. संक्षिप्त श्रीस्कन्द-महापुराण पोस्ट - 234 काशी-खण्ड काशीखण्ड-पूर्वार्ध अध्याय - 21इस अध्याय में:- श्रीगंगासहस्त्रनामपिछली पोस्ट का शेष भाग:- By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब, ५०१ धर्मधारा- धर्म को धारण करने वाली, ५०२ धर्मसारा- सब धर्मो की सारभूता, ५०३ धनदा- धन देने वाली, ५०४ धनवर्द्धिनी- धन बढ़ाने वाली, ५०५ धर्माधर्मगुणच्छेत्री- धर्माधर्म के बन्धन को काटने वाली ब्रह्मविद्यास्वरूपा, ५०६ धत्तूरकुसुम-प्रिया- धतूर के फूल में रुचि रखने वाली, ५०७ धर्मेशी- धर्मकी स्वामिनी, ५०८ धर्म- शास्त्रज्ञा- धर्मशास्त्र को जानने वाली ५०९ धन धान्यसमृद्धिकृत्- धन और धान्य को बढ़ाने वाली, ५१० धर्मलभ्या- धर्म से प्राप्त होने योग्य, ५११ धर्मजला- धर्म स्वरूप जल वाली, ५१२ धर्म प्रसवधर्मिणी- धर्म की जननी तथा धर्मनिष्ठ, ५१३ ध्यानगम्यस्वरूपा- जिसका स्वरूप ध्यान के द्वारा चिन्तन करने योग्य है, वह, ५१४ धरणी- धारण करने वाली, पृथ्वीरूपा, ५१५ धातृपूजिता- ब्रह्माजी के द्वारा पूजित ५१६ धू:- पापों को कम्पित करने वाली, ५१७ धूर्जटिजटासंस्था- भगवान् शंकर की जटा में वास करने वाली ५१८ धन्या- कृतार्थ स्वरूपा, ५१९ धी:- बुद्धि स्वरूपा, ५२० धारणावती- धारणाशक्ति से सम्पन्न, मेधा स्वरूपा, ५२१ नन्दा- नन्दा नामवाली गंगा अथवा जगत् को आनन्द देने वाली, ५२२ निर्वाणजननी- परम शान्ति अथवा मोक्ष देने वाली २३ नन्दिनी- दूसरों को प्रसन्न करने वाली अथवा वसिष्ठ की धेनु, ५२४ नुन्नपातका- पातकों को दूर करने वाली, ५२५ निषिद्धविघ्ननिचया- विघ्न समुदाय का निवारण करने वाली। ५२६ निजानन्दप्रकाशिनी- अपने स्वरूपभूत आनन्द को प्रकाशित करने वाली, ५२७ नभोऽङ्गणचरी- आकाश के आँगन में विचरने- वाली, ५२८ नृतिः- स्तुतिस्वरूपा, ५२९ नम्या- वन्दनीया, ५३० नारायणी- नारायण शक्ति स्वरूपा अथवा नारायणी (गण्डकी) नदीस्वरूपा, ५३१ नुता- ब्रह्मा और इन्द्र आदि देवताओं के द्वारा अभिनन्दिता ५३२ निर्मला- संसार रूपी मल से रहित, ५३३ निर्मलाख्याना- जिसकी माहात्म्य कथा अत्यन्त निर्मल है, ऐसी, ५३४ नाशिनी ताप सम्पदाम्- सन्ताप की परम्परा का नाश करने वाली ५३५ नियता- निमय पूर्वक रहने वाली अथवा एकरूपा, ५३६ नित्यसुखदा- सदा सुख देने वाली, ५३७ नानाश्चर्यमहानिधिः- अनेक प्रकार के आश्चर्यों का भण्डार। ५३८ नदी- अव्यक्त शब्द करने वाली सरिता, ५३९ नदसरोमाता- नदों और सरोवरों की जननी, ५४० नायिका- जीवों को संसार समुद्र से पार ले जाने वाली अथवा सब नदियों की स्वामिनी, ५४१ नाकदीर्धिका- स्वर्गलोक की वावली, ५४२ नष्टोद्धरणधीरा- संसार-सागर में गिरकर नष्ट होने वाले जीवों का उद्धार करने में दक्ष, ५४३ नन्दना- समृद्धि देने वाली ५४४ नन्ददायिनी- आनन्द देने वाली, ५४५ निर्णिक्ताशेषभुवना- समस्त लोकों को पवित्र करने वाली, ५४६ निःसङ्गा- आसक्ति रहित, ५४७ निरुपद्रवा- विघ्न रहित, ५४८ निरालम्बा- आधार रहित, अपनी ही महिमा में प्रतिष्ठित, ५४९ निष्प्रपञ्चा- प्रपंच से परे स्थित, ५५० निर्णाशितमहामला- अज्ञानरूपी महामल का पूर्णतया नाश करने वाली। ५५१ निर्मलज्ञानजननी- विशुद्ध ज्ञान को प्रकट करने वाली, ५५२ निःशेषप्राणितापहत्- समस्त प्राणियों का सन्ताप हर लेने वाली, ५५३ नित्योत्सवा- नित्य उत्सवयुक्त, ५५४ नित्यतृप्ता- अपने स्वरूपभूत आनन्द से सदा सन्तुष्ट, ५५५ नमस्कार्या- नमस्कार करने योग्य, ५५६ निरञ्जना- अज्ञानरहित, ५५७ निष्ठावती- श्रद्धा एवं नियम-निष्ठा से युक्त, ५५८ निरातंका- भयरहित, ५५९ निर्लेपा- पाप आदि से अलिप्त, शुद्ध स्वरूपा, ५६० निश्चलात्मिका- स्थिर बुद्धिवाली, ५६१ निरवद्या- निर्दोष, ५६२ निरीहा- चेष्टा रहित, ५६३ नीललोहित मूर्द्धगा- भगवान् शिव के मस्तक पर विराजमान, ५६४ नन्दिभृङ्गिगणस्तुत्या- नन्दी, भृंगी आदि शिवगणों से स्तुति की जाने योग्य, ५६५ नागा- नाग स्वरूपा, ५६६ नन्दा- समृद्धिदायिनी, ५६७ नगात्मजा- गिरिराज हिमवान् की पुत्री, ५६८ निष्प्रत्यूहा- विघ्न बाधाओं से रहित ५६९ नाकनदी- स्वर्गलोक की नदी, ५७० निरयाण्व- दीर्घनौ:- नरक-समुद्र से पार होने के लिये विशाल नौकास्वरूप, ५७१ पुण्यप्रदा- पुण्य देने वाली, ५७२ पुण्य- गर्भा- अपने भीतर पुण्य धारण करने वाली ५७३ पुण्या- पुण्यस्वरूपा, ५७४ पुण्यतरङ्गिणी- पवित्र लहरों वाली, ५७५ पृथुः- विशाल एवं परिपूर्ण, ५७६ पृथुफला- महान् फल वाली, ५७७ पूर्णा- सर्वत्र व्यापक, अविच्छिन्न धारा से युक्त, ५७८ प्रणतार्तिप्रभञ्जनी- शरणागतों की पीड़ा का नाश करने वाली। ५७९ प्राणदा- प्राणदान करने वाली, ५८० प्राणिजननी- जीवों को जन्म देने वाली, ५८१ प्राणेशी- प्राणों की अधीश्वरी, ५८२ प्राणरूपिणी- प्राण स्वरूपा, ५८३ पद्मालया- कमलों में वास करने वाली लक्ष्मी स्वरूपा, ५८४ पराशक्ति:- सर्वोत्कृष्ट शक्ति, ५८५ पुरजित्परमप्रिया- त्रिपुरारि शिव की अतिशय वल्लभा, ५८६ परा- सर्वश्रेष्ठ, ५८७ परफलप्राप्ति:- सर्वोत्तम फल-मोक्ष की प्राप्ति कराने वाली, ५८८ पावनी- सबको पवित्र करने वाली ५८९ पयस्विनी-उत्तम जल वाली, ५९० परानन्दा- परमानन्द स्वरूपा, ५९१ प्रकृष्टार्था- श्रेष्ठ पुरुषार्थ-स्वरूपा, ५९२ प्रतिष्ठा- सबकी आधारभूता, ५९३ पालिनी- पालन करने वाली, ५९४ परा- परमात्म स्वरूपा, ५९५ पुराणपठिता- पुराणों में जिसकी महिमा का प्रतिपादन किया गया है, वह, ५९६ प्रीता- सबको प्रिय लगने वाली ५९७ प्रणवाक्षररूपिणी- ॐकारस्वरूपा, ५९८ पार्वती- पर्वतराज कन्या, ५९९ प्रेमसम्पन्ना- प्रेम से परिपूर्ण, ६०० पशुपाश विमोचनी-जीवों के अज्ञानमय बन्धन को दूर करने वाली। ६०१ परमात्मस्वरूपा- परब्रह्मरूपिणी, ६०२ परब्रह्मप्रकाशिनी- परब्रह्म को प्रकाशित करने वाली, ६०३ परमानन्दनिष्पन्दा- अपने स्वरूपभूत परमानन्द में निमग्न होने के कारण निश्चल, ६०४ प्रायश्चित्तस्वरूपिणी- समस्त पापों के लिये एकमात्र प्रायश्चित स्वरूपा, ६०५ पानीयरूपनिर्वाणा- जिसमें जल रूप से मोक्ष का ही निवास है, वह, ६०६ परित्राणपरायणा- शरणागतों की रक्षा में तत्पर, ६०७ पापेन्धन दवज्वाला- पापरूपी ईन्धन को जलाने के लिये दावाग्नि की लपट, ६०८ पापारिः- पापों की शत्रु, ६०९ पापनामनुत्- पापों का नाम तक मिटा देने वाली, ६१० परमैश्वर्यजननी- अणिमा आदि महान् ऐश्वर्यों को जन्म देने वाली, ६११ प्रज्ञा- उत्तम ज्ञानस्वरूपा, ६१२ प्राज्ञा- विदुषी, ६१३ परापरा- कारण कार्य स्वरूपा, ६१४ प्रत्यक्षलक्ष्मीः- साक्षात् लक्ष्मी स्वरूपा, ६१५ पद्माक्षी- कमल के समान अथवा कमल स्वरूप नेत्रों वाली, ६१६ परव्योमामृतस्त्रवा- परब्रह्म स्वरूप अमृतमय जल को बहाने वाली, ६१७ प्रसन्नरूपा- आनन्दमय स्वरूप वाली, ६१८ प्रणिधिः- सर्वाधार, ६१९ पूता- परम पवित्र, ६२० प्रत्यक्षदेवता- सबके नेत्रों के समक्ष प्रकट हुई सच्चिदानन्दमयी देवी, ६२१ पिनाकि परमप्रीता- पिनाकधारी भगवान् शिव की परम प्रियतमा, ६२२ परमेष्ठिकमण्डलुः- ब्रह्माजी के कमण्डलु में वास करने वाली, ६२३ पद्मनाभपदार्घ्येण प्रसूता- भगवान् विष्णु के चरण पखारने से प्रकट हुई, ६२४ पद्ममालिनी- कमल पुष्पों की माला धारण करने वाली, ६२५ पर्द्धिदा- उत्तम समृद्धि देने वाली। ६२६ पुष्टिकरी- पोषण करने वाली, ६२७ पथ्या- संसार रूपी रोग की निवृत्ति के लिये हितकर आहार स्वरूपा, ६२८ पूर्तिः- पूर्णता, ६२९ प्रभावती- प्रकाशवती, ६३० पुनाना- पवित्र करने वाली, ६३१ पीतगर्भघ्नी- पीतगर्भ अर्थात् राक्षसों का नाश करने वाली, ६३२ पापपर्वतनाशिनी- पापरूपी पर्वत का नाश करने वाली, ६३३ फलिनी- देने योग्य फल से युक्त, ६३४ फलहस्ता- भक्तों को देने के लिये सब प्रकार के फल हाथ में धारण करने वाली, ६३५ फुल्लाम्बुजविलोचना- विकसित कमल के समान नेत्रों वाली, ६३६ फालितैनोमहाक्षेत्रा- पापों के महाक्षेत्र को नष्ट करने वाली, ६३७ फणिलोकविभूषणम्- भोगवती गंगा के रूप में नागलोक को विभूषित करने वाली, ६३८ फेनच्छलप्रणुनैना:- फेन छाँटने के व्याज से पापराशि को नाश करने वाली, ६३९ फुल्लकैरवगन्धिनी- खिले हुए कुमुद पुष्पों की गन्ध से युक्त, ६४० फेनिलाच्छाम्बुधाराभा- फेनयुक्त स्वच्छ जल की धारा से उद्भासित होने वाली, ६४१ फुडुच्चाटितपातका- 'फुट्' इस शब्द के साथ पातकों को उखाड़ फेंकने वाली, ६४२ फाणितस्वादुसलिला- सीरा के समान स्वादिष्ट जल वाली, ६४३ फाण्टपथ्यजलाविला- मट्ठा के समान पथ्य (हितकर) जल से भरी हुई, ६४४ विश्वमाता- समस्त संसार की माता, ६४५ विश्वेशी- जगदीश्वरी, ६४६ विश्वा- सर्वस्वरूपा, ६४७ विश्वेश्वरप्रिया- विश्वनाथ वल्लभा, ६४८ ब्रह्मण्या- ब्राह्मण हितकारिणी, ६४९ ब्रह्मकृत्- ब्रह्मा आदि देवताओं को उत्पन्न करने वाली जगदीश्वरी, ६५० ब्राह्मी- ब्रह्मशक्ति, ६५१ ब्रह्मिष्ठा- ब्रह्मनिष्ठ, ६५२ विमलोदका- निर्मल जलवाली, ६५३ विभावरी- रात्रिस्वरूपा, ६५४ विरजा- रजोगुण रहिता, ६५५ विक्रान्तानेकविष्टपा- अनेक भुवनों में व्याप्त, ६५६ विश्वमित्रम्- सम्पूर्ण जगत् की सुहृद्, ६५७ विष्णुपदी- भगवान् विष्णु के चरणों से प्रकट हुई, ६५८ वैष्णवी- विष्णु शक्ति, ६५९ वैष्णवप्रिया- विष्णुभक्तों को प्रिय, ६६० विरूपाक्षप्रियकरी- भगवान् शंकर का प्रियकार्य करने वाली, ६६१ विभूतिः- अणिमा आदि अष्टविध ऐश्वर्यरूपा, ६६२ विश्वतोमुखी- सब ओर मुख वाली, ६६३ विपाशा- बन्धन रहित, अथवा विपाशा (व्यास) नामक नदी, ६६४ वैबुधी- देवाधिदेव विष्णु की शक्ति अथवा देवलोक में प्रकट, ६६५ वेद्या- जानने योग्य, ६६६ वेदाक्षररसस्त्रवा- वेद के अक्षरों से प्रतिपादित ब्रह्मानन्द रस का स्रोत बहाने वाली, ब्रह्मद्रवरूपा, ६६७ विद्या- व्रह्मविद्यास्वरूपा, ६६८ वेगवती- बड़े वेग से बहने वाली, ६६९ वन्या- वन्दनीया, ६७० बृंहणी- वृहत्स्वरूपा अथवा विस्तार करने वाली, ६७१ ब्रह्मवादिनी- ब्रह्म का उपदेश करने वाली, ६७२ वरदा- वर देने वाली, ६७३ विप्रकृष्टा- सर्वोत्तम, ६७४ वरिष्ठा- श्रेष्ठा, ६७५ विशोधनी- विशेष रूप से शुद्ध (पवित्र) करने वाली। ६७६ विद्याधरी- सम्पूर्ण विद्याओं को धारण करने वाली, ६७७ विशोका- शोक रहित, ६७८ वयोवृन्दनिषेविता- पक्षियों के समुदाय से निषेवित, ६७९ बहूदका- बहुत जलवाली, ६८० बलवती- बल से युक्त, ६८१ व्योमस्था- स्वर्गगंगा रूप से आकाश में स्थित, ६८२ विबुधप्रिया- देवताओं की प्रियनदी, ६८३ वाणी- सरस्वती स्वरूपा, ६८४ वेदवती- वैदिक ज्ञान से सम्पन्न अथवा वेदवती नाम वाली सती साध्वी स्वरूपा, ६८५ वित्ता- ज्ञानस्वरूपा, ६८६ ब्रह्मविद्यातरंगिणी- ब्रह्मविद्यारूपी तरंगों से युक्त, ६८७ ब्रह्माण्डकोटिव्याप्ताम्बुः- करोड़ों ब्रह्माण्डों में व्याप्त जल वाली, ६८८ ब्रह्महत्यापहारिणी- ब्रह्महत्या का अपहरण करने वाली। ६८९ ब्रह्मेशविष्णुरूपा- ब्रह्मा, शिव और विष्णु स्वरूपा, ६९० बुद्धिः- बुद्धिस्वरूपा, ६९१ विभववर्द्धिनी- धन बढ़ाने वाली, ६९२ विलासिसुखदा- विलासियों को सुख देने वाली, ६९३ वश्या- भगवदिच्छा के अधीन रहने वाली ६९४ व्यापिनी- सर्वत्र व्यापक, ६९५ वृषारणि:- धर्मोत्पत्ति की कारणरूपा, ६९६ वृषाङ्कमौलिनिलया- भगवान् शंकर के मस्तक पर निवास करने वाली ६९७ विपन्नार्ति प्रभञ्जनी- विपत्ति में पड़े हुए भक्तजनों की पीडा अथवा अपने जल में मृत्यु को प्राप्त हुए पुरुषों की दुर्गति एवं कष्ट का निवारण करने वाली, ६९८ विनीता- विनयशीला, ६९९ विनता- विशेषत: नम्र, ७०० ब्रध्नतनया- सूर्य पुत्री यमुना स्वरूपा, ७०१ विनयान्विता- विनययुक्त, ७०२ विपञ्ची- वीणास्वरूपा अथवा वीणा की सी मधुर ध्वनि करने वाली, ७०३ वाद्यकुशला- सभी प्रकार के वाद्यों को बजाने में चतुर, ७०४ वेणुश्रुतिविचक्षणा- वेणुगीत सुनने और समझने में कुशल, ७०५ वर्चस्करी- तेज उत्पन्न करने वाली, ७०६ बलकरी- सामर्थ्य प्रदान करने वाली, ७०७ बलोन्मृलितकल्मषा- बल पूर्वक पापों का उच्छेद करने वाली, ७०८ विपाप्मा- पापरहित, ७०९ विगतातङ्का- भयरहित, ७१० विकल्पपरिवर्जिता- भेद दृष्टि से रहित, ७११ वृष्टिकत्री- सूर्यरूप से वर्षा करने वाली, ७१२ वृष्टिजला- वर्षा के कारण भूत जल वाली, ७१३ विधि:- ब्रह्मारूप से सृष्टि करने वाली, ७१४ विच्छिन्नबन्धना- अपने आश्रितों के संसार-बन्धन का नाश करने वाली, ७१५ व्रतरूपा- कृच्छ्र-चान्द्रायणादि व्रत-स्वरूपा अथवा भक्तों के व्रत (संकल्प) के अनुसार स्वरूप धारण करने वाली, ७१६ वित्तरूपा- वैभवरूपिणी, ७१७ बहुविघ्नविनाशकृत्- बहुत से विध्नों का विनाश करने वाली ७१८ वसुधारा- वसु (धन) धारण करने वाली, आठ वसुओं को मातारूप से गर्भ में धारण करने वाली अथवा 'वसुधारा' स्वरूपा, ७१९ वसुमती- रत्नगर्भा वसुधारूपा, ७२० विचित्राङ्गी- अद्भुत शरीर वाली, ७२१ विभावसुः- अग्नि अथवा सूर्य की भाँति प्रकाशित होने वाली, ७२२ विजया- विजयशालिनी, ७२३विश्वबीजम्- जगत् की कारण स्वरूपा, ७२४ वामदेवी- वामदेव शिव की शक्ति, मनोहारिणी देवी, ७२५ वरप्रदा- वर देने वाली। ७२६ वृषाश्रिता- धर्म के आश्रित, ७२७ विषघ्नी-विषका प्रभाव नष्ट करने वाली, ७२८ विज्ञानोम्म्यंशुमालिनी- विज्ञानमयी तरंगों और किरणों से युक्त, ७२९ भव्या- कल्याणमयी, ७३० भोगवती- भोगवती नाम से प्रसिद्ध पातालगंगा, ७३१ भद्रा- मंगलमयी, ७३२ भवानी- शिवपत्नी, ७३३ भृतभाविनी- समस्त प्राणियों की उत्पत्ति और पालन करने वाली, ७३४ भूतधात्री- चार प्रकार के जीवों का धारण-पोषण करने वाली, ७३५ भयहरा- संसार भय का निवारण करने वाली ७३६ भक्तदारिद्र्यघातिनी- भक्तों की दरिद्रता का नाश करने वाली, ७३७ भुक्तिमुक्तिप्रद्रा- भोग और मोक्ष देने वाली, ७३८ भेशी- नक्षत्रोंकी अधीश्वरी, ७३९ भक्तस्वर्गापवर्गदा- भक्तों को स्वर्ग और मोक्ष देने वाली, ७४० भागीरथी- राजा भगीरथ के द्वारा लायी हुई, ७४१ भानुमती-प्रकाशवती, ७४२ भाग्यम्- नियति रूपा, ७४३ भोगवती- विविध प्रकार के भोगों से सम्पन्न, ७४४ भृति:- भरण- पोषण का साधन, ७४५ भवप्रिया- भगवान् शंकर की प्रिया, ७४६ भवद्वेष्ट्री- संसार बन्धन का नाश करने वाली ७४७ भूतिदा- ऐश्वर्य देने वाली ७४८ भृति भूषणा- विभूति से विभूषित, ७४९ भाललोचन भावज्ञा- भगवान् शिव के भाव को जानने वाली ७५० भूतभव्यभवत्प्रभुः- भूत, वर्तमान और भविष्य तीनों काल की स्वामिनी। ७५१ भ्रान्तिज्ञानप्रशमनी- भ्रमात्मक ज्ञान का निवारण करने वाली, ७५२ भिन्नब्रह्माण्डमण्डपा- ब्रह्माण्डरूपी मण्डप का भेदन करने वाली, ७५३ भूरिदा- बहुत देने वाली, ७५४ भक्तसुलभा- भक्तों को सुगमता पूर्वक प्राप्त होने वाली ७५५ भाग्य वद्दृष्टिगोचरी- भाग्यवानों को प्रत्यक्ष दर्शन देने वाली, ७५७ भञ्जितोपप्लवकुला- भक्तजनों के उपद्रवों का नाश करने वाली ७५७ भक्ष्यभोज्य सुखप्रदा- भक्ष्य-भोज्य का सुख देने वाली, ७५८ भिक्षणीया- अभ्युदय और नि:श्रेयस की इच्छा वाले पुरुषों द्वारा याचना करने योग्य, ७५९ भिक्षुमाता- भिक्षुओं- परमहंस जनों को माता के समान सुख देने वाली, ७६० भावी- सबको उत्पन्न करने वाली, ७६१ भावस्वरूपिणी- पदार्थरूपा, ७६२ मन्दाकिनी- स्वर्गगंगा, ७६३ महानन्दा- परमानन्द स्वरूपा, ७६४ माता- सम्पूर्ण विश्व के पापरूपी मल को पुत्रवत्सला माता की भाँति दूर करने वाली, ७६५ मुक्तितरङ्गिणी- मोक्षरूप तरंगों से सुशोभित, ७६६ महोदया- महान् अभ्युदयरूप, ७६७ मधुमती- अमृतमय जल से युक्त, ७६८ महापुण्या- महापुण्य स्वरूपा, ७६९ मुदाकरी- हर्षोल्लास की निधि, ७७० मुनिस्तुता- मुनियों के द्वारा प्रशंसित एवं पूजित, ७७१ मोहन्त्री- अज्ञान का नाश करने वाली, ७७२ महातीर्था- महान् तीर्थ स्वरूपा, ७७३ मधुस्त्रवा- मीठे जल का स्रोत बहाने वाली ७७४ माधवी- विष्णु प्रिया, ७७५ मानिनी- सबके द्वारा सम्मान प्राप्त करने वाली। ७७६ मान्या- माननीया, पूजनीया, ७७७ मनोरथपथातिगा- मन की पहुँच से परे विराजमान। ७७८ मोक्षदा- मोक्ष देने वाली, ७७९ मतिदा- उत्तम बुद्धि देने वाली, ७८० मुख्या- श्रेष्ठा, ७८१ महाभाग्यजनाश्रिता- बड़भागी मनुष्यो द्वारा सेवित, ७८२ महावेगवती- बड़े वेग से बहने वाली, ७८३ मेध्या- पवित्रा, ७८४ महा- उत्सव रूपा, ७८५ महिमभूषणा- अपनी महिमा मे विभूषित, ७८६ महाप्रभावा- महान् प्रभाव से युक्त, ७८७ महती- विशाल, ७८८ मीनचञ्चल- लोचना- मीन के समान अथवा मीन स्वरूप चंचल नेत्रों वाली, ७८९ महाकारुण्यसम्पूर्णा- अत्यन्त कूपा से भरी हुई, ७९० महर्द्धि - बड़ी भारी समृद्धि देने वाली अथवा महती समृद्धि रूपा, ७९१ महोत्पला- बड़े-बड़े कमलों को उत्पन्न करने वाली, ७९२ मूर्तिमत्- मूर्तिमान् तेज, ७९३ मुक्तिरमणी- मुक्ति रूपा, रमण करने योग्य, ७९४ मणि माणिक्यभूषणा- मणि-माणिक्यमय आभूषणों वाली ७९५ मुक्ताकलापनेपथ्या- मोतियों की माला से श्रृंगार करने वाली ७९६ मनोनयननन्दिनी- मन और नेत्रों को आनन्द देने वाली, ७९७ महापातकराशिघ्नी- महापातकों की राशि का नाश करने वाली, ७९८ महादेवार्धहारिणी- महादेवजी के आधे शरीर पर अधिकार करने वाली गौरीस्वरूपा, ७९९ महोर्मिमालिनी- ऊँची तरंग-मालाओं से युक्त, ८०० मुक्ता- मुक्तस्वरूपा। ८०१ महादेवी- महादेवी, ८०२ मनोन्मनी- मन को उन्मन (उत्तम ज्ञान से युक्त) करने वाली, ८०३ महापुण्योदयप्राप्या- महान् पुण्य का उदय होने पर प्राप्त होने वाली, ८०४ मायातिमिरचन्द्रिका- मायामय अन्धकार का नाश करने के लिये चन्द्रप्रभारूप, ८०५ महाविद्या- ब्रह्मविद्यास्वरूपा, ८०६ महामाया- महामाया, ८०७ महामेधा- महान् बुद्धिमती, ८०८ महौषधम्- उत्तम ओषधिरूपा, ८०९ मालाधरी- माला धारण करने वाली, ८१० महोपाया- मुक्ति की प्राप्ति का महासाधन, ८११ महोरगविभूषणा- महान् सर्प जिसके आभूषण हैं, वह, ८१२ महामोहप्रशमनी- महान् मोह को शान्त करने वाली, ८१३ महामङ्गलमङ्गलम्- महान् मंगलों के लिये भी मंगलरूप, ८१४ मार्तण्डमण्डलचरी-आकाशगंगा रूप से सूर्यलोक में विचरने वाली, ८१५ महालक्ष्मीः- महालक्ष्मी स्वरूपा, ८१६ मदोन्झिता- मद से रहित, ८१७ यशस्विनी- उत्तम यश से युक्त, ८१८ यशोदा- सुयश देने वाली, ८१९ योग्या- सब प्रकार से सुयोग्य, ८२० युक्तात्मसेविता- जितात्मा पुरुषों द्वारा सेवित, ८२१ योगसिद्धिप्रदा- योगसिद्धि देने वाली, ८२२ याच्या- प्रार्थनीया, ८२३ यज्ञेशपरिपूरिता- यज्ञेश्वर विष्णुसे व्याप्त, ८२४ यज्ञेशी- यज्ञ की अधिष्ठात्री देवी, ८२५ यज्ञफलदा- स्मरण करने पर यज्ञों का फल देने वाली। ८२६ यजनीया- पूजनीया, ८२७ यशस्करी- यश देने वाली ८२८ यमिसेव्या- संयमी पुरुषों द्वारा सेवन करनेयोग्य, ८२९ योगयोनिः- योग की उत्पत्ति का स्थान ८३० योगिनी- योग को जानने वाली ८३१ युक्तबुद्धिदा- योगयुक्त बुद्धि देने वाली, ८३२ योगज्ञानप्रदा- योग और ज्ञान देने वाली, ८३३ युक्ता- मन और इन्द्रियों को संयम में रखने वाली, ८३४ यमाद्यष्टाङ्गयोगयुक्- यम, नियम आदि आठ अंगों वाले योग से युक्त। ८३५ यन्त्रिताघौघसंचारा- पापराशियों के संचार को नियन्त्रित करने वाली, ८३६ यमलोक- निवारिणी- यमलोक का निवारण करने वाली, ८३७ यातायातप्रशमनी- आवागमन अथवा जन्म-मृत्यु का कष्ट दूर करने वाली, ८३८ यातनानाम- कृन्तनी- यातना का नाम-निशान मिटाने वाली, ८३९ यामिनीशहिमाच्छोदा- चन्द्रमा और बर्फ के समान स्वच्छ एवं शीतल जल वाली, ८४० युगधर्मविवर्जिता- कलियुग धर्म-हिंसा और असत्य आदि से सर्वथा रहित, ८४१ रेवती- रेवती नामक नक्षत्र स्वरूपा, ८४२ रतिकृत्- भगवान् के प्रति अनुराग रखने वाली, ८४३ रम्या- रमणीया, ८४४ रत्नगर्भा- अपने भीतर रत्न धारण करने वाली ८४५ रमा- लक्ष्मीरूपा, ८४६ रतिः- अनुरागरूपा, ८४७ रत्नाकरप्रेमपात्रम्- रत्नाकर, समुद्र की प्रीति पात्र, ८४८ रसज्ञा- रस को जानने वाली, ८४९ रसरूपिणी- रसस्वरूपा, ८५० रत्नप्रासाद गर्भा- जिसके भीतर रत्नमय देवालय शोभा पा रहे हैं, ऐसी। ८५१ रमणीयतरङ्गिणी- रमणीय लहरों से युक्त, ८५२ रत्नार्चि:- रत्नों के समान कान्तिमती, ८५३ रुद्ररमणी- भगवान् रुद्र की जटा में रमण करने वाली, ८५४ रागद्वेषविनाशिनी- राग और द्वेष का नाश करने वाली, ८५५ रमा- नेत्र और मन को रमाने वाली, ८५६ रामा- मनोहर स्त्री अथवा योगियों के मन को रमाने वाली, ८५७ रम्यरूपा- रमणीय रूप वाली ८५८ रोगिजीवानुरूपिणी- संसार रोग से ग्रस्त पुरुषों के लिये संजीवन ओषधिरूपा, ८५९ रुचिकृत्- प्रकाश करने वाली, ८६० रोचनी- अपने दर्शन की रुचि उत्पन्न करने वाली, ८६१ रम्या- रमा की हितकारिणी, ८६२ रुचिरा- मनोहर रूप वाली ८६३ रोगहारिणी- संसार रूपी रोग का नाश करने वाली, ८६४ राजहंसा- शोभायमान हंसों से युक्त, ८६५ रत्नवती- अनेक प्रकार के रत्नों से संयुक्त, ८६६ राजत्कल्लोलराजिका- शोभाशाली तरंग मालाओं से युक्त, ८६७ रामणीयकरेखा- जिसकी जलधारा रमणीयता की रेखा है, वह, ८६८ रुजारिः- रोगों की शत्रुभूता, ८६९ रोगरोषिणी- रोगों पर रोष प्रकट करने वाली, ८७० राका- पूर्णमासी स्वरूपा, ८७१ रङ्कार्तिशमनी- दीन-दुःखियों की दैन्य वेदना शान्त करने वाली, ८७२ रम्या- रमणीया, ८७३ रोलम्बराविणी- भ्रमरों के गुंजार के समान जल