही किया करते हैं पागल वही नहीं है जो किसी को काटने दौडे आम आदमी जो व्यवहार करते हों उसके विरूध्द व्यवहार करना भी पागलपन है
-तुम दोनों खुद पागल हो
-इसका फैसला तो डाक्टर करेगा
-मैंने बीसों पुस्तकें लिख डालीं, हजारों व्याख्यान दे डाले, यह पागलों का काम है-
-जी हां, यह पक्के सिरफिरों का काम है कल ही आप इस घर में रस्सियों से बांध लिये जायंगे
-तुम मेरे घर से निकल जाओ नहीं तो मैं गोली मार दूंगा
-बिल्कुल पागलों की-सी धमकी सन्तकुमार उस दर्खास्त में यह भी लिख देना कि आपकी बंदूक छीन ली जाय, वरना जान का खतरा है
और दोनों मित्र उठ खडे हुए देवकुमार कभी कानून के जाल में न फंसे थे प्रकाशकों और बुकसेलरों ने उन्हें बारहा धोखे दिए, मगर उन्होंने कभी कानून की शरण न लीब उनके जीवन की नीति थी।-आप भला तो जग भला, और उन्होंने हमेशा इस नीति का पालन किया था। मगर वह दब्बू या डरपोक न थे खासकर सिध्दांत के मुआमले में तो वह समझौता करना जानते ही न थे वह इस षडयंत्र में कभी शरीक न होंगे, चाहे इधर की दुनिया उधर हो जाय मगर क्या यह सब सचमुच उन्हें पागल साबित कर देंगे- जिस दृढता से सिन्हा ने धमकी दी थी। वह उपेक्षा के योग्य न थी। उसकी ध्वनि से तो ऐसा मालूम होता था। कि वह इस तरह के दांव-पेंच में अभ्यस्त है, और शायद डाक्टरों को मिलाकर सचमुच उन्हें सनकी साबित कर दे उनका आत्माभिमान गरज उठा-नहीं, वह असत्य की शरण न लेंगे चाहे इसके लिए उन्हें कुछ भी सहना पड़े डाक्टर भी क्या अंधा है- उनसे कुछ पूछेगा, कुछ बातचीत करेगा या योंही कलम उठाकर उन्हें पागल लिख देगा मगर कहीं ऐसा तो नहीं है कि उनके होश-हवास में फितूर पड गया हो हुश वह भी इन छोकरों की बातों में आए जाते हैं उन्हें अपने व्यवहार में कोई अंतर नहीं दिखाई देता उनकी बुध्दि सूर्य के प्रकाश की भाति निर्मल है कभी नहीं वह इन लौंडों के धौंस में न आयेंगे
लेकिन यह विचार उनके हृदय को मथ रहा था। कि सन्तकुमार की यह मनोवृत्ति कैसे हो गई उन्हें अपने पिता की याद आती थी। वह कितने सौम्य, कितने सत्यनिष्ठ थे उनके ससुर वकील जरूर थे, पर कितने धर्मात्मा पुरूष थे अकेले कमाते थे और सारी गृहस्थी का पालन करते थे पांच भाइयों और उनके बाल-बच्चों का बोझा खूद सीले हुए थे क्या मजाल कि अपने बेटे-बेटियों के साथ उन्होंने किसी तरह का पक्षपात किया हो जब तक बडे भाई को भोजन न करा लें खुद न खाते थे ऐसे खानदान में सन्तकुमार जैसा दगाबाज कहां से धंस पड़ा- उन्हें कभी ऐसी कोई बात याद न आती थी। जब उन्होंने अपनी नीयत बिगाड़ी हो
लेकिन यह बदनामी कैसे सही जायगी वह अपने ही घर में जब जागृति न ला सके तो एक प्रकार से उनका सारा जीवन नष्ट हो गया जो लोग उनके निकटतम संसर्ग में थे, जब उन्हें वह आदमी न बना सके तो जीवन-पर्यन्त की साहित्य-सेवा से किसका कल्याण हुआ- और जब यह मुकदमा दायर होगा उस वक्त वह किसे मुंह दिखा सकेंगे- उन्होंने धन न कमाया, पर यश तो संचय किया ही क्या वह भी उनके हाथ से छिन जायगा- उनको अपने संतोष के लिए इतना भी न मिलेगा ऐसी आत्मवेदना उन्हें कभी न हुई थी।
शैव्या से कहकर वह उसे भी क्यों दुखी करें- उसके कोमल हृदय को क्यों चोट पहुंचावें- वह सब कुछ खुद झेल लेंगे और दुखी होने की बात भी क्यों हो- जीवन तो अनुभूतियों का नाम है यह भी एक अनुभव होगा जरा इसकी भी सैर कर लें
यह भाव आते ही उनका मन हल्का हो गया घर में जाकर पंकजा से चाय बनाने को कहा
शैव्या ने पूछा-सन्तकुमार क्या कहता था।-
उन्होंने सहज मुस्कान के साथ कहा-कुछ नहीं, वही पुराना खत
-तुमने तो हामी नहीं भरी न-
देवकुमार स्त्रीसे एकात्मता का अनुभव करके बोले-कभी नहीं
-न जाने इसके सिर यह भूत कैसे सवार हो गया
-सामाजिक संस्कार हैं और क्या-
-इसके यह संस्कार क्यों ऐसे हो गए- साधु भी तो है, पंकज भी तो है, दुनिया में क्या धर्म ही नहीं-
-मगर कसरत ऐसे ही आदमियों की है, यह समझ लो
उस दिन से देवकुमार ने सैर करने जाना छोड दिया दिन-रात घर में मुंह छिपाए बैठे रहते जैसे सारा कलंक उनके माथे पर लगा हो नगर और प्रांत के सभी प्रतिष्ठित, विचारवान आदमियों से उनका दोस्ताना था, सब उनकी सज्जनता का आदर करते थे मानो वह मुकदमा दायर होने पर भी शायद कुछ न कहेंगे लेकिन उनके अंतर में जैसे चोर-सा बैठा हुआ था। वह अपने अहंकार में अपने को आत्मीयों की भलाई-बुराई का जिम्मेदार समझते थे पिछले दिनों जब सूर्यग्रहण के अवसर पर साधुकुमार ने बढ़ी हुई नदी में कूदकर एक डूबते हुए आदमी की जान बचाई थी।, उस वक्त उन्हें उससे कहीं ज्यादा खुशी हुई थी। जितनी खुद सारा यश पाने से होतीब उनकी आंखों में आंसू भर आए थे, ऐसा लगा था। मानो उनका मस्तक कुछ उंचा हो गया है, मानो मुख पर तेज आ गया है वही लोग जब सन्तकुमार की चितकबरी आलोचना करेंगे तो वह कैसे सुनेंगे-
इस तरह एक महीना गुजर गया और सन्तकुमार ने मुकदमा दायर न किया उधर सिविल सर्जन को गांठना था, इधर मिृ मलिक को शहादतें भी तैयार करनी थीं इन्हीं तैयारियों में सारा दिन गुजर जाता था। और रूपये का इंतजाम भी करना ही था। देवकुमार सहयोग करते तो यह सबसे बड़ी बाधा हट जाती पर उनके विरोध ने समस्या को और जटिल कर दिया था। सन्तकुमार कभी-कभी निराश हो जाता कुछ समझ में न आता क्या करे दोनों मित्र देवकुमार पर दांत पीस-पीसकर रह जाते
सन्तकुमार कहता-जी चाहता है इन्हें गोली मार दूं मैं इन्हें अपना बाप नहीं, शत्रु समझता हूं।
सिन्हा समझाता-मेरे दिल में तो भई, उनकी इज्जत होती है अपने स्वार्थ के लिए आदमी नीचे से नीचा काम कर बैठता है, पर त्यागियों और सत्यवादियों का आदर तो दिल में होता ही है न जाने तुम्हें उन पर कैसे गुस्सा आता है जो व्यक्ति सत्य के लिए बडे से बड़ा कष्ट सहने को तैयार हो वह पूजने के लायक है
-ऐसी बातों से मेरा जी न जलाओ सिन्हा तुम चाहते तो वह हजरत अब तक पागलखाने में होते मैं न जानता था। तुम इतने भावुक हो
-उन्हें पागलखाने भेजना इतना आसान नहीं जितना तुम समझते हो और इसकी कोई जरूरत भी तो नहीं हम यह साबित करना चाहते हैं कि जिस वक्त बैनामा हुआ वह अपने होश-हवास में न थे इसके लिए शहादतों की जरूरत है वह अब भी उसी दशा में हैं इसे साबित करने के लिए डाक्टर चाहिए और मि. कामत भी यह लिखने का साहस नहीं रखते
पृं देवकुमार को धमकियों से झुकाना तो असीव था। मगर तर्क के सामने उनकी गर्दन आप-ही-आप झुक जाती थी। इन दिनों वह यही सोचते रहते थे कि संसार की कुव्यवस्था क्यों हैं- कर्म और संस्कार का आश्रय लेकर वह कहीं न पहुंच पाते थे सर्वात्मवाद से भी उनकी गुत्थी न सुलझती थी। अगर सारा विश्व एकात्म है तो गिर यह भेद क्यों है- क्यों एक आदमी जिंदगी-भर बड़ी-से-बड़ी मेहनत करके भी भूखों मरता है, और दूसरा आदमी हाथ-पांव न हिलाने पर भी गूलों की सेज पर सोता है यह सर्वात्म है या घोर अनात्म- बुध्दि जवाब देती-यहां सभी स्वाधीन हैं, सभी को अपनी शक्ति और साधना के हिसाब से उन्नति करने का अवसर है मगर शंका पूछती-सबको समान अवसर कहां है- बाजार लगा हुआ है जो चाहे वहां से अपनी इच्छा की चीज खरीद सकता है मगर खरीदेगा तो वही जिसके पास पैसे हैं और जब सबके पास पैसे नहीं हैं तो सबका बराबर का अधिकार कैसे माना जाय- इस तरह का आत्ममंथन उनके जीवन में कभी न हुआ था। उनकी साहित्यिक बुध्दि ऐसी व्यवस्था से संतुष्ट तो हो ही न सकती थी।, पर उनके सामने ऐसी कोई गुत्थी न पड़ी थी। जो इस प्रश्न को वैयक्तिक अंत तक ले जाती इस वक्त उनकी दशा उस आदमी की-सी थी। जो रोज मार्ग में ईटें पडे देखता है और बचकर निकल जाता है रात को कितने लोगों को ठोकर लगती होगी, कितनों के हाथ-पैर टूटते होंगे, इसका ध्यान उसे नहीं आता मगर एक दिन जब वह खुद रात को ठोकर खाकर अपने घुटने फोड लेता है तो उसकी निवारण-शक्ति हठ करने लगती है और वह उस सारे ढेर को मार्ग से हटाने पर तैयार हो जाता है देवकुमार को वही ठोकर लगी थी। कहां है न्याय- कहां हैं- एक गरीब आदमी किसी खेत से बालें नोचकर खा लेता है, कानून उसे सजा देता है दूसरा अमीर आदमी दिन-दहाडे दूसरों को लूटता है और उसे पदवी मिलती है, सम्मान मिलता है कुछ आदमी तरह-तरह के हथियार बांधकर आते हैं और निरीह, दुर्बल मजदूरों पर आतंक जमाकर अपना गुलाम बना लेते हैं लगान और टैक्स और महसूल और कितने ही नामों से उसे लूटना शुरू करते हैं, और आप लंबा-लंबा वेतन उड़ाते हैं, शिकार खेलते हैं, नाचते हैं, रंग-रेलियां मनाते हैं यही है ईश्वर का रचा हुआ संसार- यही न्याय है-
हां, देवता हमेशा रहेंगे और हमेशा रहे हैं उन्हें अब भी संसार धर्म और नीति पर चलता हुआ नजर आता है वे अपने जीवन की आहुति देकर संसार से विदा हो जाते हैं लेकिन उन्हें देवता क्यों कहो- कायर कहो, स्वार्थी कहो, आत्मसेवी कहो देवता वह है जो न्याय की रक्षा करे और उसके लिए प्राण दे देब अगर वह जानकर अनजान बनता है तो धर्म से गिरता है अगर उसकी आंखों में यह कुव्यवस्था खटकती ही नहीं तो वह अंधा भी है और मूर्ख भी, देवता किसी तरह नहीं और यहां देवता बनने की जरूरत भी नहीं देवताओं ने ही भाग्य और ईश्वर और भक्ति का मिथ्याएं गैलाकर इस अनीति को अमर बनाया है मनुष्य ने अब तक इसका अंत कर दिया होता या समाज का ही अंत कर दिया होता जो इस दशा में जिंदा रहने से कहीं अच्छा होता नहीं, मनुष्यों में मनुष्य बनना पडेगा दरिंदों के बीच में उनसे लडने के लिए हथियार बांधना पडेगा उनके पंजों का शिकार बनना देवतापन नहीं, जडता है आज जो इतने ताल्लुकेदार और राजे हैं वह अपने पूर्वजों की लूट का ही आनंद तो उठा रहे हैं और क्या उन्होंने वह जायदाद बेच कर पागलपन नहीं किया- पितरों को पिंडा देने के लिए गया जाकर पिंडा देना और यहां आकर हजारों रूपये खर्च करना क्या जरूरी था।- और रातों को मित्रों के साथ मुजरे सुनना, और नाटक-मंडली खोलकर हजारों रूपये उसमें डुबाना अनिवार्य था।- वह अवश्य पागलपन था। उन्हें क्यों अपने बाल-बच्चों की चिन्ता नहीं हुई- अगर उन्हें मुर्ति की संपत्ति मिली और उन्होंने उड़ाया तो उनके लडके क्यों न मुर्ति की संपत्ति भोगें- अगर वह जवानी की उमंगों को नहीं रोक सके तो उनके लडके क्यों तपस्या करें-
और अंत में उनकी शंकाओं को इस धारणा से तस्कीन हुई कि इस अनीति भरे संसार में धर्म-अधर्म का विचार गलत है, आत्मघात है और जुआ खेलकर या दूसरों के लोभ और आसक्ति से फायदा उठाकर संपत्ति खड़ी करना उतना ही बुरा या अच्छा है जितना कानूनी दांव-पेंच से बेशक वह महाजन के बीस हजार के कर्जदार हैं नीति कहती है कि उस जायदाद को बेचकर उसके बीस हजार दे दिये जायं बाकी उन्हें मिल जाय अगर कानून कर्जदारों के साथ इतना न्याय भी नहीं करता तो कर्जदार भी कानून में जितनी खींचतान हो सके करके महाजन से अपनी जायदाद वापस लेने की चेष्टा करने में किसी अधर्म का दोषी नहीं ठहर सकता इस निष्कर्ष पर उन्होंने शास्त्र और नीति के हरेक पहलू से विचार किया और वह उनके मन में जम गया अब किसी तरह नहीं हिल सकता और यद्यपि इससे उनके चिर-संचित संस्कारों को आघात लगता था, पर वह ऐसे प्रसन्न और गूले हुए थे मानो उन्हें कोई नया जीवन मंत्र मिल गया हो ।
एक दिन उन्होंने सेठ गिरधर दास के पास जाकर साग-साग कह दिया-अगर आप मेरी जायदाद वापस न करेंगे तो मेरे लडके आपके उपर दावा करेंगे।
