सुन्दरकाण्डहनुमान जी का समुद्र पार करना ! सुन्दरकाण्ड सर्ग 1 श्लोक 44-77, वायुमार्ग से जाते हुए हनुमान जी के बिजली की तरह चमकते हुएBy समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब:🥦🌹🙏🙏🌹🥦श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्, सुन्दरकाण्ड सर्ग 1, श्लोक 44-77, Sunderkanda Pratham Sarg shlok 44 se 76, उत्पपाताथ वेगेन वेगवानविचारयन् । सुपर्णमिव चात्मानं मेने स कपिकुञ्जरः ॥४४॥ मार्ग के विघ्नों की कुछ भी परवाह न कर, वेगवान् हनुमान जी अत्यन्त वेग से कूदे और उस समय अपने को गरुड़ के तुल्य समझा ॥४४॥ उस समय हनुमान जी के छलांग भरते ही, उस पहाड़ के पेड मय पत्तों और डालियों के चारों ओर से इनके पीछे बड़े वेग से चले ॥ ४५ ॥ हनुमान जी किस समय लंका पहुंचे थे, हनुमान जी का समुद्र पार करना, हनुमान जी लंका कितनी बार गए, रावण ने हनुमान की पूंछ में आग लगाने का आदेश क्यों दिया?स मत्तकोयष्टिमकान्पादपान्पुष्पशालिनः । उद्वहन्नरुवेगेन जगाम विमलेऽम्बरे ॥ ४६॥ हनुमान जी पक्षियों से युक्त और पुष्पित वृक्षों को अपनी जाँघों के वेग से अपने साथ लिये हुए विमल श्राकाश में गये ॥ ४६ ॥ ऊरुवेगोद्धता वृक्षा मुहूर्त कपिमन्वयुः । प्रस्थितं दीघमध्वानं स्वबन्धुमिव बान्धवाः ॥४७॥ जांधों के वेग से उड़े हुए वे पेड़, कुछ ही देर तक हनुमान जी के पीछे पीछे गये । तदनन्तर जिस प्रकार दूर देश की यात्रा करने वाले बन्धु के पीछे उसके भाईबंद कुछ दूर तक जाकर लौट आते हैं उसी प्रकार ये वृक्ष भी हनुमान जी को थोड़ी दूर पहुँचा कर लौटे ॥४७॥ तिदूरुवेगोन्मथिताः सालाश्चान्ये नगोत्तमाः । - अनुजग्मुर्हनूमन्तं सैन्या इव महीपतिम् ॥४८॥ हनुमान जी की जाँघों के वेग से उखड़े हुए साल आदि के बड़े बड़े पेड़ उनके पीछे वैसे ही चले जाते थे, जैसे राजा के पीछे पीछे सेना चलती है ॥ ४८ ॥ सुपुष्पिता...बहुभिः पादपैरन्वितः कपिः । हनूमान्पर्वताकारो बभूवाद्भुतदर्शनः ॥ ४९ ॥ उस समय अनेक फूले हुए वृक्षों से, पिछयाये हुए एवं पर्वता कार हनुमान जी का अद्भुत रूप देख पड़ा ॥ ४६ ॥ सारवन्तोऽथ ये वृक्षा न्यमज्जैल्लवणाम्भसि । भयादिव महेन्द्रस्य पर्वता वरुणालये ॥ ५० ॥ हनुमान जी के पोछे उड़ने वाले वृक्षों में जो भारी पेड़ थे, वे समुद्र में गिर कर वैसे ही डूब गये जैसे इन्द्र के भय से पहाड़ समुद्र में डूबे थे ॥ ५० ॥ स नानाकुसुमैः कीर्णः कपि साङ्कुरकोरकैः । शुशुभे मेघसङ्काशः खद्योतैरिव पर्वतः ।। ५१ ॥ उन पेड़ों के फूलों, अङ्करों और कलियों से उन मेघ के समान कपिश्रेष्ठ हनुमान जी ऐसे शोभायमान हो रहे थे, जैसे कि जुगुनुथों से कोई पर्वत शोभायमान होता है ॥ ५१॥ विमुक्तास्तस्य वेगेन मुक्त्वा पुष्पाणि ते द्रुमाः । अवशीर्यन्त सलिले निवृत्ताः सुहृदो यथा ॥ ५२ ॥ हनुमान जी के गमनधेग से छूट कर, वे वृक्ष अपने फूलों को गिरा कर और तितर बितर हो समुद्र के जल में उसी प्रकार गिरे, जिस प्रकार किसी अपने बंधुजन को पहुँचा कर, सुहृद् लोग तितर वितर हो जाते हैं ॥ ५२ ॥ हनुमान जी के गमनवेग से उत्पन्न पवन द्वारा प्रेरित वृक्षों के विविध प्रकार के पुष्प, हल्के होने के कारण समुद्र में विचित्र रीति से गिर कर शोभित होते थे ॥ ५३ ॥ ताराशतमिवाकाशं प्रबभौ स महार्णवः । पुष्पौघेणानुविद्धेन नानावर्णेन वानरः ॥ ५४॥ बभौ मेघ इवाकाशे विद्युद्गणविभूषितः । कि तस्य वेगसमुद्भूतैः पुष्पैस्तोयमदृश्यत ॥ ५५॥ ताराभिरभिरामाभिरुदिताभिरिवाम्बरम् । तस्याम्बरगतौ बाहू ददृशाते प्रसारितौ ॥ ५६ ॥उन फूलों के गिरने से समुद्र, सहस्रों ताराओं से शोभित आकाश की तरह जान एड़ता था । सुगन्धयुक्त और रंग बिरंगे पुष्पों से कपिश्रेष्ठ हनुमान ऐसे शोभित हुए जैसे बिजुली की रेखाओं से मण्डित आकाशस्थित मेव शोभित होता है। जिस प्रकार आकाशमण्डल उदय हुए सुन्दर तारागा के गुच्छों से सज जाता है। उसी प्रकार समुद्र का जल हनुमान जी के गमनवेग से उड़ कर गिरे हुए पुष्पों से शोभित होने लगा। उस समय हनुमान जी के पसारे हुए हाथ आकाश में ऐसे जान पड़े ॥ ५४॥ ५५ ॥ ५६ पर्वताग्राद्विनिष्क्रान्तौ पञ्चास्याविव पन्नगौ ।' पिबन्निव बभौ श्रिीमान्सोर्मिमालं महार्णवम् ॥ ५७ ॥ मानों पर्वत के शिखर से पाँच सिरों वाले दो सांप निकल रहे हो । आकाश में जाते समय हनुमान जी जब नोचे को मुख करते थे, तब ऐसा जान पड़ता था कि, मानों तरङ्गों से युक्त समुद्र को पी डालना चाहते हैं ॥ ५७ ।। । पिपासुरिव चाकाशं ददृशे स महाकपिः । तस्य विद्यत्प्रभाकारे वायुमार्गानुसारिणः ॥ ५८॥ और जब वे ऊपर को मुख उठा कर चलते तब ऐसा जान पड़ता मानों वे श्राकाश को पी जाना चाहते हैं। वायुमार्ग से जाते हुए हनुमान जी के बिजली की तरह चमकते हुए ॥ ५८ ॥ नयने सम्प्रकाशेते पर्वतस्थाविवानलो। पिङ्गे पिङ्गाक्षमुख्यस्य बृहती परिमण्डले ॥ ५९॥ दोनों नेत्र ऐसे देख पड़ते थे जैसे पर्वत पर दो ओर से दावानल लगा हो । उनकी पोली पीली और बड़ी बड़ी ॥ ५६ ॥ -चक्षुषी सम्प्रकाशेते चन्द्रसूर्याविवाम्बरे । मुखं नासिकया तस्य ताम्रया ताम्रमावभौ ॥ ६० ॥ आँखें चन्द्रमा और सूर्य को तरह चमक रही थीं। लाल नाक और हनुमान जी का लाल लाल मुखमण्डल ॥ ६० ॥ Sunderkanda Pratham Sarg shlok 44 se 76 सन्ध्यया समभिस्पृष्टं यथा सूर्यस्य मण्डलम् । लागूलं च समाविद्धं प्लवमानस्य शोभते ॥ ६१ ॥ अम्बरे वायुपुत्रस्य शक्रध्वज इवोच्छ्रितः । लागूलचक्रेण महाशुक्लदंष्ट्रोऽनिलात्मजः ॥ ६२॥ सन्ध्याकालीन सूर्यमण्डल की तरह शोभायमान हो रहा था। श्राकाशमार्ग से जाते समय हनुमान जी की हिलती हुई पूँछ ऐसी शोभायमान हो रही थी, जैसे आकाश में इन्द्रध्वज । फिर जब कभी वे अपनी पूछ को मण्डलाकार कर लेते थे, तब मुख के सफेद दांतों के साथ उनकी छबि ऐसी जान पड़ती थी; ॥६१॥६२ ॥ प्रथमः सर्गः व्यरोचत महाप्राज्ञः परिवेषीव भास्करः । स्फिग्देशेनाभिताम्रण रराज स महाकपिः ॥ ६३ ॥ महता दारितेनेव गिरिगैरिकयातुना। तस्य वानरसिंहस्य प्लवमानस्य सागरम् ॥ ६४॥ जैसी कि, सूर्य में मण्डल पड़ने से सूर्य की इबि जान पड़ती है। उनकी कमर का पिछला भाग अत्यधिक लाल होने के कारण ऐसा जान पड़ता था, मानों पर्वत में गेरू की खान खुली पड़ी दो । कपिसिंह हनुमान जी के समुद्र लाँघने के समय ।। ६३ ॥६४ ॥ कक्षान्तरगतो वायुर्जीमूत इव गर्जति । खे यथा निपतन्त्युल्का झुत्तरान्ताद्विनिःसृता ॥ ६५ ॥ उनकी दोनों बगलों में से वायु के निकलने का ऐसा शब्द होता था जैसा कि, मेघ के गर्जने से होता है । उस समय वेगवान कपि ऐसे देख पड़े, जैसे उत्तर दिशा से एक बड़ा अग्नि का लुक्का दूसरे एक छोटे लुक्के के साथ दक्षिण की ओर चला जाता हो ।। ६५ ।। दृश्यते सानुबन्धा च तथा स कपिकुञ्जरः । पतत्पतङ्गसङ्काशो व्यायतः शुशुभे कपिः ॥ ६६ ॥ प्रवृद्ध इव मातङ्गः कक्ष्यया बध्यमानया । उपरिष्टाच्छरीरेण च्छायया चावगाढया ॥ ६७॥ सागरे मारुताविष्टा नौरिवासीत्तदा कपिः । यं यं देशं समुद्रस्य जगाम स महाकपिः॥ ६८॥ तब जाते हुए सूर्य की तरह बड़े आकार वाले कपिश्रेष्ठ हनुमान जी अपनी पूक सहित कमर में रस्ता बंधे हुए महागज की तरह शोभायमान होने लगे। आकाश में उड़ते हुए हनुमान जी के बड़े शरीर और समुद्र के जल में पड़ी हुई उसकी छाया. दोनों मिलकर ऐसी शोभा दे रहे थे, जैसी वायु के झोंको से काँपती हुई नौका शोभा देती है। हनुमान जो समुद्र के जिस भाग में पहुँचते ।। ६६ ॥ ६७ ॥ ६८।। स स तस्योरुवेगेन सोन्माद इव लक्ष्यते । सागरस्यार्मिजालानि उरसा शैलवर्मणा ॥ ६९ ॥ वहाँ वहाँ का समुद्र का भाग खलबलाता हुआ सा जान पड़ता था । वे पर्वत के समान अपने वक्षस्थ न से समुद्र की लहरों को ढकेलते हुए चले जाते थे ।। ६९ ।। नोट-इस वर्णन से जान पड़ता है कि, हनुमान जी समुद्र के जल की सतह से बहुत ऊंचे नहीं उड़े थे ।