की कलकल ध्वनि करने वाली, ८७४ रागिणी- भगवान् के प्रति अनुराग रखने वाली, ८७५ रञ्जितशिवा- अपनी सन्निधि से भगवान् शिव को प्रसन्न करने वाली। ८७६ रूपलावण्यशेवधिः- सौन्दर्य और कान्ति की निधि, ८७७ लोकप्रसूः- लोकमाता, ८७८ लोकवन्द्या- सम्पूर्ण विश्व के लिये वन्दनीया, ८७९ लोलत्कल्लोलमालिनी- चंचल लहरों की श्रेणियों से सुशोभित, ८८० लीलावती- सृष्टि की उत्पत्ति, पालन और संहार की लीला करने वाली, ८८१ लोकभूमि:- सम्पूर्ण भुवनों की आधार, ८८२ लोकलोचन चन्द्रिका- लोगों के नेत्रों में चाँदनी की भाँति आह्लाद उत्पन्न करने वाली, ८८३ लेखस्त्रवन्ती- देव नदी, ८८४ लटभा- भगवत्प्रेम के लिये लोलुप-सी प्रतीत होने वाली, ८८५ लघुवेगा- शीत काल में लघु वेग वाली, ८८६ लघुत्वहत्- भक्तों की लघुता दूर करने वाली। ८८७ लास्यतरङ्गहस्ता- नृत्य-सा करती हुईं चंचल लहरें जिसके लिये मानो हाथ हैं, वह ८८८ ललिता- मनोहर रूपवाली, ८८९ लय भङ्गिमा- लय-नृत्य, गति और वाद्य की समता की भंगी (अंदाज) से चलने वाली, ८९० लोकबन्धुः- सम्पूर्ण जगत् का बन्धु की भाँति हित चाहने वाली, ८९१ लोकधात्री- माता की भाँति विश्व का पालन-पोषण करने वाली, ८९२ लोकोत्तरगुणोर्जिता- अलौकिक गुणों से बढ़ी-चढ़ी, ८९३ लोकत्रयहिता- तीनों लोकों का हित करने वाली, ८९४ लोका- लोकस्वरूपा, ८९५ लक्ष्मी:- लक्ष्मी स्वरूपा, ८९६ लक्षणलक्षिता- शुभ लक्षणों से उपलक्षिता, ८९७ लीला- भगवत्क्रीडा स्वरूपा, ८९८ लक्षितनिर्वाणा- मोक्ष का साक्षात्कार कराने वाली, ८९९ लावण्यामृतवर्षिणी- लावण्यमय अमृत की वर्षा करने वाली, ९०० वैश्वानरी- वैश्वानर-अग्निस्वरूपा, ९०१ वासवेड्या- इन्द्र के द्वारा स्तवन करने योग्य, ९०२ वन्ध्यत्वपरिहारिणी- वन्ध्यापन का निवारण करने वाली, ९०३ वासुदेवाङ्घिरेणुष्नी- भगवान् विष्णु के चरणों की धूलि को धो लेने वाली, ९०४ वज्रिवज्रनिवारिणी- इन्द्र के वज्र का निवारण करने वाली, ९०५ शुभावती- मंगलमयी, ९०६ शुभफला- शुभ फल देने वाली ९०७ शान्तिः- शान्ति स्वरूपा, ९०८ शान्तनुवल्लभा- राजा शान्तनु की प्रिय पत्नी, ९०९ शूलिनी- त्रिशूल धारण करने वाली, ९१० शैशववया- वाल्या वस्था से युक्त, ९११ शीतलामृतवाहिनी- शीतल जल की धारा बहानेवाली, ९१२ शोभावती- शोभायमान, ९१३ शीलवती- सुशीला, ९१४ शोषिताशेषकिल्बिषा- सम्पूर्ण पापों का शोषण (नाश) करने वाली, ९१५ शरण्या- शरण लेने योग्य, ९१६ शिवदा- कल्याण-दायिनी, ९१७ शिष्टा- श्रेष्ठा, ९१८ शरजन्मप्रसू:- कार्तिकेय की जननी, ९१९ शिवा- कल्याणस्वरूपा, ९२० शक्तिः- आह्वादिनी शक्ति स्वरूपा, ९२१ शशाङ्कविमला- चन्द्रमा के समान उज्वल वर्ण वाली, ९२२ शमनस्वसृसम्मता- यमराज की बहिन यमुना की प्रिय सखी, ९२३ शमा- अज्ञान का नाश करने वाली अथवा शमस्वरूपा, ९२४ शमनमार्गध्नी- यमलोक के मार्ग का निवारण करने वाली, ९२५ शितिकण्ठमहाप्रिया- नील कण्ठ महादेवजी की अत्यन्त वर्लभा। ९२६ शुचिः- पवित्रा, ९२७ शुचिकरी- पवित्र करने वाली, ९२८ शेषा- प्रलय के समय भी शेष रहने वाली- सच्चिदानन्द ब्रह्मरूपा, ९२९ शेषशायिपदोद्भवा- शेषनाग की शय्या पर शयन करने वाले भगवान् विष्णु के चरणारविन्दों से प्रकट हुई, ९३० श्रीनिवासश्रुतिः- भगवान् विष्णु से जिनका प्रादुर्भाव सुना जाता है, ९३१ श्रद्धा- आस्तिक्य बुद्धिरूपा, ९३२ श्रीमती- शोभायुक्त, ९३३ श्री:- लक्ष्मी-स्वरूपा, ९३४ शुभव्रता- शुभव्रत वाली, ९३५ शुद्धविद्या- ब्रह्मविद्यास्वरूपा, ९३६ शुभावर्ता- उत्तम भँवर वाली, ९३७ श्रुतानन्दा- श्रवण मात्र से आनन्द देने वाली, ९३८ श्रुतिस्तुतिः- श्रुतियों (वैदिक मन्त्रों) द्वारा जिसकी स्तुति की जाती है, वह, ९३९ शिवेतरघ्नी- अमंगलकारी पापों का नाश करने वाली, ९४० शबरी- किरात-रूपधारी भगवान् महेश्वर की प्रिया, ९४१ शाम्बरी रूपधारणी- मायामय रूप धारण करने वाली। ९४२ श्मशानशोधनी- काशी की महाश्मशान भूमि को शुद्ध करने वाली, ९४३ शान्ता- शान्त स्वरूपा, ९४४ शश्वत्- सनातनी, ९४५ शतधृतिस्तुता- ब्रह्माजी के द्वारा अभिवन्दित, ९४६ शालिनी- शोभायमान, ९४७ शालिशोभाढ्या- धान के हरे-भरे पौधों की शोभा से सम्पन्न, ९४८ शिखिवाहन गर्भभृत्- कार्तिकेय को गर्भ में धारण करने वाली, ९४९ शंसनीयचरित्रा- स्तवन करने योग्य दिव्य चरित्रों वाली, ९५० शातिताशेषपातका- समस्त पातकों का नाश करने वाली। ९५१ षड्गुणैश्वर्य सम्पन्ना- ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान तथा वैराग्य- इन छः प्रकार के ऐश्वर्यो से सम्पन्न, ९५२ षडङ्गश्रुतिरूपिणी- शिक्षा, व्याकरण, छन्द, निरुक्त, ज्यौतिष तथा कल्प-ये वेद के छः अंग तथा वेद जिसके स्वरूप हैं, वह, ९५३ षण्ढताहारिसलिला- नपुंसकता एवं निर्वीर्यता आदि दोष दूर करने में समर्थ जल वाली, ९५४ स्त्यायन्नदनदीशता- जिसमें सैकड़ों नद और नदियाँ कल-कल नाद के साथ आकर मिलती हैं, वह, ९५५ सरिद्वरा- नदियों में श्रेष्ठ, ९५६ सुरसा- उत्तम रस से युक्त, ९५७ सुप्रभा- सुन्दर प्रभावाली, ९५८ सुरदीर्धिका- देवताओं की बावली, ९५९ स्व:सिन्धुः- स्वर्गलोक की नदी, ९६० सर्वदुःखर्नी- सबके दुःखों का नाश करने वाली, ९६१ सर्वव्याधिमहौषधम्- समस्त रोगों की एकमात्र महौषधि, ९६२ सेव्या- सेवन करने योग्य, ९६३ सिद्धिः- अणिमा आदि अष्टसिद्धि स्वरूपा, ९६४ सती- पतिव्रता, ९६५ सूक्तिः- शुभ उक्तिरूप अथवा वैदिक-सूक्तस्वरूपा, ९६६ स्कन्दसूः- कार्तिकेयजननी, ९६७ सरस्वती- वाणी की अधिष्ठात्री देवी। ९६८ सम्पत्तरङ्गिणी- सम्पत्तिरूप लहरों वाली, ९६९ स्तुत्या- स्तवन करने योग्य, ९७० स्थाणु- मौलिकृतालया- भगवान् शंकर के मस्तक को अपना निवास स्थान बनाने वाली, ९७१ स्थैर्यदा- स्थिरता प्रदान करने वाली, ९७२ सुभगा- उत्तम ऐश्वर्य से युक्त, ९७३ सौख्या- सुख देने वाली ९७४ स्त्रीषुसौभाग्यदायिनी- स्त्रियों को सौभाग्य प्रदान करने वाली, ९७५ स्वर्गनिःश्रेणिका- स्वर्ग लोक में जाने के लिये सीढ़ी। ९७६ सूक्ष्मा- इन्द्रियों की पहुँच से परे स्थित, सूक्ष्म स्वरूपा, ९७७ स्वधा- पितृतृप्ति स्वरूपा, ९७८ स्वाहा- हव्यस्वरूपा, ९७९ सुधाजला- अमृत के समान मधुर जल वाली, ९८० समुद्ररूपिणी- समुद्ररूपा, ९८१ स्वर्ग्या- स्वर्गलोक की प्राप्ति में सहायक, ९८२ सर्वपातक- वैरिणी-समस्त पापों की शत्रु, ९८३ स्मृताघहारिणी- स्मरण करने पर समस्त पापों का संहार करने वाली ९८४ सीता- सीता नाम वाली गंगा, जनकनन्दिनी स्वरूपा, ९८५ संसाराब्धि तरण्डिका- संसार सागर से पार उतारने के लिये नौका रूप, ९८६ सौभाग्यसुन्दरी- अतिशय सौभाग्य से परम सुन्दर प्रतीत होने वाली, ९८७ सन्ध्या- सन्ध्या काल में उपास्य गायत्री रूपा, ९८८ सर्वसार समन्विता- समस्त शक्तियों से संयुक्त, ९८९ हरप्रिया- भगवान् शिव की वल्लभा, ९९० हृषीकेशी- इन्द्रियों की स्वामिनी अथवा हृषीकेश भगवान् विष्णु की पत्नी, ९९१ हंसरूपा- शुद्ध स्वरूपा, हंसरूप धारिणी, ९९२ हिरण्मयी- स्वर्णमयी, ज्ञानस्वरूपा, ९९३ हृताघसंघा- पापराशियों का विनाश करने वाली, ९९४ हितकृत्- हित-साधन करने वाली, ९९५ हेला- एक प्रकार की श्रृंगार जनित चेष्टा, ९९६ हेलाघगर्वहत्- लीलापूर्वक पाप का घमण्ड चूर करने वाली, ९९७ क्षेमदा- कल्याण दायिनी, ९९८ क्षालिताघौघा- पापराशि को धो डालने वाली, ९९९ क्षुद्र- विद्राविणी- दुष्टों को मार भगाने वाली, १००० क्षमा- सहनशीला, पृथ्वी स्वरूपा। अगस्त्यजी ! इस प्रकार गंगाजी के सहस्त्र नामों का कीर्तन करके मनुष्य गंगा स्नान का उत्तम फल पा लेता है। यह गंगासहस्रनाम सब पापों का नाश और सम्पूर्ण विघ्नों का निवारण करने वाला है समस्त स्तोत्रों के जप से इसका जप श्रेष्ठ है। यह सबको पवित्र करने वाली वस्तुओं को भी पवित्र करने वाला है। श्रद्धा पूर्वक इसका पाठ करने पर यह मनोवांछित फल देने वाला है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चारों पुरुषार्थों की प्राप्ति कराने वाला है मुने ! इसका एक बार पाठ करने से भी एक यज्ञ का फल प्राप्त होता है। गंगासहस्रनाम आयु तथा आरोग्य देने वाला और सम्पूर्ण उपद्रवों का नाश करने वाला है। यह मनुष्यों को सब प्रकार की सिद्धि देने वाला है। जो इस स्तुति का पाठ करता है, उसे सदाचारी जानना चाहिये। वह सदा पवित्र है तथा उसने सम्पूर्ण देवताओं की पूजा सम्पन्न कर ली है। उसके तृप्त होने से साक्षात् गंगाजी तृप्त हो जाती हैं। अत: सर्वथा प्रयत्न करके गंगाजी के भक्त का पूजन करे। जो गंगाजी के इस स्तोत्रराज का श्रवण और पाठ करता है या दम्भ और लोभ से रहित होकर उनके भक्तों को सुनाता है, वह मानसिक, वाचिक और शारीरिक तीनों प्रकार के पापों से मुक्त हो जाता है तथा पितरों का प्रिय होता है। जिसके घर में गंगाजी का यह स्तोत्र लिखकर इसकी पूजा की जाती है, वहाँ पाप का कोई भय नहीं है। वह घर सदा पवित्र है। ~~~०~~~ 'ॐ नमः शिवाय'******************************************** "श्रीजी की चरण सेवा" की सभी धार्मिक, आध्यात्मिक एवं धारावाहिक पोस्टों के लिये हमारे पेज से जुड़े रहें तथा अपने सभी भगवत्प्रेमी मित्रों को भी आमंत्रित करें👇 By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब, दिसंबर 31, 2020 और पढ़ें
. ॥हरि ॐ तत्सत्॥ श्रीमद्भागवत-कथा श्रीमद्भागवत-महापुराण पोस्ट - 080 स्कन्ध - 04 अध्याय - 12इस अध्याय में:- ध्रुव जी को कुबेर का वरदान और विष्णुलोक की प्राप्ति By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब, श्रीमैत्रेय जी कहते हैं- विदुर जी! ध्रुव का क्रोध शान्त हो गया है और वे यक्षों के वध से निवृत्त हो गये हैं, यह जानकर भगवान् कुबेर वहाँ आये। उस समय यक्ष, चारण और किन्नर लोग उनकी स्तुति कर रहे थे। उन्हें देखते ही ध्रुव जी हाथ जोड़कर खड़े हो गये। तब कुबेर ने कहा। श्रीकुबेर जी बोले- शुद्धहृदय क्षत्रियकुमार! तुमने अपने दादा के उपदेश से ऐसा दुस्त्यज वैर त्याग कर दिया; इससे मैं तुम पर बहुत प्रसन्न हूँ। वास्तव में न तुमने यक्षों को मारा है और न यक्षों ने तुम्हारे भाई को। समस्त जीवों की उत्पत्ति और विनाश का कारण तो एकमात्र काल ही है। यह मैं-तू आदि मिथ्या बुद्धि तो जीव को अज्ञानवश स्वप्न के समान शरीरादि को ही आत्मा मानने से उत्पन्न होती है। इसी से मनुष्य को बन्धन एवं दुःखादि विपरीत अवस्थाओं की प्राप्ति होती है। ध्रुव! अब तुम जाओ, भगवान् तुम्हारा मंगल करें। तुम संसारपास से मुक्त होने के लिये सब जीवों में समदृष्टि रखकर सर्वभूतात्मा भगवान् श्रीहरि का भजन करो। वे संसारपाश का छेदन करने वाले हैं तथा संसार की उत्पत्ति आदि के लिये अपनी त्रिगुणात्मिक मायाशक्ति से युक्त होकर भी वास्तव में उससे रहित हैं। उनके चरणकमल ही सबके लिये भजन करने योग्य हैं। प्रियवर! हमने सुना है, तुम सर्वदा भगवान् कमलनाभ के चरणकमलों के समीप रहने वाले हो; इसलिये तुम अवश्य ही वर पाने योग्य हो। ध्रुव! तुम्हें जिस वर की इच्छा हो, मुझसे निःसंकोच एवं निःशंक होकर माँग लो। श्रीमैत्रेय जी कहते हैं- विदुर जी! यक्षराज कुबेर ने जब इस प्रकार वर माँगने के लिये आग्रह किया, तब महाभागवत महामति ध्रुव जी ने उनसे यही माँगा कि मुझे श्रीहरि की अखण्ड स्मृति बनी रहे, जिससे मनुष्य सहज ही दुस्तर संसार सागर को पार कर जाता है। इडविडा के पुत्र कुबेर जी ने बड़े प्रसन्न मन से उन्हें भगवत्स्मृति प्रदान की। फिर उनके देखते-ही-देखते वे अन्तर्धान हो गये। इसके पश्चात् ध्रुव जी भी अपनी राजधानी को लौट आये। वहाँ रहते हुए उन्होंने बड़ी-बड़ी दक्षिणा वाले यज्ञों से भगवान् यज्ञपुरुष की आराधना की; भगवान् ही द्रव्य, क्रिया और देवता-सम्बन्धी समस्त कर्म और उसके फल हैं तथा वे ही कर्मफल के दाता भी हैं। सर्वोपाधिशून्य सर्वात्मा श्रीअच्युत में प्रबल वेगयुक्त भक्तिभाव रखते हुए ध्रुव जी अपने में और समस्त प्राणियों में सर्वव्यापक श्रीहरि को ही विराजमान देखने लगे। ध्रुव जी बड़े ही शील सम्पन्न, ब्राह्मणभक्त, दीनवत्सल और धर्ममर्यादा के रक्षक थे; उनकी प्रजा उन्हें साक्षात् पिता के समान मानती थी। इस प्रकार तरह-तरह के ऐश्वर्य भोग से पुण्य का और भोगों के त्यागपूर्वक यज्ञादि कर्मों के अनुष्ठान से पाप का क्षय करते हुए उन्होंने छत्तीस हजार वर्ष तक पृथ्वी का शासन किया। जितेन्द्रिय महात्मा ध्रुव ने इसी तरह अर्थ, धर्म और काम के सम्पादन में बहुत-से वर्ष बिताकर अपने पुत्र उत्कल को राजसिंहासन सौंप दिया। इस सम्पूर्ण दृश्य-प्रपंच को अविद्यारचित स्वप्न और गन्धर्वनगर के समान माया से अपने में ही कल्पित मानकर और यह समझकर कि शरीर, स्त्री, पुत्र, मित्र, सेना, भरापूरा खजाना, जनाने महल, सुरम्य विहार भूमि और समुद्रपर्यन्त भूमण्डल का राज्य- ये सभी काल के गाल में पड़े हुए हैं, वे बदरिकाश्रम को चले गये। वहाँ उन्होंने पवित्र जल में स्नान कर इन्द्रियों को विशुद्ध (शान्त) किया। फिर स्थिर आसन से बैठकर प्राणायाम द्वारा वायु को वश में किया। तदनन्तर मन के द्वारा इन्द्रियों को बाह्य विषयों से हटाकर मन को भगवान् के स्थूल विराट्स्वरूप में स्थिर कर दिया। उसी विराट्रूप का चिन्तन करते-करते अन्त में ध्याता और ध्येय के भेद से शून्य निर्विकल्प समाधि में लीन हो गये और उस अवस्था में विराट्रूप का भी परित्याग कर दिया। इस प्रकार भगवान् श्रीहरि के प्रति निरन्तर भक्तिभाव का प्रवाह चलते रहने से उनके नेत्रों में बार-बार आनन्दाश्रुओं की बाढ़-सी आ जाती थी। इससे उनका हृदय द्रवीभूत हो गया और शरीर में रोमांच हो आया। फिर देहाभिमान गलित हो जाने से उन्हें ‘मैं ध्रुव हूँ’ इसकी स्मृति भी न रही। इसी समय ध्रुव जी ने आकाश से एक बड़ा ही सुन्दर विमान उतरते देखा। वह अपने प्रकाश से दसों-दिशाओं को आलोकित कर रहा था; मानो पूर्णिमा का चन्द्र ही उदय हुआ हो। उसमें दो श्रेष्ठ पार्षद गदाओं का सहारा लिये खड़े थे। उनके चार भुजाएँ थीं, सुन्दर श्याम शरीर था, किशोर अवस्था थी और अरुण कमल के समान नेत्र थे। वे सुन्दर वस्त्र, किरीट, हार, भुजबन्ध और अति मनोहर कुण्डल धारण किये हुए थे। उन्हें पुण्यश्लोक श्रीहरि के सेवक जान ध्रुव जी हड़बड़ाहट में पूजा आदि का क्रम भूलकर सहसा खड़े हो गये और ये भगवान् के पार्षदों में प्रधान हैं-ऐसा समझकर उन्होंने श्रीमधुसूदन के नामों का कीर्तन करते हुए उन्हें हाथ जोड़कर प्रणाम किया। ध्रुव जी का मन भगवान् के चरणकमलों में तल्लीन हो गया और वे हाथ जोडकर बड़ी नम्रता से सिर नीचा किये खड़े रह गये। तब श्रीहरि के प्रिय पार्षद सुनन्द और नन्द ने उनके पास जाकर मुसकराते हुए कहा। सुनन्द और नन्द कहने लगे- राजन्! आपका कल्याण हो, आप सावधान होकर हमारी बात सुनिये। आपने पाँच वर्ष की अवस्था में ही तपस्या करके सर्वेश्वर भगवान् को प्रसन्न कर लिया था। हम उन्हीं निखिल जगन्नियन्ता सारंगपाणि भगवान् विष्णु के सेवक हैं और आपको भगवान् के धाम में ले जाने के लिये यहाँ आये हैं। आपने अपनी भक्ति के प्रभाव से विष्णुलोक का अधिकार प्राप्त किया है, जो औरों के लिये बड़ा दुर्लभ है। परमज्ञानी सप्तर्षि भी वहाँ तक नहीं पहुँच सके, वे नीचे से केवल उसे देखते रहते हैं। सूर्य और चन्द्रमा आदि ग्रह, नक्षत्र एवं तारागण भी उसकी प्रदक्षिणा किया करते हैं। चलिये, आप उसी विष्णुधाम में निवास कीजिये। प्रियवर! आज तक आपके पूर्वज तथा और कोई भी उस पद पर कभी नहीं पहुँच सके। भगवान् विष्णु का वह परमधाम सारे संसार में वन्दनीय है, आप वहाँ चलकर विराजमान हों। आयुष्मन्! यह श्रेष्ठ विमान पुण्यश्लोक शिखामणि श्रीहरि ने आपके लिये ही भेजा है, आप इस पर चढ़ने योग्य हैं। श्रीमैत्रेय जी कहते हैं- भगवान् के प्रमुख पार्षदों के ये अमृतमय वचन सुनकर परम भागवत ध्रुव जी ने स्नान किया, फिर सन्ध्या-वन्दनादि नित्य-कर्म से निवृत्त हो मांगलिक अलंकारादि धारण किये। बदरिकाश्रम में रहने वाले मुनियों को प्रणाम करके उनका आशीर्वाद लिया। इसके बाद उस श्रेष्ठ विमान की पूजा और प्रदक्षिणा की और पार्षदों को प्रणाम कर सुवर्ण के समान कान्तिमान् दिव्यरूप धारण कर उस पर चढ़ने को तैयार हुए। इतने में ही ध्रुव जी ने देखा कि काल मूर्तिमान् होकर उनके सामने खड़ा है। तब वे मृत्यु के सिर पर पैर रखकर उस समय अद्भुत विमान पर चढ़ गये। उस समय आकाश में दुन्दुभि, मृदंग और ढोल आदि बाजे बजने लगे, श्रेष्ठ गन्धर्व गान करने लगे और फूलों की वर्षा होने लगी। विमान पर बैठकर ध्रुव जी ज्यों-ही भगवान् के धाम को जाने के लिये तैयार हुए, त्यों-ही उन्हें माता सुनीति का स्मरण हो आया। वे सोचने लगे, ‘क्या मैं बेचारी माता को छोड़कर अकेला ही दुर्लभ वैकुण्ठधाम को जाऊँगा? नन्द और सुनन्द ने ध्रुव के हृदय की बात जानकर उन्हें दिखलाया कि देवी सुनीति आगे-आगे दूसरे विमान पर जा रही हैं। उन्होंने क्रमशः सूर्य आदि सभी ग्रह देखे। मार्ग में जहाँ-तहाँ विमानों पर बैठे हुए देवता उनकी प्रशंसा करते हुए फूलों की वर्षा करते जाते थे। उस दिव्य विमान पर बैठकर ध्रुव जी त्रिलोकी को पारकर सप्तर्षिमण्डल से भी ऊपर भगवान् विष्णु के नित्यधाम में पहुँचे। इस प्रकार उन्होंने अविचल गति प्राप्त की। यह दिव्य धाम अपने ही प्रकाश से प्रकाशित है, इसी के प्रकाश से तीनों लोक प्रकाशित हैं। इसमें जीवों पर निर्दयता करने वाले पुरुष नहीं जा सकते। यहाँ तो उन्हीं की पहुँच होती है, जो दिन-रात प्राणियों के कल्याण के लिये शुभ कर्म ही करते रहते हैं। जो शान्त, समदर्शी, शुद्ध और सब प्राणियों को प्रसन्न रखने वाले हैं तथा भगवद्भक्तों को ही अपना एकमात्र सच्चा सुहृद मानते हैं- ऐसे लोग सुगमता से ही इस भगवद्धाम को पाप्त कर लेते हैं। इस प्रकार उत्तानपाद के पुत्र भगवत्परायण श्रीध्रुव जी तीनों लोकों के ऊपर उसकी निर्मल चूड़ामणि के समान विराजमान हुए। कुरुनन्दन! जिस प्रकार दायँ चलाने के समय खम्भे के चारों ओर बैल घूमते हैं, उसी प्रकार यह गम्भीर वेग वाला ज्योतिश्चक्र उस अविनाशी लोक के आश्रय ही निरन्तर घूमता रहता है। उसकी महिमा देखकर देवर्षि नारद ने प्रचेताओं की यज्ञशाला में वीणा बजाकर ये तीन श्लोक गाये थे। नारद जी ने कहा- इसमें सन्देह नहीं, पतिपरायणा सुनीति के पुत्र ध्रुव ने तपस्या द्वारा अद्भुत शक्ति संचित करके जो गति पायी है, उसे भागवतधर्मों की आलोचना करके वेदवाणी मुनिगण भी नहीं पा सकते; फिर राजाओं की तो बात ही क्या है। अहो! वे पाँच वर्ष की अवस्थाओं में ही सौतेली माता के वाग्बाणों से मर्माहत होकर दुःखी हृदय से वन में चले गये और मेरे उपदेश के अनुसार आचरण करके ही उन अजेय प्रभु को जीत लिया, जो केवल अपने भक्तों के गुणों से ही वश में होते हैं। ध्रुव जी ने तो पाँच-छः वर्ष की अवस्था में कुछ दिनों की तपस्या से ही भगवान् को प्रसन्न करके उनका परमपद प्राप्त कर लिया; किन्तु उनके अधिकृत किये हुए इस पद को भूमण्डल में कोई दूसरा क्षत्रिय क्या वर्षो तक तपस्या करके भी पा सकता है? श्रीमैत्रेय जी कहते हैं- विदुर जी! तुमने मुझसे उदारकीर्ति ध्रुव जी के चरित्र के विषय में पूछा था, सो मैंने तुम्हें वह पूरा-का-पूरा सुना दिया। साधुजन इस चरित्र की बड़ी प्रशंसा करते हैं। यह धन, यश और आयु की वृद्धि करने वाला, परम पवित्र और अत्यत्न मंगलमय है। इससे स्वर्ग और अविनाशी पद भी प्राप्त हो सकता है। यह देवत्व की प्राप्ति कराने वाला, बड़ा ही प्रशंसनीय और समत पापों का नाश करने वाला है। भगवद्भक्त ध्रुव के इस पवित्र चरित्र को जो श्रद्धापूर्वक बार-बार सुनते हैं, उन्हें भगवान् की भक्ति प्राप्त होती है, जिससे उनके सभी दुःखों का नाश हो जाता है। इसे श्रवण करने वाले को शीलादि गुणों की प्राप्ति होती है, जो महत्त्व चाहते हैं, उन्हें महत्त्व की प्राप्ति कराने वाला स्थान मिलता है, जो तेज चाहते हैं, उन्हें तेज प्राप्त होता है और मनस्वियों का मान बढ़ता है। पवित्रकीर्ति ध्रुव जी के इस महान् चरित्र का प्रातः और सायंकाल ब्रह्माणादि द्विजातियों के समान में एकाग्रचित्त से कीर्तन करना चाहिये। भगवान् के परम पवित्र चरणों की शरण में रहने वाला जो पुरुष इसे निष्कामभाव से पूर्णिमा, अमावस्या, द्वादशी, श्रवण नक्षत्र, तिथिक्षय, व्यतीपात, संक्रान्ति अथवा रविवार के दिन श्रद्धालु पुरुषों को सुनाता है, वह स्वयं अपने आत्मा में ही सन्तुष्ट रहने लगता है और सिद्ध हो जाता है। यह साक्षात् भगवद्विषयक अमृतमय ज्ञान है; जो लोग भगवन्मार्ग के मर्म से अनभिज्ञ हैं- उन्हें जो कोई इसे प्रदान करता है, उस दीनवत्सल कृपालु पुरुष पर देवता अनुग्रह करते हैं। ध्रुव जी के कर्म सर्वत्र प्रसिद्ध और परम पवित्र हैं; वे अपनी बाल्यावस्था में ही माता के घर और खिलौनों का मोह छोड़कर श्रीविष्णु भगवान् की शरण में चले गये थे। कुरुनन्दन! उनका यह पवित्र चरित्र मैंने तुम्हें सुना दिया। इति श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां चतुर्थस्कन्धे ध्रुवचरितं नाम द्वादशोऽध्यायः॥१२॥ ~~~०~~~ श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारे। हे नाथ नारायण वासुदेवाय॥ "जय जय श्री हरि"******************************************** "श्रीजी की चरण सेवा" की सभी धार्मिक, आध्यात्मिक एवं धारावाहिक पोस्टों के लिये हमारे पेज से जुड़े रहें तथा अपने सभी भगवत्प्रेमी मित्रों को भी आमंत्रित करें👇 By Vnita Kasnia, दिसंबर 31, 2020 और पढ़ें