गिरधर दास नये जमाने के आदमी थे, अंग्रेजी में कुशल, कानून में चतुर, राजनीति में भाग लेने वाले, कंपनियों में हिस्से लेते थे,और बाजार अच्छा देखकर बेच देते थे, एक शक्कर का मिल खुद चलाते थे सारा कारोबर अंग्रेजी ढग से करते थे उनके पिता सेठ मक्कूलाल भी यही सब करते थे, पर पूजा-पाठ, दान-दक्षिणा से प्रायश्चित्त करते रहते थे, गिरधर दास पक्के जडवादी थे, हरेक काम व्यापार के कायदे से करते थे कर्मचारियों का वेतन पहली तारीख को देते थे, मगर बीच में किसी को जरूरत पडे तो सूद पर रूपए देते थे,मक्कूलाल जी साल साल भर वेतन न देते थे, पर कर्मचारियों को बराबर पेशगी देते रहते थे हिसाब होने पर उनको कुछ देने के बदले कुछ मिल जाता था। मक्कूलाल साल में दो-चार बार अफसरों को सलाम करने जाते थे, डालियां देते थे, जूते उतार कर कमरे में जाते थे और हाथ बांधे खडे रहते थे चलते वक्त आदमियों को दो-चार रूपए इनाम दे आते थे गिरधर दास म्युनिसिपल कमिश्नर थे, सूट-बूट पहन कर अफसरों के पास जाते थे और बराबरी का व्यवहार करते थे, और आदमियों के साथ केवल इतनी रिआयत करते थे कि त्योहारों में त्योहारी दे देते थे, वह भी खूब खुशामद करा के अपने हकों के लिए लडना और आंदोलन करना जानते थे, मगर उन्हें ठगना असंभव था।।
देवकुमार का यह कथन सुनकर चकरा गये उनकी बड़ी इज्जत करते थे उनकी कई पुस्तकें पढ़ी थीं, और उनकी रचनाओं का पूरा सेट उनके पुस्तकालय में था। हिंदी भाषा के प्रेमी थे और नागरी-प्रचार सभा को कई बार अच्छी रकमें दान दे चुके थे पंडा-पुजारियों के नाम से चिढते थे, दूषित दान प्रथा। पर एक पैम्लेट भी छपवाया था। लिबरल विचारों के लिए नगर में उनकी ख्याति थी। मक्कूलाल मारे मोटापे के जगह से हिल न सकते थे, गिरधर दास गठीले आदमी थे और नगर-व्यायामशाला के प्रधान ही न थे, अच्छे शहसवार और निशानेबाज थे।
एक क्षण तो वह देवकुमार के मुंह की ओर देखते रहै उनका आशय क्या है, यह समझ में ही न आयाब गिर ख्याल आया बेचारे आर्थिक संकट में होंगे, इससे बुध्दि भ्रष्ट हो गई है बेतुकी बातें कर रहे हैं देवकुमार के मुख पर विजय का गर्व देखकर उनका यह ख़याल और मजबूत हो गया
सुनहरी ऐनक उतारकर मेज पर रखकर विनोद भाव से बोले-कहिए, घर में तो सब कुशल तो है-
देवकुमार ने विद्रोह के भव से कहा-जी हां, सब आपकी कृपा है
-बड़ा लडका तो वकालत कर रहा है न-
-जी हां
-मगर चलती न होगी और आप की पुस्तकें भी आजकल कम बिकती होंगी यह देश का दुर्भाग्य है कि आप जैसे सरस्वती के पुत्रें का यह अनादर आप यूरोप में होते तो आज लाखों के स्वामी होते
-आप जानते हैं, मैं लक्ष्मी के उपासकों में नहीं हूं
-धन-संकट में तो होंगे ही मुझ से जो कुछ सेवा आप कहें, उसके लिए तैयार हूं मुझे तो गर्व है कि आप जैसे प्रतिभाशाली पुरूष से मेरा परिचय है आप की कुछ सेवा करना मेरे लिए गौरव की बात होगी
देवकुमार ऐसे अवसरों पर नम्रता के पुतले बन जाते थे भक्ति और प्रशंसा देकर कोई उनका सर्वस्व ले सकता था। एक लखपती आदमी और वह भी साहित्य का प्रेमी जब उनका इतना सम्मान करता है तो उससे जायदाद या लेन-देन की बात करना उन्हें लज्जाजनक मालूम हुआ बोले-आप की उदारता है जो मुझे इस योग्य समझते हैं
्मैंने समझा नहीं आप किस जायदाद की बात कह रहे थे
देवकुमार सकुचाते हुए बोले-अजी वही, जो सेठ मक्कूलाल ने मुझसे लिखाई थी।
-अच्छा तो उसके विषय में कोई नयी बात है-
-उसी मामले में लडके आपके उपर कोई दावा करने वाले हैं मैंने बहुत समझाया, मगर मानते नहीं आपके पास इसीलिए आया था। कि कुछ ले-देकर समझौता कर लीजिए, मामला अदालत में क्यों जाय- नाहक दोनों जेरबार होंगे
गिरधर दास का जहीन, मुरौवतदार चेहरा कठोर हो गया जिन महाजनी नखों को उन्होंने भद्रता की नर्म गप्री में छिपा रखा था, वह यह खटका पाते ही पैने और उग्र होकर बाहर निकल आये
द्रोध को दबाते हुए बोले-आपको मुझे समझाने के लिए यहां आने की तकलीफ उठाने की कोई जरूरत न थी। उन लडकों ही को समझाना चाहिए था।
-उन्हें तो मैं समझा चुका।
-तो जाकर शांत बैठिए मैं अपने हकों के लिए लडना जानता हूं अगर उन लोगों के दिमाग में कानून की गर्मी का असर हो गया है तो उसकी दवा मेरे पास है
अब देवकुमार की साहित्यिक नम्रता भी अविचलित न रह सकीब जैसे लड़ाई का पैगाम स्वीकार करते हुए बोले-मगर आपको मालूम होना चाहिए वह मिल्कियत आज दो लाख से कम की नहीं है
-दो लाख नहीं, दस लाख की हो, आपसे सरोकार नहीं
-आपने मुझे बीस हजार ही तो दिये थे
-आपको इतना कानून तो मालूम ही होगा, हालांकि कभी आप अदालत में नहीं गए, कि जो चीज बिक जाती है वह कानूनन किसी दाम पर भी वापस नहीं की जाती अगर इस नये कायदे को मान लिया जाय तो इस शहर में महाजन न नजर आयें
कुछ देर तक सवाल-जवाब होता रहा और लडने वाले कुत्तों की तरह दोनों भले आदमी गुर्राते, दांत निकालते, खौंखियाते रहै आखिर दोनों लड ही गए
गिरधर दास ने प्रचंड होकर कहा-मुझे आपसे ऐसी आशा नहीं थी।
देवकुमार ने भी छड़ी उठाकर कहा-मुझे भी न मालूम था। कि आपके स्वार्थ का पेट इतना गहरा है
-आप अपना सर्वनाश करने जा रहे हैं
-कुछ परवाह नहीं
देवकुमार वहां से चले तो माघ की उस अंधेरी रात की निर्दय ठंड में भी उन्हें पसीना हो रहा था। विजय का ऐसा गर्व अपने जीवन में उन्हें कभी न हुआ था। उन्होंने तर्क में तो बहुतों पर विजय पाई थी। यह विजय थी। जीवन में एक नई प्रेरणा, एक नई शक्ति का उदय
उसी रात को सिन्हा और सन्तकुमार ने एक बार गिर देवकुमार पर जोर डालने का निश्चय किया दोनों आकर खडे ही थे कि देवकुमार ने प्रोत्साहन भरे हुए भाव से कहा-तुम लोगों ने अभी तक मुआमला दायर नहीं किया नाहक क्यों देर कर रहे हो-
सन्तकुमार के सूखे हुए निराश मन में उल्लास की आंधी-सी आ गई क्या सचमुच कहीं ईश्वर है जिस पर उसे कभी विश्वास नहीं हुआ- जरूर कोई दैवी शक्ति है भीख मांगने आए थे, वरदान मिल गया
बोला-आप ही की अनुमति का इंतजार था।
-मैं बड़ी खुशी से अनुमति देता हूं मेरे आशीर्वाद तुम्हारे साथ हैं
उन्होंने गिरधर दास से जो बातें हुई वह कह सुनाई
सिन्हा ने नाक गुलाकर कहा-जब आपकी दुआ है तो हमारी -तह है उन्हें अपने धन का घमंड होगा, मगर यहां भी कच्ची गोलियां नहीं खेली हैं
सन्तकुमार ऐसा खुश था। गोया आधी मंजिल तय हो गई बोला-आपने खूब उचित जवाब दिया
सिन्हा ने तनी हुई ढोल की-सी आवाज में चोट मारी-ऐसे-ऐसे सेठों को डफलियों पर नचाते हैं यहां
सन्तकुमार स्वप्न देखने लगे-यहीं हम दोनो के बंगले बनेंगे दोस्त
-यहां क्यों, सिविल लाइन्स में बनवायेंगे
-अंदाज से कितने दिन में गैसला हो जायगा-
-छ: महीने के अंदर
-बाबू जी के नाम से सरस्वती मंदिर बनवायेंगे
मगर समस्या थी।, रूपये कहां से आवें देवकुमार निस्पृह आदमी थे धन की कभी उपासना नहीं की कभी इतना ज्यादा मिला ही नहीं कि संचय करतेब किसी महीने में पचास जमा होते तो दूसरे महीने में खर्च हो जाते अपनी सारी पुस्तकों का कॉपीराइट बेचकर उन्हें पांच हजार मिले थे वह उन्होंने पंकजा के विवाह के लिए रख दिए थे अब ऐसी कोई सूरत नहीं थी। जहां से कोई बड़ी रकम मिलती उन्होंने समझा था। सन्तकुमार घर का खर्च उठा लेगा और वह कुछ दिन आराम से बैठेंगे या घूमेंगे लेकिन इतना बड़ा मंसूबा बांधकर वह अब शांत कैसे बैठ सकते हैं- उनके भक्तों की कागी तादाद थी। दो-चार राजे भी उनके भक्तों में थे जिनकी यह पुरानी लालसा थी। कि देवकुमार जी उनके घर को अपने चरणों से पवित्र करें और वह अपनी श्रध्दा उनके चरणों में अर्पण करेंब मगर देवकुमार थे कि कभी किसी दरबार में कदम नहीं रक्खा, अब अपने प्रेमियों और भक्तों से आर्थिक संकट का रोना रो रहे थे और खुले शब्दों में सहायता की याचना कर रहे थे वह आत्मगौरव जैसे किसी कब्र में सो गया हो
और शीघ्र ही इसका परिणाम निकला एक भक्त ने प्रस्ताव किया कि देवकुमार जी की साठवीं सालगिरह धूमधाम से मनाई जाय और उन्हें साहित्य-प्रेमियों की ओर से एक थैली भेंट की जाय क्या यह लज्जा और दुख की बात नहीं है कि जिस महारथी। ने अपने जीवन के चालीस वर्ष साहित्य-सेवा पर अर्पण कर दिए, वह इस वृध्दावस्था में भी आर्थिक-चिंताओं से मुक्त न हो- साहित्य यों नहीं फल-फूल सकता जब तक हम अपने साहित्य-सेवियों का ठोस सत्कार करना न सीखेंगे, साहित्य कभी उन्नति न करेगा( और दूसरे समाचारपत्रों ने मुक्त कंठ से इसका समर्थन किया अचरज की बात यह थी। कि वह महानुभाव भी जिनका देवकुमार से पुराना साहित्यिक वैमनस्य था, वे भी इस अवसर पर उदारता का परिचय देने लगे बात चल पड़ी एक कमेटी बन गई एक राजा साहब उसके प्रधान बन गये मि.सिन्हा ने कभी देवकुमार की कोई पुस्तक न पढ़ी थी।, पर वह इस आंदोलन में प्रमुख भाग लेते थे मिस कामत और मिस मलिक की ओर से भी समर्थन हो गया महिलाओं को पुरूषों से पीछे न रहना चाहिए जेठ में तिथि निश्चित हुई नगर के इंटरमीडिएट कॉलेज में इस उत्सव की तैयारियां होने लगीं ।
आखिर वह तिथि आ गयी आज शाम को वह उत्सव होगा दूर-दूर से साहित्य-प्रेमी आए हैं सोरांव के कुंअर साहब वह थैली भेंट करेंगे आशा से ज्यादा सज्जन जमा हो गए हैं व्याख्यान होंगे, गाना होगा, ड'ामा खेला जायगा, प्रीति-भोज होगा, कवि-सम्मेलन होगा शहर में दीवारों पर पोस्टर लगे हुए हैं सभ्य-समाज में अच्छी हलचल है राजा साहब सभापति हैं
देवकुमार को तमाशा बनने से नफरत थी। पब्लिक जलसों में भी कम आते-जाते थे लेकिन आज तो बरात का दूल्हा बनना ही पडा ज्यों-ज्यों सभा में जाने का समय समीप आता था। उनके मन पर एक तरह का अवसाद छाया जाता था। जिस वक्त थैली उनको की जायगी और वह हाथ बढ़ाकर लेंगे वह दृश्य कैसा लज्जाजनक होगा जिसने कभी धन के लिए हाथ नहीं गैलाया वह इस आखिरी वक्त में दूसरों का दान ले- यह दान ही है, और कुछ नहीं एक क्षण के लिए उनका आत्मसम्मान विद्रोही बन गया इस अवसर पर उनके लिए शोभा यही देता है कि वह थैली पाते ही उसी जगह किसी सार्वजनिक संस्था को दे दें उनके जीवन के आदर्श के लिए यही अनुकूल होगा,लोग उनसे यही आशा रखते हैं, इसी में उनका गौरव है वह पंडाल में पहुंचे तो उनके मुख पर उल्लास की झलक न थी। वह कुछ खिसियाय से लगते थे नेकनामी की लालसा एक ओर खींचती थी।, लोभ दूसरी ओर मन को कैसे समझाएं कि यह दान दान नहीं, उनका हक है लोग हंसेंगे, आखिर पैसे पर टूट पडा उना जीवन बौध्दिक था, और बुध्दि जो कुछ करती है नीति पर कसकर करती है नीति का सहारा मिल जाए तो गिर वह दुनिया की परवाह नहीं करती वह पहुंचे तो स्वागत हुआ, मंगल-गान हुआ, व्याख्यान होने लगे जिनमें उनकी कीर्ति गाई गई मगर उनकी दशा उस आदमी की-सी हो रही थी। जिसके सिर में दर्द हो रहा हो उन्हें इस वक्त इस दर्द की दवा चाहिए कुछ अच्छा नहीं लग रहा है सभी विद्वान् हैं, मगर उनकी आलोचना कितनी उथली, उपरी है जैसे कोई उनके संदेशों को समझा ही नहीं, जैसे यह सारी वाह-वाह और सारा यशगान अंध-भक्ति के सिवा और कुछ न था। कोई भी उन्हें नहीं समझा-किस प्रेरणा ने चालीस साल तक उन्हें संभाले रक्खा, वह कौन-सा प्रकाश था। जिसकी ज्योति कभी मंद नहीं हुई।
सहसा उन्हें एक आश्रय मिल गया और उनके विचारशील, पीले मुख पर हल्की सी सुर्खी दौड गई यह दान नहीं प्राविडेंट गंड है जो आज तक उनकी आमदनी से कटता जा रहा है, क्या वह दान है- उन्होंने जनता की सेवा की है, तन-मन से की है, इस धुन से की है, जो बडे-से-बडे वेतन से भी न आ सकती थी। पेंशन लेने में क्या लाज आये?
