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जून, 2021 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

क्या श्रीराम का पिनाक को भंग करना उचित था?माता सीता के स्वयंवर के विषय में हम सभी जानते हैं। इसी स्वयंवर में श्रीराम ने उस पिनाक को सहज ही उठा कर तोड़ डाला जिसे वहाँ उपस्थित समस्त योद्धा मिल कर हिला भी ना सके। हालाँकि कई लोग ये पूछते हैं कि श्रीराम ने धनुष उठा कर स्वयंवर की शर्त तो पूरी कर ही दी थी, फिर उस धनुष को भंग करने की क्या आवश्यकता थी?यदि आप मेरा दृष्टिकोण पूछें तो मैं यही कहूंगा कि उस धनुष की आयु उतनी ही थी। अपना औचित्य (देवी सीता हेतु श्रीराम का चुनाव) पूर्ण करने के उपरांत उस धनुष का उद्देश्य समाप्त हो गया। उसके उपरांत पिनाक का पृथ्वी पर कोई अन्य कार्य शेष नही था। कदाचित यही कारण था कि श्रीराम ने उस धनुष को भंग कर दिया।वैसे यदि आप वाल्मीकि रामायण एवं रामचरितमानस का संदर्भ लें तो दोनों में एक ही चीज लिखी है - सीता स्वयंवर के समय श्रीराम द्वारा उस महान धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाने के प्रयास में वो धनुष टूट गया। अर्थात मूल रामायण के अनुसार श्रीराम ने उस धनुष को जान-बूझ कर नही तोड़ा था अपितु प्रत्यंचा चढ़ाते समय वो अनायास ही टूट गया। भगवान परशुराम के क्रोधित होने पर श्रीराम उन्हें भी यही कहते हैं कि वो धनुष उनसे अनजाने में टूट गया।हालांकि यदि आप पिनाक के इतिहास के बारे में पढ़े, जिसका वर्णन विष्णु पुराण और शिव पुराण, दोनों में विस्तार से दिया गया है, तो इस धनुष के भंग होने का वास्तविक कारण आपके समझ मे आ जाएगा। इसके पीछे एक पौराणिक कथा छिपी है जिसके अनुसार समय आने पर पिनाक को भंग होना ही था और वो भी भगवान विष्णु के द्वारा ही। इस कथा के अनुसार भगवान शंकर का धनुष पिनाक और भगवान नारायण का धनुष श्राङ्ग, दोनों का निर्माण स्वयं परमपिता ब्रह्मा ने किया था। एक बार इस बात पर चर्चा हुई कि दोनों धनुषों में से श्रेष्ठ कौन है। तब ब्रह्मदेव की मध्यस्थता में भोलेनाथ और श्रीहरि में अपने-अपने धनुष से युद्ध हुआ। हर और हरि के युद्ध का परिणाम तो भला क्या निकलता किन्तु उस युद्ध में श्रीहरि की अद्भुत धनुर्विद्या देखने के लिए महादेव एक क्षण के लिए रुक गए।युद्ध के अंत में दोनों ने ब्रह्मा जी से निर्णय देने को कहा। शिवजी और विष्णुजी धनुर्विद्या में अंतर बता पाना असंभव था। किन्तु कोई निर्णय तो देना ही था इसी कारण ब्रह्माजी ने कहा कि चूंकि महादेव युद्ध मे एक क्षण रुक कर नारायण का कौशल देखने लगे थे, इसी कारण श्राङ्ग पिनाक से श्रेष्ठ है। ये सुनकर महादेव बड़े रुष्ट हुए और उन्होंने उसी समय पिनाक का त्याग कर दिया। उन्होंने भगवान विष्णु से कहा कि अब आप ही इस धनुष का नाश करें। महादेव की इच्छा का मान रखते हुए श्रीहरि ने कहा कि समय आने पर वे उस धनुष को भंग करेंगे।भगवान शंकर द्वारा त्याग दिए जाने के पश्चात वो धनुष कुछ समय तक ब्रह्मा जी के पास ही रहा। बाद में उन्होंने उसे वरुण को दे दिया। वरुण देव ने पिनाक को देवराज इंद्र को रखने को दिया। बाद में इंद्र ने उस धनुष का दायित्व मिथिला के तत्कालीन राजा देवरात को दिया। यही देवरात मिथिला नरेश जनक के पूर्वज थे। पीढ़ी दर पीढ़ी होता हुआ वो धनुष जनक को प्राप्त हुआ। पृथ्वी पर उसे "शिव धनुष" कहा गया। महर्षि वाल्मीकि ने मूल रामायण में इसे शिव धनुष ही कहा है जबकि गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस में इसे पिनाक कहा है।एक अन्य कथा के अनुसार जब नारायण और महादेव युद्ध के लिए तत्पर हुए तो उस समय एक आकाशवाणी हुई कि ये युद्ध संसार के कल्याण के लिए संकट है जिससे संसार का नाश हो जाएगा। इस पर श्रीहरि तो पहले की भांति धनुषबद्ध रहे किन्तु भगवान रूद्र ने आकाशवाणी सुन कर उसे पृथ्वी पर फेंक दिया। बाद में वही धनुष जनक के पूर्वज देवरात को प्राप्त हुआ।कहते हैं कि एक बार माता सीता ने केवल ७ वर्ष की आयु में उस धनुष को उठा लाया था जिसे कोई हिला भी नही पाता था। तब राजा जनक ने ये प्रण किया कि वो उसी से सीता का विवाह करेंगे जो इस महान धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ा देगा। उधर भगवान विष्णु श्रीराम के रूप में अवतरित हो चुके थे। सीता स्वयंवर में श्रीराम रूपी नारायण ने महादेव की इच्छा को फलीभूत करने के लिए ही अंततः उस धनुष को भंग कर दिया। अर्थात वो महान धनुष महादेव की इच्छा से ही भंग हुआ, सीता स्वयंवर तो केवल निमित्त मात्र था।वास्तव में ये घटना सृष्टि के उस नियम को भी प्रतिपादित करती है जिसके अनुसार सृष्टि में कुछ भी अनश्वर नही है, चाहे वो मनुष्य हो अथवा वस्तु। समय पूर्ण होने पर सबका नाश होना अवश्यम्भावी है, यही सृष्टि का अटल नियम है। जय श्री हरिहर।

अशोक सुंदरी By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब भगवान शिव और देवी पार्वती के पुत्रों श्री कार्तिकेय एवं श्रीगणेश के विषय में तो हम सभी जानते हैं किन्तु उनकी कन्या "अशोकसुन्दरी" के विषय में सबको अधिक जानकारी नहीं है। हालांकि महादेव की और भी पुत्रियां मानी गयी हैं, विशेषकर जिन्हें नागकन्या माना गया - जया, विषहरी, शामिलबारी, देव और दोतलि। किन्तु अशोक सुंदरी को ही महादेव की की पुत्री बताया गया है इसीलिए वही गणेशजी एवं कार्तिकेय की बहन मानी जाती है। कई जगह पर इन्हे गणेश की छोटी बहन भी बताया गया है लेकिन अधिकतर स्थानों पर ये मान्यता है कि ये गणेश की बड़ी बहन थी। पद्मपुराण अनुसार अशोक सुंदरी देवकन्या हैं।  इनकी उत्पत्ति के विषय में एक कथा है कि देवी पार्वती ने उन्हें कल्पवृक्ष से प्राप्त किया था। एक बार देवी पार्वती को उदास देख कर महादेव ने उनका मन बहलाने के लिए उन्हें स्वर्गलोक के नंदनवन ले गए। वहाँ कल्पवृक्ष को देख कर माता को अत्यधिक हर्ष हुआ और वे उनके नीचे ही बैठ गयी। उस समय देवराज इंद्र ने माता की बड़ी सेवा की जिससे वे अत्यंत प्रसन्न हुई। उसी वृक्ष के नीचे बै...