. श्री श्रीचैतन्य चरित्रावली पोस्ट - 053 निमाई और निताई की प्रेम-लीला अवतीर्णों सकारुण्यौ परिच्छिन्नौ सदीश्वरौ। श्रीकृष्णचैतन्यनित्यानन्दौ द्वौ भ्रातरौ भजे॥ आनन्द का मुख्य कारण है आत्मसमर्पण। जब तक मनुष्य किसी के प्रति सर्वतोभावेन आत्मसमर्पण नहीं कर देता, तब तक उसे पूर्ण प्रेम की प्राप्ति हो ही नहीं सकती। प्रभु विश्वम्भर तो चराचर में व्याप्त हैं। अपूर्णभाव से नहीं, सभी स्थानों में वे अपनी पूर्ण शक्तिसहित ही स्थित हैं, जहाँ तुम्हारा चित्त चाहे, जिस रूप में मन रमे, उसी के प्रति आत्मसमर्पण कर दो। अपनेपन को एकदम मिटा दो। अपनी इच्छा, अपनी भावना और अपनी सभी चेष्टाएँ प्यारे के ही निमित्त हों। सब तरह से किसी के होकर रहो, तभी प्रेम का यथार्थ मर्म सीख सकोगे। किसी कवि ने क्या ही बढ़िया बात कही है- न हम कुछ हँसके सीखे हैं, न हम कुछ रोके सीखे हैं। जो कुछ थोड़ा-सा सीखे हैं, किसी के होके सीखे हैं॥ अहा, किसी के होकर रहने में कितना मजा है, अपनी सभी बातों का भार किसी के ऊपर छोड़ देने में कैसा निश्चिन्तताजन्य सुख है, उसे अपने को ही कर्ता मानने वाला पुरुष कैसे अनुभव कर सकता है? जिसे अपने हाथ-पैरों से कमाकर खाने का अभिमान है, वह उस छोटे शिशु के सुख को क्या समझ सकता है, जिसे भूख-प्यास तथा सुख-दुःख में एकमात्र माता की क्रोड का ही सहारा है और जो आवश्यकता पड़ने पर रोने के अतिरिक्त और कुछ जानता ही नहीं? माता चाहे कहीं भी रहे, उसे अपने उस मुनमुना से बच्चे का हर समय ध्यान ही बना रहता है, उसके सुख-दुःख का अनुभव माता स्वयं अपने शरीर में करती है। नित्यानन्द जी ने भी प्रभु के प्रति आत्मसमर्पण कर दिया और महाप्रभु श्रीवास के भी सर्वस्व थे। प्रभु दोनों के ही उपास्यदेव थे, किंतु नित्यानन्द तो उनके बाहरी प्राण ही थे। नित्यानन्दजी श्रीवास पण्डित के ही घर रहते। उनकी पत्नी मालिनीदेवी तथा वे स्वयं इन्हें पुत्र से भी बढ़कर प्यार करते। नित्यानन्द जी सदा बाल्यभाव में ही रहते। वे अपने हाथ से भोजन नहीं करते, तब मालिनी देवी अपने हाथों से इन्हें भात खिलातीं। कभी खाते-खाते ही बीच में से भाग जाते, और दाल-भात को सम्पूर्ण शरीर पर लपेट लेते। भोजन करके बालकों की भाँति घूमते रहना ही इनका काम था। कभी मुरारी गुप्त के घर जाते, कभी गंगादास जी की पाठशाला में ही जा बैठते। कभी किसी के यहाँ से कोई चीज ही लेकर खाने लगते। कभी महाप्रभु के ही घर जाते और बाल्यभाव से शचीमाता के पैरों को पकड़ लेते। माता इनकी चंचलता से डरकर कभी-कभी भीतर घर में भाग जाती। इस प्रकार ये भक्तों के घरों में नाना भाँति की बाल्यलीलाओं का अभिनय करने लगे। एक दिन प्रभु ने श्रीवास पण्डित की परीक्षा करने के निमित्त तथा यह जानने के लिये कि श्रीवास का नित्यानन्द जी के प्रति कितना हार्दिक स्नेह है, उन्हें एकान्त में ले जाकर पूछने लगे- 'पण्डित जी! इन अवधूत नित्यानन्द जी के कुल-गोत्र तथा जाति आदि का कुछ भी पता नहीं। इस अज्ञातकुलशील अवधूत को आपने अपने घर में स्थान देकर कुछ उचित काम नहीं किया। आप इन्हें पुत्र की तरह प्यार करते हैं। कौन जाने ये कैसे हैं? इसलिये आपको इन्हें अपने घर में पुत्र की तरह नहीं रखना चाहिये। ये साधुओं की तरह गंगा-किनारे या कहीं घाट पर रहें और माँगे खायँ। साधु को किसी के घर रहने से क्या काम? इस विषय में आपके क्या विचार हैं? क्या आप मुझसे सहमत हैं।' प्रभु की ऐसी बात सुनकर गद्गद-कण्ठ से श्रीवास पण्डित ने अत्यन्त ही दीनता के साथ कहा- 'प्रभो! आपको हमारी इस प्रकार से परीक्षा करना ठीक नहीं। हम संसारी वासनाओं में आबद्ध पामर प्राणी भला प्रभु की परीक्षाओं में उत्तीर्ण ही कैसे हो सकते हैं? जब तक प्रभु स्वयं कृपा न करें, तब तक तो हम सदा अनुत्तीर्ण ही होते रहेंगे। मैं यह खूब जानता हूँ कि नित्यानन्द जी प्रभु के बाह्य प्राण ही नहीं, किंतु अभिन्न विग्रह भी हैं। प्रभु उन्हें भिन्न-से प्रतीत होने पर भी भिन्न नहीं समझते। जो प्रभु के इतने प्रिय हैं वे नित्यानन्द जी यदि शराब पीकर अगम्यागमन भी करें और मुझे धर्म-भ्रष्ट भी कर दें तब भी मुझे उनके प्रति घृणा नहीं होगी। नित्यानन्द जी को मैं प्रभु का ही स्वरूप समझता हूँ।' इतना कहकर श्रीवास पण्डित प्रभु के पादपद्मों को पकड़कर फूट-फूटकर रोने लगे। प्रभु ने उन्हें अपने कोमल करों से उठाया और प्रेमालिंगन करते हुए कहने लगे- 'श्रीवास! तुमने ऐसा उत्तर देकर सचमुच में मुझे खरीद लिया। इस उत्तर से मैं तुम्हारा क्रीतदास बन गया। मैं तुमसे अत्यन्त ही संतुष्ट हुआ। मेरा यह आशीर्वाद है कि किसी भी दशा में तुम्हें किसी आवश्यकीय वस्तु का घाटा नहीं होगा और तुम्हारे घर के कुत्ते तक को श्रीकृष्ण-प्रेम की प्राप्ति हो सकेगी। तुम्हारा मेरे प्रति ऐसा अनन्य अनुराग है, इसका पता मुझे आज ही चला।' इतना कहकर प्रभु अपने घर को चले गये। एक दिन प्रभु ने शचीमाता से कहा- 'माँ! मेरी इच्छा है आज नित्यानन्द जी को अपने घर भोजन करावें। तू आज अपने हाथों से बढ़िया-बढ़िया भोजन बनावे और हम दोनों भाइयों को चौके में बिठाकर स्वयं परोसकर खिलावे, यही मेरी इच्छा है।' प्रभु की ऐसी बात सुनकर शचीमाता को परम प्रसन्नता हुई और वे जल्दी से भोजन बनाने के लिये उद्यत हो गयीं। इधर प्रभु श्रीवासपण्डित के घर निताई को लिवाने के लिये चले। श्रीवास के घर पहुँचकर प्रभु ने नित्यानन्द जी से कहा- 'श्रीपाद! आज आपका हमारे घर निमन्त्रण है। चलो, आज हम-आप साथ-ही-साथ भोजन करेंगे।' इतना सुनते ही नित्यानन्द जी बालकों की भाँति आनन्द में उछल-उछलकर नृत्य करने लगे और नृत्य करते-करते कहते जाते थे- 'अहा रे, लाल के, खूब बनेगी, शचीमाता के हाथ का भात खायेंगे, मौज उड़ायेंगे, प्रभु को खूब छकायेंगे, कुछ खायेंगे, कुछ शरीर में लगायेंगे।' प्रभु ने इन्हें ऐसी चंचलता करते देखकर मीठी-सी डाँट देते हुए प्रेमपूर्वक कहा- 'देखना खबरदार, वहाँ ऐसी चंचलता मत करना। माता आपकी चंचलता से बहुत घबड़ाती है, वह डर जायगी। वहाँ चुपचाप ठीक तरह से भोजन करना।' प्रभु की प्रेममिश्रित मीठी डाँट को सुनकर बालकों की भाँति चौंककर और बनावटी गम्भीरता धारण करके कानों पर हाथ रखते हुए नित्यानन्द जी कहने लगे- 'बाप रे! चंचलता! चंचलता कैसी? हम तो चंचलता जानते तक नहीं। चंचलता तो पागल लोग किया करते हैं, हम क्या पागल हैं जो चंचलता करेंगे?' इन्हें इस प्रकार स्वाँग करते देखकर प्रभु ने इनकी पीठ पर एक हलकी-सी धाप जमाते हुए कहा- 'अच्छा चलिये, देर करने का काम नहीं। यह तो हम जानते हैं कि आप अपनी आदत को कहीं छोड़ थोड़े ही देंगे, किंतु देखना, वहाँ जरा सँभलकर रहना।' यह कहते-कहते दोनों भाई आपस में प्रेम की बातें करते हुए घर पहुँचे। माता भोजन बना ही रही थीं कि ये दोनों पहुँच गये। पहुँचते ही नित्यानन्द जी ने बालकों की भाँति बड़े जोर से कहा- 'अम्मा! बड़ी भूख लग रही है। पेट में चूहे-से कूद रहे हैं। अभी कितनी देर है, मेरे तो भूख के कारण प्राण निकले जा रहे हैं।' प्रभु ने इन्हें संकेत से ऐसा न करने को कहा। तब आप फिर उसी तरह जोरों से कहने लगे- 'देख अम्मा! गौर मुझे रोक रहे हैं, भला भूख लगने पर भोजन भी न माँगू।' माता इनकी ऐसी भोली-भाली बातें सुनकर हँसने लगीं। उन्होंने जल्दी से दो थालियों में भोजन परोसा। विष्णुप्रिया जी ने दोनों के हाथ-पैर धुलाये। हाथ-पैर धोकर दोनों भोजन करने बैठे। माता प्रेम से अपने दोनों पुत्रों को परोसने लगीं। प्रभु के साथ में और भी उनके दो-चार अन्तरंग भक्त आ गये थे। वे उन दोनों भाइयों को इस प्रकार प्रेमपूर्वक भोजन करते देख प्रेमसागर में आनन्द के साथ गोते लगाने लगे। दोनों भाइयों को भोजन कराते हुए माता ऐसी प्रतीत होने लगी मानो श्री कौसल्या जी अपने श्रीराम और लक्ष्मण दोनों प्रिय पुत्रों को भोजन करा रही हों अथवा यशोदा मैया श्रीकृष्ण-बलराम को साथ ही बिठाकर छाछ खिला रही हों। माता का अन्तःकरण उस समय प्रसन्नता के कारण अत्यन्त ही आनन्दित हो रहा था। उनका अगाध मातृ-प्रेम उमड़ा ही पड़ता था। दोनों भाई भोजन करते-करते भाँति-भाँति की विनोदपूर्ण बातें कहते जाते थे। भोजन करके प्रभु चुपचाप बैठ गये, नित्यानन्द जी भोजन करते ही रहे। प्रभु की थाली में बहुत-सा भात बचा हुआ देखकर नित्यानन्दजी बोले- 'यह क्यों छोड़ दिया है, इसे भी खाना होगा।' प्रभु ने असमर्थता प्रकट करते हुए कहा- 'बस, अब नहीं। अब तो बहुत पेट भर गया है।' प्रभु की थाली में से भात की मुट्ठी भरते हुए नित्यानन्दजी कहने लगे- 'अच्छा, तुम मत खाओ, मैं ही खाऊँगा।' यह कहकर प्रभु के उच्छिष्ट भात नित्यानन्द जी खाने लगे। प्रभु ने जल्दी से उनका हाथ पकड़ लिया। नित्यानन्द जी खाते-खाते ही चौके से उठकर भागने लगे। प्रभु भी उनका हाथ पकड़े हुए उनके पीछे-पीछे दौड़ने लगे। इस प्रकार आँगन में दोनों में ही गुत्थम-गुत्था होने लगी। नित्यानन्द जी उस भात को खा ही गये। शचीमाता इन दोनों के ऐसे स्नेह को देखकर प्रेम के कारण बेहोश-सी हो गयीं। उन्हें प्रेमावेश में मूर्छा-सी आ गयी। माता की ऐसी दशा देखकर प्रभु जल्दी से हाथ-पैर धोकर चौके में गये और माता को अपने हाथों से वायु करने लगे। कुछ देर के पश्चात् माता को होश आया। माता ने प्रेम के आँसू बहाते हुए अपने दोनों पुत्रों को आशीर्वाद किया। माता का शुभाशीर्वाद पाकर दोनों ही परम प्रसन्न हुए और दोनों ने माता की चरण-वन्दना की। नित्यानन्द जी को पहुँचाने के निमित्त प्रभु उनके साथ श्रीवास के घर तक गये। इस प्रकार नित्यानन्द जी महाप्रभु की सन्निधि में रहकर अनिर्वचनीय सुख का रसास्वादन करने लगे। वे प्रभु के सदा साथ-ही-साथ लगे रहते। प्रभु जहाँ भी जाते, जिस भक्त के घर भी पधारते, नित्यानन्द जी उनके पीछे जरूर होते। महाप्रभु को भी नित्यानन्द जी के बिना कहीं जाना अच्छा नहीं लगता। सभी भक्त प्रभु को अपने-अपने घरों पर बुलाते और अपनी-अपनी भावना के अनुसार प्रभु के शरीर में भाँति-भाँति के अवतारों के दर्शनों का अनुभव करते। प्रभु भी भाँति-भाँति की लीला करते। कभी तो आप नृसिंह जी के आवेश में आकर जोरों से हुंकार करने लगते। कभी प्रह्लाद के भाव में दीन-हीन भक्त की भाँति गद्गदकण्ठ से प्रभु की स्तुति करने लगते। कभी आप श्रीकृष्णभाव से मथुरा जाने का अभिनय रचते और कभी अक्रूर के भाव में जोरों से रुदन करने लगते। कभी व्रज के ग्वालबालों की तरह क्रीड़ा करने लगते और कभी उद्धव की भाँति प्रेम में अधीर होकर रोने लगते। इस प्रकार नित्यानन्द जी तथा अन्य भक्तों के साथ नवद्वीपचन्द्र श्रीगौरांग भाँति-भाँति की लीलाओं के सुप्रकाश द्वारा सम्पूर्ण नवद्वीप को अपने अमृतमय शीतल प्रकाश से प्रकाशित करने लगे। श्रीकृष्ण! गोविन्द! हरे मुरारे! हे नाथ! नारायण! वासुदेव! ----------:::×:::---------- - प्रभुदत्त ब्रह्मचारी श्री श्रीचैतन्य चरित्रावली (123) गीताप्रेस (गोरखपुर) "जय जय श्री राधे"******************************************* "श्रीजी की चरण सेवा" की सभी धार्मिक, आध्यात्मिक एवं धारावाहिक पोस्टों के लिये हमारे पेज से जुड़े रहें तथा अपने सभी भगवत्प्रेमी मित्रों को भी आमंत्रित करें👇By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब 🌹🙏🙏🌹, दिसंबर 31, 2020 और पढ़ें
. श्रीमद्भगवद्गीता के माहात्म्य की कहानियाँ पोस्ट - 05 श्रीमद्भगवद्गीता के पाँचवें अध्याय का माहात्म्य श्रीभगवान् कहते हैं, 'देवि! अब सब लोगों द्वारा सम्मानित पाँचवें अध्याय का माहात्म्य संक्षेप से बतलाता हूँ, सावधान होकर सुनो। मद्रदेश में पुरुकुत्सपुर नामक एक नगर है। उसमें पिंगल नामक एक ब्राह्मण रहता था। वह वेदपाठी ब्राह्मणों के विख्यात वंश में, जो सर्वथा निष्कलंक था, उत्पन्न हुआ था, किंतु अपने कुल के लिये उचित वेद-शास्त्रों के स्वाध्याय को छोड़कर ढोल आदि बजाते हुए उसने नाच-गान में मन लगाया। गीत, नृत्य और बाजा बजाने की कला में परिश्रम करके पिंगल ने बड़ी प्रसिद्धि प्राप्त कर ली और उसी से उसका राजभवन में भी प्रवेश हो गया। अब वह राजा के साथ रहने लगा और परायी स्त्रियों को बुला-बुलाकर उनका उपभोग करने लगा। स्त्रियों के सिवा और कहीं उसका मन नहीं लगता था। धीरे-धीरे अभिमान बढ़ जाने से उच्छृंखल होकर वह एकान्त में राजा से दूसरों के दोष बतलाने लगा। पिंगल की एक स्त्री थी, जिसका नाम था अरुणा। वह नीच कुल में उत्पन्न हुई थी और कामी पुरुषों के साथ विहार करने की इच्छा से सदा उन्हीं की खोज में घूमा करती थी। उसने पति को अपने मार्ग का कण्टक समझकर एक दिन आधी रात में घर के भीतर ही उसका सिर काटकर मार डाला और उसकी लाश को जमीन में गाड़ दिया। इस प्रकार प्राणों से वियुक्त होने पर वह यमलोक में पहुँचा और भीषण नरकों का उपभोग करके निर्जन वन में गिद्ध हुआ। अरुणा भी भगन्दर रोग से अपने सुन्दर शरीर को त्यागकर घोर नरक भोगने के पश्चात् उसी वन में शुकी हुई। एक दिन वह दाना चुगने की इच्छा से इधर-उधर फुदक रही थी, इतने में ही उस गिद्ध ने पूर्व जन्म के वैर का स्मरण करके उसे अपने तीखे नखों से फाड़ डाला। शुकी घायल होकर पानी से भरी हुई मनुष्य की खोपड़ी में गिरी। गिद्ध पुनः उसकी ओर झपटा। इतने में ही जाल फैलाने वाले बहेलियों ने उसे भी बाणों का निशाना बनाया। उसकी पूर्वजन्म की पत्नी शुकी उस खोपड़ी के जल में डूबकर प्राण त्याग चुकी थी। फिर वह क्रूर पक्षी भी उसी में गिरकर डूब गया। तब यमराज के दूत उन दोनों को यमराज के लोक में ले गये। वहाँ अपने पूर्वकृत पापकर्म को याद करके दोनों ही भयभीत हो रहे थे। तदनन्तर यमराज ने जब उनके घृणित कर्मो पर दृष्टिपात किया, तब उन्हें मालूम हुआ कि मृत्यु के समय अकस्मात् खोपड़ी के जल में स्नान करने से इन दोनों का पाप नष्ट हो चुका है। तब उन्होंने उन दोनों को मनोवांछित लोक में जाने की आज्ञा दी। यह सुनकर अपने पाप को याद करते हुए वे दोनों बड़े विस्मय में पड़े और पास जाकर धर्मराज के चरणों में प्रणाम करके पूछने लगे, 'भगवन्! हम दोनों ने पूर्वजन्म में अत्यन्त घृणित पाप का संचय किया है। फिर हमें मनोवांछित लोकों में भेजने का क्या कारण है? बताइये।' यमराज ने कहा, 'गंगा के किनारे वट नामक एक उत्तम ब्रह्मज्ञानी रहते थे। वे एकान्तसेवी, ममतारहित, शान्त, विरक्त और किसी से भी द्वेष न रखने वाले थे प्रतिदिन गीता के पाँचवें अध्याय का जप करना उनका सदा का नियम था। पाँचवें अध्याय को श्रवण कर लेने पर महापापी पुरुष भी सनातन ब्रह्म का ज्ञान प्राप्त कर लेता है। उसी पुण्य के प्रभाव से शुद्धचित्त होकर उन्होंने अपने शरीर का परित्याग किया था। गीता के पाठ से जिनका शरीर निर्मल हो गया था, जो आत्मज्ञान प्राप्त कर चुके थे, उन्हीं महात्मा की खोपड़ी का जल पाकर तुम दोनों पवित्र हो गये हो। अत: अब तुम दोनों मनोवांछित लोकों को जाओ; क्योंकि गीता के पाँचवें अध्याय के माहात्म्य से तुम दोनों शुद्ध हो गये हो। श्रीभगवान् कहते हैं, 'सबके प्रति समान भाव रखने वाले धर्मराजके द्वारा इस प्रकार समझाये जाने पर वे दोनों बहुत प्रसन्न हुए और विमान पर बैठकर वैकुण्ठधाम को चले गये। ----------:::×:::---------- पुस्तक:- श्रीमद्भगवद्गीता के माहात्म्य की कहानियाँ पुस्तक कोड़:- (1938) प्रकाशक:- गीताप्रेस (गोरखपुर) "जय जय श्री राधे"******************************************* "श्रीजी की चरण सेवा" की सभी धार्मिक, आध्यात्मिक एवं धारावाहिक पोस्टों के लिये हमारे पेज से जुड़े रहें तथा अपने सभी भगवत्प्रेमी मित्रों को भी आमंत्रित करें👇 By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब 🌹🙏 ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ दिसंबर 31, 2020 और पढ़ें
. संक्षिप्त श्रीस्कन्द-महापुराण पोस्ट - 233 काशी-खण्ड काशीखण्ड-पूर्वार्ध अध्याय - 21इस अध्याय में:- (गंगासहस्त्रनामस्तोत्र) अगस्त्यजी बोले- गंगा में स्नान किये बिना मनुष्यों का जन्म व्यर्थ ही बीतता है क्या कोई दूसरा उपाय भी है, जिससे गंगा स्नान का फल प्राप्त हो सके? स्कन्द ने कहा- अगस्त्यजी ! जान पड़ता है, यही सोचकर देवाधिदेव भगवान् शंकर ने अपने मस्तक पर गंगाजी को धारण कर रखा है। एक परम गोपनीय उपाय है, जिससे देवनदी गंगा में स्नान करने का पूरा फल प्राप्त होता है। वह उपाय उसी को बतलाना चाहिये, जो भगवान् शिव और विष्णु का भक्त, शान्त, श्रद्धालु, आस्तिक तथा गर्भवास से छूटने की इच्छा रखने वाला हो। दूसरे किसी के सामने कहीं भी उसकी चर्चा नहीं करनी चाहिये। वह परम रहस्यमय साधन महापातकों का नाश करने वाला है वह उपाय है- भगवती गंगा का सहस्रनामस्तोत्र। वह सम्पूर्ण उत्तम स्तोत्रों में श्रेष्ठ है, जपने योग्य मन्त्रों में सर्वोत्तम है और वेदों के उपनिषद् भाग के समान मनन करने योग्य है। साधक को मौन होकर प्रयत्न पूर्वक इसका जप करना चाहिये। यदि पवित्र स्थान हो तो वहाँ स्वयं भी पवित्र भाव से बैठकर सुस्पष्ट अक्षरों में इसका पाठ करना चाहिये। स्कन्दजी कहते हैं- ॐ नमो गङ्गादेव्यै। १ ॐकाररूपिणी- प्रणवरूपा, सच्चिदानन्दस्वरूपा अथवा ब्रह्मा-विष्णु-शिवरूपिणी, २ अजरा- वृद्धावस्था से रहित, ३ अतुला- तुलना रहित, ४ अनन्ता- जिसका कभी कहीं भी अन्त न हो, ऐसी, ५ अमृतस्त्रवा- अमृतमय जल का स्रोत बहाने वाली, ६ अत्युदारा- अतिशय उदार, किसी को भी शरण में लेने अथवा सद्गति देने में संकोच न करने वाली, ७ अभया- भय रहित, जिसका आश्रय लेने से संसार भय का निवारण हो जाता है, ऐसी, ८ अशोका- शोक से रहित अथवा जिससे शोक का निवारण होता है, ऐसी, ९ अलकनन्दा- अलका वासियों को आनन्द देने वाली अथवा केशों में जिसके जल का स्पर्श होने से आनन्द प्राप्त होता है, ऐसी, १० अमृता- सुधारूपिणी अथवा मुक्ति देने के कारण अमृत स्वरूपा, ११ अमला- निर्मल जल वाली अथवा संसार रूपी मल का निवारण करने वाली १२ अनाथवत्सला- अनाथों पर दया करने वाली, १३ अमोघा- जिनकी सेवा कभी व्यर्थ नहीं जाती, ऐसी, १४ अपांयोनि:- जल की उत्पत्ति का स्थान, १५ अमृतप्रदा- मोक्ष प्रदान करने वाली १६ अव्यक्तलक्षणा- अव्यक्त ब्रह्मस्वरूपा अथवा अव्याकृत प्रकृति रूपा, १७ अक्षोभ्या- किसी के द्वारा भी क्षुब्ध न की जा सकने वाली, १८ अनवच्छिन्ना- अपने दिव्य एवं व्यापक स्वरूप के कारण त्रिविध परिच्छेद से शून्य, १९ अपरा- जिसके लिये कोई भी पराया नहीं है अथवा जिससे श्रेष्ठ दूसरा कोई नहीं है, ऐसी, २० अजिता- किसीसे भी परास्त न होने वाली। २१ अनाथनाथा- अनाथों को भी शरण देने वाली २२ अभीष्टार्थसिद्धिदा- भक्तजनों के अभीष्ट अर्थ की सिद्धि करने वाली, २३ अनङ्गवर्द्धिनी- कामना की पूर्ति या मनोवांछित भोगों की वृद्धि करने वाली अथवा काम भाव का नाश या निराकार ब्रह्म की प्राप्ति कराने वाली, २४ अणिमादि-गुणा- अणिमा आदि आठ प्रकार के ऐश्वर्य प्रदान करना जिसका स्वाभाविक गुण है, ऐसी, २५ आधारा- 'अ' अर्थात् विष्णु आधार हैं जिसके, ऐसी। २६ अग्रगण्या- श्रेष्ठता और पवित्रता में सबसे प्रथम गणना करने योग्य, २७ अलीकहारिणी- अलीक अर्थात् अज्ञान का हरण करने वाली। २८ अचिन्त्यशक्तिः- जिनकी शक्ति चिन्तन का विषय नहीं है, ऐसी २९ अनघा- निष्पाप, ३० अद्भुतरूपा- आश्चर्यमय स्वरूप वाली, ३१ अघहारिणी- अपने कीर्तन, दर्शन, स्पर्श और जल स्नान से सबके पापों को हर लेने वाली, ३२ अद्रिराजसुता- गिरिराज हिमालय की पुत्री, ३३ अष्टाङ्गयोगसिद्धिप्रदा- अष्टांग योग से प्राप्त होने वाली सिद्धि ( मुक्ति) को देने वाली, ३४ अच्युता- अपनी महिमा से कभी च्युत न होने वाली अथवा विष्णु स्वरूपा। ३५ अक्षुण्णशक्तिः- जिसकी शक्ति कभी खण्डित या कुण्ठित नहीं होती, वह, ३६ असुदा- अपने जीवन रूपी जल से प्राण दान करने वाली, ३७ अनन्ततीर्था- सर्वतीर्थमयी होने के कारण असंख्य तीर्थों से युक्त, ३८ अमृतोदका- अमृत के समान मधुर अथवा मोक्षदायक जल वाली, ३९ अनन्तमहिमा- जिसकी महिमा का कहीं अन्त नहीं है, ऐसी, ४० अपारा- सीमारहित, ४१ अनन्तसौख्यप्रदा- मोक्ष या भगवत्प्राप्तिका अक्षय सुख प्रदान करने वाली, ४२ अन्नदा- भोग प्रदान करने वाली ४३ अशेषदेवतामूर्तिः- सम्पूर्ण देवस्वरूपा, ४४ अघोरा- शान्तस्वरूपा, ४५ अमृतरूपिणी- मोक्षस्वरूपा, ४६ अविद्याजालशमनी- अविद्यारूपी आवरण का नाश करने वाली, ४७ अप्रतक्क्यगतिप्रदा- जहाँ मन और वाणी की पहुँच नहीं है, ऐसी मोक्षरूप गति प्रदान करने वाली। ४८ अशेषविघ्नसंहत्रीं- समस्त विघ्नों का संहार करने वाली, ४९ अशेषगुणगुम्फिता- सम्पूर्ण सद्गुणोंसे ग्रथित, ५० अज्ञानतिमिरज्योतिः- अज्ञानमय अन्धकारका नाश करने वाली ज्योति: स्वरूपा। ५१ अनुग्रहपरायणा- भक्तों पर अनुग्रह करने में तत्पर। ५२ अभिरामा- सब ओर से मनोरम, ५३ अनवद्याङ्गी- निर्दोष स्वरूपवाली, ५४ अनन्त सारा- जिसके सार अर्थात् शक्तिका अन्त नहीं है, ऐसी, ५५ अकलंकिनी- कलंक से रहित, ५६ आरोग्यदा- अपने अमृतमय जल से आरोग्य प्रदान करने वाली, ५७ आनन्दवल्ली- दिव्य आनन्द की प्राप्ति कराने वाली कल्पलता के समान, ५८ आपन्नार्तिविनाशिनी- शरण में आये हुए जीवों की पीड़ा (संसार-बन्धन)-का नाश करने वाली। ५९ आश्चर्यमूर्ति:- आश्चर्यमय स्वरूप वाली, ६० आयुष्या- आयु प्रदान करने वाली, ६१ आढ्या- दिव्य वैभ वसे सम्पन्न, ६२ आद्या- सबकी कारण भूता आदिशक्ति, ६३ आप्रा- सब ओर से परिपूर्ण, ६४ आर्यसेविता- श्रेष्ठ पुरुषों (देवता और ऋषि आदि) के द्वारा सेवित, ६५ आप्यायिनी- सबको तृप्त करने वाली, ६६ आप्तविद्या- ब्रह्मविद्या स्वरूपा अथवा सम्पूर्ण विद्याओं को जानने वाली, ६७ आख्या- सदा और सर्वत्र प्रसिद्ध, ६८ आनन्दा- सुखस्वरूपा, ६९ आश्वासदायिनी- नरक आदि के भय से डरे हुए प्राणियों को सान्त्वना प्रदान करने वाली। ७० आलस्यघ्नी- आलस्य का नाश करने वाली, ७१ आपदां हन्त्री- आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक आपत्तियोंका नाश करने वाली, ७२ आनन्दामृतवर्षिणी- ब्रह्मानन्दमय अमृत की वर्षा करने वाली, ७३ इरावती- इरावती नाम वाली नदी अथवा इरा अर्थात् लक्ष्मी से युक्त, ७४ इष्टदात्री- भक्तों को अभीष्ट वस्तु देने वाली, ७५ इष्टा- आराध्यदेवी अथवा सबके द्वारा पूजित। ७६ इष्टापूर्तफलप्रदा- इष्ट-यज्ञ, होम आदि और आपूर्त- कूप, तड़ाग, वापी निर्माण आदि, इन सबके पुण्यफल को देने वाली। ७७ इतिहासश्रुतीड्यार्था- इतिहास और वेद दोनों के द्वारा जिसके पुरुषार्थकी स्तुति की जाती है, ऐसी, ७८ इहामुत्र शुभप्रदा- इहलोक और परलोक में कल्याण प्रदान करने वाली, ७९ इज्याशीलसमिज्येष्ठा- यज्ञ आदि करने वाले कर्मनिष्ठ तथा सम स्वरूप ब्रह्म का विचार करने वाले ज्ञानी, दोनों में श्रेष्ठ अथवा इन दोनों के लिये श्रेष्ठ मानकर पूजनीय, ८० इन्द्रादिपरिवन्दिता- इन्द्र आदि देवताओं द्वारा वन्दित। ८१ इलालंकारमाला- पृथ्वी को विभूषित करने वाली पुष्पमाला के सदृश, ८२ इद्धा- दीप्तिमती अथवा प्रकाश स्वरूपा, ८३ इन्दिरा- लक्ष्मीस्वरूपा, ८४ रम्यमन्दिरा- भगवच्चरणारविन्द, ब्रह्मकमण्डलु तथा भगवान् शंकर का मस्तक- ये सब रमणीय आश्रय हैं जिसके, ऐसी, ८५ इदिन्दिरादिसंसेव्या- निरन्तर लक्ष्मी आदि देवियोंके सेवन करने योग्य, ८६ ईश्वरी- ऐश्वर्यसम्पन्न, ८७ ईश्वरवल्लभा- शंकरप्रिया ८८ ईतिभीतिहरा- अतिवृष्टि, अनावृष्टि, टिड्डी पड़ना, चूहे लगना, तोते आदि पक्षियों की अधिकता और दूसरे राजा की चढ़ाई-इन छ: प्रकार के उपद्रवों का भय दूर करने वाली, ८९ ईड्या- स्तवन करने योग्य, ९० ईडनीयचरित्रभृत्- स्तुत्य चरित्र धारण करने वाली, ९१ उत्कृष्टशक्ति:- उत्तम शक्ति से युक्त, ९२ उत्कृष्टा- श्रेष्ठ, ९३ उडुपमण्डल- चारिणी-चन्द्रमण्डल में विचरने वाली। ९४ उदिताम्बरमार्गा- जिसके द्वारा आकाश में मार्ग का उदय होता है अथवा जो ऊर्ध्वलोक में जाने के लिये प्रकाशित मार्ग के समान है, ऐसी, ९५ उस्त्रा- उज्ज्वल किरण के समान प्रकाशमान, ९६ उरगलोकविहारिणी- पाताल लोक में प्रवाहित होने वाली, ९७ उक्षा- भूतलको सींचनेवाली, ९८ उर्वरा- भूमि को उर्वरा (उपजाऊ) बनाने में हेतु, ९९ उत्पला- कमलस्वरूपा, १०० उत्कुम्भा- जिसमें भरे जाने वाले कलश उत्कृष्ट हो जाते हैं, वह। १०१ उपेन्द्रचरणद्रव - भगवान् वामन के चरण पखारने से प्रकट चरणोदक स्वरूपा। १०२ उदन्वत्पूर्तिहेतुः- समुद्र को पूर्ण करने में कारण भूत, १०३ उदारा- उत्तम गति प्रदान करने में उदार, १०४ उत्साहप्रवर्द्धिनी- अपने आश्रितों का उत्साह बढ़ाने वाली, १०५ उद्वेगघ्नी- घबराहट अथवा भय को मिटाने वाली, १०६ उष्णशरमनी- गर्मी को शान्त करने वाली, १०७ उष्णरश्मि सुताप्रिया- सूर्यकन्या यमुना की प्रिय सखी १०८ उत्पत्तिस्थितिसंहारकारिणी- ब्रह्म शक्ति, विष्णु शक्ति तथा रुद्रशक्ति के रूप में उत्पत्ति, पालन और संहार करने वाली, १०९ उपरिचारिणी- पृथ्वी अथवा स्वर्गलोक के ऊपर विचरने वाली, ११० ऊर्जवहन्ती- बलवर्द्धक जल को प्रवाहित करने वाली १११ ऊर्जधरा- बल अथवा प्राण- शक्ति को धारण करने वाली ११२ ऊर्जावती- बल अथवा प्राणशक्तिका आश्रय, ११३ ऊरमिमालिनी- तरंग-मालाओं से युक्त। ११४ ऊर्ध्वरेत:प्रिया- ऊर्ध्वरेता महात्माओं को प्रिय लगने वाली, ११५ ऊर्ध्वाध्वा- जिसका मार्ग ऊपर विष्णुलोक की ओर गया है, ऐसी, ११६ ऊर्मिला- लहरों को धारण करने वाली अथवा भक्तों के शोक, मोह, जरा, मृत्यु, क्षुधा, पिपासा- इन छः ऊर्मियों को ग्रहण करने वाली, ११७ ऊर्ध्वगतिप्रदा- अपने सम्पर्क में आये हुए मुमूर्षुओं को ऊर्ध्वगति (स्वर्ग एवं मोक्ष) प्रदान करने वाली, ११८ ऋषिवृन्दस्तुता- महर्षियों के समुदाय से प्रशंसित, ११९ ऋद्धिः- समृद्धस्वरूपा, १२० ऋणत्रयविनाशिनी- देवऋण, ऋषिऋण और पितृऋण का नाश करने वाली। १२१ ऋतम्भरा- ऋत अर्थात् सत्य एवं ब्रह्म का आश्रय लेने वाली बुद्धि स्वरूपा, १२२ ऋ्द्धिदात्री- समृद्धि देने वाली, १२३ ऋक्स्वरूपा- ऋग्वेदरूपिणी, १२४ ऋजुप्रिया- सरल स्वभाव वाले साधु महात्माओं को प्रिय लगने वाली, १२५ ऋक्ष-मार्गवहा- नक्षत्रलोक के मार्ग से बहने वाली। १२६ ऋक्षाचिः- ताराओं के सदृश उज्ज्वल कान्तिवाली, १२७ ऋजुमार्गप्रदर्शिनी- धर्म एवं मोक्ष का सरल मार्ग दिखानेवाली, १२८ एधिताखिलधर्मार्था- सम्पूर्ण धर्म और अर्थ को बढ़ाने वाली, १२९ एका- अपने ढंग की अकेली, १३० एकामृतदायिनी- एकमात्र अमृत- स्वरूप ब्रह्म की प्राप्ति कराने वाली, १३१ एधनीय- स्वभावा- जिसके दया, उदारता आदि स्वाभाविक गुण निरन्तर बढ़ने योग्य हों, ऐसी १३२ एज्या- पूजनीया, १३३ एजिताशेषपातका- सम्पूर्ण पातकों को कम्पित करने वाली, १३४ ऐश्वर्यदा- अणिमा, महिमा आदि ऐश्वर्य प्रदान करने वाली १३५ ऐश्वर्यरूपा- भगवद्विभूति स्वरूपा, १३६ ऐतिह्यम्- इतिहास- स्वरूपा, १३७ ऐन्दवीद्युतिः- चन्द्रमा की कान्तिरूपा, १३८ ओजस्विनी- शक्तिमती, १३९ ओषधी- क्षेत्रम्- अन्न पैदा करने का क्षेत्र, १४० ओजोदा- बल एवं तेज प्रदान करने वाली, १४१ ओदन- दायिनी- धान की पैदावार बढ़ाकर भात देने वाली, अथवा अन्न दायिनी अन्नपूर्णा रूपा, १४२ ओष्ठामृता- जिसका जल ओष्ठ के भीतर आने पर अमृत के समान प्रतीत होता है अथवा जिसके ओष्ठ में अमृत हो, वह, १४३ औनत्यदात्री- आध्यात्मिक, लौकिक एवं पारलौकिक उन्नति प्रदान करने वाली, १४४ भवरोगिणाम् औषधम्- संसार रोग से ग्रस्त प्राणियों के लिये ओषधि रूपा, १४५ औदार्यचञ्चुरा- उदारता में कुशल, १४६ औपेन्द्री- उपेन्द्र अर्थात् वामन रूपधारी विष्णु की पत्नी लक्ष्मी स्वरूपा अथवा विष्णु की चरणोदक स्वरूपा, १४७ औग्री- रुद्र की शक्ति, १४८ औमेयरूपिणी- उमा के सदृश रूपवाली। १४९ अम्बराध्ववहा- आकाश मार्ग पर बहने- वाली, १५० अम्बष्ठा- अ अर्थात् विष्णु की शरण लेने वाले वैष्णवों को अम्ब कहते हैं; उनमें स्थित होने वाली। १५१ अम्बरमाला- आकाश में पुष्पहार के समान शोभा पाने वाली १५२ अम्बुजेक्षणा- कमलरूप अथवा कमल-सदृश नेत्रों वाली, १५३ अम्बिका- जगदम्बास्वरूपा, १५४ अम्बुमहायोनिः- जल की उत्पत्ति का मूल कारण, १५५ अन्धोदा- अन्न देने वाली, १५६ अन्धकहारिणी- अन्धकासुर का नाश करने वाले शिव की शक्ति अथवा अज्ञानान्धकार का नाश करने वाली, १५७ अंशुमाला- तेज का समुदाय, १५८ अंशुमती- तेजोमयी, १५९ अङ्गीकृतषडानना- छः मुखों वाले स्कन्द को पुत्र रूप में स्वीकार करने वाली, १६० अन्धतामिस्रहन्त्री- अन्धतामिस्र आदि नरकों का निवारण करने वाली, १६१ अन्धुः- कूपमात्र में स्वयं प्रकट होने वाली, १६२ अञ्जना- आध्यात्मिक दृष्टि को शुद्ध करने के लिये दिव्य अंजनरूपा अथवा हनुमान्जी को जन्म देने वाली अंजना स्वरूपा, १६३ अञ्जनावती- ईशानकोण की रक्षा करने वाली हस्तिनी, अंजनावती से अभिन्न, १६४ कल्याणकारिणी- सबका कल्याण करने वाली, १६५ काम्या- कमनीया, १६६ कमलोत्पलगन्धिनी- कमल और उत्पल की सुगन्ध से सुवासित, १६७ कुमुद्रती- कुमुद पुष्पों से युक्त, १६८ कमलिनी- कमल पुष्पों से अलंकृत, १६९ कान्तिः- दीप्तिमयी, १७० कल्पितदायिनी- मनोवांछित वस्तु देने वाली, १७१ काञ्चनाक्षी- सुवर्ण के समान उद्दीप्त नेत्रों वाली, १७२ कामधेनुः- भक्तों की मनोवांछा पूर्ण करने में कामधेनु के समान अथवा कामधेनु स्वरूपा, १७३ कीर्तिकृत्- अपने सुयश का विस्तार करने वाली, १७४ क्लेशनाशिनी- अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश रूप पाँच क्लेशों का नाश करने वाली, १७५ क्रतुश्रेष्ठा- यज्ञों से श्रेष्ठ- अश्वमेध आदि यज्ञों से अधिक फल देने वाली। १७६ क्रतुफला- जिसमें स्नान करने से यज्ञों का फल प्राप्त होता है, ऐसी, १७७ कर्मबन्धविभेदिनी- शुभाशुभ कर्मजनित बन्धन का नाश करने वाली, १७८ कमलाक्षी- कमल के समान या कमलरूप नेत्रों वाली, १७९ क्लमहरा- सांसारिक क्लेश को हर लेने वाली, १८० कृशानुतपनद्युतिः आधिदैविक स्वरूप में अग्नि और सूर्य के समान कान्ति वाली, १८१ करुणार्द्रा- करुणा रस से भीगी हुई, १८२ कल्याणी- मंगलस्वरूपा, १८३ कलिकल्मषनाशिनी- कलिकाल में होने वाले पापों का नाश करने वाली, १८४ कामरूपा- इच्छानुसार रूप धारण करने वाली, १८५ क्रियाशक्ति:- क्रियाशक्ति, १८६ कमलोत्पलमालिनी- कमल और उत्पलों की माला धारण करने वाली, १८७ कूटस्था- ब्रह्मस्वरूपा, १८८ करुणा- दयामयी, १८९ कान्ता- कान्तिमती, १९० कूर्मयाना- कच्छपरूप वाहन वाली, १९१ कलावती- चौंसठ कलाओं को जानने वाली, १९२ कमला- लक्ष्मीस्वरूपा, १९३ कल्पलतिका- कल्पलता के समान सब कामनाओं को पूर्ण करने वाली, १९४ काली- कालिका स्वरूपा, १९५ कलुषवैरिणी- पापों का नाश करने वाली, १९६ कमनीयजला- कमनीय अर्थात् स्वच्छ जल वाली, १९७ कम्रा- मनोहर स्वरूप वाली, १९८ कपदिसुकपर्दगा- भगवान् शंकर के सुन्दर जटाजूट में वास करने वाली, १९९ कालकूटप्रशमनी- भगवान् शंकर के पीये हुए कालकूट नामक विष की ज्वाला को शान्त करने वाली, २०० कदम्बकुसुमप्रिया- कदम्ब के पुष्पों में रुचि रखने वाली। २०१ कालिन्दी- कलिन्दकन्या यमुना स्वरूपा, २०२ केलिललिता- क्रीडा से मनोहर प्रतीत होने वाली, २०३ कलकल्लोल- मालिका-मनोहर लहरों की श्रेणियों से सुशोभित, २०४ क्रान्तलोकत्रया- स्वर्ग, भूतल और पाताल तीनों लोकों को अपनी धारा से आक्रान्त करने वाली २०५ कण्डूः- अविद्या और उसके कार्य को खण्डित करने वाली, २०६ कण्डूतनयवत्सला- कण्डू शब्द मृकण्डु का वाचक है, उनके पुत्र मार्कण्डेयजी पर वात्सल्य स्नेह रखने वाली, २०७ खड्ंगिनी- देवी-रूप से खड्ग धारण करने वाली, २०८ खड्गधाराभा- तलवार की धार के समान उज्वल कान्ति वाली, २०९ खगा- आकाश में प्रवाहित होने वाली, २१० खण्डेन्दुधारिणी- अर्धचन्द्र धारण करने वाली, २११ खेखेलगामिनी- आकाश में लीला पूर्वक चलने वाली, २१२ खस्था- आकाश अथवा ब्रह्म में स्थित, २१३ खण्डेन्दुतिलकप्रिया- चन्द्रभाल शिव की प्रिया अथवा अर्धचन्द्राकार तिलक से प्रसन्न होने वाली, २१४ खेचरी- आकाश में विचरण करने वाली, २१५ खेचरीवन्द्या- आकाश में विहार करने वाली सिद्धांगनाओं की वन्दनीया, २१६ ख्यातिः- प्रतिष्ठास्वरूपा, २१७ ख्यातिप्रदायिनी- प्रतिष्ठा देने वाली, २१८ खण्डितप्रणताघौघा- शरणागतों की पापराशि का खण्डन करने वाली, २१९ खलबुद्धि विनाशिनी- खलों की बुद्धि अथवा खलतापूर्ण बुद्धि का विनाश करने वाली, २२० खातैनः कन्दसन्दोहा- पापरूपी कन्द समुदाय को उखाड़ फेंकने वाली, २२१ खड्गखट्वाङ्गखेटिनी- खड्ग (तलवार), खट्वांग (खाट के पाये के आकार वाले शस्त्र) और खेट धारण करने वाली, २२२ खरसन्तापशमनी- तीखे ताप को शान्त करने वाली, २२३ पीयूषपाथसां खनिः- अमृत के समान मधुर जल की खान, २२४ गंगा- 'स्वर्गाद्गां गतवतीति गंगा- स्वर्ग से भूतल पर गमन करने के कारण गंगा नाम से प्रसिद्ध, अथवा कलकल गान करने वाली या ब्रह्मद्रवरूपा सच्चिदानन्दमयी देवी, २२५ गन्धवती- पृथ्वीस्वरूपा अथवा उत्तम गन्ध से युक्त। २२६ गौरी- गौर वर्ण वाली अथवा पार्वती स्वरूपा, २२७ गन्धर्वनगरप्रिया- गन्धर्व नगर के निवासियों को प्रिय लगने वाली, २२८ गम्भीराङ्गी- गहराई से युक्त अथवा गहन स्वरूप वाली, २२९ गुणमयी- त्रिगुणात्मिका प्रकृतिरूपा अथवा सर्वज्ञता आदि गुणों से युक्त, २३० गतातंका- भय रहित अथवा अपने पास आने वालों के संसार-भय को निवृत्त करने वाली, २३१ गतिप्रिया- निरन्तर गमन जिसे प्रिय है अथवा जो गति अर्थात् ज्ञान को प्रिय मानती है, ऐसी, २३२ गणनाथाम्बिका- गणेशजी की माता, २३३ गीता- भगवद्गीतास्वरूपा, २३४ गद्यपद्यपरिष्टुता- गद्य-पद्यमय स्तोत्रों से जिसकी स्तुति की जाती है, वह २३५ गान्धारी- पृथ्वी को धारण करने वाली वाराह शक्ति स्वरूपा, अथवा धृतराष्ट्र पत्नी स्वरूपा, २३६ गर्भशमनी- मुक्ति प्रदान करके गर्भवास के कष्ट को दूर करने वाली, २३७ गतिभ्रष्टगतिप्रदा- गतिभ्रष्टों- पतितोंको भी सद्गति प्रदान करने वाली, २३८ गोमती- द्वारका अथवा नैमिषारण्य में स्थित गोमती नदी स्वरूपा, २३९ गुह्यविद्या- ब्रह्मविद्या, २४० गौ:- पृथ्वीस्वरूपा अथवा कामधेनुरूपिणी, २४१ गोप्त्री- सद्गति प्रदान करके सब की रक्षा करने वाली, २४२ गगनगामिनी- आकाशगामिनी, २४३ गोत्रप्रवर्द्धिनी- पर्वतों से निर्झर आदि का जल पाकर बढ़ने वाली अथवा अपने भक्तों का गोत्र (वंश) बढ़ाने वाली २४४ गुण्या- उत्तम गुणों से युक्त, २४५ गुणातीता- तीनों गुणों से परे, २४६ गुणाग्रणी:- सद्गुणों के कारण अग्रगण्य, २४७ गुहाम्बिका- स्कन्दकी माता, २४८ गिरिसुता- हिमवान् कघ पुत्री, २४९ गोविन्दाङ्घ्रिसमुद्भवा- श्रीविष्णु के चरणों से प्रकट हुई, २५० गुणनीयचरित्रा- गुणन, प्रशंसा या गणना करने योग्य उत्तम चरित्र वाली। २५१ गायत्री- अपना गुणगान करने वाले की रक्षा करने वाली अथवा गायत्री देवी स्वरूपा, २५२ गिरिशप्रिया- भगवान् शिव की वर्लभा, २५३ गूढरूपा- छिपे हुए दिव्य स्वरूप वाली २५४ गुणवती- शान्ति आदि उत्तम गुणों से युक्त, २५५ गुर्वी- गौरवमयी, २५६ गौरववर्द्धिनी- महत्त्व बढ़ाने वाली अथवा स्वयं ही गौरव से बढ़ने वाली, २५७ ग्रहपीडाहरा- अनिष्ट स्थानों में स्थित ग्रहों की पीड़ा दूर करने वाली, २५८ गुन्द्रा- 'गु' अर्थात् अविद्याका द्रावण-नाश करने वाली, २५९ गरघ्नी- विष का प्रभाव दूर करने वाली, २६० गानवत्सला- संगीतप्रिया, २६१ घर्महन्त्री- घाम का कष्ट निवारण करने वाली, २६२ घृतवती- घी के समान गुणकारक जल वाली, २६३ घृततुष्टिप्रदायिनी- अपने जल से ही घी के समान सन्तोष देने वाली, २६४ घण्टारवप्रिया- घण्टानाद से प्रसन्न होने वाली, २६५ घोराघौघविध्वंसकारिणी- भयंकर पापराशि का विनाश करने वाली २६६ घ्राणतुष्टिकरी- घ्राणेन्द्रिय को सन्तुष्ट करने वाली, २६७ घोषा- अपने प्रवाह और तरंगों से कल-कल शब्द करने वाली, २६८ घनानन्दा- घनीभूत आनन्द की राशि अथवा आकाश गंगा में स्थित जल से मेघों को आनन्द देने वाली २६९ घनप्रिया- आकाशगंगा रूप से मेघों को प्रिय लगने वाली, २७० घातुका- पाप एवं अज्ञान का नाश करने वाली, २७१ घूर्णितजला- भँवर युक्त जल वाली, २७२ घृष्टपातक सन्तति:- पातक-परम्परा को नष्ट कर देने वाली, २७३ घटकोटिप्रपीतापा- जिसके करोड़ों घड़े जल नित्य पीये जाते हैं, वह, २७४ घटिताशेषमङ्गला- पूर्ण मंगलकारिणी, २७५ घृणावती- दयालु। २७६ घृणनिधिः- दयासागर, २७७ घस्मरा- सब कुछ भक्षण करने वाली, २७८ घूकनादिनी- तट पर उलूक और वक आदि पक्षियों के शब्द से युक्त, २७९ घुसृणापिञ्जरतनुः- कुंकुम, केशर आदि से चर्चित होने के कारण किंचित् पीले अंगों वाली २८० घर्घरा- घाघरा नदी स्वरूपा, २८१ घर्घरस्वना- घर्घर ध्वनि से युक्त, २८२ चन्द्रिका- चन्द्रप्रभा स्वरूपा, २८३ चन्द्रकान्ताम्बुः- चन्द्रमा के समान श्वेत जल वाली अथवा चन्द्रकान्तमणि के समान निर्मल जल वाली, २८४ चञ्चदापा- चंचल जल वाली, २८५ चलद्युतिः- विद्युत्स्वरूपा, २८६ चिन्मयी- ज्ञानस्वरूपा, २८७ चितिरूपा- चैतन्य स्वभावा, २८८ चन्द्रायुत शतानना- दस सहस्त्र चन्द्रमाओं के समान मनोरम मुख वाली, २८९ चाम्पेयलोचना- चम्पा के फूलों के समान सुन्दर नेत्रों वाली, २९० चारु:- मनोहारिणी, २९१ चार्वङ्गी- परम सुन्दर अंगों वाली, २९२ चारुगामिनी- मनोहर चाल से चलने वाली, २९३ चार्या- शरण लेने योग्य, २९४ चारित्र निलया- सदाचार का आश्रय, २९५ चित्रकृत्- अद्भुत कार्य करने वाली, २९६ चित्ररूपिणी- विचित्र रूपवाली, २९७ चम्पू:- गद्य-पद्यमय काव्य स्वरूपा अथवा चम्पापुष्प के समान रंगवाली, २९८ चन्दन शुच्यम्बुः- चन्दन के समान पवित्र एवं सुगन्धित जल वाली, २९९ चर्चनीया- पूजन अथवा कीर्तन करने योग्य, ३०० चिरस्थिरा- चिरन्तन काल तक स्थिर रहने वाली। ३०१ चारुचम्पक- मालाढ्या- मनोहर चम्पा पुष्पों की माला से सुशोभित, ३०२ चमिताशेषदुष्कृता- समस्त पापों को पी जाने वाली, ३०३ चिदाकाशवहा- चिदाकाशरूप ब्रह्म को प्राप्त होने वाली, ३०४ चिन्त्या- चिन्तन करने योग्य, ३०५ चञ्चत्- देदीप्यमान, ३०६ चामर वीजिता- डुलाये जाते हुए चँवर से सेवित, ३०७ चोरिताशेषवृजिना- समस्त पापों को हर लेने वाली ३०८ चरिताशेषमण्डला- ब्रह्मलोक आदि सब मण्डलों (स्थानों) में विचरने वाली, ३०९ छेदिताखिलपापौघा- उच्छेद करने वाली, ३१० छद्मघ्नी- कपट, अज्ञान, समस्त पापराशि का अथवा छद्म नामक विशेष रोग का नाश करने वाली, ३११ छलहारिणी- छल को हर लेने वाली, ३१२ छन्नत्रिविष्टपतला- स्वर्गलोक को व्याप्त करने वाली, ३१३ छोटिताशेषबन्धना- समस्त बन्धनों को दूर करने वाली, ३१४ छुरितामृतधारौघा- अमृतमय जल की धारा बहाने वाली, ३१५ छिन्नैना:- पापों का उच्छेद करने वाली, ३१६ छन्दगामिनी- स्वच्छन्द चलने वाली, ३१७ छत्रीकृतमरालौघा- हंसों के समूह को श्वेतछत्र के समान धारण करने वाली, ३१८ छटीकृत निजामृता-अपने स्वरूपभूत जल को विशेष शोभा के रूप में धारण करने वाली, ३१९ जाहनवी- जहनु की पुत्री, ३२० ज्या- पाप रूपी मृग को भयभीत करने के लिये धनुष की प्रत्यंचा के समान, ३२१ जगन्माता- विश्वजननी, ३२२ जप्या- जप करने योग्य नाम वाली, ३२३ जंघालवीचिका- उत्ताल तरंगोंवाली, ३२४ जया- विजयिनी अथवा पार्वती की सखी जया, ३२५ जनार्दनप्रीता- भगवान् विष्णु से प्रीति करने वाली। ३२६ जुष्णीया- देवता, ऋषि और मनुष्यों के द्वारा सेवन करने योग्य, ३२७ जगद्धिता- जगत् का कल्याण करने वाली। ३२८ जीवनम्- जीवन हेतु, ३२९ जीवनप्राणा- जीवन रूप जल से जगत् को प्राण शक्ति से युक्त करने वाली अथवा जीवन प्राण स्वरूपा, ३३० जगत्- विश्वरूपा अथवा सर्वत्र व्यापक, ३३१ ज्येष्ठा- आद्याशक्ति, ३३२ जगन्मयी- जगत् स्वरूपा, ३३३ जीवजीवातुलतिका- प्राणियों के लिये संजीवन औषध रूपा, ३३४ जन्मिरजन्मनि बर्हिणी- जन्मधारी प्राणियों के जन्म-मरण का क्लेश दूर करने वाली, ३३५ जाड्यविध्वंसनकरी- जड़ता-अज्ञान का विनाश करने वाली, ३३६ जगद्योनिः- जगत् की कारण भूता प्रकृति स्वरूपा, ३३७ जलाविला- वर्षा के जल से कुछ मलिन-सी, ३३८ जगदानन्दजननी- जगत् के लिये आनन्ददायिनी, ३३९ जलजा- कमल का उत्पति-स्थान, ३४० जलजेक्षणा- कमल सदृश अथवा कमल स्वरूप नेत्रों वाली, ३४१ जनलोचनपीयूषा- जीव मात्र के नेत्रों में अमृत के समान सुखद प्रतीत होने वाली, ३४२ जटा तटविहारिणी- भगवान् शंकर के जटा-प्रदेश में विहार करने वाली, ३४३ जयन्ती- विजयशीला, ३४४ जञ्जपूकध्नी- पापों का नाश करने वाली, ३४५ जनितज्ञानविग्रहा- जिसने अपने ज्ञानमय शरीर को प्रकट किया है, वह, ३४६ झल्लरीवाद्यकुशला- अपने जल प्रवाह के द्वारा झल्लरी नामक वाद्य विशेष की ध्वनि प्रकट करने में कुशल अथवा झल्लरी बजाने में निपुण, ३४७ झलज्झालजलावृता- झल-झल ध्वनि करने वाले जलसे आच्छादित, ३४८ झिण्टीश वन्द्या-भगवान् शिव के द्वारा वन्दनीया, ३४९ झांकारकारिणी- झंकार शब्द करने वाली, ३५० झर्झरावती- झर-झर शब्द से युक्त। ३५१ टीकिताशेषपाताला- भोगावती गंगा के रूप में समस्त पाताल लोक में प्रवाहित होने वाली, ३५२ टंकिकैनोऽद्रिपाटने- पाप रूपी पर्वत को विदीर्ण करने में टंक (शस्त्रविशेष) के समान, ३५३ टंकार नृत्यत्कल्लोला- जिसकी चंचल लहरें टंकार शब्द के साथ नृत्य-सी करती हैं, वह, ३५४ टीकनीय महातटा- जिसका विशाल तट प्रान्त सबके सेवन करने योग्य है, वह, ३५५ डम्बरप्रवहा- बड़े वेगसे बहने वाली, ३५६ डीनराजहंसकुलाकुला- उड़ते हुए