अभिन्न स्तु महावेगः पुप्लुबे स महाकपिः । कपिवातश्च बलवान्मेघवातश्च निःसृतः ॥ ७० ।। सागरं भीमनिर्घोष कम्पयामासतुभृशम् । विकर्षनर्मिजालानि बृहन्ति लवणाम्भसि ॥ ७१ ॥ पुप्लुवे कपिशार्दूलो विकिरन्निव रोदसी । मेरुमन्दरसङ्काशानुगतान्स महार्णवे ।। ७२ ॥अतिक्रामन्महावेगस्तरङ्गान्गणयन्निव । तस्य वेगसमुद्धतं जलं सजलदं तदा ॥७३॥ एक तो हनुमान जी के वेग से जाने के कारण उत्पन्न वायु और दूसरा मेघों से उत्पन्न हुआ वायु-दोनों ही उस महागर्जन करते हुए समुद्र को सुब्ध कर रहे थे । इस प्रकार वे क्षार समुद्र की लहरों को चीरते हनुमान जी मानों आकाश और भूमि को अलगाते हुए चले जाते थे। इसी प्रकार मेरु और मन्दराचल पर्वत की तरह ऊँची ऊँची समुद्र की लहरों को नांघते हुए वे ऐसे उड़े चले जाते थे, मानों वे तरङ्गों को गिनते हुए जाते हों। उस समय कपि के तेजी के साथ जाने के कारण उड़ा हुया समुद्र का जल ॥ ७० ॥ ७१ ॥ ७२ ।। ७३ ॥ अम्बरस्थं विबभ्राज शारदाभ्रमिवाततम् । तिमिनक्रझषाः कूर्मा दृश्यन्ते विकृतास्तदा ॥ ७४ ॥ और मेघ-(दोनों) आकाश में ऐसे शोभायमान जान पड़ते थे जैसे शरत्कालीन मेघ शोभायमान होते हैं । समुद्र में रहने वाले तिमि जाति के मत्स्य, मगर, अन्य प्रकार के मत्स्य तथा कछवे जल के ऊपर देख पड़ते थे अर्थात् जल के ऊपर निकल आये थे ।। ७४॥ वस्त्रापकर्षणेनेव शरीराणि शरीरिणाम् । प्लवमानं समीक्ष्याथ भुजङ्गाः सागरालयाः ॥ ७५ ॥ व्योम्नि तं कपिशार्दूलं सुपर्ण इति मेनिरे। दशयोजनविस्तीर्णा त्रिंशयोजनमायता ॥ ७६अतिक्रामन्महावेगस्तरङ्गान्गणयन्निव । तस्य वेगसमुद्धृतं जलं सजलदं तदा ॥७३॥ एक तो हनुमान जी के वेग से जाने के कारण उत्पन्न वायु और दूसरा मेघों से उत्पन्न हुआ वायु-दोनों ही उस महागर्जन करते हुए समुद्र को तुन्ध कर रहे थे । इस प्रकार वे क्षार समुद्र की लहरों को चीरते हनुमान जी माने आकाश और भूमि को अलगाते हुए चले जाते थे। इसी प्रकार मेरु और मन्दराचल पर्वत की तरह ऊँची ऊँची समुद्र की लहरों को नांघते हुए वे ऐसे उड़े चले जाते थे, मानों वे तरङ्गों को गिनते हुए जाते हों। उस समय कपि के तेजी के साथ जाने के कारण उड़ा हुआ समुद्र का जल ॥ ७० ॥ ७१ ।। ७२ ।। ७३॥ अम्बरस्थं विवभ्राज शारदाभ्रमिवाततम् । तिमिनक्रमषाः कूर्मा दृश्यन्ते विकृतास्तदा ॥ ७४॥ और मेघ-(दोनों) आकाश में ऐसे शोभायमान जान पड़ते थे जैसे शरत्कालीन मेघ शोभायमान होते हैं । समुद्र में रहने वाले तिमि जाति के मत्स्य, मगर, अन्य प्रकार के मत्स्य तथा कछवे जल के ऊपर देख पड़ते थे अर्थात् जज के ऊपर निकल आये थे ॥ ७४ ॥ वस्त्रापकर्षणेनेव शरीराणि शरीरिणाम् । प्लवमानं समीक्ष्याथ भुजङ्गाः सागरालयाः॥ ७५ ॥व्योनि तं कपिशार्दूलं सुपर्ण इति मेनिरे । दशयोजनविस्तीर्णा त्रिंशद्योजनमायता ॥ ७६ ॥वे जल जन्तु ऐसे जान पड़ते थे जैसे मनुष्य का शरोर कपड़ा उतार लेने पर देख पड़ता है । समुद्र में रहने वाले सर्पो ने हनुमान जी को आकाश में उड़ते देख जाना कि, गरुड़ जी उड़े हुए चले जाते हैं । दस योजन चौड़ी और तीस योजन लंबी ।। ७५ ।। ७६ ।। छाया वानरसिंहस्य जले चारुतराऽभवत् । का श्वेताम्रधनराजीव वायुपुत्रानुगामिनी ॥ ७७ ॥ तस्य सा शुशुभे छाया वितता लवणाम्भसि । शुशुभे स महातेजा महाकायो महाकपिः ॥ ७८॥ हनुमान जी के शरीर की छाया समुद्रजल में अत्यन्त शोभाय मान जान पड़ती थी। पवननन्दन हनुमान जी के शरीर की अनु गामिनी छाया, समुद्र के जल में पड़ने से सफेद रंग के बड़े बादल की तरह मुन्दर जान पड़ती थी। वे महातेजस्वी और विशाल काय महाकपि ।। ७७ ॥ ७८ ।। By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब:🥦🌹🙏🙏🌹🥦सुन्दरकाण्ड सर्ग 1, श्लोक 1-40,Tags:सुन्दरकाण्ड
सुन्दरकाण्डहनुमान जी का समुद्र पार करना ! सुन्दरकाण्ड सर्ग 1 श्लोक 44-77, वायुमार्ग से जाते हुए हनुमान जी के बिजली की तरह चमकते हुएBy समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब:🥦🌹🙏🙏🌹🥦 श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्, सुन्दरकाण्ड सर्ग 1, श्लोक 44-77, Sunderkanda Pratham Sarg shlok 44 se 76, उत्पपाताथ वेगेन वेगवानविचारयन् । सुपर्णमिव चात्मानं मेने स कपिकुञ्जरः ॥४४॥ मार्ग के विघ्नों की कुछ भी परवाह न कर, वेगवान् हनुमान जी अत्यन्त वेग से कूदे और उस समय अपने को गरुड़ के तुल्य समझा ॥४४॥ उस समय हनुमान जी के छलांग भरते ही, उस पहाड़ के पेड मय पत्तों और डालियों के चारों ओर से इनके पीछे बड़े वेग से चले ॥ ४५ ॥ हनुमान जी किस समय लंका पहुंचे थे, हनुमान जी का समुद्र पार करना, हनुमान जी लंका कितनी बार गए, रावण ने हनुमान की पूंछ में आग लगाने का आदेश क्यों दिया? स मत्तकोयष्टिमकान्पादपान्पुष्पशालिनः । उद्वहन्नरुवेगेन जगाम विमलेऽम्बरे ॥ ४६॥ हनुमान जी पक्षियों से युक्त और पुष्पित वृक्षों को अपनी जाँघों के वेग से अपने साथ लिये हुए विमल श्राकाश में गये ॥ ४६ ॥ ऊरुवेगोद्धता वृक्षा मुहूर्त क...