*💐माँ के प्रेम की पराकाष्ठा💐* By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब *गाँव के सरकारी स्कूल में संस्कृत की क्लास चल रही थी। गुरूजी दिवाली की छुट्टियों का कार्य बता रहे थे।* *तभी शायद किसी शरारती विद्यार्थी के पटाखे से स्कूल के स्टोर रूम में पड़ी दरी और कपड़ो में आग लग गयी। देखते ही देखते आग ने भीषण रूप धारण कर लिया। वहां पड़ा सारा फर्निचर भी स्वाहा हो गया।* *सभी विद्यार्थी पास के घरो से, हेडपम्पों से जो बर्तन हाथ में आया उसी में पानी भर भर कर आग बुझाने लगे।* *आग शांत होने के काफी देर बाद स्टोर रूम में घुसे तो सभी विद्यार्थियों की दृष्टि स्टोर रूम की बालकनी (छज्जे) पर जल कर कोयला बने पक्षी की ओर गयी।* *पक्षी की मुद्रा देख कर स्पष्ट था कि पक्षी ने उड़ कर अपनी जान बचाने का प्रयास तक नही किया था और वह स्वेच्छा से आग में भस्म हो गया था।* *सभी को बहुत आश्चर्य हुआ।* बाल वनिता महिला आश्रम *एक विद्यार्थी ने उस जल कर कोयला बने पक्षी को धकेला तो उसके नीचे से तीन नवजात चूजे दिखाई दिए, जो सकुशल थे और चहक रहे थे।* *उन्हें आग से बचाने के लिए पक्षी ने अपने पंखों के नीचे छिपा लिया और अपनी जान देकर अपने चूजों क...

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प्रतिदिन प्रातः स्मरणीय मंत्र एवं स्तोत्र  By समाजसेवी वनिता कासनियां ॐ अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपि वा। यः स्मरेत्पुंडरीकाक्षं स बाह्याभ्यंतरः शुचिः॥ वक्रतुण्ड महाकाय सूर्यकोटिसमप्रभ । निर्विघ्नं कुरू मे देव सर्वकार्येषु सर्वदा ।।  ब्रह्मानंदं परमसुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिम् । द्वंद्वातीतं गगनसदृशं, तत्त्वमस्यादिलक्षम् । एकं नित्यं विमलमचलं सर्वधी: साक्षीभूतम् । भावातीतं त्रिगुणरहितं सद्गुरूं तं नमामि ।। गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु: गुरुर्देवो महेश्वर: । गुरु: साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्रीगुरवै नम: ।।  शांताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं । विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् । लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यम् । वन्दे विष्णुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम् ।।  सौराष्ट्रे सोमनाथं च श्रीशैले मल्लिकार्जुनम्। उज्जयिन्यां महाकालमोङ्कारममलेश्वरम्॥ परल्यां वैद्यनाथं च डाकिन्यां भीमशङ्करम्। सेतुबन्धे तु रामेशं नागेशं दारुकावने॥ वाराणस्यां तु विश्वेशं त्र्यम्बकं गौतमीतटे। हिमालये तु केदारं घुश्मेशं च शिवालये॥ एतानि ज्योतिर्लिङ्गानि सायं प्रातः पठेन्नरः। सप्तजन्मकृतं प...

जानें 84 लाख योनी में से आप कौन सी योनी के बाद इंसान बनेंBy समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब01_2.jpgचौरासी लाख योनियों में मनुष्य योनी सबसे श्रेष्ठ योनी- धार्मिक ग्रंथभारतीय हिंदू धर्म शास्त्रों, पुराणों के अनुसार इस सुन्दर विश्ववसुधा में छोट बड़े कुल मिलाकर 84 लाख योनियां बताई गई है। शास्त्रों के इन चौरासी लाख योनियों में सबसे श्रेष्ठ योनी मनुष्य योनी मानी जाती है, क्योंकि मनुष्य योनी में अपने शुभ-अशुभ कर्मों के कारण पुनर्जन्म जन्म की व्यवस्था भी है। कहा जाता है जो अच्छे कर्म करते हैं उन्हे मानव जीवन मिलता है, कुछ ऐसे जीव भी होते हैं जो शुभ कर्मों के कारण 84 लाख योनियों भटकने के बाद मानव देह में जन्म मिलता है। जानें 84 लाख योनियों में कौन-कौन सी योनी के जीव है।धर्म शास्त्रों और पुराणों में 84 लाख योनियों का उल्लेख मिलता है और इन योनियों को धर्म के जानकार आचार्यों ने दो भागों में बाटां गया है। पहला- योनिज और दूसरा आयोनिज।1- ऐसे जीव जो 2 जीवों के संयोग से उत्पन्न होते हैं वे योनिज कहे जाते हैं। 2- ऐसे जीव जो अपने आप ही अमीबा की तरह विकसित होते हैं उन्हें आयोनिज कहा गया।3- इसके अतिरिक्त स्थूल रूप से प्राणियों को भी 3 भागों में बांटा गया है-1- जलचर- जल में रहने वाले सभी प्राणी।2- थलचर- पृथ्वी पर विचरण करने वाले सभी प्राणी।3- नभचर- आकाश में विहार करने वाले सभी प्राणी। उक्त 3 प्रमुख प्रकारों के अंतर्गत मुख्य प्रकार होते हैं अर्थात 84 लाख योनियों में प्रारंभ में निम्न 4 वर्गों में बांटा जा सकता है।जानें 84 लाख योनी में से आप कौन सी योनी के बाद इंसान बनें1- जरायुज- माता के गर्भ से जन्म लेने वाले मनुष्य, पशु जरायुज कहलाते हैं।2- अंडज- अंडों से उत्पन्न होने वाले प्राणी अंडज कहलाते हैं।3- स्वदेज- मल-मूत्र, पसीने आदि से उत्पन्न क्षुद्र जंतु स्वेदज कहलाते हैं।4- उदि्भज: पृथ्वी से उत्पन्न प्राणी उदि्भज कहलाते हैं।पदम् पुराण के एक श्लोकानुसार...जलज नव लक्षाणी, स्थावर लक्ष विम्शति, कृमयो रूद्र संख्यक:।पक्षिणाम दश लक्षणं, त्रिन्शल लक्षानी पशव:, चतुर लक्षाणी मानव:।।जलचर 9 लाख, स्थावर अर्थात पेड़-पौधे 20 लाख, सरीसृप, कृमि अर्थात कीड़े-मकौड़े 11 लाख, पक्षी/नभचर 10 लाख, स्थलीय/थलचर 30लाख और शेष 4 लाख मानवीय नस्ल के।बाल वनिता महिला आश्रमकुल 84 लाख।- पानी के जीव-जंतु- 9 लाख,- पेड़-पौधे- 20 लाख- कीड़े-मकौड़े- 11 लाख- पक्षी- 10 लाख- पशु- 30 लाख- देवता-मनुष्य आदि- 4 लाखकुल योनियां- 84 लाख।'प्राचीन भारत में विज्ञान और शिल्प' ग्रंथ में शरीर रचना के आधार पर प्राणियों का वर्गीकरण किया गया है जिसके अनुसार,1- एक शफ (एक खुर वाले पशु)- खर (गधा), अश्व (घोड़ा), अश्वतर (खच्चर), गौर (एक प्रकार की भैंस), हिरण इत्यादि।2- द्विशफ (दो खुर वाले पशु)- गाय, बकरी, भैंस, कृष्ण मृग आदि।3- पंच अंगुल (पांच अंगुली) नखों (पंजों) वाले पशु- सिंह, व्याघ्र, गज, भालू, श्वान (कुत्ता), श्रृंगाल आदि।इस प्रकार शास्त्रों में कुल 84 लाख योनियों का वर्णन मिलता है।*****************

जानें 84 लाख योनी में से आप कौन सी योनी के बाद इंसान बनें By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब चौरासी लाख योनियों में मनुष्य योनी सबसे श्रेष्ठ योनी- धार्मिक ग्रंथ भारतीय हिंदू धर्म शास्त्रों, पुराणों के अनुसार इस सुन्दर विश्ववसुधा में छोट बड़े कुल मिलाकर 84 लाख योनियां बताई गई है। शास्त्रों के इन चौरासी लाख योनियों में सबसे श्रेष्ठ योनी मनुष्य योनी मानी जाती है, क्योंकि मनुष्य योनी में अपने शुभ-अशुभ कर्मों के कारण पुनर्जन्म जन्म की व्यवस्था भी है। कहा जाता है जो अच्छे कर्म करते हैं उन्हे मानव जीवन मिलता है, कुछ ऐसे जीव भी होते हैं जो शुभ कर्मों के कारण 84 लाख योनियों भटकने के बाद मानव देह में जन्म मिलता है। जानें 84 लाख योनियों में कौन-कौन सी योनी के जीव है। धर्म शास्त्रों और पुराणों में 84 लाख योनियों का उल्लेख मिलता है और इन योनियों को धर्म के जानकार आचार्यों ने दो भागों में बाटां गया है। पहला- योनिज और दूसरा आयोनिज। 1- ऐसे जीव जो 2 जीवों के संयोग से उत्पन्न होते हैं वे योनिज कहे जाते हैं। 2- ऐसे जीव जो अपने आप ही अमीबा की तरह विकसित होते हैं उन्हें आयोनिज कहा गया। 3- इसके अतिरिक्त स्थूल...