राजहंसों के समुदाय से व्याप्त, ३५७ डमडुमरुहस्ता- हाथ में डिमडिम शब्द करने वाला डमरू लिये रहने वाली ३५८ डामरोक्तमहाण्डका- डामरकल्प में प्रतिपादित विराट् स्वरूपवाली, ३५९ ढौकिताशेषनिर्वाणा- अपने भक्तों को सालोक्य, सामीप्य, सारूप्य, सार्टि तथा सायुज्य रूप सभी प्रकार के मोक्ष की प्राप्ति कराने वाली, ३६० ढक्कानादचलज्जला- डंके की आवाज के समान ध्वनि-सी करने वाले प्रवाहशील चंचल जल वाली, ३६१ ढुण्ढिविघ्नेशजननी- दुण्ढिराज गणेश की माता, ३६२ ढणड्दुणितपातका- ढन्-ढन् शब्द के साथ पातकों को धक्के देकर ढकेलनेवाली, ३६३ तर्पणी- सबको तृप्त करने वाली अथवा जिसके जल से सभी तर्पण करते हैं, वह, ३६४ तीर्थतीर्था- तीर्थों के लिये भी तीर्थरूपा, ३६५ त्रिपथा- स्वर्ग, भूतल और पाताल- तीन मार्गो से, बहने वाली ३६६ त्रिदशेश्वरी- देवताओं की स्वामिनी, ३६७ त्रिलोकगोप्त्री- तीनों लोकों की रक्षा करने वाली, ३६८ तोयेशी- जल अथवा उसकी अधिष्ठात्री देवियों की भी स्वामिनी, ३६९ त्रैलोक्यपरिवन्दिता- त्रिभुवन विशेष वन्दिता, ३७० तापत्रितयसंहर्त्री- आध्यात्मिक आदि तीनों तापों का संहार करने वाली ३७१ तेजो बलविवर्धिनी- तेज और बल बढ़ाने वाली, ३७२ त्रिलक्ष्या- जिसका स्वरूप तीनों लोकों में लक्षित होता है, वह, ३७३ तारणी- सबको तारने वाली ३७४ तारा- तारने वाली, प्रणवरूपा अथवा नक्षत्ररूपा, ३७५ तारापतिकरार्चिता- चन्द्रमा की किरणों द्वारा पूजित अथवा चन्द्रमा द्वारा अपने हाथों पूजित। ३७६ त्रैलोक्यपावनी पुण्या- तीनों लोकों को पवित्र करने वाली नदियों में सबसे अधिक पुण्यमयी, ३७७ तुष्टिदा- सुख एवं सन्तोष देने वाली, ३७८ तुष्टिरूपिणी- सन्तोष वृत्ति रूपा, ३७९ तृष्णाच्छेत्री- तृष्णा का उच्छेद करने वाली, ३८० तीर्थ- माता- तीर्थोंकी माता, ३८१ त्रिविक्रमपदोद्भवा- भगवान् वामन के चरण पखारने से प्रकट हुई, ३८२ तपोमयी- इन्द्रिय और मन की एकाग्रता रूपा, ३८३ तपोरूपा- कृच्छ्र-चान्द्रायणादि व्रत एवं तपस्या स्वरूपा, ३८४ तप:स्तोमफलप्रदा- तप: समुदाय का फल देने वाली, ३८५ त्रैलोक्य व्यापिनी- तीनों लोकों में व्यापक, ३८६ तृप्ति:- तृप्ति स्वरूपा, ३८७ तृप्तिकृत्- सन्तुष्ट करने वाली, ३८८ तत्त्वरूपिणी- चौबीस तत्त्वरूपा अथवा परमार्थरूपिणी, ३८९ त्रैलोक्यसुन्दरी- तीनों लोकों में सर्वाधिक सौन्दर्य वाली, ३९० तुर्या- जाग्रत् आदि तीन अवस्थाओं से परे, ३९१ तुर्यातीतफलप्रदा- तुरीयातीत ब्रह्मपद को देने वाली, ३९२ त्रैलोक्यलक्ष्मीः- त्रिभुवन की सम्पत्ति, ३९३ त्रिपदी- तीनों लोकों में जिसका स्थान है, वह, ३९४ तथ्या- तीनों कालों से अवाधित, परमार्थरूपा, ३९५ तिमिरचन्द्रिका- अज्ञानरूपी अन्धकार को चाँदनी की भाँति दूर करने वाली, ३९६ तेजोगर्भा- भगवान् शंकर का तेजोमय वीर्य जिसके गर्भ में स्थित था, वह, ३९७ तपःसारा- तपस्या की सारभूता, ३९८ त्रिपुरारिशिरोगृहा- भगवान् शंकर के मस्तकरूपी गृह में निवास करने वाली, ३९९ त्रयीस्वरूपिणी- तीनों वेद जिसके स्वरूप हैं, वह, ४०० तन्वी- प्रपंचका विस्तार करने वाली अथवा सुन्दरी, कृशांगी। ४०१ तपनाङ्गजभीतिनुत्- सूर्य पुत्र यम का भय दूर करने वाली। ४०२ तरिः- संसार-सागर से पार होने के लिये नौका, ४०३ तरणिजामित्रम्- सूर्यपुत्र यम के अधिकार में बाधा डालने के कारण उनके लिये अमित्ररूपा अथवा सूर्यकन्या यमुना की सखी, ४०४ तर्पिताशेषपूर्वजा- राजा भगीरथ के अथवा समस्त जनसमुदाय के सम्पूर्ण पूर्वजों को तृप्त करने वाली, ४०५ तुलाविरहिता- तुलना रहित, ४०६ तीव्रपापतूलतनूनपात्- भयंकर पाप रूपी रूई के ढेर को जलाने के लिये अग्नि के समान, ४०७ दारिद्र्यदमनी- दुर्गति एवं दरिद्रता का दमन करने वाली, ४०८ दक्षा- जगत् का उद्धार करने में कुशल, ४०९ दुष्प्रेक्षा- भक्ति भाव के बिना जिसका दर्शन पाना अत्यन्त कठिन है, वह, ४१० दिव्यमण्डना- अलौकिक आभूषणों से विभूषित, ४११ दीक्षावती- लोकहित एवं जीवों के उद्धार की दीक्षा से युक्त, ४१२ दुरावाप्या- दुर्लभा, ४१३ द्राक्षामधुरवारिभृत्- मुनक्काके समान मधुर जल धारण करने वाली, ४१४ दर्शितानेककुतुका- अपने जल कल्लोलों के द्वारा अनेक प्रकार के कौतुक दिखाने वाली, ४१५ दुष्टदुर्जयदुःखहत्- दोषयुक्त दुर्जय दु:खों को हर लेने वाली, ४१६ दैन्यहत्- दीनता को दूर करने वाली, ४१७ दुरितघ्नी- पापों का नाश करने वाली, ४१८ दानवारिपदाब्जजा- श्रीविष्णु के चरणारविन्दों से प्रकट हुई, ४१९ दन्दशूकविषघ्नी- सर्पो के विष का नाश करने वाली, ४२० दारिताघौघसन्तति:- पापराशि की परम्परा को विदीर्ण करने वाली, ४२१ द्रुता- वेग से बहने वाली, ४२२ देवद्रुमच्छन्ना- सन्तान, कल्पवृक्ष, मन्दार, पारिजात तथा हरिचन्दन-इन पाँच देववृक्षों से आच्छादित, ४२३ दुर्वाराघविघातिनी- जिन्हें दूर करना कठिन है, ऐसे पातकों का भी नाश करने वाली। ४२४ दमग्राह्या- मन और इन्द्रियों के संयम से प्राप्त होने वाली, ४२५ देवमाता- अदिति स्वरूपा, ४२६ देवलोकप्रदर्शिनी- अपने उपासकों को ब्रह्मलोक आदि दिव्यलो कों की प्राप्ति कराने वाली, ४२७ देवदेवप्रिया- देवाधिदेव शिव की प्रिया, ४२८ देवी- द्युतिमती, प्रकाश स्वरूपा, ४२९ दिक्पालपददायिनी- इन्द्र आदि दिक्पालों के पद की प्राप्ति कराने वाली, ४३० दीर्घायुःकारिणी- आयु बड़ी करने वाली, ४३१ दीर्घा- विशाल, अनन्त, ४३२ दोग्धी- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को देने वाली, ४३३ दूषणवर्जिता- दोष रहित, ४३४ दुग्धाम्बु वाहिनी- दूध के समान स्वच्छ, स्वादिष्ट एवं गुणकारी जल बहाने वाली, ४३५ दोह्या- इच्छानुसार दोहन करने योग्य-कामधेनु रूपा, ४३६ दिव्या- अलौकिक स्वरूप वाली, ४३७ दिव्यगतिप्रदा- दिव्य गति प्रदान करने वाली, ४३८ द्युनदी- स्वर्गलोक की गंगा, ४३९ दीनशरणम्- दीनों-महापातकियों को भी शरण देकर उनका उद्धार करने वाली, ४४० देहिदेहनिवारिणी- देहधारियों के देह का निवारण करने वाली (उन्हें मुक्ति देकर जन्म-मृत्यु से रहित करने वाली), ४४१ द्राघीयसी- अतिशय विशाल, ४४२ दाघहन्त्री- दाह की शान्ति करने वाली, ४४३ दितपातकसन्ततिः- पाप परम्परा का खण्डन करने वाली। ४४४ दूरदेशान्तरचरी- दूर देश में विचरने वाली, ४४५ दुर्गमा- दुर्लभा, ४४६ देववल्लभा- देवताओं की इष्टदेवी अथवा देव अर्थात् विष्णु एवं शिव की प्रिया, ४४७ दुर्वृत्तघ्नी- दुष्टों अथवा पापों का नाश करने वाली ४४८ दुर्विगाह्या- जिसमें स्नान करने का अवसर बहुत दुर्लभ है, ऐसी, ४४९ दयाधारा- करुणा की भण्डार, ४५० दयावती- दयालु-स्वभावा। ४५१ दुरासदा- दुर्लभ अथवा दुर्बोध, ४५२ दानशीला- स्वभावत: चारों पुरुषार्थों को देने वाली, ४५३ द्राविणी- बड़े वेग से प्रवाहित होने वाली अथवा पाप-पुंज को भगाने वाली, ४५४ द्रुहिणस्तुता- ब्रह्माजी के द्वारा प्रशंसित, ४५५ दैत्यदानवसंशुद्धिकर्त्री- दैत्यों और दानवों को भी भलीभाँति शुद्ध करने वाली, ४५६ दुर्बुद्धिहारिणी- खोटी बुद्धि का निवारण करने वाली, ४५७ दानसारा- दान जिसका सार तत्त्व है, वह, ४५८ दयासारा- जिसमें स्वभावत: दया भरी है, वह, ४५९ द्यावाभूमिविगाहिनी- आकाश और भूमि में समान रूप से विचरण करने वाली, ४६० दृष्टादृष्टफलप्राप्तिः- लौकिक और पारलौकिक फल की प्राप्ति में हेतु, ४६१ देवतावृन्द वन्दिता- देवसमुदाय के द्वारा नमस्कृत, ४६२ दीर्घव्रता- लोकोपकार का महान् व्रत धारण करने वाली, ४६३ दीर्घदृष्टि:- जिसकी दृष्टि अर्थात् बुद्धि दीर्घ, दूर तक की बात सोच लेने वाली हो, वह अथवा अपरिच्छिन्न ज्ञान स्वरूपा, ४६४ दीप्ततोया- प्रकाशमान जल वाली, ४६५ दुरालभा- दुर्लभा, ४६६ दण्डयित्री- पापों को दण्ड देने वाली ४६७ दण्डनीतिः- दण्डनीति नाम वाली विद्यास्वरूपा, ४६८ दुष्टदण्ड धरार्चिता- दुष्टों को दण्ड देने वाले यमराज के द्वारा पूजित, ४६९ दुरोदरघ्नी- जूआ आदि बुरे आचरणों को नाश करने वाली, ४७० दावारचि:- पापरूपी वन के लिये दावानल की ज्वाला के समान, ४७१ द्रवत्- सर्वव्यापक तत्त्व, ४७२ द्रव्यैकशेवधिः- सम्पूर्ण द्रव्यों की एकमात्र निधि, ४७३ दीनसन्तापशमनी- दीनों-संसारदुःख से दु:खी जीवों के आध्यात्मिक आदि तापों का निवारण करने वाली, ४७४ दात्री- चारों पुरुषार्थों को देने वाली, ४७५ दवथुवैरिणी- संसार-भय से होने वाले सन्ताप को दूर करने वाली। ४७६ दरीविदारणपरा- पर्वतों की गुफाओं को विदीर्ण करने वाली, ४७७ दान्ता- इन्द्रियों को वश में रखने वाली, ४७८ दान्तजनप्रिया- जितेन्द्रिय पुरुष जिसे प्रिय हों, ऐसी, ४७९ दारिताद्रितटा- पर्वतों के पार्श्वभाग को विदीर्ण करके बहने वाली, ४८० दुर्गा- दुर्ग दैत्य का वध करने वाली देवी, ४८१ दुर्गारण्य प्रचारिणी- दुर्गम वन में विचरने वाली। ४८२ धर्मद्रवा- धर्मस्वरूप है द्रव (जल) जिसका, ऐसी, ४८३ धर्मधुरा- धर्म का आधार अथवा उत्कृष्ट धर्म स्वरूपा, ४८४ धेनु:- कामधेनु स्वरूपा, ४८५ धीरा- धैर्यशालिनी अथवा विदुषी, ४८६ धृतिः- धारणाशक्ति, ४८७ ध्रुवा- नित्या, ४८८ धेनुदानफलस्पर्शा- जिसके जल का स्पर्श गोदान का फल देने वाला है, वह, ४८९ धर्म कामार्थ मोक्षदा- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष, इन चारों पुरुषार्थों को देने वाली। ४९० धर्मोर्मिवाहिनी- धर्मरूपी लहरों को धारण करने वाली, ४९१ धुर्या- श्रेष्ठा, ४९२धात्री- धारण-पोषण करने वाली अथवा माता, ४९३ धात्री विभूषणम्- पृथ्वी का अलंकार, ४९४ धर्मिणी- पुण्यवती, ४९५ धर्मशीला- स्वभावत: धर्म का आचरण करने वाली, ४९६ धन्विकोटिकृतावना- कोटि-कोटि धनुर्धर वीरों ने जिसका रक्षण किया है, वह। ४९७ ध्यातृपापहरा- ध्यान करने वाले पुरुष के सब पापों को हर लेने वाली, ४९८ ध्येया- ध्यान करने योग्य, ४९९ धावनी- धोने वाली पवित्र करने वाली, ५०० धूतकल्मषा- पापों को धो डालने वाली।शेष अगले पोस्ट में:- ~~~०~~~ 'ॐ नमः शिवाय'******************************************** "श्रीजी की चरण सेवा" की सभी धार्मिक, आध्यात्मिक एवं धारावाहिक पोस्टों के लिये हमारे पेज से जुड़े रहें तथा अपने सभी भगवत्प्रेमी मित्रों को भी आमंत्रित करें By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब 🌹🙏🙏🌹, दिसंबर 31, 2020 और पढ़ें
नववर्ष की सभी प्रदेशवासियों को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं। By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब नववर्ष में भी जनसेवा ही लक्ष्य और सेवा ही संगठन के माध्यम से भाजपा के सम्पूर्ण कार्यकर्ता सदैव राष्ट्र को उन्नति के पथ पर ले जाने के लिए प्रतिबद्ध रहेंगे।ये नया साल आप सभी के जीवन में सुख, समृद्धि, ऐश्वर्य और सम्पन्नता लाएं ऐसी मेरी मंगलकामनाएं है।#HappyNewYear2021 #HAPPYNEWYEAR #Welcome2021Bharatiya Janata Party (BJP), दिसंबर 31, 2020 और पढ़ें
मेरे राधारमण सरकार By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब🥰♥️चुपके से आकर इस दिल में उतर जाओ,सासो में मेरी खुशबू बन के बिखर जाओ,इस नए साल कुछ ऐसा करो, सोते जागते तुम ही तुम नजर आओ,🍃🌹 जय श्री राधाकृष्ण🌹🍃, दिसंबर 31, 2020 और पढ़ें
"श्रीराम-स्तुति By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब,"जय राम रमारमनं समनं । भवताप भयाकुल पाहिं जनं ।।अवधेस सुरेस रमेस बिभो । सरनागत मागत पाहि प्रभो ।।दससीस बिनासन बीस भुजा । कृत दूरि महा महि भूरि रुजा ।।रजनीचर बृंद पतंग रहे । सर पावक तेज प्रचंड दहे ।।महि मंडल मंडन चारुतरं । धृत सायक चाप निषंग बरं ।।मद मोह महा ममता रजनी । तम पुंज दिवाकर तेज अनी ।।मनजात किरात निपात किए । मृग लोक कुभोग सरेन हिए ।।हति नाथ अनाथनि पाहि हरे । बिषया बन पावँर भूलि परे ।।बहुरोग बियोगन्हि लोग हए । भवदंध्रि निरादर के फल ए ।।भव सिंधु अगाध परे नर ते । पद पंकज प्रेम न जे करते ।।अति दीन मलीन दुखी नितहीं । जिन्ह कें पद पंकज प्रीति नहीं ।।अवलंब भवंत कथा जिन्ह कें । प्रिय संत अनंत सदा तिन्ह कें ।।नहिं राग न लोभ न मान मदा । तिन्ह कें सम बैभव वा बिषदा ।।एहि ते तव सेवक होत मुदा । मुनि त्यागत जोग भरोस सदा ।।करि प्रेम निरंतर नेम लिएँ । पद पंकज सेवत सुद्ध हिएँ ।।सम मानि निरादर आदरही । सब संत सुखी बिचरंति मही ।।मुनि मानस पंकज भृंग भजे । रघुबीर महा रनधीर अजे ।।तव नाम जपामि नमामि हरी । भव रोग महागद मान अरी ।।गुन सील कृपा परमायतनं । प्रनमामि निरंतर श्रीरमनं ।।रघुनंद निकंदय द्वंद्वधनं । महिपाल बिलोकय दीन जनं ।।दोहा :बार बार बर मागउँ हरषि देहु श्रीरंग।पद सरोज अनपायनी भगति सदा सतसंग।। (श्रीरामचरितमानस, उत्तरकाण्ड, दोहा – १४ : गीताप्रेस, Punjab), दिसंबर 31, 2020 और पढ़ें
. संक्षिप्त श्रीस्कन्द-महापुराण पोस्ट - 232 काशी-खण्ड काशीखण्ड-पूर्वार्ध अध्याय - 20इस अध्याय में:- (गंगाजी की महिमा) भगवान् शिव कहते हैं- जो तीनों लोकों में प्रवाहित होने वाली गंगाजी के तट पर जाकर एक बार भी पिण्डदान करता है, वह तिलमिश्रित जल के द्वारा अपने पितरों का भवसागर से उद्धार कर देता है। सम्पूर्ण देवता और पितर गंगाजी में सदा वर्तमान रहते हैं इसलिये वहाँ उनका आवाहन और विसर्जन नहीं होता। पिता के कुल में अथवा माता के कुल में तथा गुरु, श्वशुर और भाई-बन्धुओं के कुल में जो अपने सम्बन्धी मरे हों; अथवा जो अन्य बन्धु-बान्धव मृत्यु को प्राप्त हुए हों; जो दाँत निकलने के पहले अथवा गर्भ में ही पीडित होकर मरे हों; जो अग्नि, बिजली और चोर के द्वारा मरे हों; जो व्याघ्र अथवा अन्य दाढ़ों वाले हिंसक जीवों से मारे गये हों; जो फाँसी लगाकर या ऊपर से नीचे गिरकर मरे हों; जिन्होंने आत्मघात किया हो अथवा जो अपना शरीर बेचने वाले, चोर, यज्ञ के अनधिकारियों से यज्ञ कराने वाले, रस विक्रयी, पाप रोगी, घरों में आग लगाने वाले, जहर देने वाले अथवा गोहत्यारे रहे हों और अपने कुल में ही उनका जन्म हुआ रहा हो; उनको भी यदि एक बार मनुष्य विधि पूर्वक गंगा जल से तर्पण करे तो वे भी स्वर्गलोक में पहुँच जाते हैं और यदि पहले से स्वर्ग में हों तो मोक्ष को प्राप्त होते हैं। तीनों लोकों में जो कोई भी मनोवांछित फल देने वाले हैं, वे सब काशी में उत्तरवाहिनी गंगा का सेवन करते हैं। केवल गंगा भी मुक्ति देने में समर्थ हैं, ऐसा निर्णय हो चुका है। किंतु अविमुक्त क्षेत्र में मेरे निवास स्थान के गौरव से वे विशेषरूप से मुक्तिदायिनी होती हैं पापों से चंचल चित्तवाले तथा संसार रूपी रोग से ग्रस्त रहने वाले मन्दबुद्धि मनुष्यों के लिये गंगाजी ही सर्वश्रेष्ठ हैं। जो गंगाजी के तट पर टूटे-फूटे घाटों का संस्कार करते हैं अथवा वहाँ के गिरे-पड़े देवमन्दिरों का जीर्णोद्धार करते हैं, वे मेरे लोक में चिरकाल तक अक्षय सुख भोगते हैं। मनुष्यों की हड्डी जब तक गंगाजी के जल में स्थित रहती है, उतने हजार वर्षो तक वे स्वर्गलोक में प्रतिष्ठित होते हैं। स्कन्दजी कहते हैं- मुनिवर अगस्त्य ! वस्तु शक्ति का यह विचार अद्भुत एवं अनिर्वचनीय है। गंगाजी द्रव के रूप में भगवान् सदाशिव की कोई परा शक्ति हैं। करुणारूपी अमृतरस से भरे हुए देवाधिदेव भगवान् शंकर ने समस्त संसार का उद्धार करने के लिये ही गंगाजी को प्रवृत्त किया है। मुने ! गंगाधर शिव ने दया वश श्रुतियों के अक्षरों को निचोड़कर उस ब्रह्मद्रव से ही गंगा का निर्माण किया है। जो गंगाजी के तट की मिट्टी को अपने मस्तक पर लगाता है उसका अज्ञानान्धकार नष्ट हो जाता है। गंगा अपने नाम का कीर्तन करने से पुण्य की वृद्धि और पाप का नाश करती है। दर्शन, स्पर्श, जलपान तथा उसमें स्नान करने से क्रमश: दसगुना फल होता है, ऐसा जानना चाहिये। ऋषियों द्वारा सेवित, भगवान् विष्णु के चरणों से उत्पन्न, अति प्राचीन तथा परम पुण्यमयी धारा से युक्त भगवती गंगा की जो लोग मन से शरण लेते हैं वे ब्रह्मधाम को प्राप्त होते हैं। जो माता की भाँति इस संसार के जीवों को पुत्र मानकर सदा उन्हें स्वर्गलोक को पहुँचाती है और सम्पूर्ण उत्तम गुणों से सम्पन्न है, उत्तम ब्रह्मलोक की इच्छा रखने वाले जितेन्द्रिय पुरुषों को सदा ही उस गंगा की उपासना करनी चाहिये। जैसे ब्रह्मलोक सब लोकों में उत्तम है, उसी प्रकार गंगा समस्त सरिताओं और सरोवरों से श्रेष्ठ है। गंगा के जल में स्नान करने वाले पुरुष का समस्त पातक तत्काल नष्ट हो जाता है और उसे उसी क्षण महान् श्रेय की प्राप्ति हो जाती है। गंगा में पुत्र-पौत्र आदि यदि अपने पितरों के लिये श्रद्धा पूर्वक जल देते हैं तो उस जल से वे पितर तीन वर्षो तक पूर्णतया तृप्त रहते हैं। ~~~०~~~ 'ॐ नमः शिवाय'******************************************** "श्रीजी की चरण सेवा" की सभी धार्मिक, आध्यात्मिक एवं धारावाहिक पोस्टों के लिये हमारे पेज से जुड़े रहें तथा अपने सभी भगवत्प्रेमी मित्रों को भी आमंत्रित करें👇 By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब 🌹🙏🙏🌹🇮🇳,, दिसंबर 31, 2020 और पढ़ें
*मान* मिले *सम्मान* मिले, *सुख - संपत्ति* का *वरदान* मिले. *क़दम-क़दम* पर मिले *सफलता*, *सदियों* तक पहचान मिले।_*आपको एवं आपके परिवार के सभी सदस्यों को आने वाले नए साल की हार्दिक शुभकामनाएँ. सुप्रभात By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब 🌹🙏🙏🌹, दिसंबर 31, 2020 और पढ़ें
Punjab में कोहरे के कारण सरसों की फसल को काफी नुकसान पहुंच रहा है। गेहूं की खड़ी फसलें भी मुरझा गई हैं। इससे प्रदेश का अन्नदाता चिंतित है। वह प्रशासन से मदद की आस लगाए बैठा है। ऐसे में राज्य सरकार से मेरा आग्रह है कि फसल को बचाने के उपाय सार्वजनिक रूप से कृषकों को बताएं। साथ ही, फसल को हुई क्षति का आकलन कर उन्हें आर्थिक मदद पहुंचाए। By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब, #punjab #Rajasthan #FarmersFirst दिसंबर 31, 2020 और पढ़ें
🌳🌷🌹🌻🌾🙏 सुप्रभात दोस्तो भाई बहनों रिश्तेदारों।। By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब ,जय श्री कृष्णा जय श्री श्याम श्री राधे राधे जी 🙏🌾🌻🌹🌷🌳कोई श्याम सुंदर से कह दो ये जा के।भुला क्यू दिया.हमें अपना बना के। अभी मैंने तुमको निहारा नही है। तुम्हारे सिवा कोई सहारा नही है। चले क्यों गये श्याम दीवाना बना के। भुला क्यों दिया हमें अपना बना के।अभी मेरी आंखों में आंसूं भरे हैं।जख्म मेरे दिल के अभी भी हरे हैं।चले क्यों गये तुम यूं मुस्कुरा के।भुला क्यों दिया हमें अपना बना के।🌻🌾🙏जय श्री कृष्णा श्री राधे राधे 🙏🌾🌻, दिसंबर 31, 2020 और पढ़ें
ओ मेरे कान्हा... By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब मैं मुसाफ़िर हूंँ तेरी कश्ती की,,,तुम जहांँ कहोगे मैं वहीं उतर जाऊंँगी ...नही चाहिए किसी का साथ ...सिर पर रहें.. बस तेरा हाथ ...मुमकिन या नामुमकिन सब व्यर्थ है,मेरे लिए जब तक तुम हो साथ ...मैं तो पागल हूंँ अपनी क़लम की तरह... अगर लफ़्ज़ों में बह जाऊंँ तों तुम पार लगा देना..जब तुझसे ना सुलझें तेरे उलझे हुए धंधे,भगवान के इन्साफ पे सब छोड़ दे बन्दे!ख़ुद ही तेरी मुश्किल को वो, आसान करेगा जो तू नहीं कर पाया वो भगवान करेगा....कह दो प्रेम से एक बार... Զเधे Զเधे...🙏,, दिसंबर 31, 2020 और पढ़ें