राजा साहब ने जब थैली भेंट की तो देवकुमार के मुंह पर गर्व था, हर्ष था, विजय थी।

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पुराणों के क्रम में भागवत पुराण पाँचवा स्थान है पर लोकप्रियता की दृष्टि से यह सबसे अधिक प्रसिद्ध है। वैष्णव 12 स्कंध, 335 अध्याय और 18 हज़ार श्लोकों के इस पुराण को महापुराण मानते हैं। साथ ही उच्च दार्शनिक विचारों की भी इसमें प्रचुरता है। परवर्ती कृष्ण-काव्य की आराध्या ‘राधा’ का उल्लेख भागवत में नहीं मिलता। इस पुराण का पूरा नाम श्रीमद् भागवत पुराण है।By वनिता कासनियां पंजाबमान्यता कुछ लोग इसे महापुराण न मानकर देवी-भागवत को महापुराण मानते हैं। वे इसे उपपुराण बताते हैं। पर बहुसंख्यक मत इस पक्ष में नहीं हैं। भागवत के रचनाकाल के संबंध में भी विवाद है। दयानंद सरस्वती ने इसे तेरहवीं शताब्दी की रचना बताया है, पर अधिकांश विद्वान इसे छठी शताब्दी का ग्रंथ मानते हैं। इसे किसी दक्षिणात्य विद्वान की रचना माना जाता है। भागवत पुराण का दसवां स्कंध भक्तों में विशेष प्रिय है।श्री भागवत पुराण आरतीआरती अतिपावन पुरान की ।धर्म-भक्ति-विज्ञान-खान की ॥महापुराण भागवत निर्मल ।शुक-मुख-विगलित निगम-कल्प-फल ॥परमानन्द सुधा-रसमय कल ।लीला-रति-रस रसनिधान की ॥॥ आरती अतिपावन पुरान की… ॥कलिमथ-मथनि त्रिताप-निवारिणि ।जन्म-मृत्यु भव-भयहारिणी ॥सेवत सतत सकल सुखकारिणि ।सुमहौषधि हरि-चरित गान की ॥॥ आरती अतिपावन पुरान की… ॥सृष्टि-उत्पत्ति के सन्दर्भ में इस पुराण में कहा गया है- एकोऽहम्बहुस्यामि। अर्थात् एक से बहुत होने की इच्छा के फलस्वरूप भगवान स्वयं अपनी माया से अपने स्वरूप में काल, कर्म और स्वभाव को स्वीकार कर लेते हैं। तब काल से तीनों गुणों- सत्व, रज और तम में क्षोभ उत्पन्न होता है तथा स्वभाव उस क्षोभ को रूपान्तरित कर देता है।तब कर्म गुणों के महत्त्व को जन्म देता है जो क्रमश: अहंकार, आकाश, वायु तेज, जल, पृथ्वी, मन, इन्द्रियाँ और सत्व में परिवर्तित हो जाते हैं। इन सभी के परस्पर मिलने से व्यष्टि-समष्टि रूप पिंड और ब्रह्माण्ड की रचना होती है। यह ब्रह्माण्ड रूपी अण्डां एक हज़ार वर्ष तक ऐसे ही पड़ा रहा। फिर भगवान ने उसमें से सहस्त्र मुख और अंगों वाले विराट पुरुष को प्रकट किया। उस विराट पुरुष के मुख से ब्राह्मण, भुजाओं से क्षत्रिओं से क्षत्रिय, जांघों से वैश्य और पैरों से शूद्र उत्पन्न हुए।विषय-विलास-विमोह विनाशिनि ।विमल-विराग-विवेक विकासिनि ॥भगवत्-तत्त्व-रहस्य-प्रकाशिनि ।परम ज्योति परमात्मज्ञान की ॥॥ आरती अतिपावन पुरान की… ॥परमहंस-मुनि-मन उल्लासिनि ।रसिक-हृदय-रस-रासविलासिनि ॥भुक्ति-मुक्ति-रति-प्रेम सुदासिनि ।कथा अकिंचन प्रिय सुजान की ॥॥ आरती अतिपावन पुरान की… ॥जब मनुष्य के जन्म-जन्मान्तर का पुण्य उदय होता है, तभी उसे इस भागवतशास्त्र की प्राप्ति होती है ।श्लोक में व्यक्त भाव एवं श्लोक से प्रेरणा - श्रीमद भागवतमहापुराण के प्रति आकर्षण मन में हुआ तो यह मानना चाहिए कि यह पूर्व जन्मों के संचित पुण्यों का प्रभाव है । इसका मतलब यह है कि एक जन्मों के पुण्यों के बल पर श्रीमद भागवत जी प्राप्त नहीं कर सकते । इस तथ्य से यह पता चलता है कि यह कितना विलक्षण, कितना दुर्लभ, भगवत सिद्धान्तों का अंतिम निष्कर्ष, प्रभु की प्रसन्नता का प्रधान कारण, भक्ति के प्रवाह को बढ़ाने वाला यह श्रीग्रंथ है ।

पुराणों के क्रम में भागवत पुराण पाँचवा स्थान है पर लोकप्रियता की दृष्टि से यह सबसे अधिक प्रसिद्ध है। वैष्णव 12 स्कंध, 335 अध्याय और 18 हज़ार श्लोकों के इस पुराण को महापुराण मानते हैं। साथ ही उच्च दार्शनिक विचारों की भी इसमें प्रचुरता है। परवर्ती कृष्ण-काव्य की आराध्या ‘राधा’ का उल्लेख भागवत में नहीं मिलता। इस पुराण का पूरा नाम श्रीमद् भागवत पुराण है। By वनिता कासनियां पंजाब मान्यता  कुछ लोग इसे महापुराण न मानकर देवी-भागवत को महापुराण मानते हैं। वे इसे उपपुराण बताते हैं। पर बहुसंख्यक मत इस पक्ष में नहीं हैं। भागवत के रचनाकाल के संबंध में भी विवाद है। दयानंद सरस्वती ने इसे तेरहवीं शताब्दी की रचना बताया है, पर अधिकांश विद्वान इसे छठी शताब्दी का ग्रंथ मानते हैं। इसे किसी दक्षिणात्य विद्वान की रचना माना जाता है। भागवत पुराण का दसवां स्कंध भक्तों में विशेष प्रिय है।श्री भागवत पुराण आरती आरती अतिपावन पुरान की । धर्म-भक्ति-विज्ञान-खान की ॥ महापुराण भागवत निर्मल । शुक-मुख-विगलित निगम-कल्प-फल ॥ परमानन्द सुधा-रसमय कल । लीला-रति-रस रसनिधान की ॥ ॥ आरती अतिपावन पुरान की… ॥ कलिमथ-मथनि...