भगवान् विष्णु ने विश्व मोहनी कन्या का रूप कब लिया था?By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाबसमुद्र मंथन के अंत में भगवान धन्वन्तरि अमृत कलश लेकर प्रगट हुए ,अमृत कुम्भ निकलते ही धन्वन्तरि के हाथ से अमृतपूर्ण कलश छीनकर दैत्य लेकर भागे, क्योंकि उनमें से प्रत्येक सबसे पहले अमृत पान करना चाहते था।कलश के लिये छीना झपटी चल रही थी और देवता निराश खड़े थे अचानक वहाँ एक अदि्वतीय सौन्दर्यशालिनी नारी प्रकट हुई असुरों ने उसके सौन्दर्य से प्रभावित होकर उससे मध्यस्थ बनकर अमृत बाँटने की प्रार्थना की** वास्तव में भगवान विष्णु ने ही दैत्यों को मोहित करने के लिए मोहिनीरूप धारण किया था।***मोहिनीधारी भगवान ने कहा - मैं विभाजन का कार्य करूँ, चाहे वह उचित हो या अनुचित- तुम लोग बीच में बाधा न उपस्थित करने का वचन दो तभी में कार्य को करूँगी।*सभी ने इस शर्त को स्वीकार किया, देवता और दैत्य अलग अलग पंक्तियों में बैठ गये। जिस समय भगवान मोहिनी रूप में देवताओं को अमृत पिला रहे थे। राहु धैर्य न रख सका वह देवताओं का रूप धारण करके सूर्य - चन्द्रमा के बीच में बैठ गया।जैसे ही उसे अमृत का एक घूट मिला, सूर्य-चन्द्रमा ने संकेत कर दिया। भगवान मोहिनी रूप त्याग करके चक्रधारी विष्णु हो गये और उन्होंने चक्र से राहु का सिर काट डाला.अमृत के प्रभाव से राहु के सर और धड़ से राहु और केतु दो दैत्यों का रूप ले लिया।असुरों ने भी अपना शस्त्र उठाया और देवासुर संग्राम प्रारम्भ हो गया। अमृत के प्रभाव से तथा भगवान की कृपा से देवताओं की विजय हुई और उन्हें अपना स्वर्ग पुन: वापस मिला।भस्मासुर के वध के लिए भी भगवान विष्णु विश्व मोहनी कन्या बने थे

भगवान् विष्णु ने विश्व मोहनी कन्या का रूप कब लिया था? By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब समुद्र मंथन के अंत में भगवान धन्वन्तरि अमृत कलश लेकर प्रगट हुए  ,अमृत कुम्भ निकलते ही धन्वन्तरि के हाथ से अमृतपूर्ण कलश छीनकर दैत्य लेकर भागे, क्योंकि उनमें से प्रत्येक सबसे पहले अमृत पान करना चाहते था। कलश के लिये छीना झपटी चल रही थी और देवता निराश खड़े थे  अचानक वहाँ एक अदि्वतीय सौन्दर्यशालिनी नारी प्रकट हुई  असुरों ने उसके सौन्दर्य से प्रभावित होकर उससे मध्यस्थ बनकर अमृत बाँटने की प्रार्थना की** वास्तव में भगवान विष्णु ने ही दैत्यों को मोहित करने के लिए मोहिनीरूप धारण किया था।** *मोहिनीधारी भगवान ने कहा - मैं विभाजन का कार्य करूँ, चाहे वह उचित हो या अनुचित- तुम लोग बीच में बाधा न उपस्थित करने का वचन दो तभी में कार्य को करूँगी।* सभी ने इस शर्त को स्वीकार किया, देवता और दैत्य अलग अलग पंक्तियों में बैठ गये। जिस समय भगवान मोहिनी रूप में देवताओं को अमृत पिला रहे थे। राहु धैर्य न रख सका वह देवताओं का रूप धारण करके सूर्य - चन्द्रमा के बीच में बैठ गया। जैसे ही उसे अमृत का एक घूट मिला, सूर्य-...

तुलसीदास ने भगवान हनुमान से कैसे मुलाकात की?By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाबहनुमान से मिलने के संबंध में एक कथा प्रचलित है जिसमें कहा जाता है कि तुलसीदास जी जब भगवान के दर्शन के लिए वन मन भटक रहे थे तब वह थक कर एक वृक्ष के नीचे बैठ गए और फिर साथ में लिए जल को (अपनी यात्रा में साथ लेकर चला करते थे) गुस्से में आकर उसी वृक्ष पर फेंक दिया।उस वृक्ष में एक प्रेत रहा करता था ऋषि के कमंडल के जल को ऊपर पड़ते ही वह मुक्त हो गया और बाहर आकर तुलसीदास जी के सामने खड़ा हो गया और बताया कि उसे मुक्ति उनके द्वारा फेके गए जल से हुई है। इसलिए जो भी आपकी समस्या है, सवाल है पूछ सकते है!इस पर तुलसी दास जी ने पूछा कि उन्हें भगवान श्री राम के दर्शन कैसे होंगे?प्रेत ने बताया कि इस सवाल का उत्तर तो केवल बजरंगबली ही बता सकते है। बजरंग बली ही केवल आपको प्रभु राम से मिलवा सकते है। हनुमान जी का पता पूछने पर प्रेत ने बताया कि जब कहीं भी राम की कथा का वाचन होता है तो हनुमान जी वहा पर अवश्य ही पहुंच जाते है। प्रेत ने यह भी बताया कि कुछ दूर के एक मंदिर में राम कथा का आयोजन हो रहा है, वह भी हनुमान जी एक कोढी के वेश में पहुंचेंगे।तुलसीदास जी तुरंत उस मंदिर पर पहुंच जाते हैं जहां पर राम कथा का आयोजन हो रहा है, जैसे ही हनुमान जी कोढी के बीच में वहां पर पहुंचे तुलसीदास ने तुरन्त उनके पैरों को पकड़ लिया और तब तक नहीं छोड़ा जब तक वे अपने असली रूप में नहीं आ गए।इस तरह तुलसीदास को हनुमान जी के दर्शन इसके बाद हनुमान जी की सहायता से हीन तुलसीदास ने प्रभु राम की दर्शन किए।एक प्रेत के साथ से गोस्वामी तुलसीदास जी ने भगवान हनुमान के दर्शन किए और भगवान श्री राम के दर्शन प्राप्त करने के लिए अपना पहला कदम बढ़ाया।हनुमान जी के मिलने के पश्चात तुलसीदास जी ने उनसे एक बार भगवान श्री राम की दर्शन कराने की प्रार्थना की। हनुमान जी ने तुलसीदास जी को कई अन्य तरह के प्रलोभन दिए और प्रकार की सुख समृद्धि का भी प्रस्ताव दिया लेकिन तुलसीदास जी हठी थे। उन्होंने किसी अन्य प्रलोभन को स्वीकार नहीं किया और बार-बार श्री राम के दर्शन पाने की लिए हनुमान जी से प्रार्थना करते रहें।उन्होंने हनुमान जी से कहा कि आप भी राम के भक्त हो और मैं भी श्री राम का भक्त हूं क्या आप मेरी सहायता नहीं करोगे? हनुमान जी तुलसीदास जी की बात मानने पर मजबूर हो गए और उन्हें बताया कि भगवान श्री राम तुम्हें चित्रकूट के घाट पर अपना दर्शन देंगे। इतना सुनते ही नहीं तुलसीदास प्रसन्न हो गए और तुरंत चित्रकूट की तरफ निकल दिए।