*2 मिनट अपनी संस्कृति की झलक को पढ़े।* By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब,◆1 जनवरी को क्या नया हो रहा है?◆न ऋतू बदली ...न मौसम!◆न कक्षा बदली... न सत्र!◆न फसल बदली...न खेती!◆न पेड़ पोधों की रंगत!◆न सूर्य चाँद सितारों की दिशा!◆ना ही नक्षत्र!!◆1 जनवरी आने से पहले ही सब नववर्ष की बधाई देने लगते हैं।मानो कितना बड़ा पर्व है।◆नया एक दिन का नही होता कुछ दिन तो नई अनुभूति होंनी ही चाहिए। हमारा देश त्योहारों का देश है।ईस्वी संवत का नया साल 1जनवरी को और भारतीय नववर्ष ( विक्रमी संवत)चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को मनाया जाता है।आईये देखते हैं दोनों का तुलनात्मक अंतर।1- *प्रकृति*1जनवरी कोई अंतर नही जैसा दिसम्बर वैसी जनवरी। चैत्र मास में चारो तरफ फूल खिल जाते हैं, पेड़ो पर नए पत्ते आ जाते हैं।चारो तरफ हरियाली मानो प्रकृति नया साल मना रही हो।2- *वस्त्र*दिसम्बर और जनवरी में व्ही उनी वस्त्र।कंबल रजाई ठिठुरते हाथ पैर चैत्र मास में सर्दी जा रही होती है गर्मी का आगमन होने जा रहा होता है ।3- *विद्यालयो का नया सत्र*दिसंबर जनवरी वही कक्षा कुछ नया नही। जबकि मार्च अप्रैल में स्कूलो का रिजल्ट आता है नई कक्षा नया सत्र यानि विद्यालयों में नया साल।4- *नया वित्तीय वर्ष*दिसम्बर जनबरी में कोई खातो की क्लोजिंग नही होती। जबकि 31 मार्च को बैंको की(audit) कलोसिंग होती है नए वही खाते खोले जाते है।सरकार का भी नया सत्र शुरू होता है।5- *कलैण्डर*जनवरी में नया कलैण्डर आता है। चैत्र में नया पंचांग आता है उसी से सभी भारतीय पर्व, विवाह और अन्य महूर्त देखे जाते हैं ।इसके बिना हिन्दू समाज जीबन की कल्पना भी नही कर सकता इतना महत्व पूर्ण है ये कैलेंडर यानि पंचांग।6- *किसानो का नया साल*दिसंबर जनवरी में खेतो में व्ही फसल होती हैजबकि मार्च अप्रैल में फसल कटती है नया अनाज घर में आता है तो किसानो का नया वर्ष का उतसाह ।7- *पर्व मनाने की विधि*31 दिसम्बर की रात नए साल के स्वागत के लिए लोग जमकर मदिरा पान करते है, हंगामा करते है ,रात को पीकर गाड़ी चलने से दुर्घटना की सम्भावना, रेप जैसी बारदात,पुलिस प्रशासन बेहाल,और भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों का विनाश जबकि भारतीय नववर्ष व्रत से शुरू होता है पहला नवरात्र होता है घर घर मे माता रानी की पूजा होती है।शुद्ध सात्विक वातावरण बनता है।8- ऐतिहासिक महत्त्व1 जनवरी का कोई ऐतेहासिक महत्व नही हैजबकि चैत्र प्रतिपदा के दिन महाराज विक्रमादित्य द्वारा विक्रमी संवत् की शुरुआत भगवान झूलेलाल का जन्म।नवरात्रे प्रारंम्भ,ब्रहम्मा जी द्वारा सृष्टि की रचना, इत्यादि का संबंध इस दिन से है।अंग्रेजी कलेंडर की तारीख और अंग्रेज मानसिकता के लोगो के अलावा कुछ नही बदला....अपना नव संवत् ही नया साल है।जब ब्रह्माण्ड से लेकर सूर्य चाँद की दिशा,मौसम,फसल,कक्षा,नक्षत्र,पौधों की नई पत्तिया,किसान की नई फसल,विद्यार्थी की नई कक्षा,मनुष्य में नया रक्त संचरण आदि परिवर्तन होते है। जो विज्ञान आधारित है।*अपनी मानसिकता को बदले।**विज्ञान आधारित भारतीय काल गणना को पहचाने।**स्वयं सोचे की क्यों मनाये हम 1 जनवरी को नया वर्ष केबल कैलेंडर बदलें। अपनी संस्कृति नही।**आओ जगे जगाये**भारतीय संस्कृति अपनाये* ।। जय श्री राधे जी ।।, दिसंबर 31, 2020 और पढ़ें
*🌹शुभ प्रभात 🌹*☕आपका दिन शुभ हो By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब☕ 💐😊सदा मुस्कुराते रहो 😊💐®🙏 *꧁!! Զเधॆ Զเधॆ !!꧂*🙏® *किसी में कोई कमी दिखाई दे,**तो उसे समझाओ,और**हर किसी में कमी दिखाई दे,**तो खुद को समझाओ!!**कहीं मिलेगी जिंदगी में प्रशंसा तो**कहीं नाराजगियों का बहाव मिलेगा* *कहीं मिलेगी सच्चे मन से दुआ तो**कहीं भावनाओं में दुर्भाव मिलेगा* *तू चलाचल राही अपने कर्मपथ पे**जैसा तेरा भाव वैसा प्रभाव मिलेगा!!* *अनुभव कहता है,की* *यदि मेहनत आदत* *बन जाए..* *तो* *क़ामयाबी मुकद्दर बन* *जाती है..**मीठा बोलो, नम के चलो, सबसे करो स्नेह..**कितने दिन का जीवन है, कितने दिन की देह..!!**उम्मीद हमारी वह शक्ति है, जो हमें उस समय भी प्रसन्न बनाये रखती है...**जब हमें मालूम होता है कि हालात बहुत खराब हैं..!!* *◆●स्वयं विचार करें●◆* 🌹꧁ ll जय श्री श्याम जी ll꧂*🌹 दिसंबर 29, 2020 और पढ़ें
☘🍀🌱🌾🎄🌲🌴🌳*जिंदगी हँसाये तो समझना कि* By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब *अच्छे कर्मों का फल मिल रहा है....!!!**जब रुलाये तो समझना कि* *अच्छे कर्म करने का समय आ गया है....!!!**किसी विपत्ति के समय आपको**ये सात गुण बचायेंगे*- *आपका ज्ञान, आपकी विनम्रता,* *आपकी बुद्धि, आपके भीतर का साहस, आपके अच्छे कर्म, सच बोलने की आदत* *और *ईश्वर में विश्वास ..!* 🙏 जय श्री गणेश 🙏, दिसंबर 29, 2020 और पढ़ें
🙏 🙏 🌹श्री शनि चालीसा🌹 By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब🙏 🙏दोहा🚩जय-जय श्री शनिदेव प्रभु, सुनहु विनय महराज।करहुं कृपा हे रवि तनय, राखहु जन की लाज।।चौपाईजयति-जयति शनिदेव दयाला। करत सदा भक्तन प्रतिपाला।।चारि भुजा तन श्याम विराजै। माथे रतन मुकुट छवि छाजै।।परम विशाल मनोहर भाला। टेढ़ी दृष्टि भृकुटि विकराला।।कुण्डल श्रवण चमाचम चमकै। हिये माल मुक्तन मणि दमकै।।कर में गदा त्रिशूल कुठारा। पल विच करैं अरिहिं संहारा।।पिंगल कृष्णो छाया नन्दन। यम कोणस्थ रौद्र दुःख भंजन।।सौरि मन्द शनी दश नामा। भानु पुत्रा पूजहिं सब कामा।।जापर प्रभु प्रसन्न हों जाहीं। रंकहु राउ करें क्षण माहीं।।पर्वतहूं तृण होई निहारत। तृणहंू को पर्वत करि डारत।।राज मिलत बन रामहि दीन्हा। कैकइहूं की मति हरि लीन्हा।।बनहूं में मृग कपट दिखाई। मात जानकी गई चुराई।।लषणहि शक्ति बिकल करि डारा। मचि गयो दल में हाहाकारा।।दियो कीट करि कंचन लंका। बजि बजरंग वीर को डंका।।नृप विक्रम पर जब पगु धारा। चित्रा मयूर निगलि गै हारा।।हार नौलखा लाग्यो चोरी। हाथ पैर डरवायो तोरी।।भारी दशा निकृष्ट दिखाओ। तेलिहुं घर कोल्हू चलवायौ।।विनय राग दीपक महं कीन्हो। तब प्रसन्न प्रभु ह्नै सुख दीन्हों।।हरिशचन्द्रहुं नृप नारि बिकानी। आपहुं भरे डोम घर पानी।।वैसे नल पर दशा सिरानी। भूंजी मीन कूद गई पानी।।श्री शकंरहि गहो जब जाई। पारवती को सती कराई।।तनि बिलोकत ही करि रीसा। नभ उड़ि गयो गौरि सुत सीसा।।पाण्डव पर ह्नै दशा तुम्हारी। बची द्रोपदी होति उघारी।।कौरव की भी गति मति मारी। युद्ध महाभारत करि डारी।।रवि कहं मुख महं धरि तत्काला। लेकर कूदि पर्यो पाताला।।शेष देव लखि विनती लाई। रवि को मुख ते दियो छुड़ाई।।वाहन प्रभु के सात सुजाना। गज दिग्गज गर्दभ मृग स्वाना।।जम्बुक सिंह आदि नख धारी। सो फल ज्योतिष कहत पुकारी।।गज वाहन लक्ष्मी गृह आवैं। हय ते सुख सम्पत्ति उपजावैं।।गर्दभहानि करै बहु काजा। सिंह सिद्धकर राज समाजा।।जम्बुक बुद्धि नष्ट करि डारै। मृग दे कष्ट प्राण संहारै।।जब आवहिं प्रभु स्वान सवारी। चोरी आदि होय डर भारी।।तैसहिं चारि चरण यह नामा। स्वर्ण लोह चांदी अरु ताम्बा।।लोह चरण पर जब प्रभु आवैं। धन सम्पत्ति नष्ट करावैं।।समता ताम्र रजत शुभकारी। स्वर्ण सर्व सुख मंगल भारी।।जो यह शनि चरित्रा नित गावै। कबहुं न दशा निकृष्ट सतावै।।अद्भुत नाथ दिखावैं लीला। करैं शत्राु के नशि बल ढीला।।जो पंडित सुयोग्य बुलवाई। विधिवत शनि ग्रह शान्ति कराई।।पीपल जल शनि-दिवस चढ़ावत। दीप दान दै बहु सुख पावत।।कहत राम सुन्दर प्रभु दासा। शनि सुमिरत सुख होत प्रकाशा।।दोहा प्रतिमा श्री शनिदेव की, लोह धातु बनवाय।प्रेम सहित पूजन करै, सकल कष्ट कटि जाय।।चालीसा नित नेम यह, कहहिं सुनहिं धरि ध्यान।नि ग्रह सुखद ह्नै, पावहिं नर सम्मान।🚩 🙏 🙏🌹जय श्री शनिदेव जी महाराज जी।🌹🙏🙏, दिसंबर 29, 2020 और पढ़ें
ॐ सूर्याय नम:🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏॥ अथ सूर्यकवचम ॥? by समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏श्रणुष्व मुनिशार्दूल सूर्यस्य कवचं शुभम्।शरीरारोग्दं दिव्यं सव सौभाग्य दायकम्॥देदीप्यमान मुकुटं स्फुरन्मकर कुण्डलम।ध्यात्वा सहस्त्रं किरणं स्तोत्र मेततु दीरयेत्॥शिरों में भास्कर: पातु ललाट मेडमित दुति:।नेत्रे दिनमणि: पातु श्रवणे वासरेश्वर:॥ध्राणं धर्मं धृणि: पातु वदनं वेद वाहन:।जिव्हां में मानद: पातु कण्ठं में सुर वन्दित:॥सूर्य रक्षात्मकं स्तोत्रं लिखित्वा भूर्ज पत्रके।दधाति य: करे तस्य वशगा: सर्व सिद्धय:॥सुस्नातो यो जपेत् सम्यग्योधिते स्वस्थ: मानस:।सरोग मुक्तो दीर्घायु सुखं पुष्टिं च विदंति॥🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏, दिसंबर 29, 2020 और पढ़ें
बद्रीनाथ धाम🌹🌹जय लक्ष्मी नारायण🙏🙏 By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब हिंदुओं के चार प्रमुख धामो में से एक श्री बद्रीनाथ मन्दिर की कथा👌बदरीनाथ मंदिर , जिसे बदरीनारायण मंदिर भी कहते हैं, अलकनंदा नदी के किनारे उत्तराखंड राज्य में स्थित है। यह मंदिर भगवान विष्णु के रूप बदरीनाथ को समर्पित है। यह हिन्दुओं के चार धाम में से एक धाम भी है। ऋषिकेश से यह २९४ किलोमीटर की दूरी पर उत्तर दिशा में स्थित है।ये पंच-बदरी में से एक बद्री हैं। उत्तराखंड में पंच बदरी, पंच केदार तथा पंच प्रयाग पौराणिक दृष्टि से तथा हिन्दू धर्म की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं।बदरीनाथ उत्तर दिशा में हिमालय की उपत्यका में अवस्थित हिन्दुओं का मुख्य यात्राधाम माना जाता है। मन्दिर में नर-नारायण विग्रह की पूजा होती है और अखण्ड दीप जलता है, जो कि अचल ज्ञानज्योति का प्रतीक है। यह भारत के चार धामों में प्रमुख तीर्थ-स्थल है।प्रत्येक हिन्दू की यह कामना होती है कि वह बदरीनाथ का दर्शन एक बार अवश्य ही करे। यहाँ पर शीत के कारण अलकनन्दा में स्नान करना अत्यन्त ही कठिन है। अलकनन्दा के तो दर्शन ही किये जाते हैं। यात्री तप्तकुण्ड में स्नान करते हैं। यहाँ वनतुलसी की माला, चने की कच्ची दाल, गिरी का गोला और मिश्री आदि का प्रसाद चढ़ाया जाता है।बदरीनाथ की मूर्ति शालग्रामशिला से बनी हुई, चतुर्भुज ध्यानमुद्रा में है। कहा जाता है कि यह मूर्ति देवताओं ने नारदकुण्ड से निकालकर स्थापित की थी। सिद्ध, ऋषि, मुनि इसके प्रधान अर्चक थे। जब बौद्धों का प्राबल्य हुआ तब उन्होंने इसे बुद्ध की मूर्ति मानकर पूजा आरम्भ की। शंकराचार्य की प्रचार-यात्रा के समय बौद्ध तिब्बत भागते हुए मूर्ति को अलकनन्दा में फेंक गए।शंकराचार्य ने अलकनन्दा से पुन: बाहर निकालकर उसकी स्थापना की। तदनन्तर मूर्ति पुन: स्थानान्तरित हो गयी और तीसरी बार तप्तकुण्ड से निकालकर रामानुजाचार्य ने इसकी स्थापना की।पौराणिकं।पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, जब गंगा नदी धरती पर अवतरित हुई, तो यह 12 धाराओं में बंट गई। इस स्थान पर मौजूद धारा अलकनंदा के नाम से विख्यात हुई और यह स्थान बदरीनाथ, भगवान विष्णु का वास बना। भगवान विष्णु की प्रतिमा वाला वर्तमान मंदिर 3,133 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है और माना जाता है कि आदि शंकराचार्य, आठवीं शताब्दी के दार्शनिक संत ने इसका निर्माण कराया था। इसके पश्चिम में 27 किलोमीटर की दूरी पर स्थित बदरीनाथ शिखर कि ऊँचाई 7,138 मीटर है। बदरीनाथ में एक मंदिर है, जिसमें बदरीनाथ या विष्णु की वेदी है। यह 2,000 वर्ष से भी अधिक समय से एक प्रसिद्ध तीर्थ स्थान रहा है।पौराणिक कथाओं और यहाँ की लोक कथाओं के अनुसार यहाँ नीलकंठ पर्वत के समीप भगवान विष्णु ने बाल रूप में अवतरण किया। यह स्थान पहले शिव भूमि (केदार भूमि) के रूप में व्यवस्थित था। भगवान विष्णुजी अपने ध्यानयोग हेतु स्थान खोज रहे थे और उन्हें अलकनंदा नदी के समीप यह स्थान बहुत भा गया। उन्होंने वर्तमान चरणपादुका स्थल पर (नीलकंठ पर्वत के समीप) ऋषि गंगा और अलकनंदा नदी के संगम के समीप बाल रूप में अवतरण किया और क्रंदन करने लगे। उनका रुदन सुन कर माता पार्वती का हृदय द्रवित हो उठा। फिर माता पार्वती और शिवजी स्वयं उस बालक के समीप उपस्थित हो गए। माता ने पूछा कि बालक तुम्हें क्या चहिये? तो बालक ने ध्यानयोग करने हेतु वह स्थान मांग लिया। इस तरह से रूप बदल कर भगवान विष्णु ने शिव-पार्वती से यह स्थान अपने ध्यानयोग हेतु प्राप्त कर लिया। यही पवित्र स्थान आज बदरीविशाल के नाम से सर्वविदित है।बदरीनाथधाम की कथां !!!!!जब भगवान विष्णु योगध्यान मुद्रा में तपस्या में लीन थे तो बहुत अधिक हिमपात होने लगा। भगवान विष्णु हिम में पूरी तरह डूब चुके थे। उनकी इस दशा को देख कर माता लक्ष्मी का हृदय द्रवित हो उठा और उन्होंने स्वयं भगवान विष्णु के समीप खड़े हो कर एक बेर (बदरी) के वृक्ष का रूप ले लिया और समस्त हिम को अपने ऊपर सहने लगीं। माता लक्ष्मीजी भगवान विष्णु को धूप, वर्षा और हिम से बचाने की कठोर तपस्या में जुट गयीं। कई वर्षों बाद जब भगवान विष्णु ने अपना तप पूर्ण किया तो देखा कि लक्ष्मीजी हिम से ढकी पड़ी हैं। तो उन्होंने माता लक्ष्मी के तप को देख कर कहा कि हे देवी! तुमने भी मेरे ही बराबर तप किया है सो आज से इस धाम पर मुझे तुम्हारे ही साथ पूजा जायेगा और क्योंकि तुमने मेरी रक्षा बदरी वृक्ष के रूप में की है सो आज से मुझे बदरी के नाथ-बदरीनाथ के नाम से जाना जायेगा। इस तरह से भगवान विष्णु का नाम बदरीनाथ पड़ा।जहाँ भगवान बदरीनाथ ने तप किया था, वही पवित्र-स्थल आज तप्त-कुण्ड के नाम से विश्व-विख्यात है और उनके तप के रूप में आज भी उस कुण्ड में हर मौसम में गर्म पानी उपलब्ध रहता है।बदरीनाथ में तथा इसके समीप अन्य दर्शनीय स्थल हैं- अलकनंदा के तट पर स्थित तप्त-कुंडधार्मिक अनुष्टानों के लिए इस्तेमाल होने वाला एक समतल चबूतरा- ब्रह्म कपाल।पौराणिक कथाओं में उल्लिखित सांप (साँपों का जोड़ा) शेषनाग की कथित छाप वाला एक शिलाखंड–शेषनेत्रचरणपादुका :- जिसके बारे में कहा जाता है कि यह भगवान विष्णु के पैरों के निशान हैं; (यहीं भगवान विष्णु ने बालरूप में अवतरण किया था।)माता मूर्ति मंदिर :- जिन्हें बदरीनाथ भगवान जी की माता के रूप में पूजा जाता है।माणा गाँव- इसे भारत का अंतिम गाँव भी कहा जाता है।वेद व्यास गुफा, गणेश गुफा: यहीं वेदों और उपनिषदों का लेखन कार्य हुआ था।भीम पुल :- भीम ने सरस्वती नदी को पार करने हेतु एक भारी चट्टान को नदी के ऊपर रखा था जिसे भीम पुल के नाम से जाना जाता है।वसु धारा :- यहाँ अष्ट-वसुओं ने तपस्या की थी। ये जगह माणा से ८ किलोमीटर दूर है। कहते हैं की जिसके ऊपर इसकी बूंदे पड़ जाती हैं उसके समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं और वो पापी नहीं होता है।लक्ष्मी वन :- यह वन लक्ष्मी माता के वन के नाम से प्रसिद्ध है।सतोपंथ (स्वर्गारोहिणी) :- कहा जाता है कि इसी स्थान से राजा युधिष्ठिर ने सदेह स्वर्ग को प्रस्थान किया था।अलकापुरी :- अलकनंदा नदी का उद्गम स्थान। इसे धन के देवता कुबेर का भी निवास स्थान माना जाता है।सरस्वती नदी :- पूरे भारत में केवल माणा गाँव में ही यह नदी प्रकट रूप में है।भगवान विष्णु के तप से उनकी जंघा से एक अप्सरा उत्पन्न हुई जो उर्वशी नाम से विख्यात हुई। बदरीनाथ कस्बे के समीप ही बामणी गाँव में उनका मंदिर है।एक विचित्र सी बात है,जब भी आप बदरीनाथ जी के दर्शन करें तो उस पर्वत (नारायण पर्वत) की चोटी की और देखेंगे तो पाएंगे की मंदिर के ऊपर पर्वत की चोटी शेषनाग के रूप में अवस्थित है। शेष नाग के प्राकृतिक फन स्पष्ट देखे जा सकते हैं।जय बद्रीनाथ❤️🙏, दिसंबर 29, 2020 और पढ़ें
कन्हैया-कन्हैया, पुकारा करेंगे, By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब, लताओं में ब्रज की गुजारा करेंगे |कहीं तो मिलेंगे, वो बाँके-बिहारी |उन्हीं के चरण चित लगाया करेंगे ||कन्हैया-कन्हैया, पुकारा करेंगे |लताओं में ब्रज की गुजारा करेंगे ||1||बनाकर के हृदय में, हम प्रेम-मन्दिर |वहीं उनको झूला झुलाया करेंगे ||कन्हैया-कन्हैया, पुकारा करेंगे |लताओं में ब्रज की गुजारा करेंगे ||2||उन्हें हम बिसाएंगे, आँखों में दिल में |उन्हीं से सदा लौ लगाया करेंगे ||कन्हैया-कन्हैया, पुकारा करेंगे |लताओं में ब्रज की गुजारा करेंगे ||3||जो रूठेंगे हम से, वो बाँके-बिहारी |चरण पड़ उन्हें हम मनाया करेंगे ||कन्हैया-कन्हैया, पुकारा करेंगे |लताओं में ब्रज की गुजारा करेंगे ||4||उन्हें प्रेम-डोरी से, हम बाँध लेंगे |तो फिर वो कहाँ भाग जाया करेंगे ||कन्हैया-कन्हैया, पुकारा करेंगे |लताओं में ब्रज की गुजारा करेंगे ||5||जिन्होंने छुड़ाए थे, गज के वो बंधन |वही मेरे संकट मिटाया करेंगे ||कन्हैया-कन्हैया, पुकारा करेंगे |लताओं में ब्रज की गुजारा करेंगे ||6||उन्होंने नचाए थे, ब्रह्मांड सारे |मगर अब उन्हें हम नचाया करेंगे ||कन्हैया-कन्हैया, पुकारा करेंगे |लताओं में ब्रज की गुजारा करेंगे ||7||जय बिहारी जी की श्री हरिदास🌹🕉️ जय श्री राधे कृष्णा 🕉️🌹, दिसंबर 29, 2020 और पढ़ें
हे लाली तेरी ऊँची अटारी, जाकि सीढ़ी चढी न जाए।कह दे अपने कान्हा से, बाँह पकड़ ले जाए।।🙏 💞जय श्री राधे 💞🙏 दिसंबर 29, 2020 और पढ़ें
सुनो ना😘मेरे सांवरे शोना.. By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब.😘"नहीं मालूम तू हसरत है🌹🙏 या मोहब्बत है मेरी..!!!😘🙏 😘" सांवरे शोना"😘 बस इतना जानती हूं🙏 मुझ तुम्हारी_जरुरत है...!!!🙏 🙏 🧡 जय श्री राधेकृष्णा🧡🙏गुड मॉर्निंग प्यारे भक्तों जय श्री कृष्णा राधे राधे जी 🌹🙏, दिसंबर 29, 2020 और पढ़ें
🙏🌿🍁-हर हर महादेव🍁🌿🙏 By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब,हमारा शिव है लख दातार ,हमको काहे की चिन्ता 🍁🌿🙏काहे की चिंता रे ,काहे की चिन्ता--बना है साथी सिरजनहार ,हमको काहे की चिंता 🍁🌿🙏मिला है करन करावनहार ,हमको कहे कि चिन्ता --🍁🌿🙏दुआ का हाथ सिर पर है ,तो फिर किस बात का डर है🍁🌿🙏जो होगा बस भला होगा,भरोसा उसके ऊपर हैवही है जीवन का आधार ,हम को काहे की चिंता 🍁🌿🙏काहे की चिंता रे ,हमको काहे की चिन्ताकरें क्यूं व्यर्थ चिन्ता, जब उसे हमारी है चिंता हमारी नाव का रक्षक ,शिव कल्याणकारी हैहै उसके हाथों में पतवार --हमे काहे की 🙏🌿🍁--चिन्ता--🍁🌿🙏, दिसंबर 29, 2020 और पढ़ें
🌹🙏 राधे-राधे🙏🌹 By समाजसेवी वनिता कासनियां जन्म से ठीक पहले एक बालक भगवान से कहता है,” प्रभु आप मुझे नया जन्म मत दीजिये , मुझे पता है पृथ्वी पर बहुत बुरे लोग रहते है…. मैं वहाँ नहीं जाना चाहता …” और ऐसा कह कर वह उदास होकर बैठ जाता है ।भगवान् स्नेह पूर्वक उसके सर पर हाथ फेरते हैं और सृष्टि के नियमानुसार उसे जन्म लेने की महत्ता समझाते हैं , बालक कुछ देर हठ करता है पर भगवान् के बहुत मनाने पर वह नया जन्म लेने को तैयार हो जाता है।” ठीक है प्रभु, अगर आपकी यही इच्छा है कि मैं मृत लोक में जाऊं तो वही सही , पर जाने से पहले आपको मुझे एक वचन देना होगा। ” , बालक भगवान् से कहता है।भगवान् : बोलो पुत्र तुम क्या चाहते हो ?बालक : आप वचन दीजिये कि जब तक मैं पृथ्वी पर हूँ तब तक हर एक क्षण आप भी मेरे साथ होंगे।भगवान् : अवश्य, ऐसा ही होगा।बालक : पर पृथ्वी पर तो आप अदृश्य हो जाते हैं , भला मैं कैसे जानूंगा कि आप मेरे साथ हैं कि नहीं ?भगवान् : जब भी तुम आँखें बंद करोगे तो तुम्हे दो जोड़ी पैरों के चिन्ह दिखाइये देंगे , उन्हें देखकर समझ जाना कि मैं तुम्हारे साथ हूँ।फिर कुछ ही क्षणो में बालक का जन्म हो जाता है।जन्म के बाद वह संसारिक बातों में पड़कर भगवान् से हुए वार्तालाप को भूल जाता है| पर मरते समय उसे इस बात की याद आती है तो वह भगवान के वचन की पुष्टि करना चाहता है।वह आखें बंद कर अपना जीवन याद करने लगता है। वह देखता है कि उसे जन्म के समय से ही दो जोड़ी पैरों के निशान दिख रहे हैं| परंतु जिस समय वह अपने सबसे बुरे वक़्त से गुजर रहा था उस समय केवल एक जोड़ी पैरों के निशान ही दिखाइये दे रहे थे , यह देख वह बहुत दुखी हो जाता है कि भगवान ने अपना वचन नही निभाया और उसे तब अकेला छोड़ दिया जब उनकी सबसे अधिक ज़रुरत थी। मरने के बाद वह भगवान् के समक्ष पहुंचा और रूठते हुए बोला , ” प्रभु ! आपने तो कहा था कि आप हर समय मेरे साथ रहेंगे , पर मुसीबत के समय मुझे दो की जगह एक जोड़ी ही पैर दिखाई दिए, बताइये आपने उस समय मेरा साथ क्यों छोड़ दिया ?”भगवान् मुस्कुराये और बोले , ” पुत्र ! जब तुम घोर विपत्ति से गुजर रहे थे तब मेरा ह्रदय द्रवित हो उठा और मैंने तुम्हे अपनी गोद में उठा लिया , इसलिए उस समय तुम्हे सिर्फ मेरे पैरों के चिन्ह दिखायी पड़ रहे थे। “बहुत बार हमारे जीवन में बुरा वक़्त आता है , कई बार लगता है कि हमारे साथ बहुत बुरा होने वाला है , पर जब बाद में हम पीछे मुड़ कर देखते हैं तो पाते हैं कि हमने जितना सोचा था उतना बुरा नहीं हुआ क्योंकि शायद यही वो समय होता है जब ईश्वर हम पर सबसे ज्यादा कृपा करता है। अनजाने में हम सोचते हैं को वो हमारा साथ नहीं दे रहा पर हकीकत में वो हमें अपनी गोद में उठाये होता है। 🌹🙏🚩🚩जय श्री कृष्णा 🚩🚩 🙏🌹, दिसंबर 29, 2020 और पढ़ें
*🍂🍂🌷राधे राधे जी 🌷🍂🍂💥💥💥💥💥💥💥💥💥💥💥💥 By समाजसेवी वनिता कासनियां ,कृषक की समस्या ख़त्म ना होती,पोलिटिसन वालों के पास पैकेज अस्सी है,थका हारा किसान समस्या हल करने को ,चुनता रस्सी हैं.— जमीन जल चुकी है आसमान बाकी है,सूखे कुएँ तुम्हारा इम्तहान बाकी है,वो जो खेतों की मेढ़ों पर उदास बैठे हैं,उनकी आखों में अब तक ईमान बाकी है,बादलों बरस जाना समय पर इस बार,किसी का मकान गिरवी तो किसी का लगान बाकी है—कौन अब कहा किसान सेबात करते है,यू ही रोज हसीन सपनों कीबात करते है !!गांव से शहर घूमने आये एक किसान ने क्या खूब लिखा है,चिन्ता वहाँ भी थी चिन्ता यहाँ भी हैं, गांव में तो केवल #फसले ही खराब होती थी, शहर में तो पूरी #नस्ले ही खराब है !!मेहनत की मिशाल हैजिन पर ऋणों के निशाँ हैहल चलाने में स्वयं को मिटा दियावो ओर कोई नही मेरे देश का किसान है !!क्यों न लटकाया वन काटने वाले शैतान कोबिना सोचे तूने सीधी सजा दी मेरे किसान को !!छोटे छोटे हाथों में छाले हो जाते हैं…!किसान के बच्चे इसलिए दिलवाले हो जाते हैं..!!यही बॉर्डर पर सेना में कुर्बान हो जाते हैं..!किसान के बच्चे वक़्त से पहले जवान हो जाते हैं..!!एक बार आकर देख केसा,ह्रद्य विदारक मजर हैं,पसलियों से लग गयी हैं आंते,खेत अभी भी बंजर हैं।🌹♦️🌹♦️🌹♦️🌹♦️🌹♦️🌹♦️🌹♦️🌹♦️🌹♦️🌹♦️🌹♦️🌹♦️*, दिसंबर 29, 2020 और पढ़ें