❤️,श्रीकांत"❤️       अध्याय 20By वनिता कासनियां पंजाबअध्याय 20एक दिन सुबह स्वामी आनन्द आ पहुँचे। रतन को यह पता न था कि उन्हें आने का निमन्त्रण दिया गया है। उदास चेहरे से उसने आकर खबर दी, “बाबू, गंगामाटी का वह साधु आ पहुँचा है। बलिहारी है, खोज-खाजकर पता लगा ही लिया।”रतन सभी साधु-सज्जनों को सन्देह की दृष्टि से देखता है। राजलक्ष्मी के गुरुदेव को तो वह फूटी ऑंख नहीं देख सकता। बोला, “देखिए, यह इस बार किस मतलब से आया है। ये धार्मिक लोग रुपये लेने के अनेक कौशल जानते हैं।”हँसकर कहा, “आनन्द बड़े आदमी का लड़का है, डॉक्टरी पास है, उसे अपने लिए रुपयों की जरूरत नहीं।”“हूँ, बड़े आदमी का लड़का है! रुपया रहने पर क्या कोई इस रास्ते पर आता है!” इस तरह अपना सुदृढ़ अभिमत व्यक्त करके वह चला गया। रतन को असली आपत्ति यहीं पर है। माँ के रुपये कोई ले जाय, इसका वह जबरदस्त विरोधी है। हाँ, उसकी अपनी बात अलग है।”वज्रानन्द ने आकर मुझे नमस्कार किया, कहा, “और एक बार आ गया दादा, कुशल तो है? दीदी कहाँ हैं?”“शायद पूजा करने बैठी हैं, निश्चय ही उन्हें खबर नहीं मिली है।”“तो खुद ही जाकर संवाद दे दूँ। पूजा करना भाग थोड़े ही जायेगा, अब वे एक बार रसोईघर की तरफ भी दृष्टिपात करें। पूजा का कमरा किस तरफ है दादा? और वह नाई का बच्चा कहाँ गया- जरा चाय का पानी चढ़ा दे।”पूजा का कमरा दिखा दिया। रतन को पुकारते हुए आनन्द ने उस ओर प्रस्थान किया।दो मिनट बाद दोनों ही आकर उपस्थित हुए। आनन्द ने कहा, “दीदी, पाँचेक-रुपये दे दो, चाय पीकर जरा सियालदा बाजार घूम आऊँ।”राजलक्ष्मी ने कहा, “नजदीक ही एक अच्छा बाजार है आनन्द, उतनी दूर क्यों जाओगे? और तुम ही क्यों जाओगे? रतन को जाने दो न!”“कौन रतन? उस आदमी का विश्वास नहीं दीदी, मैं आया हूँ इसीलिए शायद वह छाँट-छाँटकर सड़ी हुई मछलियाँ खरीद लायेगा।” कहकर हठात् देखा कि रतन दरवाजे पर खड़ा है। तब जीभ दबाकर कहा, “रतन, बुरा न मानना भाई, मैंने समझा था कि तुम उधर चले गये हो, पुकारने पर उत्तर नहीं मिला था न!”राजलक्ष्मी हँसने लगी, मुझसे भी बिना हँसे न रहा गया। रतन की भौंहें नहीं चढ़ीं, उसने गम्भीर आवाज में कहा, “मैं बाजार जा रहा हूँ माँ, किसन ने चाय का पानी चढ़ा दिया है।” और वह चला गया। राजलक्ष्मी ने कहा, “शायद रतन की आनन्द से नहीं बनती?”आनन्द ने कहा, “हाँ, पर मैं उसे दोष नहीं दे सकता दीदी। वह आपका हितैषी है- ऐरों-गैरों को नहीं घुसने देना चाहता। पर आज उससे मेल कर लेना होगा, नहीं तो खाना अच्छा नहीं मिलेगा। बहुत दिनों का भूखा हूँ।”राजलक्ष्मी ने जल्दी से बरामदे में जाकर कहा, “रतन और कुछ रुपये ले जा भाई, क्योंकि एक बड़ी-सी रुई मछली लानी होगी।” लौटकर कहा, “मुँह-हाथ धो लो भाई, मैं चाय तैयार कर लाती हूँ।” कहकर वह नीचे चली गयी।आनन्द ने कहा, “दादा, एकाएक तलबी क्यों हुई?”“इसकी कैफियत क्या मैं दूँगा आनन्द?”आनन्द ने हँसते हुए कहा, “देखता हूँ कि दादा का अब भी वही भाव है- नाराजगी दूर नहीं हुई है। फिर कहीं लापता हो जाने का इरादा तो नहीं है? उस दफा गंगामाटी में कैसी झंझट में डाल दिया था! इधर सारे देश के लोगों का निमन्त्रण और उधर मकान का मालिक लापता! बीच में मैं- नया आदमी -इधर दौड़ूं, उधर दौड़ूं, दीदी पैर फैलाकर रोने बैठ गयीं, रतन ने लोगों को भगाने का उद्योग किया- कैसी विपत्ति थी! वाह दादा, आप खूब हैं!”मैं भी हँस पड़ा, बोला, “अबकी बार नाराजगी दूर हो गयी है। डरो मत।”आनन्द ने कहा, “पर भरोसा तो नहीं होता। आप जैसे नि:संग, एकाकी लोगों से मैं डरता हूँ और अकसर सोचता हूँ कि आपने अपने को संसार में क्यों बँधने दिया।”मन ही मन कहा, तकदीर! और मुँह से कहा, “देखता हूँ कि मुझे भूले नहीं हो, बीच-बीच में याद करते थे?”आनन्द ने कहा, “नहीं दादा, आपको भूलना भी मुश्किल है और समझना भी कठिन है, मोह दूर करना तो और भी कठिन है। अगर विश्वास न हो तो कहिए, दीदी को बुलाकर गवाही दे दूँ। आपसे सिर्फ दो-तीन दिन का ही तो परिचय है, पर उस दिन दीदी के साथ सुर में सुर मिलाकर मैं भी जो रोने नहीं बैठ गया सो सिर्फ इसलिए कि यह सन्यासी धर्म के बिल्कुशल खिलाफ है।”बोला, “वह शायद दीदी की खातिर। उनके अनुरोध से ही तो इतनी दूर आये हों?”आनन्द ने कहा, “बिल्कुकल झूठ नहीं है दादा। उनका अनुरोध तो सिर्फ अनुरोध नहीं है, वह तो मानो माँ की पुकार है, पैर अपने आप चलना शुरू कर देते हैं। न जाने कितने घरों में आश्रय लेता हूँ, पर ठीक ऐसा तो कहीं नहीं देखता। सुना है कि आप भी तो बहुत घूमे हैं, आपने भी कहीं कोई इनके ऐसी और देखी है?”कहा, “बहुत।”राजलक्ष्मी ने प्रवेश किया। कमरे में घुसते ही उसने मेरी बात सुन ली थी, चाय की प्याली आनन्द के निकट रखकर मुझसे पूछा, “बहुत क्या जी?”आनन्द शायद कुछ विपद्ग्रस्त हो गया; मैंने कहा, “तुम्हारे गुणों की बातें। इन्होंने सन्देह जाहिर किया था, इसलिए मैंने जोर से उसका प्रतिवाद किया है।”आनन्द चाय की प्याली मुँह से लगा रहा था, हँसी की वजह से थोड़ी-सी चाय जमीन पर गिर पड़ी। राजलक्ष्मी भी हँस पड़ी।आनन्द ने कहा, “दादा, आपकी उपस्थित-बुद्धि अद्भुत है। यह ठीक उलटी बात क्षण-भर में आपके दिमाग में कैसे आ गयी?”राजलक्ष्मी ने कहा, “इसमें आश्चर्य क्या है आनन्द? अपने मन की बात दबाते-दबाते और कहानियाँ गढ़कर सुनाते-सुनाते इस विद्या में ये पूरी तरह महामहोपाधयाय हो गये हैं।”कहा, “तो तुम मेरा विश्वास नहीं करती?”“जरा भी नहीं।”आनन्द ने हँसकर कहा, “गढ़कर कहने की विद्या में आप भी कम नहीं हैं दीदी। तत्काल ही जवाब दे दिया, “जरा भी नहीं।”राजलक्ष्मी भी हँस पड़ी। बोली, “जल-भुनकर सीखना पड़ा है भाई। पर अब तुम देर मत करो, चाय पीकर नहा लो। यह अच्छी तरह जानती हूँ कि कल ट्रेन में तुम्हारा भोजन नहीं हुआ। इनके मुँह से मेरी सुख्याति सुनने के लिए तो तुम्हारा सारा दिन भी कम होगा।” यह कहकर वह चली गयी।आनन्द ने कहा, “आप दोनों जैसे दो व्यक्ति संसार में विरल हैं। भगवान ने अद्भुत जोड़ मिलाकर आप लोगों को दुनिया में भेजा है।”“उसका नमूना देख लिया न?”“नमूना तो उस पहिले ही दिन साँईथियाँ स्टेशन के पेड़-तले देख लिया था। इसके बाद और कोई कभी नजर नहीं आया।”“आहा! ये बातें यदि तुम उनके सामने ही कहते आनन्द!”आनन्द काम का आदमी है, काम करने का उद्यम और शक्ति उसमें विपुल है। उसको निकट पाकर राजलक्ष्मी के आनन्द की सीमा नहीं। रात-दिन खाने की तैयारियाँ तो प्राय: भय की सीमा तक पहुँच गयी। दोनों में लगातार कितने परामर्श होते रहे, उन सबको मैं नहीं जानता। कान में सिर्फ यह भनक पड़ी कि गंगामाटी में एक लड़कों के लिए और एक लड़कियों के लिए स्कूल खोला जायेगा। वहाँ काफी गरीब और नीच जाति के लोगों का वास है और शायद वे ही उपलक्ष्य हैं। सुना कि चिकित्सा का भी प्रबन्ध किया जायेगा। इन सब विषयों की मुझमें तनिक भी पटुता नहीं। परोपकार की इच्छा है पर शक्ति नहीं। यह सोचते ही कि कहीं कुछ खड़ा करना या बनाना पड़ेगा, मेरा श्रान्त मन 'आज नहीं, कल' कह-कहकर दिन टालना चाहता है। अपने नये उद्योग में बीच-बीच में आनन्द मुझे घसीटने आता, पर राजलक्ष्मी हँसते हुए बाधा देकर कहती, “इन्हें मत लपेटो आनन्द, तुम्हारे सब संकल्प पंगु हो जायेंगे।”सुनने पर प्रतिवाद करना ही पड़ता। कहता, “अभी-अभी उस दिन तो कहा कि मेरा बहुत काम है और अब मुझे बहुत कुछ करना होगा!”राजलक्ष्मी ने हाथ जोड़कर कहा, “मेरी गलती हुई गुसाईं, अब ऐसी बात कभी जबान पर नहीं लाऊँगी।”“तब क्या किसी दिन कुछ भी नहीं करूँगा?”“क्यों नहीं करोगे? यदि बीमार पड़कर डर के मारे मुझे अधमरा न कर डालो, तो इससे ही मैं तुम्हारे निकट चिरकृतज्ञ रहूँगी।”आनन्द ने कहा, “दीदी, इस तरह तो आप सचमुच ही इन्हें अकर्मण्य बना देंगी।”राजलक्ष्मी ने कहा, “मुझे नहीं बनाना पड़ेगा भाई, जिस विधाता ने इनकी सृष्टि की है उसी ने इसकी व्यवस्था कर दी है- कहीं भी त्रुटि नहीं रहने दी है।”आनन्द हँसने लगा। राजलक्ष्मी ने कहा, “और फिर वह जलमुँहा ज्योतिषी ऐसा डर दिखा गया है कि इनके मकान से बाहर पैर रखते ही मेरी छाती धक्-धक् करने लगती है- जब तक लौटते नहीं तब तक किसी भी काम में मन नहीं लगा सकती।”“इस बीच ज्योतिषी कहाँ मिल गया? क्या कहा उसने?”इसका उत्तर मैंने दिया। कहा, “मेरा हाथ देखकर वह बोला कि बहुत बड़ा विपद्-योग है- जीवन-मरण की समस्या!”“दीदी, इन सब बातों पर आप विश्वास करती हैं?”मैंने कहा, “हाँ करती हैं जरूर करती हैं। तुम्हारी दीदी कहती हैं कि क्या विपद्-योग नाम की कोई बात ही दुनिया में नहीं है? क्या कभी किसी पर आफत नहीं आती?”आनन्द ने हँसकर कहा, “आ सकती है, पर हाथ देखकर कोई कैसे बता सकता है दीदी?”राजलक्ष्मी ने कहा, “यह तो नहीं जानती भाई, पर मुझे यह भरोसा जरूर है कि जो मेरे जैसी भाग्यवती है, उसे भगवान इतने बड़े दु:ख में नहीं डुबायेंगे।”क्षण-भर तक स्तब्धता के साथ उसके मुँह की ओर देखकर आनन्द ने दूसरी बात छेड़ दी।इसी बीच मकान की लिखा-पढ़ी, बन्दोबस्त और व्यवस्था का काम चलने लगा, ढेर की ढेर ईंटें, काठ, चूना, सुरकी, दरवाजे, खिड़कियाँ वगैरह आ पड़ीं। पुराने घर को राजलक्ष्मी ने नया बनाने का आयोजन किया।उस दिन शाम को आनन्द ने कहा, “चलिए दादा, जरा घूम आयें।”आजकल मेरे बाहर जाने के प्रस्ताव पर राजलक्ष्मी अनिच्छा जाहिर किया करती है। बोली, “घूमकर लौटते-लौटते रात्रि हो जायेगी आनन्द, ठण्ड नहीं लगेगी?”आनन्द ने कहा, “गरमी से तो लोग मरे जा रहे हैं दीदी, ठण्ड कहाँ है?”आज मेरी तबीयत भी बहुत अच्छी न थी। कहा, “इसमें शक नहीं कि ठण्ड लगने का डर नहीं, पर आज उठने की भी वैसी इच्छा नहीं हो रही है आनन्द।”आनन्द ने कहा, “यह जड़ता है। शाम के वक्त कमरे में बैठे रहने से अनिच्छा और भी बढ़ जायेगी-चलिए, उठिए।”राजलक्ष्मी ने इसका समाधान करने के लिए कहा, “इससे अच्छा एक दूसरा काम करें न आनन्द। परसों क्षितीज मुझे एक अच्छा हारमोनियम खरीद कर दे गया है, अब तक उसे देखने का वक्त ही नहीं मिला। मैं भगवान का नाम लेती हूँ, तुम बैठकर सुनो- शाम कट जायेगी।” यह कह उसने रतन को पुकारकर बक्स लाने के लिए कह दिया।आनन्द ने विस्मय से पूछा, “भगवान का नाम माने क्या गीत दीदी?”राजलक्ष्मी ने सिर हिलाकर 'हाँ' की। “दीदी को यह विद्या भी आती है क्या?”“बहुत साधारण-सी।” फिर मुझे दिखाकर कहा, “बचपन में इन्होंने ही अभ्यास कराया था।”आनन्द ने खुश होकर कहा, “दादा तो छिपे हुए रुस्तम हैं, बाहर से पहिचानने का कोई उपाय ही नहीं।”उसका मन्तव्य सुन लक्ष्मी हँसने लगी, पर मैं सरल मन से साथ न दे सका। क्योंकि आनन्द कुछ भी नहीं समझेगा और मेरे इनकार को उस्ताद के विनय-वाक्य समझ और भी ज्यादा तंग करेगा, और अन्त में शायद नाराज भी हो जायेगा। पुत्र-शोकातुर धृतराष्ट्र-विलाप का दुर्योधन वाला गाना जानता हूँ, पर राजलक्ष्मी के बाद इस बैठक में वह कुछ जँचेगा नहीं।