वहां पहुंचने के बाद उन्होंने सबसे पहले नदी में स्नान किया और कदमगिरि कि परिक्रमा करने लगे तभी उन्हें दो सुंदर राजकुमार एक गौर वर्ण और दूसरा श्याम वर्ण के अत्यंत सुंदर घोड़े पर सवार होकर आते हुए दिखे तुलसीदास जी ने उन्हें देखा और उनके मन में सवाल उठा कि इतने सुंदर राजकुमार चित्रकूट में क्या कर रहे हैं और कुछ ही देर बाद वे सुंदर राजकुमार उनकी आंखों से ओझल हो गए तब हनुमान जी उनके पास आए और पूछे कि क्या आपको प्रभु श्री राम और भ्राता लक्ष्मण के दर्शन हुए? तुलसीदास जी ने इंकार कर दिया तब हनुमान ने बताया कि अभी जो अश्व पर सवार होकर दो राजकुमार गए वहीं प्रभु श्री राम और भ्राता लक्ष्मण थे।तुलसीदास जी को प्रभु के ना पहचान पाने का दुख हुआ और हनुमान जी से दोबारा दर्शन कराने कि इच्छा की।तुलसीदास जी को हनुमान जी का इशारा:अगले दिन जब तुलसीदास नदी चित्रकूट के घाट पर बैठकर चंदन दूसरे को कभी उनकी सामने एक बालक चंदन लगवाने उनके पास आया और कहा बाबा आपने तो चंदन बहुत अच्छा घिसा है थोड़ा हमे भी लगा दो। तुलसीदास अब भी नहीं पहचान पाए कि वो बालक कोई और नहीं बल्कि प्रभु श्री राम है। हनुमान जी को जैसे ही इस बात का अहसास हुए की कहीं तुलसीदास इस बार भी गलती ना कर दे तब वो एक तोते के रूप में आए तो बहुत ही करुणरस में गाने लगे किबाल वनिता महिला आश्रमचित्रकूट के घाट पर, भई संतन की भीर, तुलसीदास चंदन घिसे, तिलक करे रघुवीरतुलसीदास को इशारा समझते देर न लगी और वह तुरंत चंदन को छोड़कर के प्रभु के पैरों में गिर गए और जब अपनी आंखों को उठाया तो देखा कि प्रभु श्रीराम साक्षात के सामने अपने असली रूप में खड़े थे। तुलसीदास की आंखों में आंसू आ गए प्रभु श्री राम ने अपने हाथों से उस चंदन के लिए उठाया और तुलसीदास के माथे पर लगा दिया और हनुमान जी की कथनी को चरितार्थ कर दिया। तुलसीदास चंदन घिसे तिलक करे रघुवीर।चित्र गूगल से प्राप्त।

तुलसीदास ने भगवान हनुमान से कैसे मुलाकात की? By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब हनुमान से मिलने के संबंध में एक कथा प्रचलित है जिसमें कहा जाता है कि तुलसीदास जी जब भगवान के दर्शन के लिए वन मन भटक रहे थे तब वह थक कर एक वृक्ष के नीचे बैठ गए और फिर साथ में लिए जल को (अपनी यात्रा में साथ लेकर चला करते थे) गुस्से में आकर उसी वृक्ष पर फेंक दिया। उस वृक्ष में एक प्रेत रहा करता था ऋषि के कमंडल के जल को ऊपर पड़ते ही वह मुक्त हो गया और बाहर आकर तुलसीदास जी के सामने खड़ा हो गया और बताया कि उसे मुक्ति उनके द्वारा फेके गए जल से हुई है। इसलिए जो भी आपकी समस्या है, सवाल है पूछ सकते है! इस पर तुलसी दास जी ने पूछा कि उन्हें भगवान श्री राम के दर्शन कैसे होंगे? प्रेत ने बताया कि इस सवाल का उत्तर तो केवल बजरंगबली ही बता सकते है। बजरंग बली ही केवल आपको प्रभु राम से मिलवा सकते है। हनुमान जी का पता पूछने पर प्रेत ने बताया कि जब कहीं भी राम की कथा का वाचन होता है तो हनुमान जी वहा पर अवश्य ही पहुंच जाते है। प्रेत ने यह भी बताया कि कुछ दूर के एक मंदिर में राम कथा का आयोजन हो रहा है, वह भी हनुमान जी एक कोढी के वेश...

🙏*मोहन बेटा ! मैं तुम्हारे काका के घर जा रहा हूँ . क्यों पिताजी ? और तुम आजकल काका के घर बहुत जा रहे हो ...?बाल वनिता महिला आश्रम तुम्हारा मन मान रहा हो तो चले जाओ ... पिताजी ! लो ये पैसे रख लो , तुम्हारे काम आ जाएंगे .**पिताजी का मन भर आया . उन्हें आज अपने बेटे को दिए गए संस्कार लौटते नजर आ रहे थे .**जब मोहन स्कूल जाता था ... वह पिताजी से जेब खर्च लेने में हमेशा हिचकता था , क्यों कि घर की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी . पिताजी मजदूरी करके बड़ी मुश्किल से घर चला पाते थे ... पर माँ फिर भी उसकी जेब में कुछ सिक्के डाल देती थी ... जबकि वह बार-बार मना करता था .**मोहन की पत्नी का स्वभाव भी उसके पिताजी की तरफ कुछ खास अच्छा नहीं था . वह रोज पिताजी की आदतों के बारे में कहासुनी करती थी ... उसे ये बडों से टोका टाकी पसन्द नही थी ... बच्चे भी दादा के कमरे में नहीं जाते , मोहन को भी देर से आने के कारण बात करने का समय नहीं मिलता .**एक दिन पिताजी का पीछा किया ... आखिर पिताजी को काका के घर जाने की इतनी जल्दी क्यों रहती है ? वह यह देख कर हैरान रह गया कि पिताजी तो काका के घर जाते ही नहीं हैं ! !!**वह तो स्टेशन पर एकान्त में शून्य मनस्क एक पेड़ के सहारे घंटों बैठे रहते थे . तभी पास खड़े एक बजुर्ग , जो यह सब देख रहे थे , उन्होंने कहा ... बेटा...! क्या देख रहे हो ?**जी....! वो .**अच्छा , तुम उस बूढ़े आदमी को देख रहे हो....? वो यहाँ अक्सर आते हैं और घंटों पेड़ तले बैठ कर सांझ ढले अपने घर लौट जाते हैं . किसी अच्छे सभ्रांत घर के लगते हैं .* बेटा ...! ऐसे एक नहीं अन बुजुर्ग माएँ बुजुर्ग पिता तुम्हें यहाँ आसपास मिल जाएंगे !*जी , मगर क्यों ?* *बेटा ...! जब घर में बड़े बुजुर्गों को प्यार नहीं मिलता.... उन्हें बहुत अकेलापन महसूस होता है , तो वे यहाँ वहाँ बैठ कर अपना समय काटा करते हैं !**वैसे क्या तुम्हें पता है.... बुढ़ापे में इन्सान का मन बिल्कुल बच्चे जैसा हो जाता है . उस समय उन्हें अधिक प्यार और सम्मान की जरूरत पड़ती है , पर परिवार के सदस्य इस बात को समझ नहीं पाते .* *वो यही समझते हैं इन्होंने अपनी जिंदगी जी ली है फिर उन्हें अकेला छोड देते हैं . कहीं साथ ले जाने से कतराते हैं . बात करना तो दूर अक्सर उनकी राय भी उन्हें कड़वी लगती है . जब कि वही बुजुर्ग अपने बच्चों को अपने अनुभवों से आनेवाले संकटों और परेशानियों से बचाने के लिए सटीक सलाह देते है .* *घर लौट कर मोहन ने किसी से कुछ नहीं कहा . जब पिताजी लौटे , मोहन घर के सभी सदस्यों को देखता रहा .**किसी को भी पिताजी की चिन्ता नहीं थी . पिताजी से कोई बात नहीं करता , कोई हंसता खेलता नहीं था . जैसे पिताजी का घर में कोई अस्तित्व ही न हो ! ऐसे परिवार में पत्नी बच्चे सभी पिताजी को इग्नोर करते हुए दिखे !