📢*ग्रुप पर पोस्ट करने से पहले ग्रुप के नियम जरूर पढ़े जी By समाजसेवी वनिता कासनियां👆कृष्ण भक्ति Bal Vnita mahila ashram ग्रुप पर आप सभीभक्तों का बहुत-बहुत स्वागत जी🙏🙏👆ग्रुप पर आप सभी मेंबर अपने मित्रों को जरूर जोड़े 👆ग्रुप पर सभी की पोस्ट पर लाइक कमेंट जरुर करें जी👆ग्रुप पर धार्मिक कथा कहानी भी पोस्ट करें👆ग्रुप पर धार्मिक वीडियो पोस्ट करे👆ग्रुप पर गलत पोस्ट गलत कमेंट करने पर आपको ग्रुप में ब्लॉक किया जाएगा जी👆ग्रुप पर आप सभी महिला मित्रों कासम्मान करें जी👆स्टीकर कमेंट बिना क्रॉप की हुई पोस्ट दूसरेग्रुप की पोस्ट डायरेक्ट शेयर बिल्कुल भी 👆ना करें जी आप सभी से रिक्वेस्ट है हमारी👆धन्यवाद जी🙏🙏, दिसंबर 29, 2020 और पढ़ें
🙏🏻🔱🌿🔱‼️हर हर महादेव ‼️🔱🌿🔱🙏🏻 By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब जीव मृत्यु से नही डरता, अपितु वह लोभ, मोह, मेरा, तेरा छूटने के भय से डरता है।जीव भयभीत रहता है कि उसे यह सब छोड़ना पड़ेगा।तभी उसकी मुक्ति होगी।बन्धन ही भय का कारण है।जबकि सबको पता है कि मृत्यु तो एक दिन आनी ही है।किंतु उसे वह सब जो जीवन मे जोड़ा है उसके जाने का भय है।एक सुन्दर कथा।एक पुरानी तिब्बती कथा है कि दो उल्लू एक वृक्ष पर आ कर बैठे। एक ने सांप अपने मुंह में पकड़ रखा था। और दूसरे ने चूहा अपने मुहँ में पकड़ रखा था।यह उनका भोजन था दोनों जैसे ही वृक्ष पर पास—पास आ कर बैठे—एक के मुंह में सांप, एक के मुंह में चूहा। सांप ने चूहे को देखा तो वह यह भूल ही गया कि वह उल्लू के मुंह में है और मौत के करीब है। चूहे को देख कर उसके मुंह में रसधार बहने लगी। वह भूल ही गया कि मौत के मुंह में है। उसको अपनी जीवेषणा ने पकड़ लिया। इसी प्रकार चूहे ने जैसे ही सांप को देखा वह भयभीत हो गया, वह कांपने लगा। वैसे तो वह मौत के मुंह में बैठा है, मगर सांप को देख कर कांपने लगा। वे दोनों उल्लू बड़े हैरान हुए। एक उल्लू ने दूसरे उल्लू से पूछा कि भाई, इसका कुछ राज समझे? दूसरे ने कहा, बिलकुल समझ में आया। जीभ की, रस की, स्वाद की इच्छा इतनी प्रबल है कि सामने मृत्यु खड़ी हो तो भी दिखाई नहीं पड़ती। और यह भी समझ में आया कि भय मौत से भी बड़ा भय है। मौत सामने खड़ी है, उससे यह चूहा भयभीत नहीं है ; लेकिन भय से भयभीत है कि कहीं सांप हमला न कर दे।’ ठीक इसी प्रकार हम भी मौत से भयभीत नहीं हैं, हम भय से ज्यादा भयभीत हैं। और लोभ स्वाद का, इंद्रियों का, जीवेषणा का इतना प्रगाढ़ है कि मौत चौबीस घंटे खड़ी है,तो भी हमें दिखाई नहीं पड़ती। हम अंधे हैं। -हम भी रस के, स्वाद के, लोभ के, मोह बन्धन के, छूटने के भय से ही भयभीत है।हम भूल जाते हैं कि सभी मे परमात्मा का वास है और जीवन मृत्यु निश्चित हैं।यही सृष्टि का चक्र है। हमे जीवन को एक उत्सव की तरह जीना चाहिए।सदैव मुस्कराते रहो, स्वयं भी खुश रहो और दूसरों को भी खुशियां बांटो।यही जीवन का मूल मंत्र बनाये।🌻**********************************🌻🙏🏻🙏🏻जय मॉ अन्नपूर्णा 🙏🏻🙏🏻, दिसंबर 29, 2020 और पढ़ें
🌳🌳🌳🌳🌳ॐ गं गणपतए नमः 🌳🌳🌳🌳🏵️🏵️🏵️🏵️सुमंगल सुमधुर सुप्रभात 🏵️🏵️🏵️🏵️ By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब ,पाप_का_प्रलोभनजय श्री गणेशाय नमः• एक ब्राह्मण देवता दरिद्रता के कारण बहुत दुःखी होकर राजा के यहाँ धन याचना करने के लिए चल दिये। कई दिन की यात्रा पार करके वे राजधानी पहुँचे और राजमहल में प्रवेश करने की चेष्टा करने लगे।• उस नगर का राजा बहुत चतुर था। वह दृढ़ निश्चयी और सच्चे ब्राह्मणों को ही दान दिया करता था। सुपात्र कुपात्र की परीक्षा के लिए राजमहल के चारों दरवाजों पर उसने समुचित व्यवस्था कर रखी थी।• ब्राह्मण देवता ने महल के पहले दरवाजे में प्रवेश किया ही था कि एक वेश्या निकल कर सामने आई। उसने राज महल में प्रवेश करने का कारण ब्राह्मण से पूछा। देवता जी ने उत्तर दिया, धन याचना के लिए राजा के पास जाना चाहते हैं। वेश्या ने कहा इस दरवाजे से आप तब अन्दर जा सकते हैं जब मुझसे रमण कर लें। अन्यथा दूसरे दरवाजे से जाइए। ब्राह्मण को वेश्या की शर्त स्वीकार न हुई, अधर्माचरण करने की अपेक्षा दूसरे द्वार से जाना उन्हें पसंद आया। यहाँ से वे लौट आये और दूसरे दरवाजे पर जाकर प्रवेश करने लगें।• दो ही कदम भीतर पड़े होंगे कि एक प्रहरी सामने आया। उसने कहा इस दरवाजे से घुसने वालो को पहले माँसाहार करना पड़ता हैं चलिए माँस भोजन तैयार है उसे खाकर आप प्रसन्नतापूर्वक भीतर जा सकते हैं। ब्राह्मण ने माँसाहार करना उचित न समझा, और वहाँ से लौट कर तीसरे दरवाजे में होकर जाने का निश्चय किया।• तीसरे दरवाजे में जैसे ही वह ब्राह्मण घुसने लगा वैसे ही मद्य की बोतल और प्याली लेकर पहरेदार सामने आया और कहा लीजिए मद्य पीजिए, और भीतर जाइए, इस दरवाजे से आने वालों को मद्यपान करना ही पड़ता है। ब्राह्मण ने मद्यपान नहीं किया और उलटे पाँव चौथे दरवाजे की ओर चल दिया।• चौथे दरवाजे पर पहुँच कर ब्राह्मण ने देखा कि वहाँ जुआ हो रहा है। जो लोग जुआ खेलते हैं वे ही भीतर घुस पाते हैं। जुआ खेलना भी धर्म विरुद्ध है। ब्राह्मण बड़े सोच विचार में पड़ा, अब किस तरह भीतर प्रवेश हो, चारों दरवाजों पर धर्म विरोधी शर्तें हैं। पैसे की मुझे बहुत जरूरत है। एक ओर धर्म दूसरी ओर धन दोनों का घमासान युद्ध उसके मस्तिष्क में होने लगा।• ब्राह्मण जरा सा फिसला, उसने सोचा जुआ छोटा पाप है, इसको थोड़ा सा कर लें तो तनिक सा पाप होगा। मेरे पास मार्ग व्यय से बचा हुआ एक रुपया है, क्यों न इस रुपये से जुआ खेल लूँ और भीतर प्रवेश पाने का अधिकारी हो जाऊँ।• विचारों को विश्वास रूप में बदलते देर न लगी। ब्राह्मण जुआ खेलने लगा। एक रुपये के दो हुए, दो के चार, चार के आठ, जीत पर जीत होने लगी। ब्राह्मण राजा के पास जाना भूल गया और दत्त चित्त होकर जुआ खेलने लगा। जीत पर जीत होने लगी। शाम तक हजारों रुपयों का ढेर जमा हो गया। जुआ बन्द हुआ। ब्राह्मण ने रुपयों की गठरी बाँध ली।• दिन भर से खाया कुछ न था। भूख जोर से लग रही थी। पास में कोई भोजन की दुकान न थी। ब्राह्मण ने सोचा रात का समय है कौन देखता है चलकर दूसरे दरवाजे पर माँस भोजन मिलता है वही क्यों न खा लिया जाए। स्वादिष्ट भोजन मिलता है और पैसा भी खर्च नहीं होता, दुहरा लाभ है। जरा सा पाप करने में कुछ हर्ज नहीं। ब्राह्मण के पैर तेजी से उधर बढ़ने लगे। भोजन तैयार था, माँस मिश्रित स्वादिष्ट भोजन को खाकर देवता जी संतुष्ट हो गये।• अस्वाभाविक भोजन को पचाने के लिये अस्वाभाविक पाचक पदार्थों की जरूरत पड़ती है। गरिष्ठ, तामसी, विकृत भोजन करने वाले अकसर पान, बीड़ी, चूरन, चटनी की शरण लिया करते हैं। देवता जी के पेट में जाकर माँस अपना करतब दिखाने लगा। अब उन्हें मद्यपान की आवश्यकता प्रतीत हुई। आगे के दरवाजे की ओर चले और मद्य की कई प्यालियाँ चढ़ाई।• धन का, माँस का, मद्य का, तिहरा नशा उन पर चढ़ रहा था। काँचन के बाद कुच का, सुरा के बाद सुन्दरी का, ध्यान आना स्वाभाविक है। देवता जी पहले दरवाजे पर पहुँचे और वेश्या के यहाँ जा विराजे। वेश्या ने उन्हें संतुष्ट किया और पुरस्कार स्वरूप जुए में जीता हुआ सारा धन ले लिया।• एक पूरा दिन चारों द्वारों पर व्यतीत करके दूसरे दिन प्रातःकाल ब्राह्मण महोदय उठे। वेश्या ने उन्हें घृणा के साथ देखा और शीघ्र घर से निकाल देने के लिए अपने नौकरों को आदेश दिया। उन्हें घसीटकर घर से बाहर कर दिया गया। राजा को सारी सूचना पहुँच चुकी थी। आज वे फिर चारों दरवाजों पर गये और शर्तें पूरी करने के लिए कहने लगे पर किसी ने उन्हें भीतर न घुसने दिया। सब जगह से उन्हें दुत्कार दिया गया। ब्राह्मण दोनों ओर से भ्रष्ट होकर सिर धुन धुन कर पछताने लगे।• हम लोग उपरोक्त ब्राह्मण के पतन की निन्दा करेंगे क्योंकि वह “जरा सा” पाप करने में विशेष हानि न समझने की भूल कर बैठा था। हमें विचार करना चाहिए कि कही ऐसी ही गलतियाँ हम भी तो नहीं कर रहे है। किसी पाप को छोटा समझकर उसमें एक बार फँस जाने से फिर छुटकारा पाना कठिन होता है। एक कदम नीचे की ओर गिरने से फिर पतन का प्रवाह तीव्र होता जाता है और अन्त में बड़े से बड़े पापों के करने में भी हिचक नहीं होती। इसलिए आरम्भ से ही सावधानी रखनी चाहिए। छोटे पापों से भी वैसे ही बचना चाहिए जैसे अग्नि की छोटी चिंगारी से सावधान रहते है।* "सम्राटों के सम्राट परमात्मा के दरबार में पहुँचकर अनन्त रूपी धन की याचना करने के लिए जीव रूपी ब्राह्मण जाता है। प्रवेश द्वार काम, क्रोध लोभ, मोह के चार पहरेदार बैठे हुए हैं। वे जीव को तरह-तरह से बहकाते हैं और अपनी ओर आकर्षित करते हैं। यदि जीव उनमें फँस गया तो पूर्व पुण्यों रूपी गाँठ की कमाई भी उसी तरह दे बैठता है जैसे कि ब्राह्मण अपने घर का एक रुपया भी दे बैठा था। जीवन इन्हीं पाप जंजालों में व्यतीत हो जाता है और अन्त में वेश्या रूपी ममता के द्वार से दुत्कारा जाकर रोता पीटता इस संसार से विदा होता है।*• देखना कही आप भी उस ब्राह्मण की नकल तो नहीं कर रहे हैं।#गणपति_बप्पा_मोरया #मंगलमूर्ति_मोरया🏵️🏵️🏵️🏵️🏵️🏵️🏵️🏵️🏵️🏵️🏵️🏵️🏵️🏵️🏵️🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳🌳, दिसंबर 29, 2020 और 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कन्हैया-कन्हैया, पुकारा करेंगे, By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब लताओं में ब्रज की गुजारा करेंगे |कहीं तो मिलेंगे, वो बाँके-बिहारी |उन्हीं के चरण चित लगाया करेंगे ||कन्हैया-कन्हैया, पुकारा करेंगे |लताओं में ब्रज की गुजारा करेंगे ||1||बनाकर के हृदय में, हम प्रेम-मन्दिर |वहीं उनको झूला झुलाया करेंगे ||कन्हैया-कन्हैया, पुकारा करेंगे |लताओं में ब्रज की गुजारा करेंगे ||2||उन्हें हम बिसाएंगे, आँखों में दिल में |उन्हीं से सदा लौ लगाया करेंगे ||कन्हैया-कन्हैया, पुकारा करेंगे |लताओं में ब्रज की गुजारा करेंगे ||3||जो रूठेंगे हम से, वो बाँके-बिहारी |चरण पड़ उन्हें हम मनाया करेंगे ||कन्हैया-कन्हैया, पुकारा करेंगे |लताओं में ब्रज की गुजारा करेंगे ||4||उन्हें प्रेम-डोरी से, हम बाँध लेंगे |तो फिर वो कहाँ भाग जाया करेंगे ||कन्हैया-कन्हैया, पुकारा करेंगे |लताओं में ब्रज की गुजारा करेंगे ||5||जिन्होंने छुड़ाए थे, गज के वो बंधन |वही मेरे संकट मिटाया करेंगे ||कन्हैया-कन्हैया, पुकारा करेंगे |लताओं में ब्रज की गुजारा करेंगे ||6||उन्होंने नचाए थे, ब्रह्मांड सारे |मगर अब उन्हें हम नचाया करेंगे ||कन्हैया-कन्हैया, पुकारा करेंगे |लताओं में ब्रज की गुजारा करेंगे ||7||जय बिहारी जी की श्री हरिदास🌹🕉️ जय श्री राधे कृष्णा 🕉️🌹, दिसंबर 29, 2020 और पढ़ें
जय सियाराम By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब 🙏🙏 हनुमान जी से कहा -- आप बोलो। हनुमान जी क्या बोले? कह हनुमंत सुनहु प्रभु ससि तुम्हार प्रिय दास।तव मूरति विधु उर बसति सोई स्यामता भास।। हनुमान जी बोले -- प्रभु! यह चन्द्रमा आपका भक्त है और आप इसके हृदय में प्रकट हो गए हैं, आपकी ही नीलिमा है यह, आपकी ही आभा है यह। यह जो चन्द्रमा में दिखाई दे रही है, यह आप ही हैं प्रभु, इसके अलावा कोई और नहीं है। यह हनुमान जी को चन्द्रमा में राम जी क्यों दिखाई दिए? इसलिए दिखाई दिए क्योंकि हनुमान जी के खुद के हृदय में --जासु हृदय आगार बसहिं राम सर चाप धर। हनुमान जी के हृदय में राम जी हैं और प्रकट हैं। ऐसे तो सबके हृदय में हैं, पर जिसके हृदय में प्रकट हो गए हों। और यही कारण है कि हनुमान जी को भी राम जी जब पहली-पहली बार मिले तो फिर वही होने और बनने की बात आ गई।विप्र रूप धरि कपि तहं गयऊ।माथ नाइ पूछत अस भयऊ।। अब हनुमानजी ब्राह्मण बन कर गए। राम जी ने जो देखा, मन ही मन बड़े खुश हुए। वाह, हनुमान जी! विप्र रूप धारण करके आए हो। ब्राह्मण देवता! जय हो, जय हो, जय हो। लेकिन हनुमान जी देखकर राम जी मन ही मन बड़े खुश हुए, ऐसा वेश बनाया, बिल्कुल असली ब्राह्मण लग रहे हैं। पर जैसे ही हनुमान जी आए और राम जी को देखा -- कौन हैं, क्षत्रिय रूप में विचरण कर रहे हैं। राम जी मन ही मन खूब हंसे। बोले -- वाह हनुमान जी! एक बात है। •••क्या? बोले -- भेष तो बड़ा सुन्दर बनाया, लेकिन जैसे बने थे वैसा व्यवहार नहीं किया। बनना बिगड़ गया। होने को जानते रहें, ठीक है लेकिन बनने को बिगड़ने तो न दें। तो हनुमान जी ने मन ही मन कहा -- क्या बिगड़ गया प्रभु?•••• जब ब्राह्मण बने थे तो ब्राह्मण जैसा ही व्यवहार करना चाहिए, यही तो स्वाभिमान है। ••• हाँ, तो ठीक है लेकिन गड़बड़ी क्या हो गई? बोले -- गड़बड़ी यह हो गई कि बने थे ब्राह्मण और एक ओर कह रहे हो कि क्षत्री रूप में आप कौन हैं? और मेरे सामने सिर झुका रहे हो। माथ नाइ पूछत अस भयऊ। तो बोले -- लगता है कि आप असली ब्राह्मण नहीं हो, बने हुए हो। ••• क्यों? बोले -- वह ब्राह्मण कैसा जिसका क्षत्रिय के आगे सिर झुक जाय। राम जी भी बड़ा विनोद करते हैं। तो हनुमान जी ने भी मन ही मन कहा कि प्रभु! जैसे हम बने हैं वैसे आप भी बने हो। आप भी असली क्षत्रिय नहीं हो। ••• तो हनुमान! तुमने कैसे जाना कि हम असली क्षत्रिय नहीं हैं? हनुमान जी ने कहा -- आपने कैसे जाना कि हम असली ब्राह्मण नहीं हैं? भगवान बोले -- वह ब्राह्मण कैसा, जिसका क्षत्रिय के आगे सिर झुक जाय। हनुमान बोले -- वह क्षत्रिय कैसा कि ब्राह्मण को देखकर जिसका सिर न झुके। आपका भी तो नहीं झुका। आपका झुकता तो हम समझ लेते कि क्षत्रिय हैं। मुझे तभी तो लगा कि अरे ये बने हुए हैं। इनका बनना और है और इनका होना और है। तो मैंने जैसे ही देखा तो मुझे लगा कि इन्हें कहाँ देखा है? क्योंकि यह तो लग रहा था कि देखा जरूर है, पर कहाँ देखा यह याद नहीं आ रहा था। तो मैंने सिर झुका लिया। भगवान बोले -- प्रणाम करने के लिए? हनुमान जी बोले -- हाँ, प्रणाम तो ठीक, लेकिन प्रणाम के अलावा एक काम और करने के लिए। •••क्या? बोले -- जैसे ही आपको देखा तो लगा कि इन्हें कहीं देखा है। तो मैं सोचने लगा कि कहाँ देखा है? याद आया। ••• क्या याद आया? बोले -- याद यह आया कि बाहर नहीं, हृदय में ही देखा है।दूर न हेरि हिए ही है।छलहिं छांड़ छोह किए ही है।। तो मैंने सोचा कि ये वही हैं जो हृदय में हैं। तो मैंने सिर झुका लिया। बोले -- क्या कर रहे थे? बोले -- प्रणाम के बहाने सिर झुका कर हृदय में बैठे हुए राम जी को देखते थे और फिर सिर उठाकर सामने खड़े हुए राम जी को देखते थे और बीच-बीच में बात भी करते जाते थे। फिर सिर सामने करते तो आपको देखते, सिर झुकाते तो हृदय में बैठे राम जी को देखते, फिर सिर सामने करके आपको देखते, फिर सिर झुका कर हृदय में बैठे राम जी को देखते, अरे प्रणाम का बहाना, प्रणाम नहीं कर रहे थे। बोले -- फिर क्या कर रहे थे? बोले -- फोटो मिला रहे थे कि जो भीतर है वही बाहर है और जो बाहर है वही भीतर है और जब यह जान लिया, तो --प्रभु पहिचानि परेउ गहि चरना। प्रभु! मैं तो हूँ ही नहीं, आप ही आप हैं। आप ही भीतर हैं और आप ही बाहर हैं। ••••तो एक ही हैं कि अलग-अलग हैं? अरे भाई! एक ही हैं, यह अलग-अलग क्यों दिख रहे हैं?, दिसंबर 29, 2020 और पढ़ें
🌳🌴🌿🍁🏵🌷 सुप्रभात दोस्तों भाई बहनों रिश्तेदारों।। जय श्री कृष्णा जय श्री श्याम श्री राधे राधे जी 🌷🏵🍁🌿🌴🌳हे सांवरिया!कभी तुम्हारी याद आती है कभी तुम्हारे ख्वाब आते है मुझे सताने के सलीके तुम्हे बेहिसाब आते है। 🌳🌷🌹🌻🌾 by समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब🙏जय श्री कृष्णा जय श्री श्याम श्री राधे राधे जी 🙏🌾🌻🌹🌷🌳, दिसंबर 29, 2020 और पढ़ें
🌳🌴🌿🍁🏵🌷 सुप्रभात दोस्तों भाई बहनों रिश्तेदारों।। जय श्री कृष्णा जय श्री श्याम श्री राधे राधे जी 🌷🏵🍁🌿🌴🌳👣हे मेरे कान्हा खाक मुझमें कोई कमाल रखा है,मेरे श्याम मुझे तो तूने संभाल रखा है. मेरे ऐबों पर डाल के पर्दा, मुझे अच्छों में डाल रखा है, मेरा नाता श्याम प्रेमियो से जोड़ के,तूने मेरी हर मुसीबत को टाल रखा है मैं तो कब का मिट गया होता.. "हे श्याम बस तुम्हारे आशीर्वाद ने मुझे संभाल रखा है". 🌳 By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब🌾🙏*जय श्री कृष्णा* 🙏🌾🌳, दिसंबर 29, 2020 और पढ़ें
🌳🌴🌿🍁🏵🌷 सुप्रभात दोस्तों भाई बहनों रिश्तेदारों।।जय श्री कृष्णा जय श्री श्याम श्री राधे राधे जी 🌷🏵🍁 By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब🌿🌴🌳*हे कान्हा*,*आदि तुम्ही* *अनादि तुम्ही**तुम्ही अनंत का सार हो**रग रग मे बहता लहू हो तुम**जीवन की रसधार हो**साज तुम्ही श्रृंगार तुम्ही* *तुम ही जीवन का आधार हो* *ह्रदय तुम्ही धडकन तुम्ही* *तुम ही मेरा सच्चा प्यार हो ।।* 🌹🌿🌹🌿🌹🌿*प्यारी-सी सुबह का प्यारा-सा प्रणाम* *🙏🏻😊स्नेहवन्दन😊🙏🏻* *🙏जय श्री कृष्णा🙏* *🌹राधे राधे🌹*, दिसंबर 29, 2020 और पढ़ें
*🌿🥀🌿🥀🌿🥀🙏👌👌बुद्ध का एक शिष्य था। वह नया-नया दीक्षित हुआ था, उसने संन्यास लिया था। और बुद्ध को उसने कहा, मैं आज कहां भिक्षा मांगने जाऊं?उन्होंने कहा, मेरी एक श्राविका है, वहां चले जाना।वह वहां गया। वह जब भोजन करने को बैठा, तो बहुत हैरान हुआ, रास्ते में इसी भोजन का उसे खयाल आया था। यह भोजन उसे प्रिय था। पर उसने सोचा था कि कौन मुझे देगा? आज कौन मुझे मेरे प्रिय भोजन को देगा? वह कल तक राजकुमार था और जो उसे पसंद था, वह खाता था। लेकिन उस श्राविका के घर वही भोजन देख कर वह बहुत हैरान हो गया। सोचा, संयोग की बात है, वही आज बना होगा। जब वह भोजन कर रहा है, उसे अचानक खयाल आया, भोजन के बाद तो मैं विश्राम करता था रोज। लेकिन आज तो मैं भिखारी हूं। भोजन के बाद वापस जाना होगा। दोत्तीन मील का फासला फिर धूप में तय करना है।वह श्राविका पंखा करती थी, उसने कहा, भंते, अगर भोजन के बाद दो क्षण विश्राम कर लेंगे तो मुझ पर बहुत अनुग्रह होगा।भिक्षु फिर थोड़ा हैरान हुआ कि क्या मेरी बात किसी भांति पहुंच गई! फिर उसने सोचा, संयोग की ही बात होगी कि मैंने भी सोचा और उसने भी उसी वक्त पूछ लिया। चटाई डाल दी गई। वह विश्राम करने लेटा ही था कि उसे खयाल आया, आज न तो अपनी कोई शय्या है, न अपना कोई साया है; अपने पास कुछ भी नहीं।वह श्राविका जाती थी, लौट कर रुक गई, उसने कहा, भंते, शय्या भी किसी की नहीं है, साया भी किसी का नहीं है। चिंता न करें।अब संयोग मान लेना कठिन था। वह उठ कर बैठ गया। उसने कहा, मैं बहुत हैरान हूं! क्या मेरे भाव पढ़ लिए जाते हैं? वह श्राविका हंसने लगी। उसने कहा, बहुत दिन ध्यान का प्रयोग करने से चित्त शांत हो गया। दूसरे के भाव भी थोड़े-बहुत अनुभव में आ जाते हैं। वह एकदम उठ कर खड़ा हो गया। वह एकदम घबड़ा गया और कंपने लगा। उस श्राविका ने कहा, आप घबड़ाते क्यों हैं? कंपते क्यों हैं? क्या हो गया? विश्राम करिए। अभी तो लेटे ही थे।उसने कहा, मुझे जाने दें, आज्ञा दें। उसने आंखें नीचे झुका लीं और वह चोरों की तरह वहां से भागा।श्राविका ने कहा, क्या बात है? क्यों परेशान हैं?फिर उसने लौट कर भी नहीं देखा। उसने बुद्ध को जाकर कहा, उस द्वार पर अब कभी न जाऊंगा।बुद्ध ने कहा, क्या हो गया? भोजन ठीक नहीं था? सम्मान नहीं मिला? कोई भूल-चूक हुई?उसने कहा, भोजन भी मेरे लिए प्रीतिकर जो है, वही था। सम्मान भी बहुत मिला, प्रेम और आदर भी था। लेकिन वहां नहीं जाऊंगा। कृपा करें! वहां जाने की आज्ञा न दें।बुद्ध ने कहा, इतने घबड़ाए क्यों हो? इतने परेशान क्यों हो?उसने कहा, वह श्राविका दूसरे के विचार पढ़ लेती है। और जब मैं आज भोजन कर रहा था, उस सुंदर युवती को देख कर मेरे मन में तो विकार भी उठे थे। वे भी पढ़ लिए गए होंगे। मैं किस मुंह से वहां जाऊं? मैं तो आंखें नीची करके वहां से भागा हूं। वह मुझे भंते कह रही थी, मुझे भिक्षु कह रही थी, मुझे आदर दे रही थी। मेरे प्राण कंप गए। मेरे मन में क्या उठा? और उसने पढ़ लिया होगा। फिर भी मुझे भिक्षु और भंते कह कर आदर दे रही थी! उसने कहा, मुझे क्षमा करें। वहां मैं नहीं जाऊंगा।बुद्ध ने कहा, तुम्हें वहां जान कर भेजा है। यह तुम्हारी साधना का हिस्सा है। वहीं जाना पड़ेगा। रोज वहीं जाना पड़ेगा। जब तक मैं न कहूं या जब तक तुम आकर मुझसे न कहो कि अब मैं वहां जा सकता हूं, तब तक वहीं जाना पड़ेगा। जब तक तुम मुझसे आकर यह न कहो कि अब मैं रोज वहां जा सकता हूं, तब तक वहीं जाना पड़ेगा। वह तुम्हारी साधना का हिस्सा है।उसने कहा, लेकिन मैं कैसे जाऊंगा? किस मुंह को लेकर जाऊंगा? और कल अगर फिर वही विचार उठे तो मैं क्या करूंगा?बुद्ध ने कहा, तुम एक ही काम करना, एक छोटा सा काम करना, और कुछ मत करना, जो भी विचार उठे, उसे देखते हुए जाना। विकार उठे, उसे भी देखना। कोई भाव मन में आए, काम आए, क्रोध आए, कुछ भी आए, उसे देखना, और कुछ मत करना। तुम सचेत रहना भीतर। जैसे कोई अंधकारपूर्ण गृह में एक दीये को जला दे और उस घर की सब चीजें दिखाई पड़ने लगें, ऐसे ही तुम अपने भीतर अपने बोध को जगाए रखना कि तुम्हारे भीतर जो भी चले, वह दिखाई पड़े। वह स्पष्ट दिखाई पड़ता रहे। बस तुम ऐसे जाना।वह भिक्षु गया। उसे जाना पड़ा। भय था, पता नहीं क्या होगा? लेकिन वह अभय होकर लौटा। वह नाचता हुआ लौटा। कल डरा हुआ आया था, आज नाचता हुआ आया। कल आंखें नीचे झुकी थीं, आज आंखें आकाश को देखती थीं। आज उसके पैर जमीन पर नहीं पड़ते थे, जब वह लौटा। और बुद्ध के चरणों में गिर पड़ा और उसने कहा कि धन्य! क्या हुआ यह? जब मैं सजग था, तो मैंने पाया वहां तो सन्नाटा है। जब मैं उसकी सीढ़ियां चढ़ा, तो मुझे अपनी श्वास भी मालूम पड़ रही थी कि भीतर जा रही है, बाहर जा रही है। मुझे हृदय की धड़कन भी सुनाई पड़ने लगी थी। इतना सन्नाटा था मेरे भीतर। कोई विचार सरकता तो मुझे दिखता। लेकिन कोई सरक नहीं रहा था। मैं एकदम शांत उसकी सीढ़ियां चढ़ा। मेरे पैर उठे तो मुझे मालूम था कि मैंने बायां पैर उठाया और दायां रखा। और मैं भीतर गया और मैं भोजन करने बैठा। यह जीवन में पहली दफा हुआ कि मैं भोजन कर रहा था तो मुझे कौर भी दिखाई पड़ता था। मेरा हाथ का कंपन भी मालूम होता था। श्वास का कंपन भी मुझे स्पर्श और अनुभव हो रहा था। और तब मैं बड़ा हैरान हो गया, मेरे भीतर कुछ भी नहीं था, वहां एकदम सन्नाटा था। वहां कोई विचार नहीं था, कोई विकार नहीं था।बुद्ध ने कहा, जो भीतर सचेत है, जो भीतर जागा हुआ है, जो भीतर होश में है, विकार उसके द्वार पर आने वैसे ही बंद हो जाते हैं, जैसे किसी घर में प्रकाश हो तो उस घर में चोर नहीं आते। जिस घर में प्रकाश हो तो उससे चोर दूर से ही निकल जाते हैं। वैसे ही जिसके मन में बोध हो, जागरण हो, अमूर्च्छा हो, अवेयरनेस हो, उस चित्त के द्वार पर विकार आने बंद हो जाते हैं। वे शून्य हो जाते है! By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब 🌹 🙏🙏🌹 *संकलित**,, दिसंबर 29, 2020 और पढ़ें