राजलक्ष्मी ने हारमोनियम आने पर पहले दो-एक भगवान के ऐसे गीत सुनाये जो हर जगह प्रचलित हैं और फिर वैष्णव-पदावली आरम्भ कर दी। सुनकर ऐसा लगा कि उस दिन मुरारीपुर के अखाड़े में भी शायद इतना अच्छा नहीं सुना था। आनन्द विस्मय से अभिभूत हो गया, मेरी ओर इशारा कर मुग्ध चित्त से बोला, “यह सब क्या इन्हीं से सीखा है दीदी?”“सब क्या एक ही आदमी के पास कोई सीखता है आनन्द?”“यह सही है।” इसके बाद उसने मेरी तरफ देखकर कहा, “दादा, अब आपको दया करनी होगी। दीदी कुछ थक गयी हैं।”“नहीं भाई, मेरी तबीयत अच्छी नहीं है।';'“तबीयत के लिए मैं जिम्मेदार हूँ, क्या अतिथि का अनुरोध नहीं मानेंगे?”“मानने का उपाय जो नहीं है, तबीयत बहुत खराब है।”राजलक्ष्मी गम्भीर होने की चेष्टा कर रही थी पर सफल न हो सकी, हँसी के मारे लोट-पोट हो गयी। आनन्द ने अब मामला समझा, बोला, “दीदी, तो सच बताओ कि आपने किससे इतना सीखा?”मैंने कहा, “जो रुपयों के परिवर्तन में विद्या-दान करते हैं उनसे, मुझसे नहीं भैया। दादा इस विद्या के पास से भी कभी नहीं फटका।”क्षण भर मौन रहकर आनन्द ने कहा, “मैं भी कुछ थोड़ा-सा जानता हूँ दीदी, पर ज्यादा सीखने का वक्त नहीं मिला। यदि इस बार सुयोग मिला तो आपका शिष्यत्व स्वीकार कर अपनी शिक्षा को सम्पूर्ण कर लूँगा। पर आज क्या यहीं रुक जाँयगी, और कुछ नहीं सुनायेंगी?”राजलक्ष्मी ने कहा, “अब वक्त नहीं है भाई, तुम लोगों का खाना जो तैयार करना है।”आनन्द ने नि:श्वास छोड़कर कहा, “जानता हूँ कि संसार में जिनके ऊपर भार है उनके पास वक्त कम है। पर उम्र में मैं छोटा हूँ, आपका छोटा भाई। मुझे सिखाना ही होगा। अपरिचित स्थान में जब अकेला वक्त कटना नहीं चाहेगा, तब आपकी इस दया का स्मरण करूँगा।”राजलक्ष्मी ने स्नेह से विगलित होकर कहा, “तुम डॉक्टर हो, विदेश में अपने इस स्वास्थ्यहीन दादा के प्रति दृष्टि रखना भाई, मैं जितना भी जानती हूँ उतना तुम्हें प्यार से सिखाऊँगी।”“पर इसके अलावा क्या आपको और कोई फिक्र नहीं है दीदी?”राजलक्ष्मी चुप रही। आनन्द ने मुझे उद्देश्य कर कहा, “दादा जैसा भाग्य सहसा नजर नहीं आता।”मैंने इसका उत्तर दिया, “और ऐसा अकर्मण्य व्यक्ति ही क्या जल्दी नजर आता है आनन्द? ऐसों की नकेल पकड़ने के लिए भगवान मजबूत आदमी भी दे देता है, नहीं तो वे बीच समुद्र में ही डूब जाँय- किसी तरह घाट तक पहुँच ही न पायें। इसी तरह संसार में सामंजस्य की रक्षा होती है भैया, मेरी बातें मिलाकर देखना, प्रमाण मिल जायेगा।”राजलक्ष्मी भी मुहूर्त-भर नि:शब्द देखती रही, फिर उठ गयी। उसे बहुत काम है।इन कुछ दिनों के अन्दर ही मकान का काम शुरू हो गया, चीज-बस्त को एक कमरे में बन्दकर राजलक्ष्मी यात्रा के लिए तैयारी करने लगी। मकान का भार बूढ़े तुलसीदास पर रहा।जाने के दिन राजलक्ष्मी ने मेरे हाथ में एक पोस्टकार्ड देकर कहा, “मेरी चार पन्ने की चिट्ठी का यह जवाब आया है- पढ़कर देख लो।” और वह चली गयी।दो-तीन लाइनों में कमललता ने लिखा है-“सुख से ही हूँ बहिन, जिनकी सेवा में अपने को निवेदन कर दिया है, मुझे अच्छा रखने का भार भी उन्हीं पर है। यही प्रार्थना करती हूँ कि तुम लोग कुशल रहो। बड़े ग़ुर्साईंजी अपनी आनन्दमयी के लिए श्रद्धा प्रगट करते हैं।-इति श्री श्रीराधाकृष्णचरणाश्रिता, कमललता।”उसने मेरे नाम का उल्लेख भी नहीं किया है। पर इन कई अक्षरों की आड़ में उसकी न जाने कितनी बातें छुपी रह गयीं। खोजने लगा कि चिट्ठी पर एक बूँद ऑंसू का दाग भी क्या नहीं पड़ा है? पर कोई भी चिह्न नजर नहीं आया।चिट्ठी को हाथ में लेकर चुप बैठा रहा। खिड़की के बाहर धूप से तपा हुआ नीलाभ आकाश है, पड़ोसी के घर के दो नारियल के वृक्षों के पत्तों की फाँक से उसका कुछ अंश दिखाई देता है। वहाँ अकस्मात् ही दो चेहरे पास ही पास मानो तैर आये, एक मेरी राजलक्ष्मी का-कल्याण की प्रतिमा, दूसरा कमललता का, अपरिस्फुट, अनजान जैसे कोई स्वप्न में देखी हुई छवि।रतन ने आकर ध्या न भंग कर दिया। बोला, “स्नान का वक्त हो गया है बाबू, माँ ने कहा है।”स्नान का समय भी नहीं बीत जाना चाहिए!फिर एक दिन सुबह हम गंगामाटी जा पहुँचे। उस बार आनन्द अनाहूत अतिथि था, पर इस बार आमन्त्रित बान्धव। मकान में भीड़ नहीं समाती, गाँव के आत्मीय और अनात्मीय न जाने कितने लोग हमें देखने आये हैं। सभी के चेहरों पर प्रसन्न हँसी और कुशल-प्रश्न है। राजलक्ष्मी ने कुशारीजी की पत्नी को प्रणाम किया। सुनन्दा रसोई के काम में लगी थी, बाहर निकल आई और हम दोनों को प्रणाम करके बोली, “दादा, आपका शरीर तो वैसा अच्छा दिखाई नहीं देता!”राजलक्ष्मी ने कहा, “अच्छा और कब दिखता था बहिन? मुझसे तो नहीं हुआ, अब शायद तुम लोग अच्छा कर सको- इसी आशा से यहाँ ले आई हूँ।”मेरे विगत दिनों की बीमारी की बात शायद बड़ी बहू को याद आ गयी, उन्होंने स्नेहार्द्र कण्ठ से दिलासा देते हुए कहा- “डर की कोई बात नहीं है बेटी, इस देश के हवा-पानी से दो दिन में ही ये ठीक हो जायेंगे।” मेरी समझ में नहीं आया कि मुझे क्या हुआ है और किसलिए इतनी दुश्चिन्ता है!इसके बाद नाना प्रकार के कामों का आयोजन पूरे उद्यम के साथ शुरू हो गया। पोड़ामाटी को खरीदने की बातचीत से शुरू करके शिशु-विद्यालय की प्रतिष्ठा के लिए स्थान की खोज तक किसी भी काम में किसी को जरा भी आलस्य नहीं।सिर्फ मैं अकेला ही मन में कोई उत्साह अनुभव नहीं करता। या तो यह मेरा स्वभाव ही है, या फिर और ही कुछ जो दृष्टि के अगोचर मेरी समस्त प्राण-शक्ति का धीरे-धीरे मूलोच्छेदन कर रहा है। एक सुभीता यह हो गया है कि मेरी उदासीनता से कोई विस्मित नहीं होता, मानों मुझसे और किसी बात की प्रत्याशा करना ही असंगत है। मैं दुर्बल हूँ, अस्वस्थ हूँ, मैं कभी हूँ और कभी नहीं हूँ। फिर भी कोई बीमारी नहीं है, खाता पीता और रहता हूँ। अपनी डॉक्टरी विद्या द्वारा ज्यों ही कभी आनन्द हिलाने-डुलाने की कोशिश करता है त्यों ही राजलक्ष्मी सस्नेह उलाहने के रूप में बाधा देते हुए कहती हैं, “उन्हें दिक् करने का काम नहीं भाई, न जाने क्या से क्या हो जाय। तब हमें ही भोगना पड़ेगा!”आनन्द कहता, “आपको सावधान किये देता हूँ कि जो व्यवस्था की है उससे भोगने की मात्रा बढ़ेगी ही, कम नहीं होगी दीदी।”राजलक्ष्मी सहज ही स्वीकार करके कहती, “यह तो मैं जानती हूँ आनन्द, कि भगवान ने मेरे जन्म-काल में ही यह दु:ख कपाल में लिख दिया है।”इसके बाद और तर्क नहीं किया जा सकता।कभी किताबें पढ़ते हुए दिन कट जाता है, कभी अपनी विगत कहानी को लिखने में और कभी सूने मैदानों में अकेले घूमते। एक बात से निश्चिन्त हूँ कि कर्म की प्रेरणा मुझमें नहीं है। लड़-झगड़कर उछल-कूद मचाकर संसार में दस आदमियों के सिर पर चढ़ बैठने की शक्ति भी नहीं और संकल्प भी नहीं। सहज ही जो मिल जाता है, उसे ही यथेष्ट मान लेता हूँ। मकान-घर, रुपया-पैसा, जमीन-जायदाद, मान-सम्मान, ये सब मेरे लिए छायामय हैं। दूसरों की देखा-देखी अपनी जड़ता को यदि कभी कर्त्तव्य-बुद्धि की ताड़ना से सचेत करना चाहता हूँ तो देखता हूँ कि थोड़ी ही देर में वह फिर ऑंखें बन्द किये ऊँघ रही है- सैकड़ों धक्के देने पर भी हिलना-डुलना नहीं चाहती। देखता हूँ कि सिर्फ एक विषय में तन्द्रातुर मन कलरव से तरंगित हो उठता है और वह है मुरारीपुर के दस दिनों की स्मृति का आलोड़न। मानो कानों में सुनाई पड़ रहा है, वैष्णवी कमललता का सस्नेह अनुरोध- 'नये गुसाईं, यह कर दो न भाई!- अरे जाओ, सब नष्ट कर दिया! मेरी गलती हुई जो तुमसे काम करने के लिए कहा, अब उठो। जलमुँही पद्मा कहाँ गयी, जरा पानी चढ़ा देती, तुम्हारा चाय पीने का समय हो गया है गुसाईं।”उन दिनों वह खुद चाय के पात्र धोकर रखती थी, इस डरसे कि कहीं टूट न जाँय। उनका प्रयोजन खत्म हो गया है, तथापि क्या मालूम कि फिर कभी काम में आने की आशा से उसने अब भी उन्हें यत्नपूर्वक रख छोड़ा है या नहीं, जानता हूँ कि वह भागूँ-भागूँ कर रही है। हेतु नहीं जानता, तो भी मन में सन्देह नहीं है कि मुरारीपुर के आश्रम में उसके दिन हर रोज संक्षिप्त होते जा रहे हैं। एक दिन अकस्मात् शायद, यही खबर मिलेगी। यह कल्पना करते ही ऑंखों में ऑंसू आ जाते हैं कि वह निराश्रय, नि:सबल पथ-पथ पर भिक्षा माँगती हुई घूम रही है, भूला-भटका मन सान्त्वना की आशा में राजलक्ष्मी की ओर देखता है, जो सबकी सकल शुभचिन्ताओं के अविश्राम कर्म में नियुक्त है-मानों उसके दोनों हाथों की दसों अंगुलियों से कल्याण अजस्र धारा से बह रहा है। सुप्रसन्न मुँह पर शान्ति और सन्तोष की स्निग्धा छाया पड़ रही है। करुणा और ममता से हृदय की यमुना किनारे तक पूर्ण हैं-निरविच्छिन्न प्रेम की सर्वव्यापी महिमा के साथ वह मेरे हृदय में जिस आसन पर प्रतिष्ठित है, नहीं जानता कि उसकी तुलना किससे की जाय।विदुषी सुनन्दा के दुर्निवार प्रभाव ने कुछ वक्त के लिए उसे जो विभ्रान्त कर दिया था, उसके दु:सह परिताप से उसने अपनी पुरानी सत्ता फिर से पा ली है। एक बात आज भी वह मेरे कानों-कानों में कहती है कि “तुम भी कम नहीं हो जी, कम नहीं हो! भला यह कौन जानता था कि तुम्हारे चले जाने के पथ पर ही मेरा सर्वस्व पलक मारते ही दौड़ पड़ेगा। ऊ:! वह कैसी भयंकर बात थी! सोचने पर भी डर लगता है कि मेरे वे दिन कटे कैसे थे। धड़कन बन्द होकर मर नहीं गयी, यही आश्चर्य है!” मैं उत्तर नहीं दे पाता हूँ, सिर्फ चुपचाप देखता रहता हूँ।अपने बारे में जब उसकी गलती पकड़ने की गुंजाइश नहीं है। सौ कामों के बीच भी सौ दफा चुपचाप आकर देख जाती है। कभी एकाएक आकर नजदीक बैठ जाती है और हाथ की किताब हटाते हुए कहती है, “ऑंखें बन्द करके जरा सो जाओ न, मैं सिर पर हाथ फेरे देती हूँ। इतना पढ़ने पर ऑंखों में दर्द जो होने लगेगा।”आनन्द आकर बाहर से ही कहता है, “एक बात पूछनी है, आ सकता हूँ?”राजलक्ष्मी कहती हैं, “आ सकते हो। तुम्हें आने की कहाँ मनाही है आनन्द?”आनन्द कमरे में घुसकर आश्चर्य से कहता है, “इस असमय में क्या आप इन्हें सुला रही हैं दीदी?”राजलक्ष्मी हँसकर जवाब देती है, “तुम्हारा क्या नुकसान हुआ? नहीं सोने पर भी तो ये तुम्हारी पाठशाला के बछड़ों को चराने नहीं जायेंगे!”“देखता हूँ कि दीदी इन्हें मिट्टी कर देंगी।”“नहीं तो खुद जो मिट्टी हुई जाती हूँ, बेफिक्री से कोई काम-काज ही नहीं कर पाती।”“आप दोनों ही क्रमश: पागल हो जायेंगे।” कहकर आनन्द बाहर चला जाता है।