**सबको राह दिखाने के लिऐ आखिर मोहन ने भी अपनी पत्नी और बच्चों से बोलना बन्द कर दिया ... वो काम पर जाता और वापस आता किसी से कोई बातचीत नही ...! बच्चे पत्नी बोलने की कोशिश भी करते , तो वह भी इग्नोर कर काम मे डूबे रहने का नाटक करता ! !! तीन दिन मे सभी परेशान हो उठे... पत्नी , बच्चे इस उदासी का कारण जानना चाहते थे .**मोहन ने अपने परिवार को अपने पास बिठाया . उन्हें प्यार से समझाया कि मैंने तुम से चार दिन बात नहीं की तो तुम कितने परेशान हो गए ? अब सोचो तुम पिताजी के साथ ऐसा व्यवहार करके उन्हें कितना दुख दे रहे हो ?**मेरे पिताजी मुझे जान से प्यारे हैं . जैसे तुम्हारी माँ ! और फिर पिताजी के अकेले स्टेशन जाकर घंटों बैठकर रोने की बात छुपा गया . सभी को अपने बुरे व्यवहार का खेद था .**उस दिन जैसे ही पिताजी शाम को घर लौटे , तीनों बच्चे उनसे चिपट गए ...! दादा जी ! आज हम आपके पास बैठेंगे...! कोई किस्सा कहानी सुनाओ ना .**पिताजी की आँखें भीग गई . वो बच्चों को लिपटकर उन्हें प्यार करने लगे . और फिर जो किस्से कहानियों का दौर शुरू हुआ वो घंटों चला . इस बीच मोहन की पत्नी उनके लिए फल तो कभी चाय नमकीन लेकर आती . पिताजी बच्चों और मोहन के साथ स्वयं भी खाते और बच्चों को भी खिलाते . अब घर का माहौल पूरी तरह बदल गया था ! !!**एक दिन मोहन बोला , पिताजी...! क्या बात है ! आजकल काका के घर नहीं जा रहे हो ...? नहीं बेटा ! अब तो अपना घर ही स्वर्ग लगता है ...! !!**आज सभी में तो नहीं लेकिन अधिकांश परिवारों के बुजुर्गों की यही कहानी है . बहुधा आस पास के बगीचों में , बस अड्डे पर , नजदीकी रेल्वे स्टेशन पर परिवार से तिरस्कृत भरे पूरे परिवार में एकाकी जीवन बिताते हुए ऐसे कई बुजुर्ग देखने को मिल जाएंगे .**आप भी कभी न कभी अवश्य बूढ़े होंगे ही . आज नहीं तो कुछ वर्षों बाद होंगे . जीवन का सबसे बड़ा संकट है बुढ़ापा ! घर के बुजुर्ग ऐसे बूढ़े वृक्ष हैं , जो बेशक फल न देते हों पर छाँव तो देते ही हैं !* By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब *अपना बुढापा खुशहाल बनाने के लिए बुजुर्गों को अकेलापन महसूस न होने दीजिये , उनका सम्मान भले ही न कर पाएँ , पर उन्हें तिरस्कृत मत कीजिये . उनका खयाल रखिये।🙏*

🙏 *मोहन बेटा ! मैं तुम्हारे काका के घर जा रहा हूँ . क्यों पिताजी ? और तुम आजकल काका के घर बहुत जा रहे हो ...? बाल वनिता महिला आश्रम  तुम्हारा मन मान रहा हो तो चले जाओ ... पिताजी !  लो ये पैसे रख लो , तुम्हारे काम आ जाएंगे .* *पिताजी का मन भर आया . उन्हें आज अपने बेटे को दिए गए संस्कार लौटते नजर आ रहे थे .* *जब मोहन स्कूल जाता था ... वह पिताजी से जेब खर्च लेने में हमेशा हिचकता था , क्यों कि घर की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी . पिताजी मजदूरी करके बड़ी मुश्किल से घर चला पाते थे ... पर माँ फिर भी उसकी जेब में कुछ सिक्के डाल देती थी ... जबकि वह बार-बार मना करता था .* *मोहन की पत्नी का स्वभाव भी उसके पिताजी की तरफ कुछ खास अच्छा नहीं था . वह रोज पिताजी की आदतों के बारे में कहासुनी करती थी ... उसे ये बडों से टोका टाकी पसन्द नही थी ... बच्चे भी दादा के कमरे में नहीं जाते , मोहन को भी देर से आने के कारण बात करने का समय नहीं मिलता .* *एक दिन पिताजी का पीछा किया ... आखिर पिताजी को काका के घर जाने की इतनी जल्दी क्यों रहती है ? वह यह देख कर हैरान रह गया कि पिताजी तो काका के घर जाते ही नहीं हैं...

माँ कामाख्या अम्बूवाची पर्व विशेषसाधक और जिज्ञासु भक्त अवश्य पढ़ें〰️〰️🌸〰️〰️🌸〰️〰️🌸〰️〰️कामाख्या मंदिर असम की राजधानी दिसपुर के पास गुवाहाटी से 8 किलोमीटर दूर कामाख्या मे है। कामाख्या से भी 10 किलोमीटर दूर नीलाचल पव॑त पर स्थित हॅ। यह मंदिर शक्ति की देवी सती का मंदिर है। यह मंदिर एक पहाड़ी पर बना है व इसका महत् तांत्रिक महत्व है। प्राचीन काल से सतयुगीन तीर्थ कामाख्या वर्तमान में तंत्र सिद्धि का सर्वोच्च स्थल है। पूर्वोत्तर के मुख्य द्वार कहे जाने वाले असम राज्य की राजधानी दिसपुर से 6 किलोमीटर की दूरी पर स्थित नीलांचल अथवा नीलशैल पर्वतमालाओं पर स्थित मां भगवती कामाख्या का सिद्ध शक्तिपीठ सती के इक्यावन शक्तिपीठों में सर्वोच्च स्थान रखता है। यहीं भगवती की महामुद्रा (योनि-कुण्ड) स्थित है।अम्बुवाची पर्व〰️〰️🌸〰️〰️विश्व के सभी तांत्रिकों, मांत्रिकों एवं सिद्ध-पुरुषों के लिये वर्ष में एक बार पड़ने वाला अम्बूवाची योग पर्व वस्तुत एक वरदान है। यह अम्बूवाची पर्वत भगवती (सती) का रजस्वला पर्व होता है। पौराणिक शास्त्रों के अनुसार सतयुग में यह पर्व 16 वर्ष में एक बार, द्वापर में 12 वर्ष में एक बार, त्रेता युग में 7 वर्ष में एक बार तथा कलिकाल में प्रत्येक वर्ष जून माह में तिथि के अनुसार मनाया जाता है। पिछले कुछ वर्षों की भांति इस वर्ष भी अम्बूवाची पर्व योग जून की 22 से 26 जून तक मनाया जाएगा।अम्बुबाची मेला प्रारम्भ: 22 जून 2020 दिन: सोमवारमंदिर बंद होने का दिन: 22 जून 2020 दिन: सोमवारमंदिर खुलने का दिन: 26 जून 2020 दिन: शुक्रवारदर्शन करने का दिन : 26 जून 2020 दिन: शुक्रवारअम्बुबाची मेला समाप्त: 26 जून 2020 दिन: शुक्रवारपौराणिक महात्म्य〰️〰️🌸🌸〰️〰️पौराणिक सत्य है कि अम्बूवाची पर्व के दौरान माँ भगवती रजस्वला होती हैं और मां भगवती की गर्भ गृह स्थित महामुद्रा (योनि-तीर्थ) से निरंतर तीन दिनों तक जल-प्रवाह के स्थान से रक्त प्रवाहित होता है। यह अपने आप में, इस कलिकाल में एक अद्भुत आश्चर्य का विलक्षण नजारा है। कामाख्या तंत्र के अनुसार -योनि मात्र शरीराय कुंजवासिनि कामदा। रजोस्वला महातेजा कामाक्षी ध्येताम सदा।।