http://vnita19.blogspot.com/2020/12/vnita-kasnia-punjab-29-24-24-7-108-by-ii.html,, दिसंबर 29, 2020 और पढ़ें
!!@!!** जय श्री बांके बिहारी ***!!@!!*********राधे-राधे**************कृष्ण शब्द हैं तो राधा अर्थ।कृष्ण गीत हैं तो राधा संगीत।।कृष्ण वंशी हैं तो राधा स्वर।कृष्ण समुद्र हैं तो राधा तरंग।।कृष्ण फूल हैं तो राधा उसकी "अक्सर" सुगंध।।जय श्री राधे कृष्णाराधे - राधे, दिसंबर 29, 2020 और पढ़ें
💓#श्री_राधा_राधा_राधा 💓 By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब,राधा राधा रटत ही, सब ब्याधा मिट जाय ।कोटि जन्म की आपदा, श्रीराधा नाम ते जाय ॥ वृन्दावन सो वन नहीं, नन्दगाँव सो गाँव ।बन्सीवट सो वट नहीं, कृष्ण नाम सो नाम ॥ राधे तू बडभागिनी, कौन तपस्या कीन।तीन लोक तारण तरण खुद तेरे आधीन॥ वृन्दावन बानिक बन्यो, जहाँ भ्रमर करत गुंजार ।दुल्हिन प्यारी राधिका, दूल्हा नन्दकुमार ॥ वृन्दावन के वृक्ष को, मरम न जाने कोय ।जहाँ डाल डाल और पात पे, श्री राधे राधे होय॥करुणा कर मम स्वामिनी, तुम पकड़ो मेरो हाथ ।कृपा करो मम स्वामिनी, जान अपनी दास ॥ राधे से रस ऊपजे, रस से रसना गाय ।कृष्णप्रियाजू लाड़ली, तुम मोपे रहियो सहाय॥गोविन्द भारी भीड़ में, मैं सुमिरून प्रभु तोय ।पक्ष करी प्रह्लाद की, यही करो सो मोय॥*श्री लाड़ली लाल सरकार की जय हो..**श्री राधा गोविंद लाडली लाल सरकार की जय हो..**जय श्री राधे राधे जी ...*, दिसंबर 29, 2020 और पढ़ें
आप को देख के दूर होती है मेरी उदासी ********** #कान्हा **********समस्या कितनी भी बड़ी क्यों ना होसमाधान तोह बस श्री राधे के नाम में ही है********* #श्रीराधे ***********Vnita kasnia..✍️ श्री राधे 🙏, दिसंबर 29, 2020 और पढ़ें
#आज का दिव्य सन्देश# सत्य से बढ़कर संसार में कोई धर्म नही है, और मिथ्या भाषण से बढ़कर कोई पाप नही। अंत: ऐसी दशा मे सत्य की सदा अर्चना करनी चाहिये। सत्य को कभी मत छोड़ो।और मिथ्या बात का भूल कर भी साथ न दो। By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब जय जय श्री राधेकृष्ण जी।, दिसंबर 29, 2020 और पढ़ें
*🌹🌹🌹राम राम जी🌹🌹🌹पानी पीने से पहलेप्यास का दुखभुगतना पड़ता है।पैसे की प्राप्ति से पहलेनिर्घनता का दुखभुगतना पड़ता है।नींद का मजा लेने से पहलेथकान का दुख-मुगतना पड़ता है।संसार के किसी भी सुख कीप्राप्ति से पहले दुख अवश्यभुगतना ही पड़ता है। by समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब🍃🍂🍃🍂🍃🍂🍃🍂🍃🍂🍃🍂🍂🍃🍂🍃🍂🍃🍂🍃🍂🍃🍂, दिसंबर 29, 2020 और पढ़ें
**श्रीगुरु दत्तात्रेय जन्म दिवस कथा एवं कामना सिद्धि हेतु विविध साधना विशेष〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️*मार्गशीर्ष मास की पूर्णिमा को दत्तात्रेय जन्मोत्सव मनाया जाता है। इस वर्ष आज 29 दिसम्बर मंगलवार के दिन श्री दत्त महाप्रभु का जन्मोत्सव सम्पूर्ण भारत वर्ष में साधको द्वारा भक्ति भाव से मनाया जाएगा। शास्त्रानुसार इस तिथि को प्रदोषकाल में भगवान दत्तात्रेय का जन्म हुआ था।भगवान दत्तात्रेय गुरु वंश के प्रथम गुरु , साधना करने वाले और योगी थे। त्रिदेवो की शक्ति इनमे समाहित थी। शैव मत वाले इन्हे शिवजी का अवतार तो वैष्णव मत वाले इन्हे विष्णु का अवतार बताते है।अलग अलग धर्म ग्रंथो में इनकी अलग अलग पहचान बताई गयी है इन्हे ब्रह्मा, विष्णु और महेश के सम्मिलित अवतार के रूप में बताया गया हैं। कही इन्हे ब्रह्माजी के मानस पुत्र ऋषि अत्रि और अनुसूइया का पुत्र बताया गया हैं इनके भाई चन्द्र देवता और ऋषि दुर्वासा है कही यह भी भी उल्लेख मिलता है की यह विष्णु के अंश अवतार थे इन्होने जीवन में गुरु की महत्ता को बताया है गुरु बिना न ज्ञान मिल सकता है ना ही भगवान हजारो सालो तक घोर तपस्या करके इन्होने परम ज्ञान की प्राप्ति की और वही ज्ञान अपने शिष्यों में बाँटकर इसी परम्परा को आगे बढाया।गुरु दत्तात्रेय ने हर छोटी बड़ी चीज से ज्ञान प्राप्त किया। इन्होने अपने जीवन में मुख्यत 24 गुरु बनाये जो कीट पतंग जानवर इंसान आदि थे।इनके 24 गुरु कौन-कौन हैं और व उनसे हम क्या सीख सकते हैं...〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️पृथ्वी👉 सहनशीलता और परोपकार की भावना पृथ्वी से सीख सकते हैं। पृथ्वी पर लोग कई प्रकार के आघात करते हैं, कई प्रकार के उत्पात होते हैं, कई प्रकार खनन कार्य होते हैं, लेकिन पृथ्वी हर आघात को परोपकार का भावना से सहन करती है।पिंगला वेश्या👉 पिंगला नाम की वेश्या से दत्तात्रेय ने सबक लिया कि केवल पैसों के लिए जीना नहीं चाहिए। पिंगला सिर्फ पैसा पाने के लिए किसी भी पुरुष की ओर इसी नजर से देखती थी कि वह धनी है और उससे धन प्राप्त होगा। धन की कामना में वह सो नहीं पाती थी। जब एक दिन पिंगला वेश्या के मन में वैराग्य जागा तब उसे समझ आया कि पैसों में नहीं बल्कि परमात्मा के ध्यान में ही असली सुख है, तब उसे सुख की नींद आई।कबूतर👉 कबूतर का जोड़ा जाल में फंसे बच्चों को देखकर खुद भी जाल में जा फंसता है। इनसे यह सबक लिया जा सकता है कि किसी से बहुत ज्यादा मोह दुख की वजह होता है।सूर्य👉 सूर्य से दत्तात्रेय ने सीखा कि जिस तरह एक ही होने पर भी सूर्य अलग-अलग माध्यमों से अलग-अलग दिखाई देता है। आत्मा भी एक ही है, लेकिन कई रूपों में दिखाई देती है।वायु👉 जिस प्रकार अच्छी या बुरी जगह पर जाने के बाद भी वायु का मूल रूप स्वच्छता ही है। उसी तरह अच्छे या बुरे लोगों के साथ रहने पर भी हमें अपनी अच्छाइयों को छोड़ना नहीं चाहिए।हिरण👉 हिरण उछल-कूद, मौज-मस्ती में इतना खो जाता है कि उसे अपने आसपास शेर या अन्य किसी हिसंक जानवर के होने का आभास ही नहीं होता है और वह मारा जाता है। इससे यह सीखा जा सकता है कि हमें कभी भी मौज-मस्ती में इतना लापरवाह नहीं होना चाहिए।समुद्र👉 जीवन के उतार-चढ़ाव में भी खुश और गतिशील रहना चाहिए।पतंगा👉 जिस तरह पतंगा आग की ओर आकर्षित होकर जल जाता है। उसी प्रकार रूप-रंग के आकर्षण और झूठे मोह में उलझना नहीं चाहिए।हाथी👉 हाथी हथिनी के संपर्क में आते ही उसके प्रति आसक्त हो जाता है। हाथी से सीखा जा सकता है कि संन्यासी और तपस्वी पुरुष को स्त्री से बहुत दूर रहना चाहिए।आकाश👉 दत्तात्रेय ने आकाश से सीखा कि हर देश, काल, परिस्थिति में लगाव से दूर रहना चाहिए।जल👉 दत्तात्रेय ने जल से सीखा कि हमें सदैव पवित्र रहना चाहिए।छत्ते से शहद निकालने वाला👉 मधुमक्खियां शहद इकट्ठा करती है और एक दिन छत्ते से शहद निकालने वाला सारा शहद ले जाता है। इस बात से ये सीखा जा सकता है कि आवश्यकता से अधिक चीजों को एकत्र करके नहीं रखना चाहिए।मछली👉 हमें स्वाद का लोभी नहीं होना चाहिए। मछली किसी कांटे में फंसे मांस के टुकड़े को खाने के लिए चली जाती है और अंत में प्राण गंवा देती है। हमें स्वाद को इतना अधिक महत्व नहीं देना चाहिए, ऐसा ही भोजन करें जो सेहत के लिए अच्छा हो।कुरर पक्षी👉 कुरर पक्षी से सीखना चाहिए कि चीजों को पास में रखने की सोच छोड़ देना चाहिए। कुरर पक्षी मांस के टुकड़े को चोंच में दबाए रहता है, लेकिन उसे खाता नहीं है। जब दूसरे बलवान पक्षी उस मांस के टुकड़े को देखते हैं तो वे कुरर से उसे छिन लेते हैं। मांस का टुकड़ा छोड़ने के बाद ही कुरर को शांति मिलती है।बालक👉 छोटे बच्चे से सीखा कि हमेशा चिंतामुक्त और प्रसन्न रहना चाहिए।आग👉 आग से दत्तात्रेय ने सीखा कि कैसे भी हालात हों, हमें उन हालातों में ढल जाना चाहिए। आग अलग-अलग लकड़ियों के बीच रहने के बाद भी एक जैसी ही नजर आती है। हमें भी हर हालात में एक जैसे ही रहना चाहिए।कुमारी कन्या👉 कुमारी कन्या से सीखना चाहिए कि अकेले रहकर भी काम करते रहना चाहिए और आगे बढ़ते रहना चाहिए। दत्तात्रेय ने एक कुमारी कन्या देखी जो धान कूट रही थी। धान कूटते समय उस कन्या की चूड़ियां आवाज कर रही थी। बाहर मेहमान बैठे थे, जिन्हें चूड़ियों की आवाज से परेशानी हो रही थी। तब उस कन्या ने चूड़ियों की आवाज बंद करने के लिए चूड़ियां ही तोड़ दीं। दोनों हाथों में बस एक-एक चूड़ी ही रहने दी। इसके बाद उस कन्या ने बिना शोर किए धान कूट लिया। हमें भी दूसरों को परेशान किए बिना और शांत रहकर काम करते रहना चाहिए।शरकृत या तीर बनाने वाला👉 अभ्यास और वैराग्य से मन को वश में करना चाहिए। दत्तात्रेय ने एक तीर बनाने वाला देखा जो तीर बनाने में इतना मग्न था कि उसके पास से राजा की सवारी निकल गई, लेकिन उसका ध्यान भंग नहीं हुआ।सांप👉 दत्तात्रेय ने सांप से सीखा कि किसी भी संन्यासी को अकेले ही जीवन व्यतीत करना चाहिए। साथ ही, कभी भी एक स्थान पर रुककर नहीं रहना चाहिए। जगह-जगह से ज्ञान एकत्र करना चाहिए और ज्ञान बांटते रहना चाहिए।मकड़ी👉 मकड़ी से दत्तात्रेय ने सीखा कि भगवान माया जाल रचते हैं और उसे मिटा देते हैं। जिस प्रकार मकड़ी स्वयं जाल बनाती है, उसमें विचरण करती है और अंत में पूरे जाल को खुद ही निगल लेती है, ठीक इसी प्रकार भगवान भी माया से सृष्टि की रचना करते हैं और अंत में उसे समेट लेते हैं।भृंगी कीड़ा👉 इस कीड़े से दत्तात्रेय ने सीखा कि अच्छी हो या बुरी, जहां जैसी सोच में मन लगाएंगे, मन वैसा ही हो जाता है।भौंरा या मधुमक्खी👉 भौरें से दत्तात्रेय ने सीखा कि जहां भी सार्थक बात सीखने को मिले उसे ग्रहण कर लेना चाहिए। जिस प्रकार भौरें और मधुमक्खी अलग-अलग फूलों से पराग ले लेती है।अजगर👉 अजगर से सीखा कि हमें जीवन में संतोषी बनना चाहिए। जो मिल जाए, उसे ही खुशी-खुशी स्वीकार कर लेना चाहिए।श्री गुरुदत्तात्रेय की कथा 〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️हिंदू धर्म में भगवान दत्तात्रेय को त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु और महेश का एकरूप माना गया है। धर्म ग्रंथों के अनुसार श्री दत्तात्रेय भगवान विष्णु के छठे अवतार हैं। वह आजन्म ब्रह्मचारी और अवधूत रहे इसलिए वह सर्वव्यापी कहलाए। यही कारण है कि तीनों ईश्वरीय शक्तियों से समाहित भगवान दत्तात्रेय की आराधना बहुत ही सफल, सुखदायी और शीघ्र फल देने वाली मानी गई है। मन, कर्म और वाणी से की गई उनकी उपासना भक्त को हर कठिनाई से मुक्ति दिलाती है। कहा जाता है कि भगवान भोले का साक्षात् रूप दत्तात्रेय में मिलता है। जब वैदिक कर्मों का, धर्म का तथा वर्ण व्यवस्था का लोप हुआ, तब भगवान दत्तात्रेय ने सबका पुनरुद्धार किया था। हैहयराज अर्जुन ने अपनी सेवाओं से उन्हें प्रसन्न करके चार वर प्राप्त किए थे। पहला बलवान, सत्यवादी, मनस्वी, आदोषदर्शी तथा सह भुजाओं वाला बनने का, दूसरा जरायुज तथा अंडज जीवों के साथ-साथ समस्त चराचर जगत का शासन करने के सामर्थ्य का, तीसरा देवता, ऋषियों, ब्राह्मणों आदि का यजन करने तथा शत्रुओं का संहार कर पाने का और चौथा इहलोक, स्वर्गलोक और परलोक विख्यात अनुपम पुरुष के हाथों मारे जाने का। एक बार माता लक्ष्मी, पार्वती व सरस्वती को अपने पतिव्रत्य पर अत्यंत गर्व हो गया। भगवान ने इनका अहंकार नष्ट करने के लिए लीला रची। उसके अनुसार एक दिन नारदजी घूमते-घूमते देवलोक पहुंचे और तीनों देवियों को बारी-बारी जाकर कहा कि ऋषि अत्रि की पत्नी अनुसूइया के सामने आपका सतीत्व कुछ भी नहीं। तीनों देवियों ने यह बात अपने स्वामियों को बताई और उनसे कहा कि वे अनुसूइया के पतिव्रत्य की परीक्षा लें। तब भगवान शंकर, विष्णु व ब्रह्मा साधु वेश बनाकर अत्रि मुनि के आश्रम आए। महर्षि अत्रि उस समय आश्रम में नहीं थे। तीनों ने देवी अनुसूइया से भिक्षा मांगी और यह भी कहा कि आपको निर्वस्त्र होकर हमें भिक्षा देनी होगी। अनुसूइया पहले तो यह सुनकर चौंक गईं, लेकिन फिर साधुओं का अपमान न हो इस डर से उन्होंने अपने पति का स्मरण किया और कहा कि यदि मेरा पतिव्रत्य धर्म सत्य है तो ये तीनों साधु छ:-छ: मास के शिशु हो जाएं। ऐसा बोलते ही त्रिदेव शिशु होकर रोने लगे। तब अनुसूइया ने माता बनकर उन्हें गोद में लेकर स्तनपान कराया और पालने में झूलाने लगीं। जब तीनों देव अपने स्थान पर नहीं लौटे तो देवियां व्याकुल हो गईं। तब नारद ने वहां आकर सारी बात बताई। तीनों देवियां अनुसूइया के पास आईं और क्षमा मांगी। तब देवी अनुसूइया ने त्रिदेव को अपने पूर्व रूप में कर दिया। प्रसन्न होकर त्रिदेव ने उन्हें वरदान दिया कि हम तीनों अपने अंश से तुम्हारे गर्भ से पुत्र रूप में जन्म लेंगे। तब ब्रह्मा के अंश से चंद्रमा, शंकर के अंश से दुर्वासा और विष्णु के अंश से दत्तात्रेय का जन्म हुआ। कार्तवीर्य अर्जुन (कृतवीर्य का ज्येष्ठ पुत्र) के द्वारा श्रीदत्तात्रेय ने लाखों वर्षों तक लोक कल्याण करवाया था। कृतवीर्य हैहयराज की मृत्यु के उपरांत उनके पुत्र अर्जुन का राज्याभिषेक होने पर गर्ग मुनि ने उनसे कहा था कि तुम्हें श्रीदत्तात्रेय का आश्रय लेना चाहिए, क्योंकि उनके रूप में विष्णु ने अवतार लिया है। ऐसी मान्यता है कि भगवान दत्तात्रेय गंगा स्नान के लिए आते हैं इसलिए गंगा मैया के तट पर दत्त पादुका की पूजा की जाती है। भगवान दत्तात्रेय की पूजा महाराष्ट्र में धूमधाम से की जाती है। उनको गुरु के रूप में पूजा जाता है। गुजरात के नर्मदा में भगवान दत्तात्रेय का मंदिर है जहां लगातार 7 हफ्ते तक गुड़, मूंगफली का प्रसाद अर्पित करने से बेरोजगार लोगों को रोजगार प्राप्त होता है।दत्तात्रेय शाबर मंत्रः 〰️〰️〰️〰️〰️〰️मनोकामना सिद्धी के लिए शबर मंत्रों के उपायोग का खास महत्व है। दत्तात्रेय शाबर मंत्र इन्हीं में से एक है, जो ब्रह्मा, विष्णु समेत दत्तात्रेय का समर्पित है। इसे प्रतिदिन 108 बार जाप करने से मनोवांछित सिद्धि मिलती है तथा आत्मविश्वास में प्रबलता आती है। कार्य करने की क्षमता बढ़ती है इसे अति गोपनीय मंत्र माना गया है, लेकिन इसका कोई भी जाप कर सकता है। वह मंत्र हैः-ऊँ नमो परमब्रह्म परमात्मने नमः उत्पत्तिस्थिति प्रलयंकराये,ब्रह्म हरिहराये त्रिगुणात्मने सर्व कौतुकानी दर्शया दर्शय दत्तात्रेय नमः!मनोकामना सिद्धि कुरु कुरु स्वाहा!!दत्तात्रेय सुरक्षा कवचः 〰️〰️〰️〰️〰️〰️किसी भी तरह का भय, दुर्घटना की आशंका या असुरक्षा की अज्ञात भावना को दत्तात्रेय कवच के जरिए दूर किया जा सकता है। यह एक तरह की तांत्रिक साधना है, जिसके विधिवत अनुष्ठान करने से एक अद्भुत शक्ति प्राप्त होती है। जाप किया जाने वाला मंत्र हैः-ऊँ द्रां द्रां वज्र कवचाये हुं।। *By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब**श्री गुरु दत्तात्रेय महाराज की जयII*जय जय श्री राधेकृष्णा*🙏🌸🌸〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️*, दिसंबर 29, 2020 और पढ़ें
*एक बार किसी ने कबीर जी से पूछा**"किसको भज रहे हो जी?"**कबीर जी ने कहा" राम जी को"**फिर उसने पूछा "कौन से राम जी को?"**उसने कहा "मैंने सुना है राम तो कई हैं।**एक राम अवधेश कुमारा,**एक राम दसरथ कर बेटा,**एक राम घट घट में लेटा,**एक राम है जगत पसारा**और एक राम है सभी से न्यारा।"**तो कबीर साहिब को हंसी आ गई और कबीर साहिब थोड़ा टेढ़ा बोल देते थे, दिल पर चुभ जाये ऐसी बात।**तो उन्होंने कहा:--**"तुम्हारी दृष्टि में राम चार है तो मेरी दृष्टि में तुम्हारे बाप भी चार है।"**व्यक्ति को गुस्सा आया और बोला की महाराज ऐसे कैसे बोल रहे हो।**तो कबीर जी बोले की भाई क्रोद्ध मत करो । मैं तुम्हे चारों गिना देता हूँ :--**एक बाप तेरे चाचा को भाई,**एक बाप तेरे दादा को जायो**एक बाप तेरे नाना को जवाई**एक बाप तेरे फूफा को सालो।**तो उस आदमी ने कहा:--* *"महाराज ये तो चारो एक ही है"।**तब कबीर साहिब बोले जैसे ये चारों एक है, वैसे ही मेरो राम भी एक ही है:--**सोई राम अवधेश का राजा**सोई राम दसरथ कर बेटा**सोई राम घट घट में लेटा**सोई राम है जगत पसारा**सोई राम है सभी से न्यारा।**अतः राम तो एक ही है।* By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब *बोलो... राम राम राम राम**श्री राम जय राम जय जय राम**श्री राम जय राम जय जय राम* दिसंबर 29, 2020 और पढ़ें
ਬਾਬਾ ਮੋਤੀ ਰਾਮ ਮਹਿਰਾ ਜੀ ਨੇ ਸਿਪਾਹੀਆਂ ਨੂੰ ਆਪਣੀ ਘਰਵਾਲੀ ਦੇ ਗਹਿਣੇ ਤੱਕ ਦੇ ਕੇ ਮਾਤਾ ਗੁਜਰੀ ਜੀ ਤੇ ਛੋਟੇ ਸਾਹਿਬਜ਼ਾਦਿਆਂ ਲਈ ਦੁੱਧ ਦੀ ਸੇਵਾ ਕੀਤੀ ਸੀ। ਬਾਅਦ ਵਿੱਚ ਪਤਾ ਲੱਗਣ 'ਤੇ ਦੁਸ਼ਟਾਂ ਨੇ ਬਾਬਾ ਮੋਤੀ ਰਾਮ ਜੀ ਦਾ ਪੂਰਾ ਪਰਿਵਾਰ ਕੋਹਲੂ ਵਿੱਚ ਗੰਨਿਆਂ ਵਾਂਗ ਪੀੜ ਦਿੱਤਾ ਸੀ। ਸਾਹਿਬਜ਼ਾਦਿਆਂ ਦੀ ਸ਼ਹੀਦੀ ਦੇ ਦਰਦ ਨਾਲ ਬਾਬਾ ਮੋਤੀ ਰਾਮ ਮਹਿਰਾ ਦੇ ਮਾਸੂਮ ਬੱਚਿਆਂ ਦੀ ਕੁਰਬਾਨੀ ਦਾ ਦਰਦ ਵੀ ਸਾਨੂੰ ਮਹਿਸੂਸ ਕਰਨਾ ਚਾਹੀਦਾ ਹੈ। ਬਾਬਾ ਮੋਤੀ ਰਾਮ ਮਹਿਰਾ ਜੀ ਅਤੇ ਉਹਨਾਂ ਦੇ ਪਰਿਵਾਰ ਦੀ ਬੇਮਿਸਾਲ ਕੁਰਬਾਨੀ ਨੂੰ ਕੋਟਿ ਕੋਟਿ ਪ੍ਰਣਾਮ।ਧੰਨ ਮੋਤੀ ਜਿੰਨ ਪੁੰਨ ਕਮਾਇਆ ਗੁਰੂ ਲਾਲਾ ਤਾਈਂ ਦੁੱਧ ਪਲਾਇਆ By Vnita Kasnia Punjab🙏🙏☬ दिसंबर 28, 2020 और पढ़ें
.......ਸਲਾਮ ਦੇਸ਼ ਤੋਂ ਕੁਰਬਾਨ ਹੋਇਆਂ ਨੂੰ.......ਅਕਸਰ ! ਕਹਿੰਦੇ ਨੇ ਲੋਕਘੜਾ ਬਣਾਉਣ ਦੀ ਕੀਮਤ ਜਾਣਦੈਸਿਰਫ਼ ! ਘੜ੍ਹਾ ਬਣਾਉਣ ਵਾਲਾਪਰ ਜਾਣਦੈ ! ਉਹ ਵੀ ਕੀਮਤ !ਘੜਾ ਤੋੜ ! ਕੀਮਤ ਚੁਕਾਉਣ ਵਾਲਾਪਿਤਾ,ਪੁੱਤ, ਭਰਾ ਨੂੰ ਕਰ ਚਿਖ਼ਾ ਦੀ ਅੱਗ ਦੇ ਹਵਾਲੇਕਿੰਨੀ ਕੀਮਤ ਚੁਕਾਉਂਦੈ ! ਕਿੰਨੇ ਹੰਝੂ ਵਗਾਉਂਦੈਪਤਨੀ ਦੀ ਉਡੀਕ ! ਮਾਂ ਦੀ ਮਮਤਾ! ਭੈਣ ਦੀ ਰੱਖ਼਼ੜੀ ! ਜਾਵੇ ਅਧਰੰਗੀਹੈਵਾਨੀਅਤ ਹੋ ਜਾਵੇ ਨੰਗੀਸਮੇਂ ਦੀ ਸਰਕਾਰ ਨੂੰ ! ਹੈ ਪੁਕਾਰਗੱਲਾਂ ਨਾਲ ਨੀਂ ਸਰਨਾਠੋਸ ਕਰੋ ਗੱਲ ! ਨਫ਼ਰਤ ਦੀ ਹਨ੍ਹੇਰੀ ਜਾਵੇ ਠੱਲਕਿਉਂ ਮਰੇ ਬੇਕਸੂਰ ਅੱਜ ਇਧਰ ਕੋਈਉਧਰ ਮਰੇ ਕੋਈ ਕੱਲ ! ਇਹ ਅਜੀਬ ਜਿਹੀ ਗੱਲ ਕੱਢੀਏ ਕੋਈ ਹੱਲ ! ਨਫ਼ਰਤ ਦੀ ਹਨੇਰੀ ਜਾਵੇ ਠੱਲ... By Vnita kasnia punjab 1.5.17....10:38p..m. दिसंबर 28, 2020 और पढ़ें
धर्म की खातिर खुशी-खुशी शहादत और जंग में दुश्मनों को धूल चटाने वाले गुरु गोबिंद सिंह जी के चार साहिबजादों के बारे में शायद ही कोई ऐसा होगा जो नहीं जानता होगा.जहां गुरु जी के दो बड़े साहिबजादे जंग में लड़ते हुए शहीद हो गए, वहीं दो छोटे साहिबजादों को जिंदा दीवार में चिनवा दिया गया.भले ही आज किताबों में इनके बारे में ज्यादा जिक्र न हो लेकिन यह नन्हीं जानें अपने पीछे आज एक मिसाल कायम करने वाले पदचिह्न छोड़ गए हैं. By समाजसेवी वनिता कासनियां पंजाब, दिसंबर 28, 2020 और पढ़ें
..... ਸਭ ਤੋਂ ਮਹਿੰਗੀ ਜ਼ਮੀਨ....ਇਤਿਹਾਸ ਦੀਆਂ ਯਾਦਾਂ ਚਸਦਾ ਜਿਉਂਦਾ ਰਹੇਗਾ ਭਾਈ ਟੋਡਰ ਮੱਲ....ਲੋਕਾਂ ਦੇ ਮਨਾਂ ਦੀ ਸ਼ਰਧਾ ਦੇ ਵਰਕੇ ਤੇਸੁਨਹਿਰੀ ਅੱਖਰਾਂ ਚ ਲਿਖੀ ਐ ਇਬਾਰਤਜਦ ਕੋਈ ਨਿਕਲਿਆ ਨਾ ਹੱਲ...ਬੱਚਿਆਂ ਦੇ ਸਸਕਾਰ ਲਈਖੜ੍ਹੀਆਂ ਮੋਹਰਾਂ ਦੇ ਕੇ ਖ੍ਰੀਦੀਸਭ ਮਹਿੰਗੀ ਜ਼ਮੀਨ ਦੀ ਗੱਲ.....ਟੋਡਰ ਮੱਲ ਜੀ ਨੂੰਸ਼ਰਨ ਦਾ ਸਜ਼ਦਾ ਹਰ ਪਲ...ਪਲ ਪਲ .... By Vnita Kasnia punjab, दिसंबर 28, 2020 और पढ़ें