स्कूल बनवाने के काम में आनन्द को साँस लेने की भी फुर्सत नहीं है, और सम्पत्ति खरीदने के हंगामे में राजलक्ष्मी भी पूरी तरह डूबी हुई है। इसी समय कलकत्ते के मकान से घूमती हुई, बहुत से पोस्ट-ऑफिसों में की मुहरों को पीठ पर लिये हुए, बहुत देर में, नवीन की सांघातिक चिट्ठी आ पहुँची- गौहर मृत्युशय्या पर है। सिर्फ मेरी ही राह देखता हुआ अब भी जी रहा है। यह खबर मुझे शूल जैसी चुभी। यह नहीं जानता कि बहिन के मकान से वह कब लौटा। वह इतना ज्यादा पीड़ित है, यह भी नहीं सुना-सुनने की विशेष चेष्टा भी नहीं की और आज एकदम शेष संवाद आ गया। प्राय: छह दिन पहले की चिट्ठी है, इसलिए अब वह जिन्दा है या नहीं-यही कौन जानता है! तार द्वारा खबर पाने की व्यवस्था इस देश में नहीं है और उस देश में भी नहीं। इसलिए इसकी चिन्ता वृथा है। चिट्ठी पढ़कर राजलक्ष्मी ने सिर पर हाथ रखकर पूछा, “तुम्हें क्या जाना पड़ेगा?”“हाँ।”“तो चलो, मैं भी साथ चलूँ।”“यह कहीं हो सकता है? इस आफत के समय तुम कहाँ जाओगी?”यह उसने खुद ही समझ लिया कि प्रस्ताव असंगत है, मुरारीपुर के अखाड़े की बात भी फिर वह जबान पर न ला सकी। बोली, “रतन को कल से बुखार है, साथ में कौन जायेगा? आनन्द से कहूँ?”“नहीं, वह मेरे बिस्तर उठाने वाला आदमी नहीं है!”“तो फिर साथ में किसन जाय?”“भले जाय, पर जरूरत नहीं है।”“जाकर रोज चिट्ठी दोगे, बोलो?”“समय मिला तो दूँगा।”“नहीं, यह नहीं सुनूँगी। एक दिन चिट्ठी न मिलने पर मैं खुद आ जाऊँगी चाहे तुम कितने ही नाराज क्यों न हो।” 'अगत्या राजी होना पड़ा, और हर रोज संवाद देने की प्रतिज्ञा करके उसी दिन चल पड़ा। देखा कि दुश्चिन्ता से राजलक्ष्मी का मुँह पीला पड़ गया है, उसने ऑंखें पोंछकर अन्तिम बार सावधान करते हुए कहा, “वादा करो कि शरीर की अवहेलना नहीं करोगे?”“नहीं, नहीं, करूँगा।”“कहो कि लौटने में एक दिन की भी देरी नहीं करोगे?”“नहीं, सो भी नहीं करूँगा!”अन्त में बैलगाड़ी रेलवे स्टेशन की तरफ चल दी।आषाढ़ का महीना था। तीसरे प्रहर गौहर के मकान के सदर दरवाजे पर जा पहुँचा। मेरी आवाज सुनकर नवीन बाहर आया और पछाड़ खाकर पैरों के पास गिर पड़ा। जो डर था वही हुआ। उस दीर्घकाय बलिष्ठ पुरुष के प्रबलकण्ठ के उस छाती फाड़ने वाले क्रन्दन में शोक की एक नयी मूर्ति देखी। वह जितनी गम्भीर थी, उतनी ही बड़ी और उतनी ही सत्य। गौहर की माँ नहीं, बहिन नहीं, कन्या नहीं, पत्नी नहीं। उस दिन इस संगीहीन मनुष्य को अश्रुओं की माला पहनाकर विदा करनेवाला कोई न था; तो भी ऐसा मालूम होता है कि उसे सज्जाहीन, भूषणहीन, कंगाल वेश में नहीं जाना पड़ा, उसकी लोकान्तर-यात्रा के पथ के लिए शेष पाथेय अकेले नवीन ने ही दोनों हाथ भरकर उड़ेल दिया है।बहुत देर बाद जब वह उठकर बैठ गया तब पूछा, “गौहर कब मरा नवीन?”“परसों। कल सुबह ही हमने उन्हें दफनाया है।”“कहाँ दफनाया?”“नदी के किनारे, आम के बगीचे में। और यह उन्हीं ने कहा था। ममेरी बहिन के मकान से बुखार लेकर लौटे और वह बुखार फिर नहीं गया था।”“इलाज हुआ था?”“यहाँ जो कुछ हो सकता है सब हुआ, पर किसी से भी कुछ लाभ न हुआ। बाबू खुद ही सब जान गये थे।”“अखाड़े के बड़े गुसाईंजी आते थे?”नवीन ने कहा, “कभी-कभी। नवद्वीप से उनके गुरुदेव आये हैं, इसीलिए रोज आने का वक्त नहीं मिलता था।” और एक व्यक्ति के बारे में पूछते हुए शर्म आने लगी, तो भी संकोच दूर कर प्रश्न किया, “वहाँ से और कोई नहीं आया नवीन?”नवीन ने कहा, “हाँ, कमललता आई थी।”,“कब आई थी?”नवीन ने कहा, “हर-रोज। अन्तिम तीन दिनों में तो न उन्होंने खाया और न सोया, बाबू का बिछौना छोड़कर एक बार भी नहीं उठीं।”और कोई प्रश्न नहीं किया, चुप हो रहा। नवीन ने पूछा, “अब कहाँ जायेंगे, अखाड़े में?”“हाँ।”“जरा ठहरिए।” कहकर वह भीतर गया और एक टीन का बक्स बाहर निकाल लाया। उसे मुझे देते हुए बोला, “आपको देने के लिए कह गये हैं।”“क्या है इसमें नवीन?”“खोलकर देखिए”, कहकर उसने मेरे हाथ में चाबी दे दी। खोलकर देखा कि उसकी कविता की कॉपियाँ रस्सी से बँधी हुई हैं। ऊपर लिखा है, “श्रीकान्त, रामायण खत्म करने का वक्त नहीं रहा। बड़े गुसाईंजी को दे देना, वे इसे मठ में रख देंगे, जिससे नष्ट न होने पावे।” दूसरी छोटी-सी पोटली सूती लाल कपड़े की है। खोलकर देखा कि नाना मूल्य के एक बंडल नोट हैं, और उन पर लिखा है, “भाई श्रीकान्त, शायद मैं नहीं बचूँगा। पता नहीं कि तुमसे मुलाकात होगी या नहीं। अगर नहीं हुई तो नवीन के हाथों यह बक्स दे जाता हूँ, इसे ले लेना। ये रुपये तुम्हें दे जा रहा हूँ।” यदि कमललता के काम में आयें तो दे देना। अगर न ले तो जो इच्छा हो सो करना। अल्लाह तुम्हारा भला करे।-गौहर।”दान का गर्व नहीं, अनुनय-विनय भी नहीं। मृत्यु को आसन्न जानकर सिर्फ थोड़े से शब्दों में बाल्य-बन्धु की शुभ कामना कर अपना शेष निवेदन रख गया है। भय नहीं, क्षोभ नहीं, उच्छ्वसित हाय-हाय से उसने मृत्यु का प्रतिवाद नहीं किया। वह कवि था, मुसलमान फकीर-वंश का रक्त उसकी शिराओं में था- शान्त मन से यह शेष रचना अपने बाल्य-बन्धु के लिए लिख गया है। अब तक मेरी ऑंखों के ऑंसू बाहर नहीं निकले थे, पर अब उन्होंने निषेध नहीं माना, वे बड़ी-बड़ी बूँदों में ऑंखों से निकलकर ढुलक पडे।आषाढ़ का दीर्घ दिन उस वक्त समाप्ति की ओर था। सारे पश्चिम अकाश में काले मेघों का एक स्तर ऊपर उठ रहा था। उसके ही किसी एक संकीर्ण छिद्रपथ से अस्तोन्मुख सूर्य की रश्मियाँ लाल होकर आ पड़ीं, प्राचीर से संलग्न शुष्कप्राय जामुन के पेड़ के सिर पर। इसी की शाखा के सहारे गौहर की माधवी और मालती लताओं के कुंज बने थे। उस दिन सिर्फ कलियाँ थीं। मुझे उनमें से ही कुछ उपहार देने की उसने इच्छा की थी। लेकिन चींटियों के डर से नहीं दे सका था। आज उनमें से गुच्छे के गुच्छे फूले हैं, जिनमें से कुछ तो नीचे झड़ गये हैं और कुछ हवा से उड़कर इर्द-गिर्द बिखर गये हैं। उन्हीं में से कुछ उठा लिये- बाल्य-बन्धु के स्वहस्तों का शेषदान समझकर। नवीन ने कहा, “चलिए, आपको पहुँचा आऊँ।”कहा, “नवीन, जरा बाहर का कमरा तो खोलो, देखूँगा।”नवीन ने कमरा खोल दिया। आज भी चौकी पर एक ओर बिछौना लिपटा हुआ रक्खा है, एक छोटी पेन्सिल और कुछ फटे कागजों के टुकड़े भी हैं। इसी कमरे में गौहर ने अपनी स्वरचित कविता वन्दिनी सीता के दु:ख की कहानी गाकर सुनाई थी। इस कमरे में न जाने कितनी बार आया हूँ, कितने दिनों तक खाया-पीया और सोया हूँ और उपद्रव कर गया हूँ। उस दिन हँसते-हुए जिन्होंने सब कुछ सहन किया था, अब उनमें से कोई भी जीवित नहीं है। आज अपना सारा आना-जाना समाप्त करके बाहर निकल आया।रास्ते में नवीन के मुँह से सुना कि गौहर ऐसी ही एक नोटों की छोटी पोटली उसके लड़कों को भी दे गया है। बाकी जो सम्पत्ति बची है, वह उसके ममेरे भाई-बहिनों को मिलेगी, और उसके पिता द्वारा निर्मित मस्जिद के रक्षणावेक्षण के लिए रहेगी।आश्रम में पहुँचकर देखा कि बहुत भीड़ है। गुरुदेव के साथ बहुत से शिष्य और शिष्याएँ आई हैं। खासी मजलिस जमी है, और हाव-भाव से उनके शीघ्र विदा होने के लक्षण भी दिखाई नहीं दिये। अनुमान किया कि वैष्णव-सेवा आदि कार्य विधि के अनुसार ही चल रहे हैं।मुझे देखकर द्वारिकादास ने अभ्यर्थना की। मेरे आगमन का हेतु वे जानते थे। गौहर के लिए दु:ख जाहिर किया, पर उनके मुँह पर न जाने कैसा विव्रत, उद्भ्रान्त भाव था, जो पहले कभी नहीं देखा। अन्दाज किया कि शायद इतने दिनों से वैष्णवों की परिचर्या के कारण वे क्लान्त और विपर्यस्त हो गये हैं, निश्चिन्त होकर बातचीत करने का वक्त उनके पास नहीं है।खबर मिलते ही पद्मा आयी, उसके मुँह पर भी आज हँसी नहीं, ऐसी संकुचित-सी, मानो भाग जाए तो बचे।पूछा, “कमललता दीदी इस वक्त बहुत व्यस्त हैं, क्यों पद्मा?”“नहीं, दीदी को बुला दूँ?” कहकर वह चली गयी। यह सब आज इतना अप्रत्याशित और अप्रासंगिक लगा कि मन ही मन शंकित हो उठा। कुछ देर बाद ही कमललता ने आकर नमस्कार किया। कहा, “आओ गुसाईं, मेरे कमरे में चल कर बैठो।”अपने बिछौने इत्यादि स्टेशन पर ही छोड़कर सिर्फ बैग साथ में लाया था और गौहर का वह बक्स मेरे नौकर के सिर पर था। कमललता के कमरे में आकर, उसे उसके हाथ में देते हुए बोला, “जरा सावधानी से रख दो, बक्स में बहुत रुपये हैं।”कमललता ने कहा, “मालूम है।” इसके बाद उसे खाट के नीचे रखकर पूछा, “शायद तुमने अभी तक चाय नहीं पी है?”“नहीं।”“कब आये?”“शाम को।”“आती हूँ, तैयार कर लाऊँ।” कहकर वह नौकर को साथ लेकर चल दी और पद्मा भी हाथ-मुँह धोने के लिए पानी देकर चली गयी, खड़ी नहीं रही।फिर खयाल हुआ कि बात क्या है?थोड़ी देर बाद कमललता चाय ले आयी, साथ में कुछ फल-फूल, मिठाई और उस वक्त का देवता का प्रसाद। बहुत देर से भूखा था, फौरन ही बैठ गया।कुछ क्षण पश्चात् ही देवता की सांध्यर-आरती के शंख और घण्टे की आवाज सुनाई पड़ी। पूछा, “अरे, तुम नहीं गयीं?”“नहीं, मना है।”“मना है तुम्हें? इसके मानो?”कमललता ने म्लान हँसी हँसकर कहा, “मना के माने हैं मना गुसाईं। अर्थात् देवता के कमरे में मेरा जाना निषिद्ध है।”आहार करने में रुचि न रही, पूछा “किसने मना किया?”“बड़े गुसाईंजी के गुरुदेव ने। और उनके साथ जो आये हैं, उन्होंने।”“वे क्या कहते हैं?';'“कहते हैं कि मैं अपवित्र हूँ, मेरी सेवा से देवता कलुषित हो जायेंगे।”“तुम अपवित्र हो!” विद्युत वेग से पूछा, “गौहर की वजह से ही सन्देह हुआ है क्या?”“हाँ, इसीलिए।”कुछ भी नहीं जानता था, तो भी बिना किसी संशय के कह उठा, “यह झूठ है- यह असम्भव है।”“असम्भव क्यों है गुसाईं?”“यह तो नहीं बतला सकता कमललता, पर इससे बढ़कर और कोई बात मिथ्या नहीं। ऐसा लगता है कि मनुष्य-समाज में अपने मृत्यु-पथ यात्री बन्धु की एकान्त सेवा का ऐसा ही शेष पुरस्कार दिया जाता है!”उसकी ऑंखों में ऑंसू आ गये। बोली, “अब मुझे दु:ख नहीं है। देवता अन्तर्यामी हैं, उनके निकट तो डर नहीं था, डर था सिर्फ तुमसे। आज मैं निर्भय होकर जी गयी गुसाईं।”“संसार के इतने आदमियों के बीच तुम्हें सिर्फ मुझसे डर था? और किसी से नहीं?”“नहीं, और किसी से नहीं, सिर्फ तुमसे था।”इसके बाद दोनों ही स्तब्ध रहे। एक बार पूछा, “बड़े गुसाईंजी क्या कहते हैं?”कमललता ने कहा, “उनके लिए तो और कोई उपाय नहीं है। नहीं तो फिर कोई भी वैष्णव इस मठ में नहीं आयेगा।” कुछ देर बाद कहा, “अब यहाँ रहना नहीं हो सकता। यह तो जानती थी कि यहाँ से एक दिन मुझे जाना होगा, पर यही नहीं सोचा था कि इस तरह जाना होगा गुसाईं। केवल पद्मा के बारे में सोचने से दु:ख होता है। लड़की है, उसका कहीं भी कोई नहीं है। बड़े गुसाईंजी को यह नवद्वीप में पड़ी हुई मिली थी। अपनी दीदी के चले जाने पर वह बहुत रोएगी। यदि हो सके तो जरा उसका खयाल रखना। यहाँ न रहना चाहे तो मेरे नाम से राजू को दे देना- वह जो अच्छा समझेगी अवश्य करेगी।”फिर कुछ क्षण चुपचाप कटे। पूछा, “इन रुपयों का क्या होगा? न लोगी?”