अम्बूवाची योग पर्व के दौरान मां भगवती के गर्भगृह के कपाट स्वत ही बंद हो जाते हैं और उनका दर्शन भी निषेध हो जाता है। इस पर्व की महत्ता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पूरे विश्व से इस पर्व में तंत्र-मंत्र-यंत्र साधना हेतु सभी प्रकार की सिद्धियाँ एवं मंत्रों के पुरश्चरण हेतु उच्च कोटियों के तांत्रिकों-मांत्रिकों, अघोरियों का बड़ा जमघट लगा रहता है। तीन दिनों के उपरांत मां भगवती की रजस्वला समाप्ति पर उनकी विशेष पूजा एवं साधना की जाती है।कामाख्या के बारे में किंवदंती है कि घमंड में चूर असुरराज नरकासुर एक दिन मां भगवती कामाख्या को अपनी पत्नी के रूप में पाने का दुराग्रह कर बैठा था। कामाख्या महामाया ने नरकासुर की मृत्यु को निकट मानकर उससे कहा कि यदि तुम इसी रात में नील पर्वत पर चारों तरफ पत्थरों के चार सोपान पथों का निर्माण कर दो एवं कामाख्या मंदिर के साथ एक विश्राम-गृह बनवा दो, तो मैं तुम्हारी इच्छानुसार पत्नी बन जाऊँगी और यदि तुम ऐसा न कर पाये तो तुम्हारी मौत निश्चित है। गर्व में चूर असुर ने पथों के चारों सोपान प्रभात होने से पूर्व पूर्ण कर दिये और विश्राम कक्ष का निर्माण कर ही रहा था कि महामाया के एक मायावी कुक्कुट (मुर्गे) द्वारा रात्रि समाप्ति की सूचना दी गयी, जिससे नरकासुर ने क्रोधित होकर मुर्गे का पीछा किया और ब्रह्मपुत्र के दूसरे छोर पर जाकर उसका वध कर डाला। यह स्थान आज भी `कुक्टाचकि' के नाम से विख्यात है। बाद में मां भगवती की माया से भगवान विष्णु ने नरकासुर असुर का वध कर दिया। नरकासुर की मृत्यु के बाद उसका पुत्र भगदत्त कामरूप का राजा बना। भगदत्त का वंश लुप्त हो जाने से कामरूप राज्य छोटे-छोटे भागों में बंट गया और सामंत राजा कामरूप पर अपना शासन करने लगा।नरकासुर के नीच कार्यों के बाद एवं विशिष्ट मुनि के अभिशाप से देवी अप्रकट हो गयी थीं और कामदेव द्वारा प्रतिष्ठित कामाख्या मंदिर ध्वंसप्राय हो गया था।आद्य-शक्ति महाभैरवी कामाख्या के दर्शन से पूर्व महाभैरव उमानंद, जो कि गुवाहाटी शहर के निकट ब्रह्मपुत्र नदी के मध्य भाग में टापू के ऊपर स्थित है, का दर्शन करना आवश्यक है। यह एक प्राकृतिक शैलदीप है, जो तंत्र का सर्वोच्च सिद्ध सती का शक्तिपीठ है। इस टापू को मध्यांचल पर्वत के नाम से भी जाना जाता है, क्योंकि यहीं पर समाधिस्थ सदाशिव को कामदेव ने कामबाण मारकर आहत किया था और समाधि से जाग्रत होने पर सदाशिव ने उसे भस्म कर दिया था। भगवती के महातीर्थ (योनिमुद्रा) नीलांचल पर्वत पर ही कामदेव को पुन जीवनदान मिला था। इसीलिए यह क्षेत्र कामरूप के नाम से भी जाना जाता है।सर्वोच्च कौमारी तीर्थ〰️〰️🌸🌸〰️〰️सती स्वरूपिणी आद्यशक्ति महाभैरवी कामाख्या तीर्थ विश्व का सर्वोच्च कौमारी तीर्थ भी माना जाता है। इसीलिए इस शक्तिपीठ में कौमारी-पूजा अनुष्ठान का भी अत्यन्त महत्व है। यद्यपि आद्य-शक्ति की प्रतीक सभी कुल व वर्ण की कौमारियाँ होती हैं। किसी जाति का भेद नहीं होता है। इस क्षेत्र में आद्य-शक्ति कामाख्या कौमारी रूप में सदा विराजमान हैं। इस क्षेत्र में सभी वर्ण व जातियों की कौमारियां वंदनीय हैं, पूजनीय हैं। वर्ण-जाति का भेद करने पर साधक की सिद्धियां नष्ट हो जाती हैं। शास्त्रों में वर्णित है कि ऐसा करने पर इंद्र तुल्य शक्तिशाली देव को भी अपने पद से वंछित होना पड़ा था। जिस प्रकार उत्तर भारत में कुंभ महापर्व का महत्व माना जाता है, ठीक उसी प्रकार उससे भी श्रेष्ठ इस आद्यशक्ति के अम्बूवाची पर्व का महत्व है। इसके अंतर्गत विभिन्न प्रकार की दिव्य आलौकिक शक्तियों का अर्जन तंत्र-मंत्र में पारंगत साधक अपनी-अपनी मंत्र-शक्तियों को पुरश्चरण अनुष्ठान कर स्थिर रखते हैं। इस पर्व में मां भगवती के रजस्वला होने से पूर्व गर्भगृह स्थित महामुद्रा पर सफेद वस्त्र चढ़ाये जाते हैं, जो कि रक्तवर्ण हो जाते हैं। मंदिर के पुजारियों द्वारा ये वस्त्र प्रसाद के रूप में श्रद्धालु भक्तों में विशेष रूप से वितरित किये जाते हैं। इस पर्व पर भारत ही नहीं बल्कि बंगलादेश, तिब्बत और अफ्रीका जैसे देशों के तंत्र साधक यहां आकर अपनी साधना के सर्वोच्च शिखर को प्राप्त करते हैं। वाममार्ग साधना का तो यह सर्वोच्च पीठ स्थल है। मछन्दरनाथ, गोरखनाथ, लोनाचमारी, ईस्माइलजोगी इत्यादि तंत्र साधक भी सांवर तंत्र में अपना यहीं स्थान बनाकर अमर हो गये हैं।कामाख्या देवी साधना 〰️〰️🌸〰️🌸〰️〰️शक्ति के उपासकों के लिए ‘कामाख्या-मन्त्र’ की साधना अत्यन्त आवश्यक है। यह ‘कामाख्या-मन्त्र’ कल्प-वृक्ष के समान है। सभी साधकों को एक, दो या चार बार इसका साधना एक वर्ष मे अवश्य करना चाहिए। इस मन्त्र की साधना में चक्रादि-शोधन या कलादि-शोधन की आवश्यकता नहीं है। इसकी साधना से सभी विघ्न दूर होते हैं और शीघ्र ही सिद्धि प्राप्त होती है।इस पोस्ट के माध्यम से हम सरलतम साधना विधि बता रहे है आशा है आप लोग इसका उपयोग कर प्रारब्ध भोग काटकर उन्नति के मार्ग में सफल होंगे। इस साधना में शारीरिक एवं मानसिक शुद्धि की अतिआवश्यकता होती है इसलिये प्रातःकाल अथवा रात्रि काल मे स्नान आदि से निवृत होकर पश्चिम अथवा उत्तर दिशा में मुख्य कर लाल ऊनि आसन बिछाकर बैठे साधना पर बैठने से पहले यह सुनिश्चित कर ले बीच मे किसी भी प्रकार का विक्षेप ना हो इसके लिय सभी आवश्यक कार्य पहले ही पूर्ण कर ले हो सके तो साधना स्थल (कमरे) को अंदर से बंद कर के रखें।आसान पर स्थान ग्रहण करने के बाद शरीर एवं आसन पवित्रीकरण के बाद अपने सामने एक चौकी पर लाल कपड़ा बिछा कर उसपर किसी भी देवी की प्रतिमा अथवा चित्र केवल प्रतीकात्मक रूप में रखे चित्र ना भी हो तब केवल घी के दीपक से ही काम चल सकता है। दीपक जलाने के बाद नीचे दिए गए मंत्र क्रिया अनुसार साधना आरम्भ करें।।। विनियोग ।।