“नहीं। मैं भिखारिन हूँ, रुपयों का क्या करूँगी-बताओ?”“तो भी यदि कभी किसी काम में आयें।”कमललता ने इस बार हँसकर कहा, “मेरे पास भी तो एक दिन बहुत रुपया था, वह किस काम आया? फिर भी, अगर कभी जरूरत पड़ी तो तुम किसलिए हो? तब तुमसे माँग लूँगी। दूसरे के रुपये क्यों लेने लगी?”सोच न सका कि इस बात का क्या जवाब दूँ, सिर्फ उसके मुँह की ओर देखता रहा।उसने फिर कहा, “नहीं गुसाईं, मुझे रुपये नहीं चाहिए। जिनके श्रीचरणों में स्वयं को समर्पण कर दिया है, वे मुझे नहीं छोड़ेंगे। कहीं भी जाऊँ, वे सारे अभावपूर्ण कर देंगे। मेरे लिए चिन्ता, फिक्र न करो।”पद्मा ने कमरे में आकर कहा, “नये गुसाईं के लिए क्या इसी कमरे में प्रसाद ले आऊँ दीदी?”“हाँ, यहीं ले आओ। नौकर को दिया?”“हाँ, दे दिया।”तो भी पद्मा नहीं गयी, क्षण भर तक इधर-उधर करके बोली, “तुम नहीं खाओगी दीदी?”“खाऊँगी री जलमुँही, खाऊँगी। जब तू है, तब बिना खाये दीदी की रिहाई है?”पद्मा चली गयी।सुबह उठने पर कमललता दिखाई नहीं पड़ी, पद्मा की जुबानी मालूम हुआ कि वह शाम को आती है। दिनभर कहाँ रहती है, कोई नहीं जानता। तो भी मैं निश्चिन्त नहीं हो सका, रात की बातें याद करके डर होने लगा कि कहीं वह चली न गयी हो और अब मुलाकात ही न हो।बड़े गुसाईंजी के कमरे में गया। सामने उन कॉपियों को रखकर बोला, “गौहर की रामायण है। उसकी इच्छा थी कि यह मठ में रहे।”द्वारिकादास ने हाथ फैलाकर रामायण ले ली, बोले, “यही होगा नये गुसाईं। जहाँ मठ के और सब ग्रन्थ रहते हैं, वहीं उन्हीं के साथ इसे भी रख दूँगा।”कोई दो मिनट तक चुप रहकर कहा, “उसके सम्बन्ध में कमललता पर लगाए गये अपवाद पर तुम विश्वास करते हो गुसाईं?”द्वारिकादास ने मुँह ऊपर उठाकर कहा, “मैं? जरा भी नहीं।”“तब भी उसे चला जाना पड़ रहा है?”“मुझे भी जाना होगा गुसाईं। निर्दोषी को दूर करके यदि खुद बना रहूँ, तो फिर मिथ्या ही इस पथ पर आया और मिथ्या ही उनका नाम इतने दिनों तक लिया।”“तब फिर उसे ही क्यों जाना पड़ेगा? मठ के कर्त्ता तो तुम हो, तुम तो उसे रख सकते हो?”द्वारिकादास 'गुरु! गुरु! गुरु!' कहकर मुँह नीचा किये बैठे रहे। समझा कि इसके अलावा गुरु का और आदेश नहीं है।“आज मैं जा रहा हूँ गुसाईं।” कहकर कमरे से बाहर निकलते समय उन्होंने मुँह ऊपर उठाकर मेरी ओर ताका। देखा कि उनकी ऑंखों से ऑंसू गिर रहे हैं। उन्होंने मुझे हाथ उठाकर नमस्कार किया और मैं प्रतिनमस्कार करके चला आया।अपराह्न बेला क्रमश: संध्याक में परिणत हो गयी, संध्याठ उत्तीर्ण होकर रात आयी, किन्तु कमललता नजर नहीं आयी। नवीन का आदमी मुझे स्टेशन पर पहुँचाने के लिए आ पहुँचा। सिर पर बैग रक्खे किसन जल्दी मचा कर कह रहा है- अब वक्त नहीं है- पर कमललता नहीं लौटी। पद्मा का विश्वास था कि थोड़ी देर बाद ही वह आएगी, पर मेरा सन्देह क्रमश: विश्वास बन गया कि वह नहीं आयेगी और शेष विदाई की कठोर परीक्षा से विमुख होकर वह पूर्वाह्न में ही भाग गयी है, दूसरा वस्त्र भी साथ नहीं लिया है। कल उसने भिक्षुणी वैरागिणी बताकर जो आत्म-परिचय दिया था, वह परिचय ही आज अक्षुण्ण रखा।जाने के वक्त पद्मा रोने लगी। उसे अपना पता देते हुए कहा, “दीदी ने तुमसे मुझे चिट्ठी लिखते रहने के लिए कहा है- तुम्हारी जो इच्छा हो वह मुझे लिखकर भेजना पद्मा।”“पर मैं तो अच्छी तरह लिखना नहीं जानती, गुसाईं।”“तुम जो लिखोगी मैं वही पढ़ लूँगा।”“दीदी से मिलकर नहीं जाओगे?”“फिर मुलाकात होगी पद्मा, अब तो मैं जाता हूँ।” कहकर बाहर निकल पड़ा।♦♦ • ♦♦ऑंखें जिसे सारे रास्ते अन्धकार में भी खोज रही थीं, उससे मुलाकात हुई रेलवे स्टेशन पर। वह लोगों की भीड़ से दूर खड़ी थी, मुझे देख नजदीक आकर बोली, “एक टिकिट खरीद देना होगा गुसाईं।”“तब क्या सचमुच ही सबको छोड़कर चल दीं?”“इसके अलावा और तो कोई उपाय नहीं है।”“कष्ट नहीं होता कमललता?”“यह बात क्यों पूछते हो गुसाईं, सब तो जानते हो।”“कहाँ जाओगी?”“वृन्दावन जाऊँगी। पर इतनी दूर का टिकिट नहीं चाहिए। तुम पास की ही किसी जगह का खरीद दो।”“मतलब यह कि मेरा ऋण जितना भी कम हो उतना अच्छा। इसके बाद दूसरों से भिक्षा माँगना शुरू कर दोगी, जब तक कि पथ शेष नहीं हो। यही तो?”“भिक्षा क्या यह पहली बार ही शुरू होगी गुसाईं? क्या कभी और नहीं माँगी?”चुप रहा। उसने मेरी ओर ऑंखें फिराकर कहा, “तो वृन्दावन का टिकिट ही खरीद दो।”“तो चलो एक साथ ही चलें?”“तुम्हारा भी क्या यही रास्ता है?”कहा, “नहीं, यही तो नहीं है- तो भी जितनी दूर तक है, उतनी ही दूर तक सही।”गाड़ी आने पर दोनों उसमें बैठ गये। पास की बेंच पर मैंने अपने हाथों से ही उसका बिछौना बिछा दिया।कमललता व्यस्त हो उठी, “यह क्या कर रहे हो गुसाईं?”“वह कर रहा हूँ जो कभी किसी के लिए नहीं किया- हमेशा याद रखने के लिए।”“सचमुच ही क्या याद रखना चाहते हो?”“सचमुच ही याद रखना चाहता हूँ कमललता। तुम्हारे अलावा यह बात और कोई नहीं जानेगा।”“पर मुझे तो दोष लगेगा गुसाईं।”“नहीं, कोई दोष नहीं लगेगा- तुम मजे से बैठो।”कमललता बैठी, पर बड़े संकोच के साथ। कितने गाँव, कितने नगर और कितने प्रान्तों को पार करती हुई ट्रेन चल रही थी। नजदीक बैठकर वह धीरे-धीरे अपने जीवन की अनेक कहानियाँ सुनाने लगी। जगह-जगह घूमने की कहानियाँ, मथुरा, वृन्दावन, गोवरधन, राधाकुण्ड-निवास की बातें, अनेक तीर्थ-भ्रमणों की कथाएँ, और अन्त में द्वारिकादास के आश्रय में मुरारीपुर आश्रम में आने की बात। मुझे उस वक्त उस व्यक्ति की विदा के वक्त की बातें याद आ गयीं। कहा, “जानती हो, कमललता, बड़े गुसाईं तुम्हारे कलंक पर विश्वास न ही करते?”'“नहीं करते?”“कतई नहीं। मेरे आने के वक्त उनकी ऑंखों से ऑंसू गिरने लगे, बोले- “निर्दोषी को दूर करके यदि मैं यहाँ खुद बना रहा नये गुसाईं, तो उनका नाम लेना मिथ्या है और मिथ्या है मेरा इस पथ पर आना।' मठ में वे भी न रहेंगे कमललता और तब ऐसा निष्पाप मधुर आश्रम टूटकर बिल्कुथल नष्ट हो जायेगा।”“नहीं, नहीं नष्ट होगा, भगवान एक न एक रास्ता अवश्य दिखा देंगे।”“अगर कभी तुम्हारी पुकार हो, तो फिर वहाँ लौटकर जाओगी?”“नहीं।”“यदि वे पश्चात्ताप करके तुमको लौटाया चाहें?”“तो भी नहीं।”“पर अब तुमसे कहाँ मुलाकात होगी?”इस प्रश्न का उसने उत्तर नहीं दिया, चुप रही। काफी वक्त खामोशी में कट गया, पुकारा, “कमललता?' उत्तर नहीं मिला, देखा कि गाड़ी के एक कोने में सिर रखकर उसने ऑंखें बन्द कर ली हैं। यह सोचकर कि सारे दिन की थकान से सो गयी हैं, जगाने की इच्छा नहीं हुई। उसके बाद फिर, मैं खुद कब सो गया, यह पता नहीं, हठात् कानों में आवाज आयी, “नये गुसाईं?” देखा कि वह मेरे शरीर को हिलाकर पुकार रही हैं। बोली, “उठो, तुम्हारी साँईथिया की ट्रेन खड़ी है।”जल्दी से उठ बैठा, पास के डिब्बे में किसन सिंह था, पुकारने के साथ ही उसने आकर बैग उतार दिया। बिछौना बाँधते वक्त देखा कि जिन दो चादरों से उसकी शय्या बनाई थी, उसने उनको पहिले से ही तहकर मेरी बेंच पर एक ओर रख दिया है। कहा, “यह जरा-सा भी तुमने लौटा दिया- नहीं लिया?”“न जाने कितनी बार चढ़ना-उतरना पड़े, यह बोझा कौन उठाएगा?”“दूसरा वस्त्र भी साथ नहीं लायी, वह भी क्या बोझा होता? एक-दो वस्त्र निकालकर दूँ?”“तुम भी खूब हो! तुम्हारे कपड़े भिखारिणी के शरीर पर कैसे फबेंगे?”“खैर, कपड़े अच्छे नहीं लगेंगे, पर भिखारी को भी खाना तो पड़ता है? पहुँचने में और भी दो-तीन दिन लगेंगे, ट्रेन में क्या खाओगी? जो खाने की चीजें मेरे पास हैं, उन्हें भी क्या फेंक जाऊँ- तुम नहीं छुओगी?”कमललता ने इस बार हँसकर कहा, “अरे वाह, गुस्सा हो गये! अजी उन्हें छुऊँगी। रहने दो उन्हें, तुम्हारे चले जाने के बाद मैं पेटभर के खा लूँगी।”वक्त खत्म हो रहा था, मेरे उतरने के वक्त बोली, “जरा ठहरो तो गुसाईं, कोई है नहीं- आज छिपकर तुम्हें एक बार प्रणाम कर लूँ।” यह कहकर, उसने झुककर मेरे पैरों की धूल ले ली।उतरकर प्लेटफार्म पर खड़ा हो गया। उस वक्त रात समाप्त नहीं हुई थी, नीचे और ऊपर अन्धकार के स्तरों में बँटवारा शुरू हो गया था। आकाश के एक प्रान्त में कृष्ण त्रयोदशी का क्षीण शीर्ण शशि और दूसरे प्रान्त में उषा की आगमनी। उस दिन की बात याद आ गयी, जिस दिन ऐसे ही वक्त देवता के लिए फूल तोड़ने जाने के लिए उसका साथी हुआ था। और आज?सीटी बजाकर और हरे रंग की लालटेन हिलाकर गार्ड साहब ने यात्रा का संकेत किया। कमललता ने खिड़की से हाथ बढ़ाकर प्रथम बार मेरा हाथ पकड़ लिया। उसके कम्पन में विनती का जो सुर था वह कैसे समझाऊँ? बोली, “तुमसे कभी कुछ नहीं माँगा है, आज एक बात रखोगे?”“हाँ रक्खूँगा।” कहकर उसकी ओर देखने लगा।कहने में उसे एक क्षण की देर हुई, बोली, “जानती हूँ कि मैं तुम्हारे कितने आदर की हूँ। आज विश्वासपूर्वक उनके पाद-पद्मों में मुझे सौंपकर तुम निश्चिन्त होओ, निर्भय होओ। मेरे लिए सोच-सोचकर अब तुम अपना मन खराब मत करना गुसाईं, तुम्हारे निकट मेरी यही प्रार्थना है।”ट्रेन चल दी। उसका वही हाथ अपने हाथ में लिये कुछ दूर अग्रसर होते-होते कहा, “कमललता, तुम्हें मैंने उन्हीं को सौंपा, वे ही तुम्हारा भार लें। तुम्हारा पथ, तुम्हारी साधना निरापद हो- अपनी कहकर अब मैं तुम्हारा असम्मान नहीं करूँगा।”हाथ छोड़ दिया, गाड़ी दूर से दूर होने लगी। गवाक्षपथ से देखा, उसके झुके हुए मुँह पर स्टेशन की प्रकाश-माला कई बार आकर पड़ी और फिर अन्धकार में मिल गयी। सिर्फ यही मालूम हुआ कि हाथ उठाकर मानो वह मुझे शेष नमस्कार कर रही है।समाप्त

❤️,श्रीकांत"❤️        अध्याय 20 By वनिता कासनियां पंजाब अध्याय 20 एक दिन सुबह स्वामी आनन्द आ पहुँचे। रतन को यह पता न था कि उन्हें आने का निमन्त्रण दिया गया है। उदास चेहरे से उसने आकर खबर दी, “बाबू, गंगामाटी का वह साधु आ पहुँचा है। बलिहारी है, खोज-खाजकर पता लगा ही लिया।” रतन सभी साधु-सज्जनों को सन्देह की दृष्टि से देखता है। राजलक्ष्मी के गुरुदेव को तो वह फूटी ऑंख नहीं देख सकता। बोला, “देखिए, यह इस बार किस मतलब से आया है। ये धार्मिक लोग रुपये लेने के अनेक कौशल जानते हैं।” हँसकर कहा, “आनन्द बड़े आदमी का लड़का है, डॉक्टरी पास है, उसे अपने लिए रुपयों की जरूरत नहीं।” “हूँ, बड़े आदमी का लड़का है! रुपया रहने पर क्या कोई इस रास्ते पर आता है!” इस तरह अपना सुदृढ़ अभिमत व्यक्त करके वह चला गया। रतन को असली आपत्ति यहीं पर है। माँ के रुपये कोई ले जाय, इसका वह जबरदस्त विरोधी है। हाँ, उसकी अपनी बात अलग है।” वज्रानन्द ने आकर मुझे नमस्कार किया, कहा, “और एक बार आ गया दादा, कुशल तो है? दीदी कहाँ हैं?” “शायद पूजा करने बैठी हैं, निश्चय ही उन्हें खबर नहीं मिली है।” “तो खुद ही जाकर संवाद दे ...