〰️〰️🌸〰️〰️ॐ अस्य कामाख्या-मन्त्रस्य श्री अक्षोभ्य ऋषि:, अनुष्टुप् छन्द: , श्री कामाख्या देवता, सर्व- सिद्धि-प्राप्त्यर्थे जपे विनियोग:।।। ऋष्यादि-न्यास ।।〰️〰️🌸🌸〰️〰️श्रीअक्षोभ्य-ऋषये नम: शिरसि,अनुष्टुप्-छन्दसे नम: मुखे,श्रीकामाख्या-देवतायै नम: हृदि,सर्व- सिद्धि-प्राप्त्यर्थे जपे विनियोगाय नम: सर्वाङ्गे।।। कर-न्यास ।।〰️〰️🌸〰️〰️त्रां अंगुष्ठाभ्यां नम:,त्रीं तर्जनीभ्यां स्वाहा,त्रूं मध्यमाभ्यां वषट्,त्रैं अनामिकाभ्यां हुम्,त्रीं कनिष्ठिकाभ्यां वौषट्,त्र: करतल-कर-पृष्ठाभ्यां फट्।।। अङ्ग-न्यास ।।〰️〰️🌸〰️〰️त्रां हृदयाय नम:,त्रीं शिरसे स्वाहा,त्रूं शिखायै वषट्,त्रैं कवचाय हुम्,त्रौं नेत्र-त्रयाय वौषट्,त्र: अस्त्राय फट्।कामाख्या देवी का ध्यान〰️〰️🌸〰️〰️🌸〰️〰️उक्त प्रकार न्यासादि करने के बाद भगवती कामाख्या का निम्न प्रकार से ध्यान करना चाहिए-भगवती कामाख्या लाल वस्त्र-धारिणी, द्वि-भूजा, सिन्दूर-तिलक लगाए हैं।भगवती कामाख्या निर्मल चन्द्र के समान उज्ज्वल एवं कमल के समान सुन्दर मुखवाली हैं।भगवती कामाख्या स्वर्णादि के बने मणि-माणिक्य से जटित आभूषणों से शोभित हैं। भगवती कामाख्या विविध रत्नों से शोभित सिंहासन पर बैठी हुई हैं। भगवती कामाख्या मन्द-मन्द मुस्करा रही हैं। भगवती कामाख्या उन्नत पयोधरोंवाली हैं। कृष्ण-वर्णा भगवती कामाख्या के बड़े-बड़े नेत्र हैं। भगवती कामाख्या विद्याओं द्वारा घिरी हुई हैं। डाकिनी-योगिनी द्वारा शोभायमान हैं। सुन्दर स्त्रियों से विभूषित हैं। विविध सुगन्धों से सु-वासित हैं। हाथों में ताम्बूल लिए नायिकाओं द्वारा सु-शोभिता हैं।भगवती कामाख्या समस्त सिंह-समूहों द्वारा वन्दिता हैं। भगवती कामाख्या त्रि-नेत्रा हैं। भगवती के अमृत-मय वचनों को सुनने के लिए उत्सुका सरस्वती और लक्ष्मी से युक्ता देवी कामाख्या समस्त गुणों से सम्पन्ना, असीम दया-मयी एवं मङ्गल- रूपिणी हैं।उक्त प्रकार से ध्यान कर कामाख्या देवी की पूजा कर कामाख्या मन्त्र का ‘जप’ करना चाहिए।’जप’ के बाद निम्न प्रकार से ‘प्रार्थना’ करनी चाहिए। प्रार्थना〰️🌸〰️कामाख्ये काम-सम्पन्ने, कामेश्वरि! हर-प्रिये!कामनां देहि मे नित्यं, कामेश्वरि! नमोऽस्तु ते।।कामदे काम-रूपस्थे, सुभगे सुर-सेविते!करोमि दर्शनं देव्या:, सर्व-कामार्थ-सिद्धये।।अर्थात् हे कामाख्या देवि! कामना पूर्ण करनेवाली,कामना की अधिष्ठात्री, शिव की प्रिये! मुझे सदा शुभ कामनाएँ दो और मेरी कामनाओं को सिद्ध करो। हे कामना देनेवाली, कामना के रूप में ही स्थित रहनेवाली, सुन्दरी और देव-गणों से सेविता देवि! सभी कामनाओं की सिद्धि के लिए मैं आपके दर्शन करता हूँ।कामाख्या देवी का 22 अक्षर का मन्त्र ‘कामाख्या तन्त्र’ के चतुर्थ पटल में कामाख्या देवी का 22 अक्षर का मन्त्र उल्लिखित है निम्न मंत्र की 41 दिन कम से कम 31 या 41 माला प्रतिदिन करने से माता की कृपा प्राप्त कर मनुष्य अपने अभीष्ट कार्यो को पूर्ति कर सकता है।मंत्र👉 ll त्रीं त्रीं त्रीं हूँ हूँ स्त्रीं स्त्रीं कामाख्ये प्रसीद स्त्रीं स्त्रीं हूँ हूँ त्रीं त्रीं त्रीं स्वाहा llउक्त मन्त्र महा-पापों को नष्ट करनेवाला, धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष देनेवाला है। इसके ‘जप’ से साधक साक्षात् देवी-स्वरूप बन जाता है। इस मन्त्र का स्मरण करते ही सभी विघ्न नष्ट हो जाते हैं।इस मन्त्र के ऋष्यादि ‘त्र्यक्षर मन्त्र’ (त्रीं त्रीं त्रीं) के समान हैं।’ध्यान’ इस प्रकार किया जाता हैमैं योनि-रूपा भवानी का ध्यान करता हूँ, जो कलि-काल के पापों का नाश करती हैं और समस्त भोग-विलास के उल्लास से पूर्ण करती हैं।मैं अत्यन्त सुन्दर केशवाली, हँस-मुखी, त्रि-नेत्रा, सुन्दर कान्तिवाली, रेशमी वस्त्रों से प्रकाशमाना, अभय और वर-मुद्राओंसे युक्त, रत्न-जटित आभूषणों से भव्य, देव-वृक्ष केनीचे पीठ पर रत्न-जटित सिंहासन पर विराजमाना, ब्रह्मा-विष्णु-महेश द्वारा वन्दिता, बुद्धि-वृद्धि-स्वरूपा, काम-देव के मनो-मोहक बाण के समान अत्यन्तकमनीया, सभी कामनाओं को पूर्णकरनेवाली भवानी का भजन करता हूँ।नोट👉 माँ कामख्या तंत्र शास्त्र की आराध्या है इनका सकाम अनुष्ठान करने से पहले गुरुआज्ञा अतिआवश्यक है।ॐ महालक्ष्म्यै च विद्महे सर्वशक्त्यै च धिमही तन्नो देवी प्रचोदयात् ।।माँ कामाख्या स्तोत्र〰️〰️🌸🌸〰️〰️आज हर व्यक्ति उन्नति, यश, वैभव, कीर्ति, धन-संपदा चाहता है वह भी बिना बाधाओं के। मां कामाख्या देवी का कवच पाठ करने से सभी बाधाओं से मुक्ति मिल जाती है। आप भी कवच का नित्य पाठ कर अपनी मनोवांछित अभिलाषा पूरी कर सकते हैं।नारद उवाच कवच कीदृशं देव्या महाभयनिवर्तकम। कामाख्यायास्तु तद्ब्रूहि साम्प्रतं मे महेश्वर।। नारद जी बोले-महेश्वर!महाभय को दूर करने वाला भगवती कामाख्या कवच कैसा है, वह अब हमें बताएं।महादेव उवाच〰️〰️〰️〰️शृणुष्व परमं गुहयं महाभयनिवर्तकम्।कामाख्याया: सुरश्रेष्ठ कवचं सर्व मंगलम्।।यस्य स्मरणमात्रेण योगिनी डाकिनीगणा:।राक्षस्यो विघ्नकारिण्यो याश्चान्या विघ्नकारिका:।।क्षुत्पिपासा तथा निद्रा तथान्ये ये च विघ्नदा:।दूरादपि पलायन्ते कवचस्य प्रसादत:।।निर्भयो जायते मत्र्यस्तेजस्वी भैरवोयम:।समासक्तमनाश्चापि जपहोमादिकर्मसु।भवेच्च मन्त्रतन्त्राणां निर्वघ्नेन सुसिद्घये।। महादेव जी बोले-सुरश्रेष्ठ! भगवती कामाख्या का परम गोपनीय महाभय को दूर करने वाला तथा सर्वमंगलदायक वह कवच सुनिये, जिसकी कृपा तथा स्मरण मात्र से सभी योगिनी, डाकिनीगण, विघ्नकारी राक्षसियां तथा बाधा उत्पन्न करने वाले अन्य उपद्रव, भूख, प्यास, निद्रा तथा उत्पन्न विघ्नदायक दूर से ही पलायन कर जाते हैं। इस कवच के प्रभाव से मनुष्य भय रहित, तेजस्वी तथा भैरवतुल्य हो जाता है। जप, होम आदि कर्मों में समासक्त मन वाले भक्त की मंत्र-तंत्रों में सिद्घि निर्विघ्न हो जाती है।।मां कामाख्या देवी कवच〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️ओं प्राच्यां रक्षतु मे तारा कामरूपनिवासिनी।