रामचरितमानस के उत्तरकांड में गरुड़जी कागभुशुण्डि जी से कहते हैं कि, आप मुझ पर कृपावान हैं, और मुझे अपना सेवक मानते हैं, तो कृपापूर्वक मेरे सात प्रश्नों के उत्तर दीजिए। गरुड़ जी प्रश्न करते हैं- प्रथमहिं कहहु नाथ मतिधीरा। सब तें दुर्लभ कवन सरीरा। बड़ दुख कवन कवन सुख भारी। सोइ संछेपहिं कहहु बिचारी। संत असंत मरम तुम जानहु। तिन्ह कर सहज सुभाव बखानहु। कवन पुन्य श्रुति बिदित बिसाला। कहहु कवन अघ परम कराला। मानस रोग कहहु समुझाई । तुम्ह सर्बग्य कृपा अधिकाई ।। गरुड़ प्रश्न करते हैं कि हे नाथ! सबसे दुर्लभ शरीर कौन-सा है। कौन सबसे बड़ा दुःख है। कौन सबसे बड़ा सुख है। साधु और असाधु जन का स्वभाव कैसा होता है। वेदों में बताया गया सबसे बड़ा पाप कौन-सा है। इसके बाद वे सातवें प्रश्न के संबंध में कहते हैं कि मानस रोग समझाकर बतलाएँ, क्योंकि आप सर्वज्ञ हैं। गरुड़ के प्रश्न के उत्तर में कागभुशुंडि कहते हैं कि मनुष्य का शरीर दुर्लभ और श्रेष्ठ है, क्योंकि इस शरीर के माध्यम से ही ज्ञान, वैराग्य, स्वर्ग, नरक, भक्ति आदि की प्राप्ति होती है। वे कहते हैं कि दरिद्र के समान संसार में कोई दुःख नहीं है और संतों (सज्जनों) के मिलन के समान कोई सुख नहीं है। मन, वाणी और कर्म से परोपकार करना ही संतों (साधुजनों) का स्वभाव होता है। किसी स्वार्थ के बिना, अकारण ही दूसरों का अपकार करने वाले दुष्ट जन होते हैं। वेदों में विदित अहिंसा ही परम धर्म और पुण्य है, और दूसरे की निंदा करने के समान कोई पाप नहीं होता है। गरुड़ के द्वारा पूछे गए सातवें प्रश्न का उत्तर अपेक्षाकृत विस्तार के साथ कागभुशुंडि द्वारा दिया जाता है। सातवें और अंतिम प्रश्न के उत्तर में प्रायः वे सभी कारण निहित हैं, जो अनेक प्रकार के दुःखों का कारण बनते हैं। इस कारण बाबा तुलसी मानस रोगों का विस्तार से वर्णन करते हैं। सुनहु तात अब मानस रोगा।जिन्ह तें दुख पावहिं सब लोगा। मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला। तिन्ह तें पुनि उपजहिं बहु सूला। काम बात कफ लोभ अपारा। क्रोध पित्त नित छाती जारा। प्रीति करहिं जौ तीनिउ भाई । उपजइ सन्यपात दुखदाई। विषय मनोरथ दुर्गम नाना । ते सब सूल नाम को जाना। कागभुशुंडि कहते हैं कि मानस रोगों के बारे में सुनिए, जिनके कारण सभी लोग दुःख पाते हैं। सारी मानसिक व्याधियों का मूल मोह है। इसके कारण ही अनेक प्रकार के मनोरोग उत्पन्न होते हैं। शरीर में विकार उत्पन्न करने वाले वात, कफ और पित्त की भाँति क्रमशः काम, अपार लोभ और क्रोध हैं। जिस प्रकार पित्त के बढ़ने से छाती में जलन होने लगती है, उसी प्रकार क्रोध भी जलाता है। यदि ये तीनों मनोविकार मिल जाएँ, तो कष्टकारी सन्निपात की भाँति रोग लग जाता है। अनेक प्रकार की विषय-वासना रूपी मनोकांक्षाएँ ही वे अनंत शूल हैं, जिनके नाम इतने ज्यादा हैं, कि उन सबको जानना भी बहुत कठिन है। बाबा तुलसी इस प्रसंग में अनेक प्रकार के मानस रोगों, जैसे- ममता, ईर्ष्या, हर्ष, विषाद, जलन, दुष्टता, मन की कुटिलता, अहंकार, दंभ, कपट, मद, मान, तृष्णा, मात्सर्य (डाह) और अविवेक आदि का वर्णन करते हैं और शारीरिक रोगों के साथ इनकी तुलना करते हुए इन मनोरोगों की विकरालता को स्पष्ट करते हैं। यहाँ मनोरोगों की तुलना शारीरिक व्याधियों से इस प्रकार और इतने सटीक ढंग से की गई है, कि किसी भी शारीरिक व्याधि की तीक्ष्णता और जटिलता से मनोरोग की तीक्ष्णता और जटिलता का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। शरीर का रोग प्रत्यक्ष होता है और शरीर में परिलक्षित होने वाले उसके लक्षणों को देखकर जहाँ एक ओर उपचार की प्रक्रिया को शुरू किया जा सकता है, वहीं दूसरी ओर व्याधिग्रस्त व्यक्ति को देखकर अन्य लोग उस रोग से बचने की सीख भी ले सकते हैं। सामान्यतः मनोरोग प्रत्यक्ष परिलक्षित नहीं होता, और मनोरोगी भी स्वयं को व्याधिग्रस्त नहीं मानता है। इस कारण से बाबा तुलसी ने मनोरोगों की तुलना शारीरिक रोगों से करके एकदम अलग तरीके से सीख देने का कार्य किया है। कागभुशुंडि कहते हैं कि एक बीमारी-मात्र से व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है और यहाँ तो अनेक असाध्य रोग हैं। मनोरोगों के लिए नियम, धर्म, आचरण, तप, ज्ञान, यज्ञ, जप, दान आदि अनेक औषधियाँ हैं, किंतु ये रोग इन औषधियों से भी नहीं जाते हैं। इस प्रकार संसार के सभी जीव रोगी हैं। शोक, हर्ष, भय, प्रीति और वियोग से दुःख की अधिकता हो जाती है। इन तमाम मानस रोगों को विरले ही जान पाते हैं। जानने के बाद ये रोग कुछ कम तो होते हैं, मगर विषय-वासना रूपी कुपथ्य पाकर ये साधारण मनुष्य तो क्या, मुनियों के हृदय में भी अंकुरित हो जाते हैं। मनोरोगों की विकरालता का वर्णन करने के उपरांत इन रोगों के उपचार का वर्णन भी होता है। कागभुशुंडि के माध्यम से तुलसीदास कहते हैं कि सद्गुरु रूपी वैद्य के वचनों पर भरोसा करते हुए विषयों की आशा को त्यागकर संयम का पालन करने पर श्रीराम की कृपा से ये समस्त मनोरोग नष्ट हो जाते हैं। रघुपति भगति सजीवनि मूरी।अनूपान श्रद्धा मति पूरी।। इन मनोरोगों के उपचार के लिए श्रीराम की भक्ति संजीवनी जड़ की तरह है। श्रीराम की भक्ति को श्रद्धा से युक्त बुद्धि के अनुपात में निश्चित मात्रा के साथ ग्रहण करके मनोरोगों का शमन किया जा सकता है। यहाँ तुलसीदास ने भक्ति, श्रद्धा और मति के निश्चित अनुपात का ऐसा वैज्ञानिक-तर्कसम्मत उल्लेख किया है, जिसे जान-समझकर अनेक लोगों ने मानस को अपने जीवन का आधार बनाया और मनोरोगों से मुक्त होकर जीवन को सुखद और सुंदर बनाया। यहाँ पर श्रीराम की भक्ति से आशय कर्मकांडों को कठिन और कष्टप्रद तरीके से निभाने, पूजा-पद्धतियों का कड़ाई के साथ पालन करने और इतना सब करते हुए जीवन को जटिल बना लेने से नहीं है। इसी प्रकार श्रद्धा भी अंधश्रद्धा नहीं है। भक्ति और श्रद्धा को संयमित, नियंत्रित और सही दिशा में संचालित करने हेतु मति है। मति को नियंत्रित करने हेतु श्रद्धा और भक्ति है। इन तीनों के सही और संतुलित व्यवहार से श्रीराम का वह स्वरूप प्रकट होता है, जिसमें मर्यादा, नैतिकता और आदर्श है। जिसमें लिप्सा-लालसा नहीं, त्याग और समर्पण का भाव होता है। जिसमें विखंडन की नहीं, संगठन की; सबको साथ लेकर चलने की भावना निहित होती है। जिसमें सभी के लिए करुणा, दया, ममता, स्नेह, प्रेम, वात्सल्य जैसे उदात्त गुण परिलक्षित होते हैं। श्रद्धा, भक्ति और मति का संगठन जब श्रीराम के इस स्वरूप को जीवन में उतारने का माध्यम बन जाता है, तब असंख्य मनोरोग दूर हो जाते हैं। स्वयं का जीवन सुखद, सुंदर, सरल और सहज हो जाता है। जब अंतर्जगत में, मन में रामराज्य स्थापित हो जाता है, तब बाह्य जगत के संताप प्रभावित नहीं कर पाते हैं। इसी भाव को लेकर, आत्मसात् करके विसंगतियों, विकृतियों और जीवन के संकटों से जूझने की सामर्थ्य अनगिनत लोगों को तुलसी के मानस से मिलती रही है। यह क्रम आज का नहीं, सैकड़ों वर्षों का है। यह क्रम देश की सीमाओं के भीतर का ही नहीं, वरन् देश से बाहर कभी मजदूर बनकर, तो कभी प्रवासी बनकर जाने वाले लोगों के लिए भी रहा है। सैकड़ों वर्षों से लगाकर वर्तमान तक अनेक देशों में रहने वाले लोगों के लिए तुलसी का मानस इसी कारण पथ-प्रदर्शक बनता है, सहारा बनता है। आज के जीवन की सबसे जटिल समस्या ऐसे मनोरोगों की है, मनोविकृतियों की है, जिनका उपचार अत्याधुनिक चिकित्सा पद्धतियों के पास भी उपलब्ध नहीं है। ऐसी स्थिति में तुलसीदास का मानस व्यक्ति से लगाकर समाज तक, सभी को सही दिशा दिखाने, जीवन को सन्मार्ग में चलाने की सीख देने की सामर्थ्य रखता है। #वनिता #पंजाब