आग्नेय्यां षोडशी पातु याम्यां धूमावती स्वयम्।।नैर्ऋत्यां भैरवी पातु वारुण्यां भुवनेश्वरी।वायव्यां सततं पातु छिन्नमस्ता महेश्वरी।। कौबेर्यां पातु मे देवी श्रीविद्या बगलामुखी।ऐशान्यां पातु मे नित्यं महात्रिपुरसुन्दरी।। ऊध्र्वरक्षतु मे विद्या मातंगी पीठवासिनी।सर्वत: पातु मे नित्यं कामाख्या कलिकास्वयम्।।ब्रह्मरूपा महाविद्या सर्वविद्यामयी स्वयम्।शीर्षे रक्षतु मे दुर्गा भालं श्री भवगेहिनी।। त्रिपुरा भ्रूयुगे पातु शर्वाणी पातु नासिकाम।चक्षुषी चण्डिका पातु श्रोत्रे नीलसरस्वती।। मुखं सौम्यमुखी पातु ग्रीवां रक्षतु पार्वती।जिव्हां रक्षतु मे देवी जिव्हाललनभीषणा।। वाग्देवी वदनं पातु वक्ष: पातु महेश्वरी।बाहू महाभुजा पातु कराङ्गुली: सुरेश्वरी।। पृष्ठत: पातु भीमास्या कट्यां देवी दिगम्बरी।उदरं पातु मे नित्यं महाविद्या महोदरी।। उग्रतारा महादेवी जङ्घोरू परिरक्षतु।गुदं मुष्कं च मेदं च नाभिं च सुरसुंदरी।। पादाङ्गुली: सदा पातु भवानी त्रिदशेश्वरी।रक्तमासास्थिमज्जादीनपातु देवी शवासना।। महाभयेषु घोरेषु महाभयनिवारिणी।पातु देवी महामाया कामाख्यापीठवासिनी।। भस्माचलगता दिव्यसिंहासनकृताश्रया।पातु श्री कालिकादेवी सर्वोत्पातेषु सर्वदा।। रक्षाहीनं तु यत्स्थानं कवचेनापि वर्जितम्।तत्सर्वं सर्वदा पातु सर्वरक्षण कारिणी।। इदं तु परमं गुह्यं कवचं मुनिसत्तम।कामाख्या भयोक्तं ते सर्वरक्षाकरं परम्।। अनेन कृत्वा रक्षां तु निर्भय: साधको भवेत।न तं स्पृशेदभयं घोरं मन्त्रसिद्घि विरोधकम्।।जायते च मन: सिद्घिर्निर्विघ्नेन महामते।इदं यो धारयेत्कण्ठे बाहौ वा कवचं महत्।। अव्याहताज्ञ: स भवेत्सर्वविद्याविशारद:।सर्वत्र लभते सौख्यं मंगलं तु दिनेदिने।। य: पठेत्प्रयतो भूत्वा कवचं चेदमद्भुतम्।स देव्या: पदवीं याति सत्यं सत्यं न संशय:।। हिन्दी में अर्थ〰️〰️〰️〰️कामरूप में निवास करने वाली भगवती तारा पूर्व दिशा में, पोडशी देवी अग्निकोण में तथा स्वयं धूमावती दक्षिण दिशा में रक्षा करें।। 1।। नैऋत्यकोण में भैरवी, पश्चिम दिशा में भुवनेश्वरी और वायव्यकोण में भगवती महेश्वरी छिन्नमस्ता निरंतर मेरी रक्षा करें।। 2।। उत्तरदिशा में श्रीविद्यादेवी बगलामुखी तथा ईशानकोण में महात्रिपुर सुंदरी सदा मेरी रक्षा करें।। 3।। भगवती कामाख्या के शक्तिपीठ में निवास करने वाली मातंगी विद्या ऊध्र्वभाग में और भगवती कालिका कामाख्या स्वयं सर्वत्र मेरी नित्य रक्षा करें।। 4।।ब्रह्मरूपा महाविद्या सर्व विद्यामयी स्वयं दुर्गा सिर की रक्षा करें और भगवती श्री भवगेहिनी मेरे ललाट की रक्षा करें।। 5।। त्रिपुरा दोनों भौंहों की, शर्वाणी नासिका की, देवी चंडिका आँखों की तथा नीलसरस्वती दोनों कानों की रक्षा करें।। 6।। भगवती सौम्यमुखी मुख की, देवी पार्वती ग्रीवा की और जिव्हाललन भीषणा देवी मेरी जिव्हा की रक्षा करें।। 7।।वाग्देवी वदन की, भगवती महेश्वरी वक्ष: स्थल की, महाभुजा दोनों बाहु की तथा सुरेश्वरी हाथ की, अंगुलियों की रक्षा करें।। 8।। भीमास्या पृष्ठ भाग की, भगवती दिगम्बरी कटि प्रदेश की और महाविद्या महोदरी सर्वदा मेरे उदर की रक्षा करें।।9।। महादेवी उग्रतारा जंघा और ऊरुओं की एवं सुरसुन्दरी गुदा, अण्डकोश, लिंग तथा नाभि की रक्षा करें।।10।। भवानी त्रिदशेश्वरी सदा पैर की, अंगुलियों की रक्षा करें और देवी शवासना रक्त, मांस, अस्थि, मज्जा आदि की रक्षा करें।।11।। भगवती कामाख्या शक्तिपीठ में निवास करने वाली, महाभय का निवारण करने वाली देवी महामाया भयंकर महाभय से रक्षा करें। भस्माचल पर स्थित दिव्य सिंहासन विराजमान रहने वाली श्री कालिका देवी सदा सभी प्रकार के विघ्नों से रक्षा करें।।12।। जो स्थान कवच में नहीं कहा गया है, अतएव रक्षा से रहित है उन सबकी रक्षा सर्वदा भगवती सर्वरक्षकारिणी करे।। 13।। मुनिश्रेष्ठ! मेरे द्वारा आप से महामाया सभी प्रकार की रक्षा करने वाला भगवती कामाख्या का जो यह उत्तम कवच है वह अत्यन्त गोपनीय एवं श्रेष्ठ है।।14।। इस कवच से रहित होकर साधक निर्भय हो जाता है। मन्त्र सिद्घि का विरोध करने वाले भयंकर भय उसका कभी स्पर्श तक नहीं करते हैं।। 15।। महामते! जो व्यक्ति इस महान कवच को कंठ में अथवा बाहु में धारण करता है उसे निर्विघ्न मनोवांछित फल मिलता है।। 16।। वह अमोघ आज्ञावाला होकर सभी विद्याओं में प्रवीण हो जाता है तथा सभी जगह दिनोंदिन मंगल और सुख प्राप्त करता है। जो जितेन्द्रिय व्यक्ति इस अद्भुत कवच का पाठ करता है वह भगवती के दिव्य धाम को जाता है। यह सत्य है, इसमें संशय नहीं है।। 17।।〰️〰️🌸〰️〰️🌸〰️〰️🌸〰️〰️🌸〰️〰️🌸〰️〰️

माँ कामाख्या अम्बूवाची पर्व विशेष साधक और जिज्ञासु भक्त अवश्य पढ़ें बाल वनिता महिला आश्रम  〰️〰️🌸〰️〰️🌸〰️〰️🌸〰️〰️ कामाख्या मंदिर असम की राजधानी दिसपुर के पास गुवाहाटी से 8 किलोमीटर दूर कामाख्या मे है। कामाख्या से भी 10 किलोमीटर दूर नीलाचल पव॑त पर स्थित हॅ। यह मंदिर शक्ति की देवी सती का मंदिर है। यह मंदिर एक पहाड़ी पर बना है व इसका महत् तांत्रिक महत्व है। प्राचीन काल से सतयुगीन तीर्थ कामाख्या वर्तमान में तंत्र सिद्धि का सर्वोच्च स्थल है। पूर्वोत्तर के मुख्य द्वार कहे जाने वाले असम राज्य की राजधानी दिसपुर से 6 किलोमीटर की दूरी पर स्थित नीलांचल अथवा नीलशैल पर्वतमालाओं पर स्थित मां भगवती कामाख्या का सिद्ध शक्तिपीठ सती के इक्यावन शक्तिपीठों में सर्वोच्च स्थान रखता है। यहीं भगवती की महामुद्रा (योनि-कुण्ड) स्थित है। अम्बुवाची पर्व 〰️〰️🌸〰️〰️ विश्व के सभी तांत्रिकों, मांत्रिकों एवं सिद्ध-पुरुषों के लिये वर्ष में एक बार पड़ने वाला अम्बूवाची योग पर्व वस्तुत एक वरदान है। यह अम्बूवाची पर्वत भगवती (सती) का रजस्वला पर्व होता है। पौराणिक शास्त्रों के अनुसार सतयुग में यह पर्व 16 वर्ष में एक बार, द्...